‘गिर्दा’ की पूरी जीवन कहानी यायावरी की है. हवलबाग के पास कोसी नदी के करीब ज्योली गांव में माता श्रीमती जीवन्ती तिवाड़ी और पिता हंसा दत्त तिवाड़ी के घर 10 सितम्बर, 1945 को उनका जन्म हुआ. पांच बहिन-भाईयों (एक दीदी और चार भाई) में वह सबसे छोटा था. उनका बचपन का नाम भव्वा था. परिवार में सबसे बड़ी दीदी थी, जिसके जन्म के तुरंत बाद मां की आखों की रोशनी चली गई थी.
(Remembering Girish Tiwari Girda)
लगता है, अपनी रोशनी विहीन मां से दव्रित होकर ‘गिर्दा’ ने अपने आस-पास के मानवीय समाज को अन्तःमन से पहचाने और उनकी भावनाओं को बखूबी अभिव्यक्त करने की कला समझी-सीखी.
ज्योली गांव में उसकी गिनती आवारा और नालायक लड़कों में होती थी. वाकई, ज्योली उसकी आवारागर्दी की प्राथमिक पाठशाला थी. तभी तो, अपने जीवन के आखरी पड़ाव तक ‘गिर्दा’ अपने को ज्योली का नालायक कहता रहा. इसी नालायकी में उसके लायक होने के बीज भी छिपे थे. उसने ज्योली की आवारागर्दी में उपजी नालायकी में अपने समाज के रंग-ढंग, सुख-दुःख और ढ़ब-बेढ़ब मिज़ाज को जाना और समझा.
गांव-समाज में व्याप्त सामाजिक भेदभाव को ‘परे हट’ कहते हुए हुड़का, ढोल और हारमोनियम वादक उसके सबसे प्रिय संगी-साथी थे. गांव-समाज के सयाने उसे लताड़े हुए कहते कि – ‘सब भ्रष्ट करी हालो तैल’ (तूने, सब भ्रष्ट कर दिया है.).
पर, ‘भव्वा’ उनकी ‘पव्वा’ भर परवाह भी नहीं करता था. और, न उनसे डरता था.
प्रारंभिक शिक्षा हवलबाग से करने के बाद हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए भव्वा अल्मोड़ा आया. अल्मोड़ा आकर उसकी आवारगी और परवान चढ़ी. विद्यालय की पढ़ाई से जी चुरा कर बाकी जो भी वह अपने साथियों के साथ करता उसमें वह सबसे अव्वल था. गीत-संगीत में रमने वाला भव्वा हाईस्कूल पास करने के बाद वापस अपने गांव ज्योली आ गया. और, गांव में घर के काम-धाम करने लगा. उसने व्यक्तिगत प्रशिक्षार्थी के तौर पर इंटर भी कर लिया था.
पर, गजब तब हुआ जब इस दौरान भव्वा को किसी बालिका से घनघोर प्रेम हो गया. बदकिस्मती से जो असफल रहा. नतीजन, भव्वा घर-गांव ज्योली से पीलीभीत जिले के पुरनपुर कस्बे की ओर भाग गया.
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‘गिर्दा’ ने अपने गांव ज्योली से बाहर आने के बाद जीवकोपार्जन के लिए तरह-तरह के काम किए. उसने लखनऊ, अलीगढ़, पीलीभीत और पूरनपुर में रिक्शा चलाया, पीडब्लूडी में वर्क चार्ज और घ्याडी पर काम किया. दिन में नौकरी या रिक्शा चलाया और रात को नौंटकी देखकर वह अभावों में भी मस्त रहता था. उर्दू शायरी का चस्का लगा तो फुटपाथ पर बिकने वाली उर्दू किताब लेकर जानने वालों की मदद से उर्दू सीखना शुरू किया. इसी फक्कड़ी में मित्र दुर्गेश पंत के साथ मिल कर कुमाऊंनी कविताओं का संकलन किया. (यह संकलन सन् 1969 में ‘शिखरों के स्वर’ पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ. उल्लेखनीय है कि, इस संकलन को पहला कुमाऊंनी कविता संग्रह माना गया है.)
लोक संगीत और साहित्य के मर्मज्ञ बृजेन्द्र लाल साह से सन् 1967 में ‘गिर्दा’ का संपर्क हुआ. वे गिर्दा की प्रतिभा से बेहद प्रभावित हुए. उन्हीं की बदौलत ‘गिर्दा’ भारत सरकार के गीत और नाट्य प्रभाग, नैनीताल में नौकरी पा गये. नौकरी में पहले हुडका और हारमोनियम बजाते थे. बाद में स्क्रिप्ट लेखन और निर्देशन करने लगे. नौकरी के दौरान उनकी आकाशवाणी से कविताएं, गीत, नाटक और वार्तायें प्रसारित होने लगी. विशेषकर, आकाशवाणी, लखनऊ के उत्तरायण कार्यक्रम से वे जुड़े.
