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खाँटी साहित्यकारों की साहित्यिक बातें

उनका फोन कई दिन से आ रहा था. औपचारिकतावश मैंने भी दो-तीन बार फोन कर लिया. हम दोनों ने एक दूसरे से बिल्कुल एक समान बातें कीं.

आपका लेखन बहुत अच्छा है, आपसे मिलना चाहिये, आप में बहुत सम्भावनाएँ हैं, आपका लेखन मुझे फ़लाँ साहित्यकार की याद दिलाता है, आपके लेखन में उसकी झलक है, आपके लेखन में इसकी शैली है, आपका व्यंग्य अद्भुत है, जी आप भी कुछ कम शानदार नहीं लिखते -ऐसी न जाने कितनी ही साहित्यिक बातें.

साहित्यिक बातें एक साहित्यिकार के जीवन का अनिवार्य अंग हैं. परन्तु साहित्यकारों की साहित्यिक बातें, आमजन की साहित्यिक बातों से भिन्न होती हैं. आमजन – वो क़िताब पढ़ी? वो वाली कविता देखी? उस उपन्यास का अंत तो अद्भुत है! – जैसी बचकानी साहित्यिक बातें करते हैं. परन्तु साहित्यकारों की बातों की बात अलग है. हमने परस्पर जो बातें कीं वे साहित्यकारों की बातें थीं. वरिष्ठ, खाँटी साहित्यकार इससे भी आगे की बातें करते हैं.

एक खाँटी साहित्यकार, साहित्य से अधिक, साहित्यकारों में रुचि रखता है. किसकी क़िताब छप रही है, कौन मुशायरों में जा रहा है, कितने पैसे ले रहा है, किसका किससे चक्कर चल रहा है, रॉयल्टी कितनी मिल रही है, ओह! वो तो उस संघ से जुड़ गया, ओह! वो तो पूरा पैसा खा गया, ओह! साला यहीं डला रहता था कि दादा एक कविसम्मेलन दिलवा दो बस! – जैसी बातें खाँटी साहित्यकारों की साहित्यिक बातें होती हैं.

और फिर वह दिन आ गया जब मेरी उनसे मुलाक़ात हुई.

छुट्टी का दिन था. ठीक बारह बजे घर की घण्टी बजी. दरवाज़ा खोला तो वे खड़े थे, यथानिर्धारित समय पर. हमारे बीच जाली वाला दरवाज़ा था. एक क्षण को मुझे लगा जैसे मैं अंतरराष्ट्रीय सीमा पर खड़ा हूँ और उस पार कोई शत्रु सैनिक खड़ा है. उन्होंने भी मुझे उसी दृष्टि से देखा. फिर हमने एक-दूसरे को ‘डिप्लोमैटिक स्माइल’ दी. मैंने दरवाज़ा खोला, वे भीतर आ गए.

भीतर घुसते ही उनकी नज़र मेरी किताबों पर गई. जैसे एक योद्धा दूसरे योद्धा के हथियारों पर नज़र डालता हो, कुछ यूँ उन्होंने मेरी किताबों को देखा.

‘अच्छा, आप ये वाली क़िताब भी पढ़ रहे हैं!’ उन्होंने एक किताब हाथ में लेते हुए कहा.

मुझे लगा कि मैं उनके हाथ से किताब झपट लूँ, और तख़त की चादर को किताबों पर फेंक कर उन्हें छुपा दूँ. पर अब देर हो चुकी थी. मेरी पूरी गोपनीय रणनीति ज़ाहिर हो गई. उन्होंने मेरी सारी किताबें देख लीं. बंद मुट्ठी खुल गई. एक लेखक के रूप में मुझे ख़ुद पर इससे अधिक क्रोध पहले कभी नहीं आया था.

‘आख़िर क्या आवश्यकता थी बैठक में किताबें सजाने की? कहीं छुपा के नहीं रख सकते थे?’ मैंने खुद से कहा, ‘बौद्धिकता का आडम्बर करने वाले अंत में किताबें चोरी जाने की शिकायत करते पाये जाते हैं.’

