वाजिदअली शाह का समय था. लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था. छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, सभी विलासिता में डूबे हुए थे. कोई नृत्य और गान की मजलिस सजाता था , तो कोई अफीम की पीनक ही के मजे लेता था. जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद-प्रमोद को प्राधान्य था. शासन विभाग में, साहित्य क्षेत्र में, सामाजिक व्यवस्था में, कला कौशल में, उद्योग-धन्धों में, आहार-विहार में, सर्वत्र विलासिता व्याप्त हो रही था. कर्मचारी विषय-वासना में, कविगण प्रेम और विरह के वर्णन में, कारीगर कलाबत्तू और चिकन बनाने में, व्यावसायी सुर में, इत्र मिस्सी और उबटन का रोजगार करने में लिप्त था. सभी की आँखो में विलासिता का मद छाया हुआ था.
(Shatranj Ke Khiladi Premchand Stories)
संसार में क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर न थी. बटेर लड़ रहे है. तीतरों की लड़ाई के लिए पाली बदी जा रही है. कही चौरस बिछी हुई है. पौ बारह का शोर मचा हुआ है. कही शतरंज का घोर संग्राम छिड़ा हुआ है. राजा से लेकर रंक तक इसी धुन में मस्त थे. यहाँ तक कि फकीरों को पैसे मिलते तो वे रोटियाँ न लेकर अफीम खाते या मदक पीते. शतरंज ताश, गंजीफा खेलने में बुद्धि तीव्र होती है, विचार शक्ति का विकास होता है, पेचीदा मसलों को सुलझाने की आदत पड़ती है, ये दलील जोर के साथ पेश की जाती थी. (इस सम्प्रदाय के लोगों से दुनिया अब भी खाली नहीं है.) इसलिए अगर मिर्जा सज्जाद अली और मीर रौशन अली अपना अधिकांश समय बुद्धि-तीव्र करने में व्यतीत करते थे, तो किसी विचारशील पुरुष को क्या आपत्ति हो सकती थी? दोनों के पास मौरूसी जागीरें थी, जीविका की कोई चिन्ता न थी. घर बैठे चखोतियाँ करते. आखिर और करते ही क्या?
प्रातःकाल दोनों मित्र नाश्ता करके बिसात बिछा कर बैठ जाते, मुहरे सज जाते और लड़ाई के दाँवपेच होने लगते थे. फिर खबर न होती थी कि कब दोपहर हुई कब तीसरा पहल, कब शाम. घर के भीतर से बार-बार बुलावा आता था – ‘खाना तैयार है.’ यहाँ से जबाव मिलता – ‘चलो आते है, दस्तर ख्वान बिछाओ.’ यहाँ तक कि बावरची विवश होकर कमरे में ही खाना रख जाता था और दोनों मित्र दोनों काम साथ-साथ करते थे. मिर्जा सज्जाद अली के घर में कोई बड़ा-बुढ़ा न था इसलिए उन्हीं के दीवानखाने में बाजियाँ होती थी मगर यह बात न थी कि मिर्जा के घर के और लोग उसके व्यवहार से खुश हो.
घरवाली का तो कहना ही क्या, मुहल्ले वाले, घर के नौकर-चाकर तक नित्य द्वेषपूर्ण टिप्पणियाँ किया करते थे ‘बड़ा मनहूस खेल है. घर को तबाह कर देता है. खुदा न करे किसी को इसकी चाट पड़े. आदमी दीन दुनिया किसी के काम का नहीं रहता, न घर का न घाट का. बुरा रोग है यहाँ तक कि मिर्जा की बेगम इससे इतना द्वेष था कि अवसर खोज-खोज कर पति को लताड़ती थी. पर उन्हें इसका अवसर मुश्किल से मिलता था. वह सोचती रहती थी, तब तक उधर बाजी बिछ जाती थी और रात को जब सो जाती थी तब कहीं मिर्जा जी भीतर आते थे. हाँ नौकरों पर वह अपना गुस्सा उतारती रहती थी- क्या पान माँगे है? कह दो आकर ले जायें. खाने की भी फुर्सत नहीं हैं? ले जाकर खाना सिर पटक दो, खाएं चाहे कुत्ते को खिलावें पर रूबरु वह कुछ न कह सकती थी. उनको अपने पति से उतना मलाल न था जितना मीर साहब से. उन्होंने उसका नाम मीर बिगाड़ू रख छोड़ा था. शायद मिर्जा जी अपनी सफाई देने के लिए सारा इल्जाम मीर साहब ही के सिर थोप देते थे.