‘गिर्दा’ और हेमलता भाभी का विवाह 10 जून, 1987 को अल्मोड़ा में हुआ. भारत सरकार के गीत और नाटक प्रभाग से वर्ष- 1996 में ‘गिर्दा’ ने स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ली थी.
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प्रो.बटरोही जी ने लिखा है कि ‘दूसरों तक खुद को पहुंचाने की इच्छा ही लेखक को निजी से सार्वजनिक बनाती है.’ यह इच्छा ‘गिर्दा’ के व्यक्तित्व में सर्वाधिक थी. इसीलिए, सरकारी नौकरी की बन्दिशों को ‘गिर्दा’ ने अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया.
उसने कहा
मैं यह सह सकता हूं
सरकारी नौकर होने के नाते
उसने कहा
लेकिन मैं यह नहीं सह सकता
एक आदमी होने के नाते.
और, गिर्दा ने अपने को सरकारी नौकर से ज्यादा आदमी होने को प्रमुखता दी.
नैनीताल में सरकारी नौकरी करते हुए विभिन्न अवसरों पर ‘गिर्दा’ का परिचय उस दौर के सामाजिक सरोकारों में सक्रिय युवाओं से होता रहता था. ‘गिर्दा’ और उसके साथियों की मजबूत सामाजिक प्रतिबद्धता ही थी कि आपातकाल के दौर में सरकारी स्तर पर वे ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ नाटक का सार्वजनिक मंचन कर पाये थे.
आगे चलकर, शेखर पाठक, राजीव लोचन साह, निर्मल जोशी, शमशेर बिष्ट, प्रताप शिखर, राजा बहुगुणा, विपिन त्रिपाठी, पी. सी. तिवारी, नवीन जोशी, प्रदीप टम्टा, कुवंर प्रसून, काशी सिंह ऐरी, जगत रौतेला, चन्द्रेश शास्त्री, जसवन्त सिंह बिष्ट से बने दोस्ताना संबंधों ने ‘गिर्दा’ की सामाजिक सक्रियता और रचनाशीलता को नई दिशा और गति प्रदान की. (उस दौर में, पर्वतीय युवा मोर्चा के बैनर तले उक्त सभी युवा अलग-अलग प्रतिभाओं के संभावनाशील व्यक्तित्वों के रूप में उभर रहे थे. काश, आगे चलकर इन सबमें आपसी समझ और सामांजस्य बना रहता तो आज उत्तराखण्ड की राजनैतिक-आर्थिक दिशा और दशा कहीं बेहतर होती.)
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उत्तराखण्ड में 20वीं शताब्दी का 70 का दशक राजनैतिक-सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हलचलों का रहा है. इसके शुरुआती वर्षों में कुमाऊं एवं गढ़वाल विश्वविद्यालय और वन आन्दोलनों ने यहां के निवासियों की सामाजिक चेतना को नया आयाम प्रदान किया. वे अपनी स्थानीयता और क्षेत्रीयता के हक-हकूकों के प्रति अधिक सचेत होने लगे थे. वनों के दोहन के विरुद्ध 26 मार्च, 1974 को रैणी गांव, चमोली (गढ़वाल) से चिपको आन्दोलन और इसके तुरंत बाद समग्र विकास की पड़ताल करने के उद्वेश्य से ‘पहाड़’ द्वारा 25 मई, 1974 को अस्कोट (पिथौरागढ) से आराकोट (उत्तरकाशी) अभियान शुरू हुआ. इसके अगले चरण में पर्वतीय युवा मोर्चा, युवा निर्माण समिति और उत्तराखण्ड सर्वोदयी मण्डल के संयुक्त प्रयासों से सर्वोदयी और वामपंथी विचारधार वाले युवाओं ने गोपेश्वर में ‘पढ़ाई के साथ सामाजिक लड़ाई’ नारे के साथ 25 मई, 1977 को ‘उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी’ का गठन किया.
यह महत्वपूर्ण है कि उक्त सभी प्रयासों में गिर्दा की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में सक्रिय साझेदारी और भागेदारी रहती थी.
‘गिर्दा’ के जन-आन्दोलनों में सशक्त भागेदारी की शुरुआत 27 नवम्बर, 1977 को वनों की नीलामी के खिलाफ नैनीताल में हुये प्रर्दशन से हुई. इस जन-प्रदर्शन में ‘गिर्दा’ ने सन् 1926 मेे गौरी दत्त पाण्डे ‘गौर्दा’ की लिखी ‘वृक्षन को विलाप’ कविता को नये तेवर और तीखे शब्दों के साथ रचकर गाया. प्रदर्शन में हुडका लिए गिर्दा –
आज हिमाल तुमन कैं धत्यूं छौं, जागो-जागो हो मेरा लाल,
नी करी दी हालो हमरी निलामी, नी करी दी हालो हमरो हलाल’
गीत गाता रहा. कुछ ही युवाओं से शुरू हुआ यह जलूस सैकडों आन्दोलनकारियों में कब और कैसे तब्दील हुआ, ये किसी को भी पता नहीं चला. पुलिस-प्रशासन को भी नहीं. ‘गिर्दा’ और उसके कई साथियों को गिरफ्तार करके हल्द्वानी जेल में बंद कर दिया गया. इसके बाद ता-उम्र ‘गिर्दा’ का शासन-प्रशासन, पुलिस तथा असामाजिक तत्वों से सार्वजनिक भिडंत का अटूट रिश्ता बना रहा.
