पहाड़ी लोक गीतों को अपनी सुरीली धुनों से संवारने वाले मोहन उप्रेती के अनेक गीत और नाट्य प्रस्तुतियां आज भी जन मानस के मध्य जीवन्त बनी हुई हैं. यह मोहन उप्रेती की अलौकिक धुन का ही कमाल था कि ’बेडू़ पाको बारा मासा’ जैसा सामान्य लोकगीत लोकप्रिय बनकर अन्तर्राष्ट्रीय शिखर तक जा पहुंचा. सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा को अपनी कर्म भूमि बनाकर मोहन उप्रेती ने पहाड़ी लोक संगीत और रंगकर्म पर जो महत्वपूर्ण कार्य किया वह सांस्कृतिक इतिहास के पन्नों में हमेशा याद रहेगा.
(Smrityeon Mein Mohan Upreti Book)
बाल्यकाल से ही मोहन उप्रेती के अन्दर सामाजिक चेतना के बीज प्रस्फुटित हो गये थे. ’वीर बालक’ से ’यूनाइटेड आर्टिस्ट’, ’लोक कलाकार संघ’ तथा बाद में दिल्ली के पर्वतीय कला केन्द्र से जुड़ जाने पर इनकी सांस्कृतिक रचनात्मकता दिनों-दिन प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचती रही. मोहन उप्रेती की इसी सांस्कृतिक प्रतिभा ने उन्हें ’राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय’ व ’नाटक एवं गीत प्रभाग’ में महत्वपूर्ण दायित्व दिया और यहीं से उनकी कला प्रतिभा राष्ट्रीय स्तर पर एक प्रसिद्ध लोक रंगकर्मी के रूप में उभर कर सामने आयी.
मोहन उप्रेती के व्यक्तित्व व कृतित्व से जुड़ी कई ऐसी ही यादों को डॉ. दीपा जोशी ने ’स्मृतियों में मोहन उप्रेती’ नामक पुस्तक के माध्यम से सामने लाने का एक सार्थक प्रयास किया है. सही मायनों में यह पुस्तक स्व. मोहन उप्रेती द्वारा लोक संस्कृति के क्षेत्र में किये गये कार्यों का महत्वपूर्ण दस्तावेज है. लेखिका ने विविध प्रकाशित साक्ष्यों कला, रंगकर्म व साहित्य से जुड़े नामचीन लब्ध प्रतिष्ठित व्यक्तियों से प्राप्त साक्षात्कार को इस पुस्तक का आधार बनाया है.
सांस्कृतिक अध्येता के तौर पर लेखिका डॉ. दीपा जोशी ने मोहन उप्रेती और लोक संस्कृति से जुड़े उनके विविध पक्षों को गहनता के साथ इस पुस्तक में प्रस्तुत किया है. इसी विशेषता के वजह से इस पुस्तक को लोक संस्कृति पर कार्य करने वाले अध्येताओं, शोधार्थियों, रचनाकारों के साथ-साथ रंगकर्मियों के लिए भी उपयोगी कहा जा सकता है.
डॉ. दीपा जोशी ने अपनी इस पुस्तक को प्रमुखतः चार अध्यायों के अर्न्तगत रखा है. पुस्तक के पहले अध्याय में मोहन उप्रेती के जन्म से लेकर उनके अवसान तक के समस्त जीवनवृत पर सामग्री देखने को मिलती है. उप्रेती जी के बालमन में गीत-संगीत की कोपलें किस तरह पल्लवित हुई इस बारे में लेखिका ने विस्तार से वर्णन किया हुआ है. मोहन उप्रेती को गीत संगीत का माहौल परिवार के सदस्यों से किस तरह मिला था इसका भी जिक्र इस अध्याय में आया है.
लेखिका का कथन है कि परिवार के इसी समृद्ध सांस्कृतिक परिवेश ने ही मोहन उप्रेती के अन्दर छिपे कलाकार को जगाने कार्य किया. ध्रुपद गायन के प्रसिद्ध कलाकार पण्डित चंद्रशेखर पंत के मार्गदर्शन में शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ग्रहण करने के बाद मोहन उप्रेती निरंता अपनी कला यात्रा को आगे बढ़ाने का प्रयास करते रहे.
इसी अध्याय में डॉ. दीपा जोशी ने मोहन उप्रेती जी और उनकी टीम द्वारा प्रदर्शित अनेक लोकगीतों, लोकगाथाओं, गीत-नाटिकाओं व अन्य नाट्य प्रस्तुतियों के सन्दर्भ में अनेक रोचक प्रसंगों का भी विवरण दिया है. मोहन उप्रेती की परिकल्पना व निर्देशन में प्रस्तुत बेड़ू पाको बारो मासा व घस्यारी गीत,राजुला मालूशाही,रसिक रमौल,अजुवा बफौल जैसे लोकगाथा पर आधारित गीत-नाटक और मेघदूत, चौराहे की आत्मा,शिल्पी की बेटी या भारत भाग्य विधाता जैसे नाटक उस दौर में खूब चर्चित रहे.