एक दिन बेगम साहिबा के सिर में दर्द होने लगा. उन्होंने लौड़ी से कहा- जाकर मिर्जा साहब को बुला लो. किसी हकीम के यहाँ से दवा लाये. दौड़, जल्दी कर.
लौंडी गयी तो मिर्जा ने कहा- चल, अभी आते है.
बेगम का मिजाज गरम था. इतनी ताब कहाँ कि उनके सिर में दर्द हो और पति शतरंज खेलता रहे. चेहरा सुर्ख हो गया. लौंडी से कहा- जाकर कह, अभी चलिए नहीं तो वह आप ही हकीम के यहाँ चली जायँगी.
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मिर्जा जी बड़ी दिलचस्प बाजी खेल रहे थे, दो ही कितों में मीर साहब की मात हुई जाती थी झुंझलाकर बोले- क्या ऐसा दम लबो पर है? जरा सब्र नहीं होता?
मीर- अरे, तो जाकर सुन ही आइए न. औरतें नाजुक-मिजाज होती है.
मिर्जा- जी हाँ, चला क्यों न जाऊँ. दो किश्तों में आपको मात होती है.
मीर- जनाब, इस भरोसे में न रहिएगा. वह चाल सोची है कि आपके मुहरे धरे रहें और मात हो जाए. पर जाइए, सुन आइए, क्यों ख्वामह-ख्वाह उनका दिल दुखाइएगा?
मिर्जा- इसी बात पर मात ही कर के जाऊँगा.
मीर- मैं खेलूँगा ही नहीं. आप जाकर सुन आइए.
मिर्जा- अरे यार जाना ही पड़ेगा हकीम के यहाँ. सिर-दर्द खाक नहीं है, मुझे परेशान करने का बहाना है.
मीर- कुछ भी हो, उनकी खातिर तो करनी ही पड़ेगी.
मिर्जा- अच्छा, एक चाल और चल लूँ.
मीर- हरगिज नहीं, जब तक आप सुन न आवेंगे, मैं मुहरे में हाथ न लगाऊँगा.
मिर्जा साहब मजबूर होकर अन्दर गये तो बेगम साहबा ने त्योरियाँ बदल कर लेकिन कराहते हुए कहा- तुम्हें निगोड़ी शतरंज इतनी प्यारी है! चाहे कोई मर ही जाय पर उठने का नाम नहीं लेते! नौज कोई तुम जैसा आदमी हो.
मिर्जा- क्या कहूँ, मीर साहब मानते ही न थे. बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाकर आया हूँ.
बेगम- क्या जैसे वह खुद निखट्टू ही, वैसे ही सबको समझते है? उनके भी बाल बच्चे है, या सबका सफाया कर डाला है!
मिर्जा- बड़ा लती आदमी है. जब आ जाता है तब मजबूर होकर खेलना पड़ता है.
बेगम- दुत्कार क्यों नहीं देते?
मिर्जा- बराबर का आदमी है, उम्र में, दर्जें मे, मुझसे दो अंगुल ऊँचे. मुलाहिजा करना ही पड़ता है.
बेगम- तो मैं ही दुत्कार देती हूँ. नाराज हो जायेंगे, हो जाएँ. कौन किसी की रोटियोँ चला देता है. रानी रूठेगी, अपना सुहाग लेंगी. हिरिया, बाहर से शतरंज उठा ला. मीर साहब से कहना, मियाँ अब न खेलेगे, आप तशरीफ ले जाइए.
मिर्जा- हाँ-हाँ, कहीं ऐसा गजब भी न कर ना! जलील करना चाहती हो क्या? ठहर हिरिया, कहाँ जाती है!
बेगम- जाने क्यों नहीं देते? मेरे ही खून पिए, जो उसे रोके. अच्छा, उसे रोका, मुझे रोको तो जानूँ.
