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कुत्ते की दुम टेढ़ी क्यों?

कतिपय कारणों से हमारे प्रिय लेखक देवेन मेवाड़ी की सीरीज कहो देबी, कथा कहो इस सप्ताह प्रकाशित नहीं की जा सकी है. सीरीज का अगला हिस्सा अगले सप्ताह नियत दिन प्रकाशित किया जायेगा. इस सप्ताह देवेन मेवाड़ी का भेजा यह शानदार व्यंग्य कुत्ते की दुम टेढ़ी क्यों? पढ़िये. सम्पादक

पिछली बार ट्रेन से सफर करते हुए मेरे सहयात्री किसी स्टेशन पर सुबह के धुंधलके में  उस समय उतर गए थे जब मैं नींद के सुखद झौंकों में झूल रहा था. उन्होंने मुझे झंझोड़ा था और उनींदी आंखों से मैंने देखा, वे अपने दोनों हाथों में मेरी दाईं हथेली दबाए कह रहे थे- इतने बढ़िया साथ के लिए धन्यवाद. फिर वे उतर गए मगर बाद में आंख खुली तो पाया रात भर अपने महत्वपूर्ण अनुसंधान कार्यों के बारे में बताते हुए उस मेधावी वैज्ञानिक ने शोध पत्रों की जो फाइल मुझे दिखाई थी, वह उसे सीट पर ही भूल गए हैं. लेकिन, अब क्या हो सकता था? नाम-पते के लिए सारी फाइल टटोल डाली लेकिन लगता है शोध पत्र लिखने-लिखवाने में वे इतना व्यस्त रहे होंगे कि नाम-पता लिखना भूल गए अथवा वरिष्ठता क्रम में बाद में लिखने का निश्चय किया होगा कि क्या पता शोधपत्र प्रकाशनार्थ भेजते समय तक कौन नाम जोड़ना-छोड़ना पड़े. और, जो नाम जल्दी में उन्होंने मुझे बताया था वह कुछ इतना नया और अपरिचित-सा था कि मेरे मस्तिष्क से ही निकल गया है.

लेकिन, उस मेधावी और कुछ कर गुजरने की उद्दाम इच्छा वाले वैज्ञानिक की महत्वपूर्ण उपलब्धियों का दस्तावेज यह फाइल तो है. उसी में से एक शोधपत्र प्रस्तुत कर रहा हूं. संयोगवश यदि मेरे सहयात्री उन वैज्ञानिक महोदय की दृष्टि इस शोधपत्र पर पड़े तो उनसे मेरा विनम्र अनुरोध है कि अविलंब पत्र-व्यवहार करें तथा इस महत्वपूर्ण शोधपत्र पर अपने हक की घोषणा करें ताकि इस खोज का श्रेय कोई अन्य व्यक्ति बिना मेहनत किए ही न लूट ले. इसी आशय के साथ उनकी फाइल से निकालकर फिलहाल यह एक शोध प्रबंध प्रकाशित किया जा रहा है. इससे उनकी मेधा और वैज्ञानिक अनुसंधान के अथक प्रयास का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है. – लेखक

भूमिका

कुत्ता अर्थात् केनिस फेमिलिएरिस रीढ़धारी, स्तनपोषी पशु है. आम बोलचाल में इसे ‘कुक्कुर’ या ‘श्वान’ भी कहा जाता है. यह मांसाहारी कुल और ‘कैनिडी’ परिवार का सदस्य है. अब तक प्रकाशित साहित्य के अध्ययन से पता चलता है कि दुनिया में इस पशु की लगभग 37 जातियां पाई जाती हैं लेकिन श्वान प्रजनकों द्वारा व्यापक संकरण करके इनकी अनेक नस्लें तैयार करने में सफलता प्राप्त की गई है (फेयरचाइल्ड, 1921, स्मिथ, 1933). यही कारण है कि आज नन्हें मोंगरेल और चाऊ से लेकर खूंखार ग्रेहाउंड और टैरियर तक सैकड़ों प्रकार के श्वान हमारे आसपास दिखाई देते हैं.