’स्मृतियों में मोहन उप्रेती’ पुस्तक के दूसरे अध्याय में लेखिका ने उत्तराखण्ड के लोकगीतों और लोकगाथाओं के संरक्षण, संवर्द्धन व प्रचार प्रसार में उनके द्वारा दिये गये योगदान को रेखांकित किया है. साठ के दशक के प्रारम्भ में मोहन उप्रेती द्वारा संकलित कुमाउनी गीतों का परिचय ”उत्तर प्रदेश के लोकगीत” पुस्तक में पहली बार प्रकाशित होना इस दृष्टि से महत्वपूर्ण माना गया है.
(Smrityeon Mein Mohan Upreti Book)
1955 के दरम्यान अल्मोड़ा शहर में उप्रेती जी द्वारा स्थापित लोक कलाकार संघ नाम की सांस्कृतिक संस्था की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी. उन्होंने उस दौर पहाड़ में गुमनामी के तौर पर रह रहे अनेक लोक संवाहकों को आम जनता के मध्य उजागर करने का सराहनीय कार्य किया था. लोक कलाकार संघ तब इकलौती ऐसी संस्था मानी थी जो राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रमों में उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व किया करती थी.
पहाड़ की लोकगाथाओं को नाट्य प्रस्तुतियों के माध्यम से प्रभावी रुप देने में मोहन उप्रेती जी को महारथ हासिल थी. उनके द्वारा उत्तराखण्ड की तकरीबन एक दर्जन से अधिक लोकगाथाओं की सफल प्रस्तुति पर्वतीय कला केन्द्र की ओर से की गयी. जिसमें विश्वमोहन बडोला, विनोद नागपाल जैसे प्रशिक्षित कलाकर सहित अनेक शौकिया कलाकार जुड़े थे.नाटकों व गीतों में पर्वतीय परिवेश से जुड़े परम्परागत कथानकों, गीतों की धुन तथा सितार, सारंगी, इकतारा,बिणाई,झांझ,घण्टी जैसे वाद्य यंत्रों का प्रयोग कर उन्होंने इन्हें जीवन्त बनाने का प्रयास किया.
पुस्तक के तीसरे अध्याय में मोहन उप्रेती से जुड़े संस्मरणों को शामिल किया गया है. लेखिका ने अलग-अलग विधाओं के पचास के करीब नामचीन लोगों से बातचीत करने बाद उनके प्रमुख अंशों को संस्मरण के तौर पाठकों के समक्ष रखा है. ज्यादातर संस्मरण रंगमंच व नाट्य विधा से जुड़े व्यक्तियों के हैं. इसमें कुशल नाट्य निर्देशक बी.वी.कारन्त, रामगोपाल बजाज, उर्मिल थपलियाल, रंगकर्म व सिनेमा से जुड़े कलाकार /अभिनेता एम.के रैना, कीर्ति जैन,विनोद नागपाल, आलोक नाथ, रोहिणी हट्टंगणे,इरफान खान,सुरेखा सीकरी व विश्वमोहन बडोला सहित साहित्य लेखन से जुडे़ अशोक बाजपेई, विद्यासागर नौटियाल,गोविन्द चातक,उमाशंकर सतीश व नारायण दत्त पालीवाल जैसे रचनाकार व गिरदा, जीतसिंह नेगी, जुगल किशोर पेटशाली व ब्रजेन्द्र लाल शाह जैसे लोकरंगकर्मी और सुपरिचित कथक नृत्यांगना पूर्णिमा पाण्डे व कथक गुरु बिरजू महराज सहित अनेक प्रबुद्ध व्यक्तित्वों के संस्मरण उल्लेखनीय हैं.
अन्तिम चौथे अध्याय के अर्न्तगत परिशिष्ट में लेखिका ने मोहन उप्रेती के लोक से सम्बद्ध गीत, संगीत, रंगमच और कला पर उनके चिन्तन और प्रगतिशील विचारों को प्रस्तुत करने की कोशिस की है. पहाड़ की लोक संस्कृति पर लिखे गये उनके लेख स्थानीय समाजिक सांस्कृतिक व ऐतिहासिक परिदृश्य को बखूबी से चित्रित करते हैं. इस दृष्टि से कुमाउनी होली एक विवेचन, मालूशाही, कुमाउनी लोकगीत,रीठागाड़ी की याद में तथा कुमाऊं व गढ़वाल के लोकनृत्य जैसे आलेख महत्वपूर्ण कहे जा सकते हैं. इसके अलावा संस्कृति: आंचलिकता बनाम अर्न्तराष्ट्रीयता, लोककला: सिंहावलोकन और सम्भावनाएं , नौटंकी नाटकों में संगीत व लोक संस्कृति की ओर जैसे आलेख लोक संस्कृति के विविध आयामों पर व्यापक प्रकाश डालते हैं. लेखिका ने विविध पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों में प्रकाशित उनके लेखों का विश्लेषण कर अपनी सम्यक व समीक्षात्मक टिप्पणी दी है. इन टिप्पणियों से मोहन उप्रेती की लोक संस्कृति के प्रति क्या चिन्ताएं थीं उस बात की झलक आसानी से मिल जाती है.