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अपने गांव ज्योली में ढोलियों, हुड़कियों और जागरियों की हुनरमंद संगत ने ‘गिर्दा’ को सामाजिक जीवन के मूल स्वभाव और सच के पाठों पढ़ाया था. उनके सिखाये इन्हीं पाठों को आधार बनाते हुए ‘गिर्दा’ ने जीवन-भर अपना रचना संसार रचा. फैज, गालिब, इकबाल, फिराक, साहिर, नीरज, नागार्जुन, गौर्दा, गुमानी, केशव अनुरागी, शेरदा अनपढ़, घनश्याम सैलानी, चारुचन्द्र पाण्डे, गुणानंद ‘पथिक’ के लेखन और कला से उनकी दोस्ती जवान हो रही उम्र में ही हो गई थी. लेखकीय अन्तःमन की दोस्ती का प्रभाव रहा कि वे इन सबको अपनी रचनाओं में आत्मसात करके एकाकार कर लेते थे. उनको अपनी कविताओं से ज्यादा आनंद अपने समकालीन और पूर्ववर्तियों की कविताओं को सुनाने में आता था.
‘गिर्दा’ मानते कि, राष्ट्रीयता और अन्तरराष्ट्रीयता का जन्म स्थानीयता में ही होता है. अब रचनाकार की प्रतिभा और दृष्टि है कि वह इनमें कैसे सामाजस्य बिठाता है? वे स्वीकारते कि मैंने कुछ भी नया नहीं कहा और न लिखा –
वो तो अन्दाजे बयां बात बना देता है,
वर्ना, दुनियां में नयी बात कौन कह पाया?
‘गिर्दा’ ने ता-उम्र जिस तरह के साहित्य को रचा उसी के अनुरूप अपना जीवन भी जिया. वे रचनाकर्मी के रूप में केवल भावनाओं को सार्वजनिक नहीं करते वरन उसमें वह पूरी भागेदारी से हाजिर-नाज़िर रहते. अपने गीतों और कविताओं को आम-जन तक पहुंचाने के लिए वे स्वयं उसके सशक्त संवाहक होते. और, ये गीत तुरंत जन-आन्दोलनों के थीम सौंग का रूप लेकर जन-गीतों में बदल जाते.
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‘गिर्दा’ ने सामाजिक जीवन के बहु-आयामों पर काम करते हुए अनेक रचनायें लिखी. दुर्गेश पंत के साथ ‘शिखरों के स्वर’ (कुमाउंनी कविताओं का संकलन, सन्-1969), शेखर पाठक के साथ ‘हमारी कविता के आंखर’ (वर्ष -1977), ‘रंग डारि दियो हो अलबेलिन में’ (होली संग्रह, वर्ष-1999), तथा ‘उत्तराखण्ड काव्य’ (उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान रचित कवितायें, जिनका नैनीताल से 53 दिनों तक लगातार उत्तराखण्ड बुलेटिन के साथ पाठ हुआ. वर्ष- 2002) उनकी प्रकाशित रचनायें हैं.
‘गिर्दा’ ने कुमाउंनी, गढ़वाली, उर्दू तथा हिन्दी की अनेक काव्य रचनाओं के बेहतरीन अनुवाद किए. जागर कैसेट के माध्यम से हिन्दी, उर्दू, कुमाउंनी और गढ़वाली भाषा की काव्यात्मक अभिव्यक्ति को जनगीतों में तब्दील करके उन्हें उत्तराखण्डी जनजीवन में प्रचार-प्रसार किया. उन्होने ‘नगाड़े खामोश हैं’ और ‘धनुष यज्ञ’ नाटक लिखे. ‘अंधा युग’, ‘अंधेर नगरी, चौपट राजा’ और ‘थैंकू मिस्टर ग्लाड’ जैसे नाटकों का सफल निर्देशन किया. कई नुक्कड़ नाटकों के साथ भारत सरकार के गीत और नाटक प्रभाग के लिए ‘मोहिल माटी’ ‘राम’, ‘कृष्ण’ तथा होली रचनायें लिखी और उनका निर्देशन किया. ‘गिर्दा’ ने हिन्दी और कुमाउंनी दोनों में बराबर लिखा अपनी कुमाउंनी कविताओं का स्वयं अनुवाद भी किया.