इनके आकार और रूप-रंग में भारी विभिन्नता पाई जाती है. आकार में कोई छोटा (एडवर्ड, 1913) तो कोई बहुत बड़ा (नेल्सन, 1915) होता है. एंडर्सन (1917) के अनुसार कई कुत्ते झबरीले होते हैं लेकिन इमर्सन इत्यादि (1914,17,21) ने इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया है कि उनके द्वारा जंाचे गए 155 में से 137 कुत्तों के शरीर पर 5 से.मी. से बड़े बाल नहीं थे. इससे साफ पता चलता है कि अधिकांश कुत्तों के शरीर पर छोटे-छोटे बाल होते हैं. लेकिन, स्मिथ (1705) का कहना है कि इनके शरीर पर लंबे बाल होते हैं. इनकी आंखें, कान और घ्राणशक्ति बहुत तेज होती है (मिलर, 1918) और ये गंध के आधार पर आखेट करते हैं (पावेल, 1941). इनकी टांगें लंबी, पतली और पूंछ प्रायः झबरीली होती है (वाकर, 1891). चोपड़ा (1946), प्रियर्सन (1975) तथा विक्टर (1976) द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में 150 में से 104 कुत्तों की पूंछें झबरीली नहीं पाई गईं जिससे यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि अधिकांश कुत्तों की पूंछ पर बाल छोटे होते हैं.

उपलब्ध साहित्य के गहन अध्ययन और अनेक प्राणिशास्त्रियों के साथ निजी पत्र व्यवहार (अप्रकाशित) से पता चला है कि कुत्ता चाहे किसी देश, जाति, नस्ल या रंग-रूप का हो, पूंछ उसकी टेढ़ी ही होती है. यह सार्वभौम सत्य है. लेकिन, लेखकों को आश्चर्य है कि इस दिशा में अब तक नगण्य कार्य किया गया है. आज तक वैज्ञानिकों का ध्यान इस महत्वपूर्ण समस्या की ओर आकर्षित न हो सका कि कुत्ते की दुम (पूंछ) टेढ़ी ही क्यों होती है. इस धारणा पर कि ”कुत्ते की दुम बारह वर्ष तक नली में रखने के बाद भी टेढ़ी ही रहती है“ अब तक कोई वैज्ञानिक परीक्षण नहीं किया गया है. वैज्ञानिक दृष्टि से इसकी सत्यता प्रमाणित करने का कोई प्रयास ही नहीं किया गया. सामान्यजन से जुड़े इस प्रश्न के समाधान के लिए लेखकों ने पहली बार प्रयास किया है और अपने परीक्षण के परिणाम इस शोधपत्र में प्रस्तुत किए हैं. इस 12 वर्षीय विशिष्ट अनुसंधान योजना के लिए लेखकों को राष्ट्रीय अनुसंधान परिषद से कुल 50 लाख रूपए की आर्थिक सहायता प्राप्त हुई जिससे आवश्यक उपकरणों और विभिन्न साधनों के अतिरिक्त एक वरिष्ठ तथा एक कनिष्ठ अनुसंधान अधिकारी, दो वरिष्ठ तथा तीन कनिष्ठ तकनीकी सहायकों, एक प्रयोगशाला सहायक, एक पत्रवाहक, एक ड्राइवर तथा चार एनिमल अटेंडेंटों की व्यवस्था की गई.

 

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

अनेक वैज्ञानिकों का मत है कि आदमी ने कम से कम 10 हजार वर्ष पहले केनिस फेमिलिएरिस को पालना शुरू किया था. कहा जाता है, कभी मानव भेड़िए के बच्चे पकड़ कर अपनी गुफा में लाया था जो उसके साथ हिल-मिल गए और शिकार के साथी बन गए. बाद में यह प्राणी लगातार स्वामिभक्त बनता गया. (खूंखार भेड़ियों से खून का रिश्ता होने के बावजूद इसमें इतनी स्वामिभक्ति किस ‘जीन’ के कारण और कब आई, यह श्वान प्रजनकों के लिए पृथक शोध का महत्वपूर्ण विषय है.) लेकिन, अब तक इस बात की पुष्टि नहीं हो पाई है कि क्या कुत्तों के मूल जनकों की पूंछें भी टेढ़ी थीं अथवा नहीं. गुफाचित्रों में अब तक हिरन, रेंडियर और सांडों की ही अनुकृतियां देखी गई हैं. कुछ देशों में कुत्तों की जो प्राचीन मिट्टी की मूर्तियां मिली हैं उनसे भी इस बारे में कुछ पता नहीं चलता क्योंकि पूंछ बहुत छोटी बनाई गई है.