यह कहकर बेगम साहिबा झल्लायी हुई दीवानखाने की तरफ चली. मिर्जा बेचारे का रंग उड़ गया. बीवी की मिन्नते करने लगे- खुदा के लिए, तुम्हें हजरत हुसेन की कसम. मेरी ही मैंयत देखे, जो उधर जाए. लेकिन बेगम ने एक न मानी. दीवानखाने के द्वार तक चली गयी. पर एकाएक पर पुरुष के सामने जाते हुए पाँव बँध गए. भीतर झाँका, संयोग से कमरा खाली था; मीर साहब ने दो मुहरे इधर-उधर कर दिये थे और अपनी सफाई बताने के लिए बाहर टहल रहे थे. फिर क्या था, बेगम ने अन्दर पहुँच कर बाजी उलट दी; मुहरे कुछ तख्त के नीचे फेंक दिये, कुछ बाहर और किवाड़ अन्दर से बन्द करके कुंडी लगा दी. मीर साहब दरवाजे पर तो थे ही, मुहरे बाहर फेंके जाते देखे, चूड़ियों की झनक भी कान में पड़ी. फिर दरवाजा बन्द हुआ, तो समझ गये बेगम बिगड़ गयी. घर की राह ली.
मिर्जा ने कहा- तुमने गजब किया.
बेगम- अब, मीर साहब इधर आये तो खड़े-खड़े निकलवा दूँगी. इतनी लौ खुदा से लगाते तो क्या गरीब हो जाते? आप तो शतरंज खेले और मैं यहाँ चूल्हे चक्की की फिक्र में सिर खपाऊँ. बोलो, जाते हो हकीम के यहाँ कि अब भी ताम्मुल है.
मिर्जा घर से निकले तो हकीम के घर जाने के बदले मीर साहब के घर पहुँचे, और सारा वृतान्त कहा. मीर साहब बोले- मैंने तो जब मुहरे बाहर आते देखे तभी ताड़ गया. फौरन भागा. बड़ी गुस्सेवर मालूम होती हैं. मगर आपने उन्हें यो सिर पर चढ़ा रखा है यह मुनासिब नहीं. उन्हें इससे क्या मतलब की आप बाहर क्या करते है. घर का इन्तजाम करना उनका काम है, दूसरी बातो से उन्हें क्या सरोकार?
मिर्जा- खैर, यह तो बताइए, अब कहाँ जमाव होगा?
मीर- इसका क्या गम? इतना बड़ा घर पड़ा हुआ है? बस यही जमे.
मिर्जा- लेकिन बेगम साहब को कैसे मनाऊँगा ? जब घर पर बैठा रहता था तब तो वह इतना बिगड़ती थी, यहाँ बैठक होग तो शायद जिन्दा न छोड़ेगी.
मीर- अजी बकने भी दीजिए, दो-चार रोज में आप ही ठीक हो जायँगी. हाँ, आप इतना कीजिए कि आज से जरा तन जाइए!
मीर साहब की बेग किसी अज्ञात कारण से उनका घर से दूर रहना ही उपयुक्त समझती थी. इसलिए वह उनके शतरंज प्रेम की कभी आलोचना न करती बल्कि कभी-कभी मीर साहब को देर हो जाती तो याद दिला देती थी. इन कारणों से मीर साहब को भ्रम हो गया था कि मेरी स्त्री अत्यन्त विनयशील और गम्भीर है. लेकिन जब दीवानखाने में बिसात बिछने लगी, और मीर साहब दिन भर घर में रहने लगे तो उन्हें बड़ा कष्ट होने लगा. उनकी स्वाधीनता में बाधा पड़ गयी. दिन भर दरवाजे पर झाँकने को तरस जाती.