मुझे डर था कि पोल तो पहले ही खुल चुकी है, अब कहीं वे मुझसे कोई क़िताब न माँग लें. पर उनकी दिलचस्पी किताबों से अधिक मुझमें थी.

‘तो कितने में पड़ा ये मकान?’ उन्होंने पूछा.

मेरी दूसरी गलती पकड़ी गई. मुझे लेखक को अपने घर बुलाने की बजाय, खुद लेखक के घर जाना चाहिये था. घर पर बुलाया गया लेखक, घर पर बुलाये गये पुलिस वाले की तरह होता है. आप डरते रहते हैं कि पता नहीं क्या माँग ले, क्या पूछ बैठे. घर को घूर तो पहले से ही रहा है.

‘किराये का है’, मैंने बताया.

‘कितना किराया देते हैं इसका?’

मैं समझ गया वे मुझे पैसे वाला साबित कर के मेरे लेखन को निशाने पर लेने की कोशिश करेंगे. क्योंकि आदमी या तो साहित्यकार हो सकता है, या धनवान. अब एक-एक क़दम सँभल कर रखना था. मैंने भी किराया आधा बताने का निश्चय किया.

‘जी तीन हज़ार रुपये. ‘

‘बहुत सस्ता मिल गया’, उन्होंने कृत्रिम आश्चर्य व्यक्त किया.

‘जी परिचित का है,’ मैंने उत्तर दिया, और सोचा कि यदि मैं किराया दुगना करके बताता तो ये व्यक्ति कोई आश्चर्य व्यक्त नहीं करता. कुटिल इंसान!

‘आइये बैठिये!’ मैंने उन्हें तख़त पर बैठने का इशारा किया. वे तख़त पर बैठ गए. मैं उनके सामने कुर्सी पर बैठ गया.

‘तो?’ उन्होंने कहा.

‘बढ़िया! आप?’ मैंने पूछा.

‘फ़स्क्लास’, उन्होंने कहा.

‘और क्या?’ मैंने पूछा.

‘बढ़िया, आप?’ उन्होंने कहा.

‘फ़स्क्लास’, मैंने कहा.

‘तो?’ उन्होंने कहा.

‘और क्या?’ मैंने कहा.

‘क्या चल रहा है?’ उन्होंने पूछा.

‘कुछ नहीं! आपका?’ मैंने पूछा.

‘कुछ नहीं!’ उन्होंने कहा.

दोनों तरफ से ‘कुछ नहीं’ आने के बाद अब कुछ नहीं बचा था. कमरे में मौन पसर गया. शून्य आधारित बजट की तरह अब बात को नये सिरे से शुरू करना था, और आतिथेय होने के नाते बात को आगे बढ़ाने का उत्तरदायित्व मेरा था. मैं कुछ देर सोचता रहा.

‘तो क्या लिख रहे हैं आज-कल?’ मैंने पुनः बातचीत शुरू की.

‘कुछ ख़ास नहीं’, उन्होंने कहा. मैं जानता था वे अपने पत्ते नहीं खोलेंगे.

‘आप क्या लिख रहे हैं ?’ उन्होंने पूछा.

‘कुछ नहीं’, मैंने भी अपने पत्ते नहीं खोलने का निश्चय किया. फिर अपनी महानता दर्शाने का अच्छा अवसर देखकर तत्काल जोड़ा,’ मैं तो यूँ ही कभी-कभी लिख लेता हूँ बस. नियमित लेखक नहीं हूँ मैं. ‘

‘अरे नहीं, आप तो ख़ूब लिखते हैं.’ वे ताड़ गये मैं महान बनना चाह रहा हूँ.

‘अरे कहाँ! नौकरी के बाद जो थोड़ा-बहुत समय मिलता है,उसमें दो-चार लाइन लिख पाता हूँ,’ मैं अपने को महान साबित करने पर तुला हुआ था.