प्राचीन साहित्य का अवलोकन करने पर लेखकों को इस तथ्य का पता लगा है कि धर्मग्रंथ ‘महाभारता’ में एक ऐसे कुत्ते का उल्लेख किया गया है जो ‘युधिष्ठिर’ नामक व्यक्ति के साथ हिमालय की चोटियों में चढ़ा था और उसके बिना ‘युधिष्ठिर’ ने स्वर्ग जाने से इंकार कर दिया था (ब्राउन, 1814, हम्फ्री, 1880) लेकिन उसकी पूंछ के स्वरूप के विषय में कोई उल्लेख नहीं मिलता. इसी प्रकार एक और रिलीजियस बुक ‘रामचरितमानस’ में तुलसीदास ने नवयुवकों, इंद्र और कुत्तों में एक समानता बताई है. लेकिन, इंद्र और नवयुवकों में किसी की भी दुम नहीं होती है (ब्राउन, 1809, प्रूथी 1813) जिसे वे हिला सकें या जो टेढ़ी हो. इसलिए लेखक इस मत से सहमत नहीं हैं. उधर प्राचीन रोम में रीबिगल देवता को प्रसन्न करने के लिए कुत्ते की बलि दी जाती थी, ऐसा पता लगा है (डेविडसन, 1923).

चिकित्सा विज्ञान के इतिहास में इस प्राणी पर किए गए अनगिनत प्रयोगों का उल्लेख मिलता है. 60-वर्षीय ब्राउन-सेक्वार्ड (1889) ने इसके महत्व का उल्लेख किया. उसने इसके वृषणों के सत की सुई लगाकर पुनर्योवन पाने की घोषणा की थी. प्रो. नोनिन, मिंकोवस्की और मेरिंग (1889) ने इसकी पाचनक्रिया पर प्रयोग किए मगर बरामदे में एक प्रयोगाधीन श्वान के मूत्र पर भिनभिनाती मक्खियां देखकर उसमें चीनी का पता लगा डाला. मगर केनिस फेमिलिएरिस पर सर्वाधिक प्रयोग रूसी शरीर-क्रिया विज्ञानी इवान पैत्रोविच पावलोव (1872-1888) ने किए. पावलोव (1888) ने अपने प्रारंभिक परीक्षण इसकी पाचन प्रणाली पर केंद्रित किए. उसने कुत्ते की आंत से एक नली जोड़ दी और उसके सामने मांस दिखा कर पाचनतंत्र में पैदा होने और नली के जरिए बूंद-बूंद टपकते पाचक रसों का पता लगाया. उसने यह भी सिद्ध किया कि खाने की घंटी बजने या खाना परोसने वाले की मात्र पदचाप से भी कुत्ते के पेट में पाचक रस पैदा होने लगते हैं. (पावलोव, 1902).

इस विशिष्ट प्रयोग में न केवल कुत्ते वरन मानव की पाचन क्रिया पर तो प्रकाश पड़ा लेकिन पूंछ पर प्रकाश डालने में ये वैज्ञानिक भी असमर्थ रहे. यह बात अलग है कि पाचन पर किए गए प्रयोगों के लिए पावलोव को सन् 1904 का नोबेल पुरस्कार दिया गया. रूस में ही एक कुत्ते पर दो सिर जोड़ने के सफल प्रयोग भी किए गए. कनाड़ा में बैंटिंग तथा बैस्ट (1920) ने केनिस फेमिलिएरिस की पेंक्रिएज नामक ग्रंथि पर कार्य करके इंसुलिन की खोज की जिससे डायबिटीज के मूल कारण का रहस्योद्घाटन हो सका. इस खोज के लिए उन्हें सन् 1923 का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया. इसके बावजूद पूंछ के वक्र होने के कारण अंधकार में ही पड़े रहे.

