सुबह जागे तो बाहर का नजारा शांत था. सर्पाकार कुट्टी यांग्ती नदी के सामने सूरज की किरणों से सुनहरी आभा लिए धवल हिम शिखर लुभा रहे थे. ये अन्नपूर्णा व आपी-नाम्फा के शिखर थे. टैंट पैक करने के साथ-साथ मैगी को स्टोव खदबदाया तो नाश्ता भी हो गया. इस बार न जाने कैसे स्टोव मैगी बनाने के लिए राजी हो गया था. रात में तो उसने ठंड का बहाना बना हाथ खड़े कर दिए थे. (Sin La Pass Trek 13)
बड़े रुकसेक की वजह से संजय को चलने में परेशानी हो रही थी. सिनला पास को पार करने में अभी तीन दिन बाकी थे. मुझे डर था कि रुकसेक की वजह से संजय कहीं पहले ही बीमार न पड़ जाए. या अन्य कोई मुसीबत उठ खड़ी हुई तो पूरी टीम को वापस लौटना पड़ेगा. इसलिए मैंने उसके साथ अपने हल्के रुकसैक की अदला-बदली करने की योजना बनाई.
सामान समेटकर हमने आगे की राह पकड़ी. दो-एक घंटे चलने के बाद नम्फा नाला नामक जगह पहुंचे. यहां रास्ते के दाईं ओर एक ढाबा दिखाई दिया तो वहीं का रूख कर लिया. यहां अच्छी-खासी भीड़ थी. ज्यादातर यात्री छोटा कैलास की यात्रा से वापस लौट रहे थे. युवा होटल मालिक परिवार सहित यात्रियों की आवभगत में जुटा था. भोजन के लिए मालूमात करने पर उसने एक ओर इशारा किया. पता चला कि यहां सैल्फ सर्विस है. बर्तन लो और एक जगह पर रखे हुए भोजन में से जितना चाहिए निकाल लो.
रोटी, सब्जी, दाल, चावल के साथ सलाद-चटनी भी थी. छक के जीमने के बाद बिल पूछा तो पांच डाइट का मात्र डेढ़ सौ रुपया. यकीन नहीं हुआ तो हमने फिर पूछा. उन्होंने बताया कि तीस रुपया डाइट है. इस दुर्गम इलाके में इतने कम रुपयों में इतना बढ़िया खाना! उन्हें धन्यवाद देकर हमने अपने रकसेक उठाए और कुट्टी गांव की ओर बढ़ना शुरू किया. (Sin La Pass Trek 13)
रास्ते में एक अणवाल अपने हजारों भेड़ों के कारवां के साथ मस्ती में भेड़-बकरियों से बतियाता हुवा सा गुंजी की ओर आता हुआ दिखाई दिया. किनारे खड़े हो उस कारंवा को जाते हुए हम देखते रहे. कुट्टी गांव का रास्ता हल्का उतार-चढ़ाव लिए हुए था. संजय के रुकसेक ने मुझे परेशान कर डाला. उसके बेढब रुकसेक से मेरी चाल धीमी हो गई थी.
रास्ते में एक हरे-भरे मैदान में वो मेरे लिए रूके थे. रूकसेक किनारे रख मैं भी हरी घास में पसर सामने खेतों में लहलहाती फसलों के खूबसूरत नजारों में डूबा ही था कि, पंकज ने मजाक किया, “अब तुम बूढ़े शेर हो गए हो.. अब हिमालय तुम्हारे बस का नहीं…”
यह बात मजाक में कही गई थी, लेकिन एक तो रुकसेक और दूसरा उंचाई की वजह से मैं चिड़चिड़ा गया था. हांलाकि पंकज के मजाक का मैंने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन गुस्सा दिमाग में भर गया. कुट्टी गांव नज़र आने लगा था.
कुट्टी गांव के उप्पर की पहाड़िया गुलाबी रंग लिए हुए खूबसूरत लग रही थी. खेतों के बीच गुजरते हुए रास्ते में गांव की सरहद के पास एक शानदार गेट बना हुआ था. रेलवे का एक ट्रैकिंग ग्रुप भी छोटा कैलास की यात्रा से वापस आ रहा था. हमारे साथ मेहश दा के झक् सफेद बाल और दाढ़ी को देखकर वो सभी हैरान थे, इतनी उम्रदराज बुजुर्ग भी इस कठिन यात्रा पर हैं. सभी ने उनके साथ फोटो खिंचवाए ताकि अपने बैठक में टांगें. हम यह सब खामोशी से देख रहे थे. उनमें कई महेश दा से काफी ज्यादा उम्र के थे लेकिन यहां फिलहाल महेश दा ही सबसे उम्रदार नौजवान लग रहे थे. रेलवे वालों से विदा लेकर हम खेतों के बीच बने रास्ते से कुट्टी गांव में दाखिल होते हैं. (Sin La Pass Trek 13)
गांव के अंतिम छोर में एक ढाबे का बोर्ड – ‘देख भाई देख’ दिखाई दिया तो मुस्कुराते हुए वहीं की ओर चल पड़े. ढाबे का मालिक नौजवान गज्जू था. उसकी दो साल की प्यारी सी बिटिया कैसिट वाले टेप में बज रहे गानों से ताल मिलाकर मजे से नाच रही थी. गज्जू के आंगन में बैठकर जानकारी ली तो उसने प्रेम से बताया कि बगल में उसका घर है, एतराज न हो तो वहीं रह सकते हैं. अभी कुछ यात्रियों को खाना खिलाना है उसके बाद हम सभी के लिए घर में ही खाना बनेगा. इससे बढ़िया स्वागत और क्या हो सकता था. (Sin La Pass Trek 13)
जारी…
– बागेश्वर से केशव भट्ट
पिछली क़िस्त: अब दिखावे का ही रह गया है भारत-तिब्बत व्यापार
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बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
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