गिर्दा एक खूबसूरत आदमी थे. उम्दा कोनों, सतहों, गहराइयों-उठानों वाला तराशा हुआ गंभीर चेहरा और आलीशान जुल्फें. और बात करने का ऐसा अंदाज कि जैसे खुद मीर तकी मीर कह रहे हों: (Remembering Girda the Poet from Kumaon)
हुस्न तो है ही करो लुत्फ़-ए-ज़बां भी पैदा
मीर को देखो कि सब लोग भला कहते हैं
गिर्दा के बारे में जब भी सोचता हूँ उनकी आवाज सबसे पहले कानों में गूंजती है – “कैसा चल रहा है मानस बब्बा!” उस आवाज की मिठास में निखालिस दिल की तर चाशनी होती थी, ज़रा भी मिलावट या दिखावा नहीं. (Remembering Girda the Poet from Kumaon)
उन्हें याद करना हमेशा भीतर तक भिगो देता है. वे अपनी तमाम कमजोरियों के साथ एक बेहद उम्दा और मीठे इंसान थे. जब मैं उनसे पहली बार मिला तो एक कवि-लोकगायक के रूप में उनकी ख्याति पहले ही बहुत फैल चुकी थी लेकिन उन्होंने मुझे अपने हमउम्र की सी इज्जत बख्शी.
गिर्दा के साथ दो दशकों से अधिक का साथ-सम्बन्ध बेहद अन्तरंग और अनूठा रहा. हमारे अधिकाँश मित्र-मंडल कॉमन थे और इस वजह से सार्वजनिक स्थानों पर हमारी मुलाकातें अक्सर होती थीं लेकिन सबसे यादगार मुलाकातें नैनीताल-भवाली रोड पर स्थित कैलाखान के उनके घर पर हुईं.
इन असंख्य यादगार मुलाकातों की स्मृतियाँ बेहद सघन और मुलायम हैं. उस घर में भाभी होती थीं, बेटा तुहिन होता था और विकट काट वाला एक दिलचस्प पालतू कुता बोगो. आगे वाले छोटे से बैठकनमा कमरे में किताबों और पत्रिकाओं का जखीरा हुआ करता था और करने को ढेर सारी बातें.
मिलते ही गले मिलना और खूब सारे सवाल पूछना उनकी आदत में शुमार था. जीवन और जानने को लेकर ऐसी घनघोर दिलचस्पी मैंने किसी और आदमी में देखी हो याद नहीं पड़ता. वे दुनिया में हो रही हर हलचल को लेकर बाखबर रहने की कोशिश करते थे और ऐसी-ऐसी चीजों के बारे में सवाल करते थे कि आपको हैरानी और झेंप एक साथ महसूस होते. 1996 में जब पोलैंड की कवयित्री शिम्बोर्स्का को नोबेल अवार्ड मिला तो उसके बारे में पहले सवाल मुझसे गिर्दा ने ही पूछा – “इसे पढ़ा है?” मैंने इक्का-दुक्का जिक्र भर सुना था तो ज्यादा बता नहीं सका लेकिन उनके इस आग्रहपूर्ण प्रश्न का परिणाम यह हुआ कि अगले कुछ महीनों में मैंने शिम्बोर्स्का की दर्जनों कविताओं के अनुवाद किये और उन्हें सुनाए.
एक बार ‘इंडिया टुडे’ के तत्कालीन सम्पादक दिलीप मंडल और मैं उनसे मिलने गए तो उन्होंने दिलीप से अंतर्राष्ट्रीय मामलों पर इतने सवाल पूछे कि दिलीप, जो एक लोकगायक-कवि से मिलने गए थे, एक सचेत विश्व-नागरिक से मिलकर वापस लौटे.
सवाल पूछने का उनका मकसद आपके ज्ञान की परीक्षा लेना नहीं होता था. वह बेहद विनम्रता के साथ अपनी जिज्ञासाओं के साथ आपसे रू-ब-रू होते थे और इतनी ही उम्मीद रखते थे कि आपसे हुई मुलाक़ात के बाद वे भीतर से थोड़े और समृद्ध हो जाएंगे.
उनके साथ साहित्य को लेकर अनेक बार बहुत लम्बी लम्बी चर्चाएं हुईं लेकिन मुझे याद नहीं पड़ता कभी अपनी कोई रचना उन्होंने सुनाई या पढ़वाई हो. उनकी रचनाएं तमाम माध्यमों से अपने आप पढ़ने वालों तक पहुँच जाती थीं. फैज़ अहमद फैज़ की अनेक रचनाएं उन्हें कंठस्थ थीं और तमाम शेर और नज्में उनकी ज़बान पर चढ़े रहते.
कुमाऊं का लोक उनकी आत्मा में बसता था और अपनी सधी हुई आवाज के साथ उन्होंने उस लोक को खूब समृद्ध किया. यह करिश्मा किसी स्टूडियो या ड्राइंग रूम में नहीं बल्कि लोक के साथ सीधा संवाद बनाकर अंजाम दिया गया था. उनके परिचितों-मित्रों की संख्या अपार थी और प्रशंसकों की तो उससे भी ज्यादा. इस तथ्य ने उन्हें और अधिक विनम्र और जिम्मेदार बनाया. यह अलग बात है कि उनकी गैरजिम्मेदारी और आवारगी के भी असंख्य किस्से यारों-दोस्तों के पास मिल जाएंगे. वे मेरे पास भी हैं पर उन पर फिर कभी.
नैनीताल की तमाम सड़कों और छोटे-बड़े रास्तों पर चलते हुए कई दफा अहसास होता है कि वे किसी मोड़ पर अपने गांठ-लगे थैले और बीड़ी की चिरंतन लपट के साथ प्रकट होंगे या पीछे से कंधे पर हाथ रख कर कहेंगे – “ये कैसी उलटबांसी चल रही है मुलुक में साहब!”
–अशोक पाण्डे
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जिस मुसलसल तरीक़े से आप लिखते हैं, बक़ौल-ए-मीर "...रात दिन राम कहानी सी कहा करते हैं।"
मुबारक।
ज़ोर-ए-क़लम और हो।