(Shatranj Ke Khiladi Premchand Stories)
उधर नौकरों में काना-फूसी होने लगी. अब तक दिन भर पड़े-पड़े मक्खियाँ मारा करते थे. घर में चाहे कोई आवे, चाहे कोई जाय, इनसे कुछ मतलब न था. आठों पहर की धौस हो गयी. कभी पान लाने का हुक्म होता, कभी मिठाई लाने का. और हु्क्का तो किसी प्रेमी के हृदय की भाँति नित्य जलता ही रहता था. वे बेगम साहब से जा-जाकर कहते- हुजूर, मियाँ की शतरंज तो हमारे जी का जंजाल हो गई! दिन भर दौड़ते-दौड़ते पैरौ में छाले पड़ गये. यह भी कोई खेल है कि सुबह को बैठे तो शाम ही कर दी. घड़ी आध घड़ी दिल-बहलाव के लिए खेल लेना बहुत है. खैर, हमें तो कोई शिकायत नहीं, हुजूर के गुलाम हो, जो हुक्म होगा बजा ही लावेंगे, मगर यह खेल मनहूस है . इसका खेलने वाला कभी पनपता नहीं, घर पर कोई न कोई आफत जरूर आता है. यहाँ तक कि एक के पीछे मुहल्ले के मुहल्ले तबाह हो जाते देखे गये है. सारे मुहल्ले मे यही चर्चा होती रहती है . हुजूर का नमक खाते है. अपने आका की बुराई सुन-सुनकर रंज होता है. मगर क्या करे? इसपर बेगम साहिबा कहती – मैं तो खुद इसको पसन्द नहीं करती, पर वह किसी की सुनते ही नहीं, क्या किया जाय?
मुहल्ले में भी दो-चार पुराने जमाने के लोग थे. वे आपस में भाँति-भाँति के अमंगल की कल्पनाएँ करने लगे- अब खैरियत नहीं है. जब हमारे रईसों का यह हाल है, तो मुल्क का खुदा ही हाफिज. यह बादशाहत शतरंज के हाथों तबाह होगी. आसार बुरे है.
राज्य में हाहाकार मचा हुआ था. प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जाती थी. कोई फरियाद सुनने वाला न था. देहातों की सारी दौलत लखनऊ में खिची चली आती थी और वह वेश्याओं में, भांडों में और विलासता के अन्य अंगों की पूर्ति में उड़ जाती थी. अँगरेजी कम्पनी का ऋण दिन-दिन बढ़ता जाता थी. कमली दिन-दिन भीग कर भारी होती जाती थी. देख में सुव्यवस्था न होने के कारण वार्षिक कर भी न वसूल होता था. रेसिडेन्ट बार-बार चेतावनी देता था, पर यहाँ लोग विलासिता के नशे में चूर थे. किसी के कान में जूँ न रेंगती थी.
खैर, मीर साहब के दीवानखाने में शतरंज होते महीने गुजर गये. नये-नये नक्शे हल किये जाते, नये-नये बनाये जाते, नित नयी ब्यूह रचना होती, कभी-कभी खेलते-खेलते भिड़ हो जाती. तू-तू मैं-मैं तक की नौबत आ जाती. पर शीघ्र ही दोनों में मेल हो जाता. कभी-कभी ऐसा भी होता कि बाजी उठा दी जाती. मिर्जा जी रूठ कर अपने घर में जा बैठते. पर रातभर की निद्रा के साथ सारा मनोमालिन्य शान्त हो जाता था. प्रातःकाल दोनों मित्र दीवानखाने में आ पहुँचते थे.
एक दिन दोनों मित्र बैठे शतरंज की दलदल में गोते लगा रहे थे कि इतने में घोड़े पर सवार एक बादशाही फौज का अफसर मीर साहब का नाम पूछता हुआ आ पहुँचा. मीर साहब के होश उड़ गये. यह क्या बला सिर पर आयी? यह तलबी किस लिये हुई? अब खैरियत नहीं नजर आती! घर के दरवाजे बन्द कर लिये. नौकर से बोले- कह दो घर में नहीं है.
सवार- घर में नहीं, तो कहाँ है?
नौकर- यह मैं नहीं जानता. क्या काम है?
सवार- काम तुझे क्या बतालाऊँ? हुजूर से तलबी है- शायद फौज के लिए कुछ सिपाही माँगे गये है. जागीरदार है कि दिल्लगी? मोरचे पर जाना पड़ेगा तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायेगा.
नौकर- अच्छा तो जाइए, कह दिया जायेगा.
सवार- कहने की बात नहीं. कल मैं खुद आऊँगा. साथ ले जाने का हुक्म हुआ है.
सवार चला गया. मीर साहब की आत्मा काँप उठी. मिर्जा जी से बोले- कहिए, जनाब, अब क्या होगा?
मिर्जा- बड़ी मुसीबत हैं. कहीं मेरी भी तलबी न हो.