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‘गिर्दा’ ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय, फिल्म डिविजन, भारत सरकार के सौजन्य से भगवती चरण वर्मा की कहानी ‘वसीयत’ पर बनी फिल्म के मुख्य पात्र जनार्दन जोशी की भूमिका अदा की. साथ ही, बेला नेगी की ‘दांए या बांए’ फिल्म में काम किया. गिर्दा युगमंच, जागर, पहाड़, जन संस्कृति मंच जैसी संस्थाओं उत्तरा, नैनीताल समाचार, युगवाणी, जंगल के दावेदार जैसे पत्र-पत्रिकाओं से अवधारणात्मक और सम्पादकीय सहयोग के साथ जुड़े रहे. ‘गिर्दा’ ने नैनीताल के हरदा सूरदास की प्रतिभा को विस्तार देकर लोक कलाकार के रूप में उन्हें लोकप्रिय पहचान दी. भारत-नेपाल की साझी विरासत के प्रतीक गायक-वादक झूसिया दमाई पर ‘गिर्दा’ ने महत्वपूर्ण शोध कार्य किया.
पौड़ी नगर में 12 जून, 1999 को गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ और नरेन्द्र सिंह नेगी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से काव्य जुगलबन्दी में हमारे समाज के वैभव और विसंगतियों को उजागर करते हुए सामाजिक जन-संघर्षों को सशक्त करने की प्रेरणा दी.
आज, उत्तराखण्ड ही नहीं समस्त हिमालय क्षेत्र में चारों ओर अनावश्यक एवं अत्यधिक मानवीय हस्तक्षेप से आपदायें विकराल रूप धारण किए हुए हैं. समाज में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार की विकराल होती समस्याओं के साथ सामाजिक सहयोग एवं सद्भाव की परम्परा पर खतरा आने लगा है.
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बिडम्बना यह है कि, हमारे कवि, लेखक और सामाजिक चिन्तकों का तगमा लिए ज्यादातर व्यक्तित्व सरकार और सत्ता के गुणगान में है.
आज ऐसे समय में ‘गिर्दा’ होते तो वे कदापि चुप न बैठे होते निश्चित तौर पर उनके हुड़के से निकले बोल हुकूमत को पुरजोर तरीके से हड़का रहे होते.
‘गिर्दा’ के रचना कर्म पर ‘पहाड़’ संस्था नैनीताल ने सराहनीय और महत्वपूर्ण कार्य किया है. प्रो. शेखर पाठक ने इसे ‘दो जिल्दों में अनेक गिर्दा’ नाम दिया है. इसके तहत वर्ष – 2011 में प्रकाशित पहली जिल्द ‘जैंता एक दिन तो आलो’ किताब में ‘गिर्दा’ की हिन्दी और कुमाउंनी कविताएं हैं. दूसरी, प्रकाशाधीन जिल्द ‘नगाडे़ खामोश हैं’ किताब में ‘गिर्दा’ के नाटक और गद्य लेखन शामिल है. इसके अलावा ‘पहाड़ -19’ अंक (वर्ष- 2015) ‘गिर्दा के आयाम’ पर केंद्रित है. इसमें ‘गिर्दा’ पर संस्मरण, व्यक्तित्व का मूल्यांकन, कृतित्व की समीक्षा और ‘गिर्दा’ पर लिखी कविताएं शामिल की गई हैं.
उमेश डोभाल स्मृति ट्रस्ट, पौड़ी द्वारा वर्ष- 2011 में गिरदा के जनगीत, कविताएं एवं विचारों पर केंद्रित पुस्तक ‘गिरदा कहता है’ का प्रकाशन किया है.
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‘गिर्दा’ समाज में जुल्म के खिलाफ लड़ते लोगों की सशक्त आवाज बने. इसीलिए, वे गढ़वाल-कुमायूं की सीमाओं से कभी बंधे नहीं रहे. सही मायनों में, वे जन-आन्दोलनों की चलती-फिरती पाठशाला थे. उनके व्यक्तित्व में तमाम विभिन्नतायें, विषमतायें और विकटतायें एकाकार हो जाती थी.
मैक्सिम गोर्की की तरह जीवनीय अभावों और अनुभवों ने उन्हें तराशा. ‘गिर्दा’ के जीवन की अनुभूतियां विविध, व्यापक एवं समृद्ध रही हैं. तभी तो, उनकी विशिष्टता की चमक सबको मोह लेती थी. वे आन्दोलनों के बाद एकान्तवासी हो जाते थे. लेकिन, नई ऊर्जा के साथ फिर कुछ समय बाद जलूसों में नये गीतों के साथ सक्रिय हो जाते. उनके गीत जलूसों में गूंजते और आन्दोलनकारियों के लिए वे गीत मन के मीत बन जाते.
घर उनके लिए पाबन्दी वाली जगह थी. वह घर से निकलते तो फक्कड़ हो जाते और यायावर फकीर की तरह वापस घर लौटते.
गिर्दा- शैक्षिक विचारक
एक आन्दोलनकारी से अलग ‘गिर्दा’ शैक्षिक विचारक के रूप में एक सम्पूर्ण स्कूल थे. वर्ष- 2006 में उत्तराखण्ड विद्यालयी शिक्षा की प्रारंभिक कक्षाओं का पाठ्यक्रम एवं पाठ्यपुस्तकें तैयार करने के महत्वपूर्ण कार्य में राज्य के तमाम शिक्षक कार्य कर रहे थे. उस दौरान उन्हें शैक्षिक मार्गदर्शन के लिए आमंत्रित किया गया. बीमारी के कारण वे आ न सके. परन्तु, एक रफ कागज पर एक कविता ‘कैसा हो स्कूल हमारा’ कविता का सृजन करके उन्होने भेजी थी.
