रूपकुंड की रहस्यमयी झील के बारे में मैं बहुत किस्से सुने चुकी हूँ. खासकर की झील के चारों ओर बिखरे हुए नरकंकालों के बारे में पर अब मैं इन रहस्यों और किस्से कहानियों को अपनी नजरों से देखना चाहती हूँ इसलिये रूपकुंड जाने का तय किया. रूपकुंड उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित है. इसकी समुद्रतल से ऊँचाई 5000 मीटर है.
रूपकुंड के लिये चमोली जिले के गाँव लोहाजंग जाना है. मैं सुबह 6 बजे हल्की बारिश के बीच लोहागंज के लिये निकल गयी. बारिश के कारण कोसी नदी पानी से भरी है हालाँकि पानी गंदला है. सुबह 9 लगभग बजे अल्मोड़ा पहुँच गये. टैक्सी वाले को यहाँ काम होने के कारण उसने धारानौला में टैक्सी रोक दी. सामने कुछ बच्चे स्कूल जा रहे हैं. छोटे से बच्चे जिनकी पीठ बस्ते के बोझ से झुकी हुई है. रुकते-रुकाते बच्चे किसी तरह जा रहे हैं. कुछ बच्चे अपने माता-पिता तो कुछ बच्चे अपने दादा, नाना के साथ जा रहे हैं. बस्ते के साथ बच्चों का ये संघर्ष रोज होता होगा और कई बच्चे तो पढ़ाई से ज्यादा ध्यान बस्ते को आसानी से ढोये जा सकने वाले तरीकों में लगाते होंगे.
खैर ! टैक्सी वाला वापस आया और टैक्सी आगे बढ़ गयी. कोसी गाँव में ड्राइवर ने फिर गाड़ी रोक दी. कमीशन के चक्कर में अब ये लोग कहीं भी गाड़ी रोक देते हैं. थोड़ा चिड़चिड़ाहट के साथ में भी बाहर निकली. छोटा गाँव है कोसी और बाजार भी छोटा ही है. टहलते हुए एक रैस्टोरेंट में आलू—रायता दिख गया और मैं खुद को रोक नहीं पायी. रायता खूब तेज राई के साथ पहाड़ी तरीके से बना है. खाते ही एकदम झन्नाटेदार स्वाद से पूरी थकान गायब हो गयी. अब लग रहा है अच्छा ही हुआ यहाँ रुके. जब गरुड़ पहुँचे तो यहाँ मेले का सा माहौल दिखा. सड़क पर ही कई दुकानें लगी हैं. जिनमें महिलायें अपने रोजमर्रा में इस्तेमाल होने वाले सामनों का मोलभाव करती दिखीं. बैजनाथ, कौसानी, सोमेश्वर को पार करके हम ग्वालदम पहुँचे और फिर बारिश शुरू हो गयी. रास्ते कई जगहों में टूटे हैं. खतरनाक जगहों में तो जे.सी.बी. मशीनें खड़ी ही कर दी गयी हैं ताकि सड़क टूटे तो उसे साफ किया जा सके और कितनी जगहों पर तो गहरी धुंध के कारण रास्ता नजर नहीं आ रहा. देवाल पहुँचने पर बारिश थोड़ा रुकी और धुंध छँट गयी. नीचे बहती पिंडर नदी सिर्फ कुछ पलों के लिये दिखी क्योंकि बारिश फिर शुरू हो गयी.
धुंध के हटते ही गाँव, नदी, हरियाली, पुल सब नजर आ जाता. बारिश में ही ड्राइवर ने 4 बजे लोहाजंग पहुँचा दिया. लोहाजंग छोटा गाँव है जहाँ से रूपकुंड का ट्रेक शुरू होता है. यहाँ गैस्ट रूम में सामान रख के मैंने चाय पी और कुछ सामान खरीदने बाजार आ गयी. दुकानों में 4-5 आदमी झुंड बना कर बैठे हैं और गप्पें चल रही हैं. मैं एक दुकान में गयी जहाँ मेरी जरूरत की चीजें दिख गयी. दुकानदार ने सामान की कीमत बहुत ज्यादा बताई और वो कीमत कम करने को भी तैयार नहीं है. इस बात से बुरा भी लगा पर जब उनसे बात हुई तो उन्होंने कहा – मुझे परिवार को पालने के लिये यात्रा के दौरान ही कमाना होता है. जब खेती के बारे में पूछा तो मुँह सिकोड़ते हुए बोले – खेती तो अब दिन-ब-दिन बर्बाद ही होती जा रही है. कुछ जानवरों ने बर्बाद कर दी कुछ सरकारी नीतियों ने बर्बाद कर दी और अब युवा भी इस काम को नहीं करना चाहते हैं. वो बाहर जाकर नौकरी करना पसंद करते हैं इसलिये खेती नहीं के बराबर है. बाहर के लोग आकर यहाँ जमीनें खरीद रहे हैं और अपना बिजनेस बना रहे हैं. इतनी बातें करके मैं वापस आ गयी. घने धुंध के बीच से दो बच्चियाँ पानी के बर्तन सिर में रखती हुई आती दिखी. उन्होंने बताया – हम रोज शाम पानी भरने जाते हैं. स्कूल से वापस आने के बाद पानी भरने का काम करना होता है. पढ़ाई के लिये रात को समय निकालते हैं. कुछ महिलायें पीठ में बांस की बनी टोकरियों में सामान भर कर ढो रही हैं. इन टोकरियों को ढोका कहते हैं जो हर तरह के सामान की ढुलाई के काम आता है. एक महिला तो इसमें गैस सिलेंडर ढो रही है पर पता नहीं भरा है या खाली.