मीर- कम्बख्त कल आने को कह गया है.
मिर्जा- आफत है और क्या! कहीं मोरचे पर जाना पड़ा तो बेमौत मरे.
मीर- बस, यही एक तदबीर है कि घर पर मिलें ही नहीं. कल से गोमती पर कहीं वीराने में नक्शा जमें. वहाँ किसे खबर होगी? हजरत आकर लौट जायेंगे.
मिर्जा- वल्लाह, आपको खूब सूझी! इसके सिवा औऱ कोई तदबीर नहीं है.
इधर मीर साहब की बेगम उस सवार से कह रही थी- तुमने खूब बतायी. उसने जवाब दिया- ऐसे गावदियों को तो चुटकियों पर नचाता हूँ. इनकी सारी अकल और हिम्मत तो शतरंजें चर ली. अब भूलकर भी घर न रहेंगे.
(Shatranj Ke Khiladi Premchand Stories)
दूसरे दिन से दोनों मित्र मुँह अँधेरे घर से निकल खड़े होते. बगल में एक छोटी-सी दरी दबाये, डिब्बे में गिलोरियाँ भरे, गोमती पार कर एक पुरानी वीरान मस्जिद में चले जाते, जिसे शायद नवाब आसफउद्दौला ने बनवाया था. रास्ते में तम्बाकू, चिलम ले लेते और मस्जिद में पहुँच, दरी बिछा, हुक्का भर शतरंज खेलने बैठ जाते थे. फिर उन्हें दीन-दुनिया की फिक्र न रहती थी. ‘किस्त’, ‘शह’ आदि दो-एक शब्दों के सिवा मुँह से और कोई वाक्य नहीं निकलता था. कोई योगी भी समाधि में इतना एकाग्र न होता. दो पहर को जब भूख मालूम होती तो दोनों मित्र किसी नानबाई की दूकान पर जाकर खाना खा आते और एक चिलम हुक्का पीकर फिर संग्राम क्षेत्र में डट जाते. कभी-कभी तो उन्हें भोजन का भी ख्याल न रहता था.
इधर देश की राजनीतिक दशा भयंकर हलचल मची हुई थी. लोग बाल-बच्चों को ले-ले कर देहातों में भाग रहे थे. पर हमारे दोनों खिलाड़ियों को इसकी जरा भी फिक्र न थी. वे घर से आते तो गलियों में होकर. डर था कि कहीं किसी बादशाही मुलाजिम की निगाह न पड़ जाय, नहीं तो बेगार में पकड़े जायँ हजारों रूपये सालाना की जागीर मुफ्त में ही हजम करना चाहते थे.
एक दिन दोनों मित्र मस्जिद के खंडहर में बैठे हुए शतरंज खेल रहे थे. मिर्जा की बाजी कुछ कमजोर थी. मीर साहब को किश्त पर किश्त दे रहे थे. इतने में कम्पनी के सैनिक आते हुए दिखाई दिये. यह गोरों की फौज थी जो लखनऊ पर अधिकार जमाने के लिए आ रही थी.
मीर साहब- अंगरेजी फौज आ रही है खुदा खैर करे!
मिर्जा- आने दीजिए, किश्त बचाइए. लो यह किश्त!
मीर- तोरखाना भी है. कोई पाँच हजार आदमी होगे, कैसे जवान है. लाल बंदरों से मुँह है. सूरत देखकर खौफ मालूम होता है.
मिर्जा- जनाब, हीले न कीजिए. ये चकमें किसी और को दीजिएगा – यह किश्त!
मीर- आप भी अजीब आदमी है. यहाँ तो शहर पर आफत आयी हुई है और आपको किश्त की सूझी है. कुछ खबर है कि शहर घिर गया तो घर कैसे चलेंगे?
मिर्जा- जब घर चलने का वक्त आयेगा तो देखी जाएगी – यह किश्त, बस अब की शह में मात है.
फौज निकल गयी. दस बजे का समय था. फिर बाजी बिछ गयी. मिर्जा बोले- आज खाने की कैसी ठहरेगा?
मीर- अजी, आज तो रोजा है. क्या आपको भूख ज्यादा मालूम होती है?