कैसा हो स्कूल हमारा
जहां न बस्ता कंधा तोड़े, जहां न पटरी माथा फोड़ें,
जहां न अक्षर कान उखाड़ें, जहां न भाषा ज़ख्म उघाड़े,
ऐसा हो स्कूल हमारा…
इस कविता की हर लाइन एवं शब्द आज हमारी शिक्षा व्यवस्था के लिए अमर संदेश हैं. एनसीएफ – 2005 पर केन्द्रित ‘विद्यालय बने आनन्दालय’ पुस्तिका में वर्ष – 2008 में यह कविता सर्वप्रथम प्रकाशित हुई. इस गीत को शिक्षा विभाग, उत्तराखण्ड का कुल गीत बनाने के भी प्रयास हुए थे. यह कविता आज प्रदेश ही नहीं वरन देश-दुनिया के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों के शैक्षिक साहित्य में प्रमुखता से विराजमान है. शिक्षक-प्रशिक्षणों में इस कविता को सर्वाधिक महत्वा से सुना एवं समझाया जाता है.
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‘गिर्दा’ की ‘कैसा हो स्कूल हमारा’ कविता को रचने की मंशा के अन्तःमन में जो शिक्षा विद्यालयों में दी जा रही है, उसके प्रति बचपन से किशोरावस्था तक की गहरी मनोदशा का प्रभाव है.
यह एक गम्भीर चिन्तन है कि, आखिर क्यों, प्रतिभा और हुनर का संभावनाशील बालक ‘भव्वा’ (गिर्दा) स्कूली शिक्षा से खुदंक रखकर उससे विरक्त होना चाहता था? इसका मर्म और दर्द इस कविता में निहित है.
स्कूल की प्रताड़नाओं के कारण ही आज भी ‘भव्वा’ जैसे असंख्य बच्चे स्कूलों से अपना नाता तोड़ते हैं. यह कविता वर्तमान शिक्षा प्रणाली के ऐसे स्याह पक्षों पर चोट करती हुई, उसे बच्चों के अन्तःमन के अनुरूप ढालने का संदेश देती है.
‘गिर्दा’ अक्सर कहा करते थे कि ‘‘आज की शिक्षा व्यक्ति को समझदार बनाने के बजाय विरोधाभासी व्यक्तित्व के रूप में बच्चे को डरपोक और चालाक बना रही है. वह शिक्षा बच्चों में निर्भीकता न सिखा कर उसे भविष्य के प्रति भयभीत करा रही है. तभी तो, शिक्षित व्यक्ति सामान्यतया समाज की बेहतरी से ज्यादा अपने हितों के लिए ही कार्य करना चाहता है. शासक वर्ग की जन-विरोधी नीतियों को सहते हुए उसके विरोध का साहस आज की शिक्षा नहीं दे पा रही है.
वे मानते कि, ‘समाज ने हमें जीवन में अथाह दिया है. हम जीवन भर उसका अंश मात्र भी नहीं लौटा पाते. हमारी सामाजिक जिम्मेदारी है कि हम अपना जीवन समाज की भलाई के लिए अर्पित कर दें.’
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‘गिर्दा’ को जानने के लिए यह महत्वपूर्ण है कि उनका देश-प्रदेश की जनपक्षीय राजनीति से हमेशा नजदीकी और जीवन्त रिश्ता रहा. इसी कारण डॉ. शमशेर बिष्ट उन्हें पूर्णतः राजनैतिक व्यक्तित्व मानते थे.
सरकारी नौकरी ने ‘गिर्दा’ को जीवनीय स्थायित्व जरूर दिया पर वह उनको सामाजिक दायित्वशीलता को निभाने के लिए कभी रोक नहीं पाई. उत्तराखण्डी जन-जीवन में उपजे और उभरे चिपको, नशा नहीं-रोजगार दो और पृथक राज्य आन्दोलनों में ‘गिर्दा’ की भूमिका संस्कृतिकर्मी से कहीं आगे बढ़कर सक्रिय आन्दोलनकारी के रूप में रही. वे जन-संघर्षों की तात्कालिक परिस्थितियों और अन्तर-वस्तु को सांस्कृतिक मुहावरा देकर उसे आम जन की आवाज में तब्दील करते थे. इसी की बदौलत वे जन-आन्दोलनों के ‘थीम सौंग’ को रचने में पारंगत थे.
‘गिर्दा’ के जनगीत ‘आज हिमाल तुमन कैं घत्यूं छौं’, ‘जैंता एक दिन तैं आलो दिुन्यों-दुन्यी में’ ‘अजी वाह क्या बात तुम्हारी, तुम तो पानी के ब्योपारी’, ‘उत्तराखण्ड मेरी मातृभूमि’, हम लड़ते रैंया भूलों, हम लड़ते रूलो’ आन्दोलनकारियों के लिए हमेशा प्रेरणाश्रोत्र रहे और आगे भी हमेशा रहेंगे.
