कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक स्त्री की होती है जो त्योहार की व्यस्तता से थोड़ा समय निकालकर या संभवतः अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधा करने हेतु अपने घर की तोरन से सुसज्जित चौखट पर बैठ कर मन में त्योहार की उमंग भरे हुए रंगोली में अपनी कल्पनाओं की मुसव्विरी कर रही है. वह जानती है कि दीप- वलीयां जितना उसके घर के प्रत्येक सदस्यों के हृदय को आलोकित करेंगी उतना ही उसके द्वारा किया गया रंगोली का अलंकरण उसके समूचे परिवार के मन-मस्तिष्क में सकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित करेंगी. एक स्त्री के लिए अपनी ड्योढ़ी पर बैठकर रंग अलेपना, मात्र गृह सज्जा नहीं वरन् अपने घर में बुरी अला-बला का अवरोध और शुभ-मंगल का आमंत्रण है. संभवतः वह अनभिज्ञ हो कि रंगोली का प्रयोजन महज़ श्रीवृद्धि ही नहीं अपितु एक व्यायाम भी है उसके लिए. रंगोली बनाते हुए वह अंगुष्ठ और तर्जनी मिलाकर जो ज्ञान मुद्रा बनाती है वह उसके मस्तिष्क को ऊर्जावान और कल्पनाशीलता प्रदान करती है. (Rangoli Column Sunita Bhatt)
वैज्ञानिकों ने भी इस बात को पुष्ट किया है कि रंगों का हमारे शरीर पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है.
रंगोली का आकार,रंग व प्रयुक्त होने वाले अनाज,पदार्थ क्षेत्रीय परंपरा के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं किंतु रंगोली बनाने के प्रच्छन्न एक ही प्रयोजन है और वह है शुभ- मंगल, और घर की समृद्धि. अधिकांशतः रंगोली वृत्ताकार या अर्ध-वृत्ताकार बनायी जाती है.धार्मिक और यज्ञ अनुष्ठानों में ज्यामीतीय संपन्न रंगोली बनायी जाती हैं. रंगोली श्रीवृद्धि, समृद्धि और संपन्नता का द्योतक है और प्राय: हर हिंदू की दैनंदिन प्रक्रिया का अंश है. रंगोली में प्रयोग किया जाने वाला अनाज पंचमहाभूत सेवा के महाप्रयोजन को भी सिद्ध करता है. कीड़े-मकोड़े क्योंकि अनाज की ओर आकर्षित होते हैं अत: घर के भीतर जाने से इन्हें रंगोली विमुख करती है.
दरअसल त्योहार संजीवनी बूटी होते हैं हमारे लिए जो हमें यांत्रिक जीवन से जीवन सुधा की ओर प्रवृत्त करते हैं. दीप पर्व ऐसा ही एक सनातन संस्कार है जिसका झिलमिलाता प्रकाश हम सभी के भीतर बहती हुई सकारात्मक ऊर्जा है और इसमें निहित रंग हमारे अंतर्मन की प्रफुल्लित अभिव्यक्ति.इसी आंतरिक और बाह्य प्रकाश राशि का सम्मिश्रण है दीप पर्व. दीवाली को आलोक पर्व, प्रकाश पर्व, दीप मल्लिका, दीप अवली, सुखरात्रि व यक्षरात्रि आदि नामों से जाना जाता है.
दीप पर्व वस्तुत: प्र काश का प्रसार और ग्रहण करने का त्योहार है जिसकी मूल संवेदना रंगोली है क्योंकि रंग ही है जो प्रकाश का उदगम-स्थल है.रंग ना हों जीवन में तो प्रकाश के लिए दुलर्भ होगा हम तक पहुंचना. रंगों की स्वीकारोक्ति व हमारे जीवन में इनका परस्पर सामंजस्य प्रकाश को पाने का फलदायक प्रयास है. इन्हीं रंगों से विभिन्न आकृति व आकार देने की आंतरिक अभिव्यक्ति अल्पना या रंगोली कहलाती है. जिसका अर्थ है अलेपना अर्थात भित्ती या दीवार पर लेपना.
रंगोली को चौंसठ कलाओं में से एक माना गया है.