मिर्जा- जी नहीं. शहर में जाने क्या हो रहा है?
मीर- शहर में कुछ न हो रहा होगा. लोग खाना खा-खाकर आराम से सो रहे होंगे. हुजूर नवाब साहब भी ऐशगाह में होंगे .
दोनों सज्जन फिर जो खेलने बैठे तो तीन बज गए. अब की मिर्जा की बाजी कमजोर थी. चार का गजर बज रहा था कि फौज की वापसी की आहट मिली. नवाब वाजिदअली शाह पकड़ लिए गये थे और सेना उन्हें किसी अज्ञात स्थान को लिए जा रही थी. शहर में न कोई हलचल थी, न मार-काट. एक बूँद भी खून नहीं गिरा था. आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा की पराजय इतनी शान्ति से इस तरह खून बहे बिना न हुई होगी. यह अहिंसा न थी, जिस पर देवगण प्रसन्न होते है. यह कायरपन था जिस पर बड़े से बड़े कायर आँसू बहाते है. अवध के विशाल देश का नवाब बन्दी बना चला जाता था और लखनऊ ऐश की नींद में मस्त था. यह राजनीतिक अधःपतन की चरम सीमा थी.
मिर्जा ने कहा- हुजूर नवाब को जालिमों ने कैद कर लिया है.
मीर- होगा, यह लीजिए शह!
मिर्जा- जनाब, जरा ठहरिए. इस वक्त इधर तबीयत ठीक नहीं लगती. बेचारे नवाब साहब इस वक्त खून के आँसू रो रहे होंगे.
मीर- रोया ही चाहे, यह ऐश वहाँ कहाँ नसीब होगा? यह किश्त.
मिर्जा- किसी के दिन बराबर नहीं जाते. कितनी दर्दनाक हालत है.
मीर- हाँ, सो तो है ही, यह लो फिर किश्त! बस अब की किश्त में मात है. बच नहीं सकते.
मिर्जा- खुदा की कसम, आप बड़े बे दर्द है. इतना बड़ा हादसा देखकर भी आपको दुःख नहीं होता. हाय, गरीब वाजिदअली शाह!
मीर- पहले अपने बादशाह को तो बचाइए, फिर नवाब का मातम कीजिएगा. यह किश्त और मात! लाना हाथ!
बादशाह को लिए हुए सेना सामने से निकल गयी. उनके जाते ही मिर्जा ने फिर बाजी बिछा ली. हार की चोट बुरी होती है. मीर ने कहा- आइए नवाब के मातम में मरसिया कह डाले. लेकिन मिर्जा की राजभक्ति अपनी हार के साथ लुप्त हो चुकी थी. वह हार का बदला चुकाने के लिए अधीर हो गए थे.
(Shatranj Ke Khiladi Premchand Stories)
शाम हो गयी. खंडहर में चमगादड़ों ने चीखना शुरू किया. अबाबीले आ-आकर अपने घोंसलों में चिपटी. पर दोनों खिलाड़ी डटे हुए थे. मानो दोनों खून के प्यासे सूरमा आपस में लड़ रहे हो. मिर्जा जी तीन बाजियाँ लगातार हार चुके थे इस चौथी बाजी का भी रंग अच्छा न था. वह बार-बार जीतने का दृढ़निश्चय कर सँभलकर खेलते थे लेकिन एक न एक चाल ऐसी बेढ़ब आ पड़ती थी जिससे बाजी खराब हो जाती थी. हर बार हार के साथ प्रतिकार की भावना और उग्र होती जाती थी. उधर मीर साहब मारे उमंग के गजले गाते थे, चुटकियाँ लेते थे, मानो कोई गुप्त धन पा गये हो. मिर्जा सुन-सुनकर झुझलाते और हार की झेंप मिटाने कि लिए उनकी दाद देते थे. ज्यों-ज्यों बाजी कमजोर पड़ती थी, धैर्य हाथ से निकलता जाता था. यहाँ तक कि वह बात-बात पर झुँझलाने लगे. ‘जनाब’ आप चाल न बदला कीजिए. यह क्या कि चाल चले औऱ फिर उसे बदल दिया जाय. जो कुछ चलना है एक बार चल दीजिए. यह आप मुहरे पर ही क्यों हाथ रखे रहते है. मुहरे छोड़ दीजिए. जब तक आपको चाल न सूझे, मुहरा छुइए ही नहीं. आप एक-एक चाल आध-आध घंटे में चलते है. इसकी सनद नहीं. जिसे एक चाल चलनें में पाँच मिनट से ज्यादा लगे उसकी मात समझी जाय. फिर आपने चाल बदली? चुपके से मुहर वही रख दीजिए.