‘गिर्दा’ की कविताओं की तह में राजनैतिक चिंतन के लिए संदेश और चेतावनी को बखूबी समझा जा सकता है.
अजी वाह!, क्या बात तुम्हारी, तुम तो पानी के ब्योपारी,
खेल तुम्हारा, तुम्हीं खिलाड़ी, बिछी हुई ये बिसात तुम्हारी,
सारा पानी चूस रहे हो, नदी-समन्दर लूट रहे हो,
उफ! तुम्हारी ये खुदगर्जी, चलेगी कब तक ये मनमर्जी,
जिस दिन डोलेगी ये धरती सर से निकलेगी सब मस्ती,
महल, चौबारे बह जांएगे, खाली रौखड़ रह जायेंगे,
बूंद-बूंद को तरसोगे जब, बोल ब्योपारी तब क्या होगा?..
बर्ल्ड बैंक के टोकनधारी तब क्या होगा…
सोया बच्चा गाये लोरी
पहरेदार करे हैं चोरी
जुर्म करे हैं न्याय-निवारण
न्याय चढ़े है फांसी-पानी बिच मीन पियासी…
खामुखां की न सुनाओ तो कोई बात करें,
बात मुद्दों की उठाओ तो कोई बात करें,
क्यों लड़ी थी वो लडाई बताओ हम सबने,
इन सवालों पे भी आओ तो कोई बात करें…
गोलियां कोई निशाना साधकर दागी थीं क्या?
खुद निशाने पर पड़ी आ खोपड़ी तो क्या करें?…
‘गिर्दा’ आत्म-मुगधता की कवितायें नहीं लिखते थे. अपने बचपन के नाम ‘भव्वा’ माने बच्चा, बच्चे जैसी मासूमियत और सीधे अपनी बात कहने के वे आदी थे. उनकी कवितायें मानव मन-मस्तिष्क की वो बातें कहती जो उसे हर समय विचलित करती. इसी कारण, वे किसी एक इमेज में नहीं बंधे.
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‘गिर्दा’ अपने चिर-परिचितों के साथ संस्मरणों के लिए भी विख्यात हैं. हर चिर-परिचित के साथ उनके अनोखे और यादगार संस्मरण हैं.
डॉ. शमशेर बिष्ट ने ‘गिर्दा’ के बारे में मजेदार संस्मरण लिखा कि ‘मेरे विवाह को तय करने के लिए, मेरे बड़े भाई साहब के साथ ‘गिर्दा’ ही गया था. मेरी पत्नी बताती है कि जब बातचीत प्रारम्भ हुई तो ‘गिर्दा’ से मेरे बारे में पूछा गया तो उन्होने कहा कि उसका तो हमेशा एक पांव जेल में व एक पांव घर से बाहर रहता है, इसलिए फैसला सोच-समझकर लिया जाए. (इस प्रसंग में ‘गिर्दा’ ‘शोले’ फिल्म के अभिताभ बच्चन नज़र आये)… ‘गिर्दा’ की इस बेबाक टिप्पणी से ससुरालवाले प्रभावित हो या न हों, लेकिन रेवती प्रभावित हो गई. उसने तय कर लिया कि विवाह करना है तो यहीं. क्योंकि, जिसके साथी इतने स्पष्ट हैं, वे लोग जीवन में भी ठीक होंगे. ‘गिर्दा’ की स्पष्टवादिता का लाभ मुझे मिला… जब मेरे रेवती के साथ फेरे हुए तो खीलें देने की परम्परा ‘गिर्दा’ व जगत ने निभाई. तब से रेवती अंतःमन से ‘गिर्दा’ और जगत को भाई मानती थी, जो अंत समय तक ‘गिर्दा’ ने निभाई… रेवती का कोई सगा भाई नहीं था लेकिन ‘गिर्दा’ से सगे भाई से अधिक प्यार जो रेवती को मिला, इससे उसे सगे भाई न होने का मलाल कभी नहीं रहा.’ (‘जननायक डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट’, लेखक- कपिलेश भोज, पृष्ठ- 50-51)
नैनीताल समाचार के कार्यालय में 31 दिसम्बर, 1985 को ‘गिर्दा’ से मेरी पहली मुलाकात हुयी थी. ‘गिर्दा’ को अधजली बीड़ी फिर से जलाते हुए देख कर मुझे आश्चर्य हुआ कि मामूली सा आदमी दिखने वाला ये वही हैं जिनकी रचनायें जन-आन्दोलनों में आक्रोश और उत्साह भर देती हैं. फिर, 3-4 फरवरी, 1986 को बसभीड़ा में ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आन्दोलन की तीसरी वर्षगांठ में उनको सुना तो मन का भ्रम टूट गया.