‘अरे अभी पिछला व्यंग्य ही अच्छा-ख़ासा लम्बा था. आप तो खर्रे के खर्रे लिख डालते हैं. पाँच-पाँच, छः-छः पेज.’ वे किसी भी कीमत पर मुझे खुद को महान घोषित करने देना नहीं चाहते थे. ‘इतना तो तभी सम्भव है जब व्यक्ति समर्पित होकर लिखे,’ उन्होंने कहा, ’आपका व्यंग्य के प्रति समर्पण अद्भुत है, वंदनीय है.‘

कई बार वार्तालाप में व्यक्ति उस स्थान पर पहुँच जाता है जहाँ उसे व्यंग्य और प्रशंसा के बीच की धूमिल सीमा रेखा को खोजना पड़ता है कि ये बात व्यंग्य है, अथवा प्रशंसा. तो मैं भी भ्रमित था कि वे मेरी प्रशंसा कर रहे हैं, अथवा मुझ पर व्यंग्य. पर चूँकि वे व्यंग्यकार थे तो मुझे पता था कि उनके मुख से प्रशंसा निकलना कठिन है. और जिस तरह से वे मुझ पर निगाहें फेंक-फेंक कर मार रहे थे, उससे उनके कथनों के व्यंग्य होने की पुष्टि होती थी.

बहरहाल हमारी बातचीत आगे बढ़ी. वामपंथ-दक्षिणपंथ, प्रकाशकों की बदमाशियाँ, साहित्य का गिरता स्तर, व्यंग्य की उम्मीद, सिंगल मॉल्ट या ब्लेंडेड स्कॉच जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर हम दोनों अपने विचार प्रकट कर रहे थे. चर्चा के बीच हम लोगों ने पच्चीस-पच्चीस ऐसी बातें कहीं जिन्हें यदि कोई अन्य व्यक्ति सुनता तो हँसते-हँसते लोटपोट हो जाता. पर चूँकि हम व्यंग्यकार थे तो हम गम्भीर बने रहे. साथी व्यंग्यकार की बात पर हँसने का अर्थ था उसके सामने समर्पण कर देना.

चर्चा चल रही थी तभी उन्होंने एक प्रस्ताव रख दिया.

वे बोले,’एक साथी व्यंग्यकार होने के नाते मेरा ये कर्तव्य है कि मैं आपके व्यंग्य की आलोचना करूँ.’

मैंने कहा, ‘असहमत हूँ! एक साथी व्यंग्यकार होने के नाते मेरा ये कर्तव्य है कि मैं आपके व्यंग्य की बुराई करूँ.’

वे बोले, ‘असहमत हूँ! एक साथी व्यंग्यकार होने के नाते मेरा ये कर्तव्य है कि मैं आपके व्यंग्य को गरियाऊँ.’

मैंने कहा, ‘एक साथी व्यंग्यकार होने के नाते मुझे आपसे असहमत होना चाहिये, पर फिर भी गरियाना ही उचित शब्द है.’

‘आपके व्यंग्य बहुत उथले हैं,’ उन्होंने प्रारम्भ किया.

‘आपके व्यंग्य बहुत संकुचित हैं,’ मैंने आगे बढ़ाया.

‘आपके व्यंग्य, व्यंग्य न होकर भाषाई कौतुक अधिक हैं.’

‘आपके व्यंग्य विद्रूप हो जाते हैं.’

‘आपके व्यंग्य संस्कृतिबद्ध हैं.’

‘आपके समयबद्ध हैं.’

‘आपके व्यंग्य में स्त्री उपेक्षित है.’

‘आपके में दलित.’

‘आपके व्यंग्य में पक्षधरता स्पष्ट नहीं है.’

‘आपका व्यंग्य एकपक्षीय है.’

‘आपके व्यंग्य में हास्य का अभाव है.’

‘आपके व्यंग्य में व्यंग्य का अभाव है.’

