हम सब जानते हैं कि उनकी शिक्षा नहीं हुई थी. मैट्रिक का इम्तहान वे नहीं दे पाए थे. पहाड़ की जो स्थितियां थीं उसमें उन्हें भागकर बंबई जाना पड़ा. बहुत ही विकट स्थितियां थीं. आर्थिक रूप से और मानसिक रूप से भी. बंबई में उन्हें बहुत विकट जीवन जीना पड़ा.यानी फुटपाथ पर उन्हें बहुत समय बिताना पड़ा. मुफ्त के लंगरों या मंदिरों में या जहां मुफ्त खाना मिलता था, उन लाइनों में वे लगे. वहां से इन स्थितियों में गुजरकर वे आये. उन्होंने खुद लिखा है कि जब आवारा बच्चों की तरह पुलिस वाले उन्हें पकड़कर ले जाते थे तो उन्हें बड़ा अच्छा लगता था कि सोने की जगह मिलेगी और खाना मिलेगा. उन संघर्षों से आये हुए वे आदमी थे जिसके पास शिक्षा का बड़ा सहारा न हो, जिसने अपनी लेखकीय प्रतिभा पर अपनी जिंदगी, जगह बनाई. (Shailesh Matiyani had more Talent than Premchand and Renu)
जिस वक्त वे एक ढाबे में लगभग एक वेटर का काम कर रहे थे- प्लेटें धोने और चाय लाने का- एक छोटे में ढाबे में, उस वक्त तक उनकी कहानियां ‘धर्मयुग’ में छपना शुरू हो गई थीं. कितनी बड़ी विडंबना है कि ‘धर्मयुग’ जैसे सर्वश्रेष्ठ अखबार में जिनकी कहानियां छपना शुरू हो गई हों वो एक छोटे से सड़क के किनारे बने ढाबे में चाय-पानी देने और प्लेट साफ करने का काम कर रहा हो. तो उन स्थितियों में निकलकर, जिसे कहते हैं, गोर्की ने जिसे कहा है, ‘समाज की तलछट से आए हुए लोग’, वे आये थे. गोर्की ने अपनी आत्मकथा में इसी जीवन को जिया था जिसका नाम रखा था ‘मेरा विश्वविद्यालय’. कहते थे कि ये मेरे विश्वविद्यालय हैं यहां से मैंने ट्रेनिंग ली है. मटियानी का स्ट्रांंगेस्ट प्वाइंट ये है. अब धीरे धीरे उनको लगता गया कि वे एक विचारक भी हैं. देश विदेश के विचारकों को समझने का पढ़ने का उन्हें मौका नहीं मिला. अंग्रेजी नहीं जानते थे. लेकिन फिर भी वो अपने ढंग से एक विचारक थे. देश की समझ, राष्ट्र की समस्या, भाषा की समस्या पर वे हमेशा लिखते थे. क्योंकि बिना लिखे रह भी नहीं सकते थे या रह सकना संभव नहीं था, कुछ तो आर्थिक कारणों से. (Shailesh Matiyani had more Talent than Premchand and Renu)
एक आत्मविश्वास उनमें जबरदस्त था. आत्मविश्वास और साहस. दिक्कत यह थी कि वो हिंदुत्व के उस घेरे से बाहर नहीं निकल पाए. विचार भी अगर उन्हें करना है तो सिर्फ उस पर बात करेंगे. धर्मग्रंथ या किसी इसी तरह की चीज को अगर कोई मानता रहा है तो वे उसे दूसरे ढंग से मानने का आग्रह करेंगे. कहना चाहिए कि घेरा वही था उससे बाहर वे नहीं निकल पाए. हिंदी एक तरह से उनकी मजबूरी भी थी और उनका लक्ष्य भी था. भाषा की बात बहुत करते थे. (Shailesh Matiyani had more Talent than Premchand and Renu)
शैलेश मटियानी रेणु से पहले आदमी हैं जिन्होंने बहुत सफलता पूर्वक आंचलिक भाषा व आंचलिक संस्कृति का प्रयोग किया. जब रेणु का कहीं पता नहीं था तब उनका ‘बोरीवली से बोरीबंदर तक’ जैसा उपन्यास आ चुका था. पहाड़ के जीवन पर उनकी अद्भुत कहानियां आ चुकी हैं जो वहां की जीवन और वहां की संस्कृति और भाषा निरूपित करती थी. कई और रचनाएं आ चुकी थीं. उनमें रेणु से कम शक्ति नहीं है.उनमें विविधता ज्यादा है. बहुत ज्यादा विविधता है, क्योंकि अपने अनुभव हैं भिन्न-भिन्न तरह के फुटपाथ से लेकर बड़े शहरों तरह तक .