इसके बाद अंतरिक्ष संबंधी प्रयोगों में इस प्राणी का उपयोग किया गया. अनेक कुत्तों पर भारहीनता, गुरुत्वाकर्षण आदि के प्रभावों का गहन अध्ययन किया गया. लाइका नामक एक कुतिया को स्पुतनिक-2 नामक उपग्रह में 3 नवंबर 1957 को प्रथम बार अंतरिक्ष में भेजा गया. लेखकों को आश्चर्य है कि केनिस फेमिलिएरिस पर इतना अनुसंधान होने के बावजूद इसकी पूंछ का प्रश्न फिर भी अछूता ही रहा.

उपलब्ध साहित्य के गहन अध्ययन से केवल एक संदर्भ का पता चलता है जिसमें इस प्राणी की पूंछ पर ध्यान देने का प्रयास किया गया है. ज़ार के जमाने में रूस के चेलम नामक स्थान में (जो हमारे देश के शिकारपुर की तरह विख्यात है) लेयाक बिन लेकीश नामक एक दार्शनिक थे. उनसे यह पूछने पर कि कुत्ता अपनी दुम क्यों हिलाता है, जवाब मिला-क्योंकि उसका शरीर दुम की तुलना में अधिक ताकतवर है. अगर ऐसा नहीं होता तो जरूर दुम कुत्ते को हिलाती.

लेकिन, दुम टेढ़ी होने की समस्या यहां भी अछूती रह गई. इसीलिए लेखकों को आम आदमी की जिज्ञासा के विशेष संदर्भ में इस सार्वभौम समस्या पर विश्व में पहली बार अनुसंधान करने का श्रेय प्राप्त है.

सामग्री एवं विधि

इस अध्ययन के लिए निम्नलिखित सामग्री का उपयोग किया गयाः

कुत्ते के पिल्ले 40 (देशी 15, अलसेशियन 5, स्पेनियल 5, टैरियर 5, ग्रेटडेन 5, बुलडाग 5 ), लोहे की जंजीरें 40, प्लेटें 40, जलपात्र 40, चिलमचियां 40, बांस की नलियां 15, तांबे की नलियां 5, स्टील की नलियां 10, वर्नियर कैलिपर्स 5, एक किलो तक के विभिन्न बांट, पैमाने 10, एप्रन 10, रिकार्ड बुक, लेखन सामग्री आदि. इसके अतिरिक्त 40 पैराम्बुलेटर भी खरीदे गए. उनका उपयोग पिल्लों के लिए किया गया क्योंकि पिल्ले बड़े होने तक नलियों को संभालने में असमर्थ थे. अतः पैराम्बुलेटरों में उचित व्यवस्था की गई. कुत्तों को मौसम के कुप्रभावों से बचाने के लिए एक वातानुकूलित प्रयोगशाला का निर्माण किया गया. व्यय में यथासंभव कमी करने के लिए प्रयोगशाला के ही कुछ कमरों का वैज्ञानिकों एवं अन्य कर्मचारियों के बैठने हेतु उपयोग कर लिया गया जिससे पृथक कार्यालय का भारी खर्चा बचाया जा सके.

प्रयोग के आरंभ में ही पिल्लों को 6 समूहों में बांट दिया गया जो इस प्रकार हैंः

10 पिल्लों की दुम में बांस की नली,

10 पिल्लों की दुम में स्टील की नली,

5 पिल्लों की दुम में तांबे की नली

5 पिल्लों की दुम में आवश्यक वजन लटकाया

5 पिल्लों का पुच्छ विच्छेदन, तथा

5 पिल्ले तुलना के लिए सामान्य रूप से बढ़ने दिए गए.

