प्रिय अभिषेक

बा-बा ब्लैक शीप में बा का मतलब

अपनी देशज भाषा, जिसे आप प्रतिदिन बोलते हैं, उसे जब किसी दूसरे को समझाते हैं तो एक दम भाषाविज्ञानी जैसी अनुभूति होती है.

किसी ने हमसे पूछा कि ये ‘बा’ क्या है, जो बृज में बहुत प्रयुक्त होता है? उसके यह पूछते ही हम तत्काल भाषा विज्ञानी वाले विचारक-चिंतक मोड में आ गये.

विचारक-चिंतक बनने के लिये पुस्तकें पढ़ने से ज़्यादा ज़रूरी है ठुड्डी को अपनी हथेली पर टिकाना. कुछ इस तरह से की अंगूठा ठुड्डी के नीचे जाय और तर्जनी मुड़ कर ओठों पर चिपक जाये. ये न केवल आपको चिंतक-विचारक दिखाता है बल्कि एक तरह का सूचना बोर्ड भी है कि – ‘शांति बनाये रखें, चिंतन चालू है’ या ‘गो स्लो, डीप थिंकर अहेड’ या ‘थिंकिंग प्रोन एरिया (चिंतन बाहुल्य क्षेत्र) . और यदि ऐसे में एक फोटो भी खिंचवा ली जाय तो उस विचारक-चिंतक की यह छवि स्थायी बन जाती है.

तो हम भी तत्काल इस मुद्रा में आकर शून्य को ताकने लगे. फिर हमने शून्य में ताकते हुए ही कुछ देर हाथ को हवा में गोल-गोल घुमाया. जिसका अर्थ होता है कि माँ-बदौलत अब कुछ बोलने वाले हैं.

तो! ये ‘बा’ एक बहुआयामी, बहुअर्थी शब्द है. यह भूत काल और भविष्य काल दोनों के लिये प्रयुक्त होता है. जैसे-बा दिना तुम कहाँ हे? अर्थात उमुक दिन तुम कहाँ थे- भूत काल. बा दिना सुत्त से चले जइयो! अर्थात उमुक दिन याद से चले जाना- भविष्य काल.

यह व्यक्ति विशेष और स्थान विशेष की ओर संकेत करने के लिये भी प्रयुक्त होता है. जैसे-बाने बाके मूड़ में लठिया दई ! अर्थात प्रथम व्यक्ति ने द्वितीय व्यक्ति के सिर पर लाठी से प्रहार किया- व्यक्ति वाचक. बाय बामें चौं धद्द दओ? बाये मे मूड़ पे धद्दे! अर्थात अमुक वस्तु को अमुक स्थान में क्यों रख दिया? उसे मेरे सिर पर रख दे- वस्तु और स्थान वाचक.

यह ‘बा’ भोजपुरियों को इतना पसंद आया कि उन्होंने इसे हर वाक्य के बाद लगाना प्रारम्भ कर दिया. और गुजरातियों ने तो माँ के सम्बोधन के लिये इस ‘बा’ का चुनाव कर लिया. इस ‘बा’ के साथ एक और ‘बा’ जोड़ने पर बाबा बनता है. और यहीं से असली कहानी शुरू होती है.

जब पहली बार हमने बाबा ब्लैक शीप सुना तो … तो क्या! हमारे ऊपर से निकल गया. और क्या! अंग्रेजी मैया तो हम पर सदा कुपित थी हीं.

कई साल तो हम यही सोचते रहे कि ‘जैक एन जिल’ में जब जैक ने कोई मुकुट पहना ही नहीं था तो गिरने पर उसका क्राउन कैसे टूटा.

इसी तरह बाबा ब्लैक शीप की हमारी कल्पना किसी काली दाढ़ी वाले बाबा की थी जिसके पास ऊन के झोले हों. और इस अंग्रेज़ी दोहे की बाद वाली लाइन का अर्थ तो आज तक नहीं पता है.

बड़ी-2 डींग हाँकने वाले, अंग्रेजी मीडियम में पढ़े, हमारे चाचा के लड़के ने कहा कि ये बा-बा भेड़ की आवाज़ है. हमने कहा तुझसे तो हम हिंदी मीडियम वाले अच्छे! कम से कम ये तो जानते हैं कि भेड़ बा-बा नहीं, मैं-मैं करती है.

सम्भव था कि ये बाबा, बाबा-नाती वाला बाबा हो. पर ये समझ नहीं आरहा था कि लेखक अपनी भेड़ को बाबा कह रहा है या अपने बाबा को भेड़ कह रहा है.  फिर सुत्तन ने दावा ठोंका की वो इसका सही-सही अर्थ बता सकता है.

सुत्तन, जो कभी जमना पार बटेश्वर तक नहीं गया,वो सुत्तन.

तो सुत्तन ने बताया -‘एक भेड़ तीन झोला लये चली जाय रही हती. रास्ता में पटवारी, दरोगा ठाड़े हते. और बिनसैं एक बकील बतराय रओ हतो. दोऊ लोगन ने भेड़े कौं रोक कैं पूछी – ऐ भेड़! कितें जाय रई है? जा झोला में का है? चल चेक करा!

भेड़ ने कही, ‘झोला में ऊन है सरकार. हाट में बेचवे के लैं लै जाय रई हूँ.’

फिर बिन्नैं कही,’ जाके कागज दिखा! रोयल्टी बता! परमीसन चैक करा! बिल्टी बता!’

भेड़ बोली – सरकार जे ऊन तौ हमाई ख़ुद की है. हमन्ने पैदा करी है. सालन सैं पैदा कर्रऐ हैं. जाके का कागज?

दरोगा बोलो – चूतिया बनाए रई है! चल थाने!

तौ एक झोला पटवारी ने लओ. एक दरोगा जी ने धल्ल लओ.

बकील साब बोले – जे तौ भौत गल्त बात है. तुम दोऊ मिल कैं जा भेड़ ऐ परेसान कर्रऐ हौ. जे भेड़ तौ काली है. तू हमाई बहन है भेड़! जे पटवारी,दरोगा सें तुझे हम बचायेंगे.

तौ एक झोला करिया कोट बाले बकील साब ने अपईं फीस कौ लै लओ. तभई पतरकार भन पहुंच गओ.’

‘पत्रकार?’

‘हओ! पतरकार ने कही-ऐसें कैसें! जे का भरस्टाचार मचाय रखौ है. गरीब लोगन कौं लूटौगे? तुमाई बीडियो बनाय लई है हमन्ने. अब तुम दोउन की नौकरी खाऊँगो.

बे पतरकार कौं कुन्ना मैं लै गये और बा सैं बोले – तू जादा चुदुर-चुदुर मती करै. अपईं बता!

पतरकार बोलौ- ऐसे कैंसे? कदुआ कटैगौ, तौ सब में बटैगौ.

तौ सबन्ने सोची की जे पतरकार तौ भांडा फोड़ देगौ. फिर बे तीनों बा पतरकार सैं बोले -चुप्प कर जा! साम कौं जई भेड़ पकाएंगे तेरे काजें. नौकरी मती खा, तू मटन खा!

‘हैं?’

‘हओ! भेड़ इत्ती देर सैं चुपचाप सुन रई हती. फिर बोली -तुमने हमाओ सब कछु छीन लओ, पर तुमाई भूख न मिटी. अब जा पतरकार के नाम पे मोये काटौगे? बा!बा!(वाह!-वाह!)

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प्रिय अभिषेक

मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.

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