बेटे की हत्या ने उनके जीवन में एक बहुत खास तरह का परिवर्तन पैदा किया और एक पराजय का भाव, प्रारब्ध और नियति के सामने समर्पण का भाव, और धर्म और ईश्वर से एक तरह से इससे निकालने के लिए प्रार्थना का भाव पैदा किया. अपने इस अवमूल्यन के लिए कहीं पर यानी अपने शक्तिशाली लेखन को मार्जिन पर फेंक देने के लिए वे खुद जिम्मेदार हैं, हमलोग नहीं. हालांकि मैं यह मानता हूं कि हमें उनके विचारपक्ष को एक तरफ डाल देना चाहिए.उसे अलग फेंक सकते हैं. लेकिन उनकी रचनात्मकता हमारे किसी भी बड़े से बड़े लेखक से कम नहीं है. वो बहुत महत्वपूर्ण लेखक हैं और उन पर चाहे हमलोग कुछ करें या न करें कम से कम यह स्वीकृति जरूर होनी चाहिए कि हमारे बीच एक इस तरह का लेखक है जो वास्तविक अर्थ में अपनी जमीन से जुड़ा था, मुहावरे में नहीं. जो ‘अर्द्धांगिनी’ जैसी कहानी लिख सकता है वह निश्चित रूप से ….. . . वन आफ द ग्रेटेस्ट राइटर आफ दिस कंट्री.
उनकी शुरू की कहानियों की कई लोगों, शिवप्रसाद सिंह आदि ने नकल की.’दो दुखों का एक सुख’ यह भिखमंगों पर है, खाना नहीं मिलता है, उन्हीं के बीच प्रेम हो जाता है दो दुख मिलकर किस तरह से एक सुख में बदल जाते हैं. एक आत्मीय सुख. मैं तो बहुत सपाट ढंग से इस आइडिया को रख रहा हूं, उसने बहुत खूबसूरत ढंग से लिखा है. तो वे कहानियां तो याद रखने वाली कहानियां हैं.
वे उन कहानीकारों में हैं जिनके पास सबसे अधिक संख्या में 10-12 की संख्या में ए-वन कहानियां हैं. प्रेमचंद सहित हम सब के पास 5-6 से ज्यादा टॉप की कहानियां नहीं हैं. जो कहानी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्वस्तर पर खड़ी हो सके. मेरे पास 2-4, भारती और राकेश के पास दो चार होंगी. बाकी की सभी एक मिनिमम स्टैंडर्ड हैं परंतु जिसे आउटस्टैंडिंग कहानी कहते हैं वो नहीं है. उनके पास सबसे ज्यादा हैं. हम लोगों में सबसे ज्यादा प्रतिभाशाली आदमी. उनमें अनुभव की आग और तड़प है. हमलोग कहीं न कहीं बुकिश हो जाते हैं. ये जिंदगी से उठाई गई कहानियां लिखते थे.
उनका एक अद्भुत उपन्यास है ‘गोपुली गफरन’. सुना है न . गोपुली पहाड़ की एक ब्राह्मण महिला है. धीरे-धीरे वह भगा कर मैदान में लायी जाती है और गफूरन बना ही जाती है. उसको जितनी आत्मीयता, संवेदना और अंडरस्टैंडिंग के साथ उन्होंने लिखा है, लेकिन बाद में किस तरह से मुसलमानों के खिलाफ लिखने लगे. ‘इब्बू मलंग’ उन्हीं की कहानी है. उन लोगों को जितनी भीतरी अंडरस्टैंडिंग, सिम्पैथी दी है वो वैचारिकता में उनका नाश करने वाली है.
उनकी कहानी की दुनिया मार्जिनलाइज़्ड की दुनिया है. गरीबों की दुनिया है. अगर मुझसे पूछा जाए तो मैं उनकी सबसे अच्छी कहानी ‘अर्द्धांगिनी’ को मानूंगा. उपन्यासों में तय करना थोड़ा सा मुश्किल है फिर भी ‘बोरीवली से बोरीबंदर तक’. ‘अर्धांगिनी’ में स्त्री पुरूष के बीच का जो डेलिकेट रिलेशन है उसे उन्होंने बहुत ही लिरिकल ढंग से रखा है. बंबई के फुटपाथों की जिंदगी को ‘बोरीवली से बोरीबंदर तक’ में लिखा है
–राजेश रंजन के साथ बातचीत में राजेन्द्र यादव
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मशहूर कहानीकार और ‘हंस’ के सम्पादक राजेन्द्र यादव का यह साक्षात्कार राजेश रंजन ने किया था. उसी के कुछ अंशों के आधार पर यह आलेख तैयार किया गया है. पूरा इंटरव्यू यहाँ देखें – मटियानी : विलक्षण कथाकार व दयनीय विचारक
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