‘आपके व्यंग्य मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं है.’

‘मैं आपके व्यंग्यों से चिढ़ता हूँ.’

‘मुझे आपके व्यंग्य घटिया लगते हैं.’

‘चाय पियेंगे?’

‘जी अवश्य!’

मैं उठ कर रसोई में चाय बनाने आ गया. मैं चाय बना ही रहा था कि वे भी उठ कर रसोई में आने लगे. उनको आता देख मैंने चाकू को उठा कर अपने पास रख लिया. वे मेरे पीछे आकर खड़े हो गए. मैंने भी चाकू को अपनी पकड़ में लिया ; यदि वे मुझ पर हमला करेंगे तो मैं पलट कर चाकू उनके पेट में घोंप दूँगा. मुझे शिवाजी-अफ़ज़ल खान वाला दृश्य याद आ गया. बस यहाँ अफ़ज़ल व्यंग्यकार, शिवाजी व्यंग्यकार से मिलने आया था.

‘आप ख़ुद ही चाय बनाते हैं?’ उन्होंने पूछा.

‘जी हमेशा.’ मैंने कहा और देखा कि कप गंदे पड़े हैं. अब मुझे कप धोने थे. मैंने चाकू पैंट में खुरसा और कप धोने लगा.

‘आप बरतन भी ख़ुद ही धोते हैं?’

‘जी हाँ!’ मैंने कहा. फिर अचानक ही मुझे कुछ याद आया और मैंने पलट कर बोला, ‘लेकिन मेरी इस परिस्थिति पर व्यंग्य लिखने का अधिकार मेरा है.’

‘आप रोक लेंगे क्या?’ उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा.

‘मैं आपको कोर्ट में घसीट सकता हूँ,’ मैंने उन्हें चेताने के अंदाज़ में कहा.

‘मैं अन्य पुरुष में लिखूँगा तो?’

‘तो.. तो.. तो पुरुषों के बर्तन धोने पर व्यंग्य लिखने से आप बड़ी आसानी से स्त्री विरोधी साबित हो जायेंगे- एक ऐसा व्यंग्यकार जो मानता है कि बर्तन धोना पुरुषों का नहीं, स्त्रियों का काम है.’

यह सुनकर वे सहम गए. और वापस कमरे में जाकर बैठ गए. मैं चाय ले आया. पहली चुस्की मैंने ली. फिर दूसरी चुस्की ली. फिर तीसरी चुस्की ली.

‘अब यदि आप आश्वस्त हों तो चाय पी सकते हैं,’ मैंने कहा.

उन्होंने फटाफट चाय ख़तम की और बोले, ‘ठीक है मैं चलता हूँ.’

उनके यूँ जल्दबाज़ी करने पर मुझे शंका हुई. यदि घर आया मेहमान जाने की जल्दबाज़ी करने लगे तो शक़ होता है कि वो क्या उद्देश्य लेकर आया था? क्या उसका उद्देश्य पूरा हो गया? वो इतनी जल्दी क्यों कर रहा है? मैं उन्हें छोड़ने उनके पीछे जाने लगा तभी मुझे पप्पू अचकन की याद आ गई.

पप्पू अचकन हमारे शहर का एक उभरता शायर था. जिस मुशायरे में जाता; शायराओं और बाकी खवातीनों को अपना दीवाना बना लेता. फिर एक दिन दूसरे शायर बल्लू बेलौस ने उसे बहाने से घर के बाहर बुलवाया और अपने गुंडों से उसका पूरा मुशायरा मय शामियाने के उतरवा दिया.

मैंने उनसे कहा, ‘एक मिनट रुकिये!’

फिर छज्जे पर जाकर पूरी गली का मुआयना किया. गली में कोई नहीं था. मैं उन्हें बाहर तक छोड़ कर आया. वापस आकर अपनी किताबें गिनने लगा. दो किताबें कम निकलीं.

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प्रिय अभिषेक

मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.

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Girish Lohani

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