और, ‘गिर्दा’ मित्रों में प्रिय से सर्वप्रिय हो गए. वो जब भी मेरे घर आ जाते तो धर्मपत्नी और बच्चे उनकी आवभगत में जुट जाते. मेहमानों में वीआईपी खातिरदारी उन्हीं की होती. घर पर बीड़ी और घुटकी वर्जित है. पर, गिर्दा इसके अपवाद रहे.
कहते हैं कि अति सज्जन व्यक्ति के दुर्गण भी उनके गुणों में शामिल हो जाते हैं.
‘गिर्दा’ जीवन-भर संघर्षशील रहे. ‘गिर्दा’ जो सोचते थे वही अपने जीवन व्यवहार में करते. उन्हें अपनी कमजोरियों पर भी नाज़ था. और, उन्हें सार्वजनिक करने में भी वह नहीं थकते थे. पुरस्कारों से दूर उनमें दूसरों से सीखने की प्रबल इच्छा मृत्यु प्रयन्त रही. उनकी सामाजिक दायित्वों के लिए सार्वजनिक और आक्रमक तेवरों की शुरुआत 27 नवम्बर, 1977 से नैनीताल जलूस से प्रारम्भ हुई जरूर थी, परन्तु उसका आधार उन्होने बचपन से ही बनाना शुरू कर दिया था.
(Remembering Girish Tiwari Girda)
तभी तो, उन्होने हिमालयी लोक संस्कृति को जन-क्रांति का स्वर देकर उसे सामाजिक अन्याय के विरुद्ध सशक्त माध्यम बनाया.
‘गिर्दा’ को अपनी व्यक्तिगत परेशानियां व्यथित नहीं करती वरन सामाजिक सरोकारों से जुड़े मित्रों की आपसी टकराहट व्यथित करती. वे अक्सर कहते कि हम सामाजिक लडाई को अपनी व्यक्तिगत लड़ाई के स्तर पर ला जाते हैं. इस सबके बावजूद भी वे भविष्य के प्रति आशावान थे. वे गहरी निराशा में भी सकारात्मक परिवर्तन के हिमायती थे.
‘गिर्दा’ मानते थे कि हमारी नई पीढ़ी ज्यादा समझदार है और वह सामजिक हितों के बेहतर कार्य करेगी. बकौल, नंदकिशोर हटवाल ‘वो युवाओं को जोश देने के लिए उकसाने वाली भाव-भंगिमा का बखूबी प्रयोग करते थे. कौन करेगा इस काम को? और, जो समाने है, उन्हीं का नाम लेकर खुद ही उत्तर देते कि ये ही तो करेंगे… हमारा मुहं धोने बाहर से कोई थोडे़ आयेगा… मैं तुम्हारे सामने क्या बेचता हूं यार…’ जैसी उनकी बातें सुनने वाले को उत्साह से लबालब कर देती थी.
आज भी ऐसे ही गिर्दा सामाजिक शिक्षण करता हुआ हम मित्रों के बीच जीवंत है. तभी तो, ‘अल्मोड़ा किताबघर’, अल्मोड़ा की पुस्तकें जिन लिफाफों में रखकर दी जाती हैं, उनमें गिर्दा की ये कविता मुद्रित रहती है –
तुतुक नी लगा उदेख, घुनन मुनइ नि टेक,
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में.
‘गिर्दा’ को हम मित्रों ने बहुत प्यार और सम्मान दिया पर उसकी आर्थिकी को मजबूत करने के लिए कोई प्रभावी विकल्प नहीं दे पाये, जिसके वे हकदार थे. जीवन-भर आर्थिक अभाव और अस्वस्थता ने उन्हें बहुत परेशान किया. उस छोर पर ‘गिर्दा’ बिल्कुल अकेले थे. विडम्बना यह भी है कि उनके चारों ओर हमेशा सार्मथ्यवान लोगों का मजबूत घेरा रहता था. हम सबकी उनसे बहुत अपेक्षाएं हर समय रहती पर वो घर कैसा चलाते हैं की जानकारी होते हुए भी अनजान बने रहते थे. ‘गिर्दा’ के जाने के बाद उनके परिवार के लिए हमारा सामाजिक व्यवहार भी तटस्थता पूर्ण ही रहा है.
(Remembering Girish Tiwari Girda)
हम अपने सामाजिक नायकों को देवता बनाने में कोई देरी नहीं करते. जबकि, वास्तविकता यह है कि हम उन्हें अक्सर केवल जानते हैं, उनको पहचानते नहीं. फिर, उन्हें समझ कैसे पायेंगे? जबकि, हर कोई उनसे अंतरंग रिश्ता दिखाना चाहता है.
हेमलता भाभी का यह कथन विचलित करता है कि ‘पैसे की तंगी ‘गिर्दा’ के इलाज में हर बार आती थी. उन्होने पानी पर महत्वपूर्ण काम किया पर प्रकाशित नहीं पाये क्योंकि, पैसे की कमी थी. उनके बाहरी सामाजिक संघर्ष तो सभी ने देखे पर उनके अपने से हुआ जीवन संघर्ष बहुत कम को पता है.’