अब फिर तेज बारिश शुरू हो गयी. गैस्ट हाउस पहुँचते ही मैं मालिक के घर चली गयी जहाँ उनकी पत्नी, माँ, बहन और दो छोटे बच्चे हैं. उन्होंने जमीन में एक बोरी बिछा कर मुझसे चूल्हे के पास बैठने को कहा. ये मकान सीमेंट से बना दो मंजिला मकान है. वैसे तो मकान सीमेंट से बना है पर अंदर की सुविधायें पुराने तरीके की ही हैं.
हालांकि रसोई में गैस सिलेंडर भी है पर ज्यादातर लकड़ी का चूल्हा इस्तेमाल होता है. अभी भी लकड़ी का चूल्हा जला हुआ है जिससे अंदर गर्म हो रहा है और मेरे कपड़े भी सूख गये. महिला ने चाय देते हुए कहा – खाना खा के ही अपने कमरे में जाना.
बारिश अभी भी नहीं रुकी जिससे ट्रेक की चिंता भी हो रही है पर उम्मीद है सुबह तक मौसम अच्छा हो जायेगा. खाना खा के मैं अपने कमरे में आ गयी. रात भर बारिश की तेज आवाजों ने सोने नहीं दिया. सुबह के समय बारिश बंद हुई. उजाला होते ही मैं बाहर निकली. बारिश तो रुकी है पर गहरी धुंध छायी है. 7 बजे मेरे गाइड किशन भाई आ गये. उन्होंने कहा – ट्रेक का पूरा इंतजाम हो गया है. अब मौसम खुलने का इंतजार करते हैं. जैसे ही मौसम थोड़ा ठीक होता है हम ट्रेक शुरू कर लेंगे.
लगभग 9 बजे हल्की धूप निकल आयी और हमने ट्रेक शुरू कर दिया. किशन भाई के साथ उनके हेल्पर हैं तेज सिंह. तेज भाई ग्वालदम में रहते हैं और कई ट्रेक कर चुके हैं. आज हमें डीडना गाँव तक ही जाना है. फिलहाल तो रास्ता सीधी सड़क वाला है और दोनों ओर से घने जंगलों से ढका है जिसमें कई तरह के जंगली फूल खिले हैं पर कच्चा होने के कारण फिसलन बहुत है.
3-4 किमी रास्ता तय करके कुलिंग गाँव आ गया. कुलिंग गाँव 60 परिवारों वाला गाँव है. अच्छी बात यह है कि यहाँ फिलहाल सारे मकान पारम्परिक ढंग से ही बने हैं. यहाँ एक मंदिर भी है जिसके आँगन में झाड़ियाँ उग आयी हैं.
कुछ मकानों के बाहर बुजुर्ग कुर्सी में बैठे नजर आ रहे हैं. अचानक ही निकली इस धूप का मजा तो हर कोई लेना चाहता है. यहाँ से खड़ंजे वाले रास्ते से होते हुए मैं नीचे की ओर चली गयी. अब गर्मी होने लगी है और बारिश रुक गयी है. पत्थरों से बने खड़ंजे में फिसलन के कारण चलना थोड़ा मुश्किल हो रहा है पर रास्ता जंगलों के बीच से जा रहा है इसलिये ठंडी हवा के झोंके गर्मी कम कर रहे हैं. यहाँ कई तरह के चौड़ी पत्ती वाले पेड़ों का जंगल हैं जिनमें कई तरह के फूल हैं. चिड़ियाऐं फुदकती दिख रही हैं और रंग-बिरंगी तितलियाँ भी उड़ रही हैं. जल्दी ही नीलगंगा आ गयी.
नीलगंगा का पानी साफ और ठंडा है. मैंने पानी की बोतल भरी और कुछ देर वहीं बैठी रही. एक स्थानीय आदमी अपने बच्चे, खच्चर और कुत्ते के साथ नदी पार कर रहा है. इन जगहों में रहने वाले बच्चे भी ये सब सीख के ही दुनिया में आते हैं शायद क्योंकि छोटे से बच्चे ने जिस मजे के साथ नदी पार की वो देखने लायक है और वो भी तब जबकि नीलगंगा में बहाव बहुत तेज है.
अब मेरी बारी है नदी पार करने की. मैंने भी नदी पार की और दूसरी ओर निकल गयी. थोड़ा आगे बढ़ के एक सस्पेंशन पुल को पार किया. इसके बाद से तो सिर्फ और सिर्फ चढ़ाई ही है. किशन भाई ने कहा – चढ़ाई थोड़ा ज्यादा खड़ी है. चढ़ाई वाकय में बेहद कठिन है और तेज धूप मेरी सारी ताकत भी सोखते जा रही है. इस रास्ते में जंगल कम हैं तो छाँव भी नहीं मिल रही है और पानी भी नहीं है इसलिये अपने पास वाले पानी को संभाल के पीना पड़ रहा है. घाटियों के नजारे भी कम ही दिख रहे हैं.
3-4 घंटे तक यूँ ही पसीना बहाते हुए चढ़ाई चढ़ने के बाद आखिरकार डिडना गाँव आ गया. गाँव के घरों से रास्ता पार करते हुए मैं वहाँ पहुँची जहाँ मुझे रुकना है. आज भी होम स्टे करेंगे इसलिये टेंट लगाने की जरूरत नहीं है.
(जारी)
विनीता यशस्वी नैनीताल में रहती हैं. यात्रा और फोटोग्राफी की शौकीन विनीता यशस्वी पिछले एक दशक से नैनीताल समाचार से जुड़ी हैं.
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