पिल्लों की पूंछ में नलियां पहना दीं गईं. उन्हें पैरांबुलैटरों में घुमाया गया और आवश्यकता पड़ने पर नलियों को हाथ से सहारा देकर कमरों में घूमने-फिरने की सुविधा भी प्रदान की गई. पूंछविहीन अवस्था का अध्ययन करने के लिए 5 पिल्लों की पूंछें काट दीं गईं. नली के बजाए पूंछ सीधी करने के लिए आवश्यक भार के मीट्रिक बांट लटकाए गए. पांच पिल्ले बिल्कुल सामान्य रूप से बढ़ने दिए गए. सभी पिल्लों को दिन में दो बार दूध, चपाती व मांस और तीन बार पानी दिया जाता रहा. उनके स्वास्थ की नियमित रूप से जांच की जाती रही और प्रतिदिन शरीर का तापमान, रक्तदाब, नाड़ी हृदय की धड़कनों तथा सांस लेने की गति और त्वचा की संवेदनशीलता के आंकड़ें रिकार्ड किए जाते रहे. एक बार मांस और दो बार दूध में किसी खराबी के कारण कुत्ते बीमार पड़ गए थे जिन्हें उचित देखभाल से ठीक कर लिया गया. लेकिन, आश्चर्य इस बात का है कि कुत्तों के साथ ही प्रयोगशाला के सभी कर्मचारी भी बीमार पड़ गए थे. इस संबंध में बाद में काफी सावधानी बरती गई. (तहजीब के शहर लखनऊ में)

परिणाम

12 वर्ष की अवधि पूरी होने तक केवल 11 कुत्ते जीवित रहे. 29 में से 10 कुत्ते पेचिस, 5 कुत्ते रेबीज और 14 कुत्ते अज्ञात कारणों से मर गए (हो सकता है यह कुत्तों का कोई अज्ञात मगर महत्वपूर्ण रोग हो, इस पर गहन अनुसंधान की आवश्यकता है). 11 जीवित कुत्तों में से 2 बांस की नली वाले, 2 स्टील की नली वाले, 2 तांबे की नली वाले, 1 वजन वाला, 2 दुमकटे और 2 सामान्य रूप से बढ़े हुए कुत्ते थे.

12 वर्षों की अवधि में इनका रक्तचाप, हृदय की धड़कनें, सांस और नाड़ी की गति कभी सामान्य और कुछ अवसरों जैसे छेड़ने, मांस देखने या एक-दूसरे पर झपटने में असामान्य रही. पुच्छ- विच्छेदन के समय दिल की धड़कनें बहुत तेज हो गईं.

ठीक 12 वर्ष बाद 6 कुत्तों की पूछें नलियों में से बाहर निकालने पर कुत्तों के आकार के अनुसार उनकी मोटाई और लंबाई में पर्याप्त वृद्धि पाई गई और नली के बाहर निकलते ही पूंछें सामान्य रूप से टेढ़ी हो र्गइं. इसके साथ ही प्रयोगाधीन कुत्तों का व्यवहार भी सामान्य पाया गया क्योंकि शोधकर्त्ताओं को देखते ही वे सामान्य रूप से अपनी दुमें हिलाने लगे.

निष्कर्ष

उक्त 12-वर्षीय प्रयोग के परिणामों का विश्लेषण करने से सिद्ध होता है कि केनिस फेमिलियेरिस अर्थात् कुत्ते की पूंछ को 12 वर्ष तक नली में रखने पर भी (भले ही नली बांस की हो अथवा धातु की) वह टेढ़ी की टेढ़ी ही रहती है.

आभार

इस महत्वपूर्ण  अनुसंधान योजना को स्वीकृत कर आर्थिक सहायता प्रदान करने के लिए लेखक राष्ट्रीय अनुसंधान परिषद् के प्रति अत्यंत आभार प्रकट करते हैं. इस दीर्घकालीन प्रयोग के मार्गदर्शन तथा साहस बढ़ाने के लिए तथा विभिन्न देशों के कुत्तों का अध्ययन करने के लिए विदेश यात्रा की स्वीकृति देने हेतु हम अपने राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान के निदेशक महोदय के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं. विभागीय तथा अनुभागीय स्तर पर कार्य की सुविधा प्रदान करने के लिए हम विभागाध्यक्ष तथा अनुभागाध्यक्ष महोदय के आभारी हैं. हमारे विभागीय सहयोगियों के बहुमूल्य सहयोग के बिना यह कार्य हो ही नहीं सकता था. और, इस अनुसंधान आलेख की पांडुलिपि को फेयर तथा टाइप करने में अपनी गृहणियों से मिले अमूल्य सहयोग (घर के सभी कार्यों के अतिरिक्त!) के लिए हम व्यक्तिगत स्तर पर आभार प्रकट करते हैं.

 

वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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Girish Lohani

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