उत्तराखण्डी समाज के सामाजिक आन्दोलनों की यह सच्चाई रही है कि, पारिवारिक निर्धनता ने आन्दोलनकारियों को सर्वाधिक तस्त्र किया. आन्दोलनों के बाद जो सम्पन्न परिवारों से होते थे उन्होने आन्दोलनों से मिली सामाजिक पहचान से अपने सामाजिक सम्मान-रुतवे को और बढ़ाया. परन्तु, जो निर्धन परिवारों से थे उनका आन्दोलनों से अपने घरों पर वापसी का स्वागत जीवकोपार्जन की विकट से विकट होती चुनौतियों ने किया. जिनसे जूझते हुए जीवनीय अभावों में ही वे मर-खप गए. उनके सामाजिक योगदान की याद और महत्व उनके इहलोक से जाने के बाद ही सबको नज़र आये.
‘गिर्दा’ ही क्यों, हमारे सामने खड़क सिंह खनी, गुणानन्द पथिक, घनश्याम सैलानी, गोविन्द सिंह रावत, कुवंर प्रसून, बाबा मोहन ‘उत्तराखण्डी’, मथुरा प्रसाद बमराड़ा आदि-आदि और कई उदाहरण हैं.
(Remembering Girish Tiwari Girda)
जनान्दोलनों के शानदार व्यक्तित्व ‘गिर्दा’ को शब्दों से बांध कर अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है. उसे तो दिल के सबसे नाजुक कोने में महसूस किया जा सकता है. ‘गिर्दा’ समारोह का नहीं वरन सड़कों पर मदमस्त गाता एक बंजारा कवि था. ‘गिर्दा’ जब गाता था तो उसका अंग-अंग गाता और नाचता था. तब, समूचे समाज का दर्द और फर्ज उनके कंठ से बाहर आने को बेताब रहता था. और, यह बेताबी उनको जीवन के आखिरी समय तक रही.
मुश्किल से आमा का चूल्हा जला है, गीली है लकड़ी कि गीला धुआं है,
साग क्या छौंका कि गौं महका है, ओ हो ये गंध निराली.
कांसे की थाल-सा चांद टंका है, ओ हो ये सांझ जुन्याली.
‘गिर्दा’ ने अपने सामाजिक जीवन में कोई ऐसा पायदान नहीं बनाया जिसमें केवल वही दिखाई दे. किशोरावस्था में नज़ाकत से रहने वाला ‘गिर्दा’ ने जवानी में फक्कड़ और सयानेपन में कबीर जैसा जीवन जिया.
मित्रों की गम्भीर और तीखीं बहसों के बीच ज्योली का वह भव्वा (गिर्दा) अधजली बीड़ी और माचिस के साथ अठखेलियां करता सबकी नज़रों के केन्द्र रहता. उसके आग्रह बड़े आकर्षक होते थे. ‘मेरी सुनी जाये, चाहे मानी न जाए’ ‘इस काम को अगर ऐसा किया जाए तो कैसा रहेगा? या फिर ‘ऐसा जैसा कुछ’ कह कर वह बातचीत में अपनी आत्मीय उपस्थिति दर्ज करता तो मित्रों की सारी बहस उसको सुनने की ओर एकाग्र हो जाती थी.
(Remembering Girish Tiwari Girda)
जैसा कि, शेखर पाठक लिखते हैं कि ‘गिर्दा’ सहनशीलता, सादगी, सृजनात्मकता और रचनाशील उम्मीद से भरा बहुआयामी व्यक्तित्व था. गिर्दा को कभी उत्तेजित नहीं देखा. उसने कभी आपा नहीं खोया. अशब्द तो वह जानता ही न हो, धैर्य से सुनना और स्पष्ट बोलना उसका स्वभाव था. इसीलिए, घनघोर व्यक्तिगत कमजारियों के बाद भी वे हरदिल अजीज थे. उसने अपने लिए ही कहा होगा –
कितना जरूरी है, होना एक साथ,
पत्थर और पानी का, झरना होने के लिए.
नैनीताल में 23 अगस्त, 2010 को गिर्दा की इहलोक से विदाई-यात्रा में उसके वैचारिक विरोधी भी उनकी शव यात्रा में मन से शामिल हुए थे. यह ‘गिर्दा’ का दिव्य आभा मंडल था कि सैकडों पुरुष-महिलाओं ने अपना कांधा देकर उसको यह अहसास दिलाया कि तुम हमेशा हमारे दिलों में रहोगे ‘गिर्दा’.
जब जा रहे होंगे हम
तब तुम आ रहे होगे
यह सच है
जब तुम आ रहे होगे
तब जा रहे होंगे हम
आने वाले को
जाने वाले से जोड़ते हुए
यही सच है.संदर्भ –
जैंता एक दिन तो आलो (कविताएं) गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’ एवं गिर्दा के आयाम, पहाड़ – 19, पहाड़ प्रकाशन, परिक्रमा, तल्लाडांडा, नैनीताल.वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी अरुण कुकसाल का यह लेख उनकी अनुमति से उनकी फेसबुक वॉल से लिया गया है.
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