मीर साहब की फरजी पिटता था. बोले- मैंने चाल चली ही कब थी?
मिर्जा- आप चाल चल चुके है. मुहरा वहीं रख दीजिए – उसी घर में.
मीर- उसमें क्यों रखूँ? हाथ से मुहरा छोड़ा कब था?
मिर्जा- मुहरा आप कयामत तक न छोड़े, तो क्या चाल ही न होगी? फरजी पिटते देखा तो धाँधली करने लगे.
मीर- धाँधली आप करते हैं. हार-जीत तकदीर से होती है. धाँधली करने से कोई नहीं जीतता.
मिर्जा- तो इस बाजी में आपकी मात हो गयी.
मीर- मुझे क्यों मात होने लगी?
मिर्जा- तो आप मुहरा उसी घर में रख दीजिए, जहाँ पहले रखा था.
मीर- वहाँ क्यों रखूँ? नहीं रखता.
मिर्जा- क्यों न रखिएगा? आपको रखना होगा.
तकरार बढ़ने लगी. दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े थे. न यह दबता था, न वह. अप्रासंगिक बाते होने लगी. मिर्जा बोले- किसी ने खानदान में शतरंज खेली होती तब तो इसके कायदे जानते. वो तो हमेशा घास छीला किए, आप शतरंज क्या खेलिएगा? रियासत और ही चीज है. जागीर मिल जाने ही से कोई रईस नहीं हो जाता.
(Shatranj Ke Khiladi Premchand Stories)
मीर- क्या! घास आपके अब्बाजन छीलते होगे. यहाँ तो पीढ़ियों से शतरंज खेलते चले आते है?
मिर्जा- अजी जाइए भी, गाजीउद्दीन हैदर के यहाँ बावर्ची का काम करते-करते उम्र गुजर गयी. आज रईस बनने चले है. रईस बनना कुछ दिल्लगी नहीं.
मीर- क्यों अपने बुजुर्गो के मुँह पर कालिख लगाते हो – वे बावर्ची का काम करते होंगे. यहाँ तो बादशाह के दस्तर ख्वान पर खाना खाते चले आये है.
मिर्जा- अरे चल चरकटे, बहुत बढ़कर बातें न कर!
मीर- जबान सँभालिए, वर्ना बुरा होगा. मैं ऐसी बातें सुनने का आदी नहीं. यहाँ तो किसी ने आँखे दिखायी कि उसकी आँखें निकाली. है हौसला?
मिर्जा- आप मेरा हौसला देखना चाहते है, तो फिर आइए, आज दो-दो हाथ हो जायँ, इधर या उधर.
मीर- तो यहाँ तुमसे दबने वाला कौन है?
दोनों दोस्तों ने कमर से तलवारे निकाल ली. नवाबी जमाना था. सभी तलवार, पेशकब्ज कटार वगैरह बाँधते थे. दोनों विलासी थे, पर कायर न थे. उनमें राजनीतिक भावों का अधःपतन हो गया था. बादशाह के लिए क्यों मरे? पर व्यक्तिगत वीरता का अभाव न था. दोनों ने पैतरे बदले, तलवारे चमकी, छपाछप की आवाजे आयी. दोनों जख्मी होकर गिरे, दोनों न वहीं तड़प-तड़प कर जाने दी. अपने बादशाह के लिए उनकी आँखों से एक बूँद आँसू न निकला, उन्होने शतरंज के वजीर की रक्षा नें प्राण दे दिए.
अँधेरा हो चला था. बाजी बिछी हुई थी. दोनों बादशाह अपने-अपने सिहांसन पर बैठे मानो इन वीरो की मृत्यु पर रो रहे थे. चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था. खँडहर की टूटी हुई, मेहराबे गिरी हुई दीवारें और धूल-धूसरितें मीनारें इन लाशों को देखती और सिर धुनती थी.
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