(Smrityeon Mein Mohan Upreti Book)
मोहन उप्रेती द्वारा प्रचलित व संगीत बद्ध गीतों व लोकगाथा पर आधारित गीतों के संगीत के मुख्य अंश और उनकी स्वर लिपियों का समावेश करने से इस पुस्तक की उपयोगिता बढ़ गई है. लेखिका की ओर से जिन गीतों के अंश व स्वरलिपियां शामिल की गई हैं. उनमें से प्रमुख रुप से हैं, बेड़ू पाकों बारा मासा, पारे भीड़ा कोछै घस्यारी,स्याली मेरी,घा काटूणा जानूं दीदी,को धूरा फूललो मासी को फूला. इसके अलावा राजुला मालूशाही,अजुवा बफौल,गोरीधना व रामी लोकगाथओं के गीतों के खास अंश व स्वरलिपियों को लेखिका ने प्रतीकात्मक तौर पर जिज्ञासु पाठकों के लिए इस पुस्तक में दिया हुआ है.
पुस्तक के अंत में परिशिष्ट के रुप में मोहन उप्रेती के सम्पूर्ण कलाकर्म को सूची के अर्न्तगत स्थान दिया गया है. इसमें उनकी सत्तर से अधिक संगीतबद्ध नाट्य प्रस्तुतियों,सत्रह के करीब निर्देशित नाट्य प्रस्तुतियां, एक दर्जन से अधिक निर्माण किये गये नाटक, दूरदर्शन के लिए बनाये गये दस के लगभग नाटक/धारावाहिकों के नाम दर्ज हैं उन्होंने दूरदर्शन के लिए बारह से अधिक नाटकों के लिए पटकथा लिखी थी, इनकी सूची भी परिशिष्ट में शामिल है. सबसे अन्त में एक सौ पच्चीस पुस्तकों, लेखों, दस्तावेजों और अन्य स्रोतों की सूची दी गयी है. इनके आधार पर लेखिका ने पुस्तक के लिए प्रमाणिक व तथ्यपरक सामग्री जुटाने का सार्थक प्रयास किया है. लेखिका द्वारा अध्ययन के दौरान महत्वपूर्ण व्यक्तियों से साक्षात्कार के समय लिए गये चित्रों तथा मोहन उप्रेती की कला यात्रा के यादगार श्वेत-श्याम चित्रों से भी पुस्तक की सार्थकता बढ़ गयी है.
कुल मिलाकर लेखिका डॉ. दीपा जोशी ने ’स्मृतियों में मोहन उप्रेती’ नामक पुस्तक के माध्यम से उप्रेती जी की लोक यात्रा से जुड़े विविध पक्षों और उनके व्यक्तित्व पर उन्हें याद करने और उन्हें जीवंत रखने की बेहतरीन कोशिस की है. प्रमाणिक व तथ्यपरक सामग्री के आधार पर जुटाई गयी सामग्री से पुस्तक की उपयोगिता समझा जा सकता है. सुपरिचित पुरातत्वविद् व चित्रकार डॉ. यशोधर मठपाल द्वारा बनाये गये मोहन उप्रेती के चित्र से पुस्तक का आवरण निखर उठा है.
दो राय नहीं कि यह पुस्तक रंगकर्मी व कला मनीषी मोहन उप्रेती के जीवन वृत और उनकी रंगयात्रा को दर्शाती है. महत्वपूर्ण दस्तावेज के रुप में यह पुस्तक कहीं न कहीं आम पाठकों, रंगकर्मियों तथा लोककला के अध्येताओं के लिए मददगार साबित होगी ऐसी आशा है. शास्त्रीय और लोक विधाओं के विविध पक्षों की जानकार व लेखन से सम्बद्ध डॉ. दीपा जोशी का यह प्रयास निश्चित ही सराहनीय है. लेखिका को साधुवाद.
(Smrityeon Mein Mohan Upreti Book)
पुस्तक: स्मृतियों में मोहन उप्रेती
लेखिका: डॉ. दीपा जोशी
प्रकाशक: मोहन उप्रेती लोक संस्कृति कला एवं विज्ञान शोध समिति,अल्मोड़ा
प्रकाशन वर्ष: 2016
मूल्य: रु. 350.00
पुस्तक का स्वायत्ताधिकार : संस्कृति विभाग ,उत्तराखण्ड
चंद्रशेखर तिवारी. पहाड़ की लोककला संस्कृति और समाज के अध्येता और लेखक चंद्रशेखर तिवारी दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र, 21,परेड ग्राउण्ड ,देहरादून में रिसर्च एसोसियेट के पद पर कार्यरत हैं.
उत्तराखण्ड के पारम्परिक परिधान व आभूषण
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
Support Kafal Tree
.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…