रंगोली की उत्पत्ति सृष्टि निर्माण के प्रसंग से जुड़ी हुई है. कहते हैं कि सृजनकर्ता ब्रहमा जी ने आम का रस निकालकर उसके रस व गूदे से एक स्त्री की आकृति बनाई.कहा जाता है कि ब्रह्मा द्वारा बनाया गया स्त्री का वह रूप प्रथम रंगोली मानी जाती है.स्त्री का वह रूप-सौंदर्य इतना आकर्षक था कि ब्रह्मा जी ने उसमें प्राण फूंक दिये उन्होंने और यह स्त्री उर्वशी कहलाई. बंगाल में अल्पोना में जो कमल स्त्रियां बनाती हैं उसके समानदर्शी हड़प्पा और मोहनजोदड़ो दोनों सभ्यताओं में रंगोली के भित्ति -चित्र पाये गये हैं. वास्तु के अनुसार रंगोली अलग-अलग दिशाओं के अनुसार अलग-अलग आकार की बनाई जाती है.लाल-पीला और नारंगी जैसे सकारात्मक रंगों का प्रयोग रंगोली बनाने में किया जाना चाहिए.नुकीले किनारों वाली रंगोली से बचना चाहिए. दक्षिण भारतीय चोल वंश के राजाओं ने भी रंगोली को खूब प्रोत्साहन और विस्तार दिया. बिहार में रंगोली को अरिपन, बंगाल में अल्पना ,उत्तर प्रदेश में चौक पूरा करना, छत्तीस गढ़ में चाऊक, राजस्थान में मांडना, महाराष्ट्र में रंगोली, कर्नाटक में रंगवल्ली, तमिलनाडु में कोल्लम, आंध्र प्रदेश में मुग्गु या मुग्गुलु, हिमाचल प्रदेश में अदूपना, उत्तराखंड में एपण, लिखथाप या थापा, केरल में कोल्लम कहा जाता है. रंगोली अधिकतर सूखे रंग या सूखा आटा, हल्दी जैसे जैविक रंग या चावल को पीसकर बनायी जाती है. दक्षिण भारत में ओणम पर दस दिनों तक प्रत्येक दिन दीवार की चौखट पर फूलों की गोलाकार रंगोली बनाई जाती है जिसकी संरचना दिनों के बढ़ने के साथ-साथ और जटिल होती जाती है. रंगोली में लोक-कथा, लोक-संस्कृतियों या देवी-देवताओं को उकेरा जाता है. आधुनिक रंगोली कल्पनाओं पर आधारित होती हैं जिसका सकारात्मक पक्ष यह है कि इसे बनाते हुए दिमाग का व्यायाम होता है. दक्षिण भारत में बनाई जाने वाली रंगोलीयों के आकार जटिल, गहन व संवेदनशील होते हैं. उत्तराखंड में रंगोली चावल को पीसकर गेरु के साथ बनाई जाती है. चाऊक गोबर से लिपाई करके उस पर रंगोली बनाई जाती है.
दीप पर्व में बनाई जाने वाली रंगोली में दीये, गणेश, श्री, कमल का फूल, दैवीय चित्र, शुभ-लाभ, ऊं, स्वास्तिक श्री आदि बनाये जाते हैं .प्रत्येक चिन्ह का अपना अर्थ होता है. दीया रोशनी का प्रतीक है. गणेश सुख और समृद्धि का प्रतीक है. कमल का फूल दैवीय पुष्प है. स्वास्तिक की चार भुजाएं चार आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास का प्रतीक है. श्री का अर्थ है शुभ संकेत या लक्ष्मी, ऊं सर्वस्व है जिसमें ब्रहमा, विष्णु,महेश समाहित हैं.
रंगोली दीपावली के अतिरिक्त अन्य पर्व के अवसरों पर भी मनायी जाती है कहीं ऋतु परिवर्तन के अवसर पर विवाह, मेला आदि उद्दघाटन समारोह में बनाई जाती है.
दीप पर्व में बनाई जाने वाली रंगोली दिशा के अनुसार रंग और आकार में भिन्न होती है. पूर्व दिशा में नारंगी हरे रंग से रंगोली बनानी चाहिए. दक्षिण दिशा में लाल रंग से. पश्चिम दिशा में सफेद रंग से गोलाकार रंगोली एवं उत्तर दिशा में हरे रंग से आयताकार रंगोली बनानी चाहिए. सुगंधित फूल भी घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करते हैं. घर के उत्तर और पूर्व कोने में फूलों की रंगोली की सजावट करनी चाहिए. रंगोली गोल या अर्धाकार वास्तु के अनुसार शुभ मानी जाती है.
दीप पर्व हो या कोई भी मांगलिक कार्य या अधिष्ठान रंगोली सुभीता है भारतीय संस्कृति और परंपराओं के अनुसरण का
रंगोली चाहे जिस स्वरुप में, जिस जगह भी मनाई जाती है सभी का उद्देश्य है समावेश और सौहार्द की भावना, सकारात्मकता, पंचमहाभूत सेवा, पर्यावरण की महत्ता का प्रसार. यही कारण है दीप पर्व की जगमगाहट हो या अन्य कोई शुभारंभ रंगोली के बिना आंगन, अहाते सूने-सूने लगते हैं गोया उत्सव तो है किंतु उत्सव की आत्मा कहीं नदारद है.
देहरादून की रहने वाली सुनीता भट्ट पैन्यूली रचनाकार हैं. उनकी कविताएं, कहानियाँ और यात्रा वृत्तान्त विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं.
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