अभी चंद दिनों पहले कुमाऊँ विश्वविद्यालय के वरिष्ठतम प्रोफेसर एन.एस. बिष्ट जी सेवानिवृत हो गये और बहुत से लोगों को इस बात का पता ही नहीं चला. उन्हें देखकर लगता ही नहीं था कि वह सेवानिवृति के पड़ाव पर है. यह मेरे लिये एक अचंभित करने वाला और कौतुहलपूर्ण समाचार था. प्रोफेसर बिष्ट की एक समृद्ध शैक्षणिक पृष्ठभूमि है और उन्होंने शिक्षण, शोध व शैक्षणिक प्रशासन की अपने उत्तराधिकारियों के लिये एक महान विरासत छोड़ी है. स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में 45 वर्षों का अनुभव रहा है, कुमाऊं विश्वविद्यालय के प्रबंधन अध्ययन विभाग के संस्थापक और विभागाध्यक्ष रहने के साथ-साथ उत्तराखंड लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष पद को एक गरिमामयी तरीके से सुशोभित कर चुके है.
(Prof N S Bisht)
उत्तराखंड लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने न केवल आंतरिक या बाह्य विसंगतियों को हल किया है, बल्कि कई समय से लम्बित मामलो का निपटारा भी किया है. उन्होंने विलंबित परिणामों को घोषित करने के साथ-साथ समय पर प्रतियोगी परीक्षाऐं आयोजित करने के लिए दिन-रात कड़ी मेहनत की है. आयोग की स्थापना के बाद वो पहले अध्यक्ष रहे हैं, जिनको प्रशासनिक, व्यक्तिगत और प्रबंधन कौशल के लिए सम्मानित किया गया है. उनके विभागीय कार्यों की एक लम्बी फेहरिस्त बनेगी जिसका जिक्र करना मेरे लिये आवश्यक नही है. मैं तो बस इन माटी के लाल व स्थानीय काफल के वृक्ष के योगदान को उनकी सेवानिवृति के अवसर पर जनमानस के समक्ष अपने संसमरणों के माध्यम से लाना चाहता हूँ. आज के भौतिक जगत में इन तरह के कर्मठ व्यक्तियों की उपेक्षा जाने अनजाने हो ही जाया करती है और उनके योगदान आम जनता से छिप जाते है.
बात मार्च 1999 की रही होगी जब मैं दिल्ली में एक लैपटॉप निर्माण व विपणन करने वाली कम्पनी में एसिस्टेंट मैनेजर था और होली की छुट्टियों में घर आया था. मुझे मालूम हुआ कि कुमाऊँ विश्ववविद्यालय ने भीमताल में एम.बी.ए. प्रोगाम शुरू किया है और प्रोफेसर एन. एस. बिष्ट उसके समन्वयक हैं. सेल्स व मार्केटिंग के क्षेत्र में मुझे अच्छा अनुभव था लेकिन विक्रय बढ़ाने के लिये खरीदारों की मांग व कमीशनखोरी मुझे रास नहीं आ रही थी. एक लैपटौप उस समय सवा से दो लाख के करीब बिकता था और केवल सरकारी व गैर सरकारी संस्थान ही उन्हें खरीदा करते थे. मुझे घर के पास आकर एम.बी.ए. के छात्रों को पढ़ाने के विचार ने अत्यन्त आकर्षित किया.
(Prof N S Bisht)
भवाली नगर के एक परिचित व्यक्ति ने मुझे उनसे मिलने का सुझाव दिया और कहा कि वो मुझे जानते है और तुम उनसे मेरा नाम लेकर मिल सकते हो. इस प्रेरणा को लेकर मैं डी एस बी परिसर में स्थित उनके वाणिज्य विभाग के कार्यालय में गया. उन्होनें एक सामान्य औपचारिकता निभाते हुए मुझे मिलने का समय दिया और मेरे बारे में जानने के उपरान्त पूर्व विज्ञापित शैक्षणिक पदों के लिये आवेदन करने के लिये कहा. मैने उनके दिशानिर्देशों के अनुसार आवेदन कर दिया. कुछ समय बाद साक्षात्कार भी हो गया और मुझे संविदा पर कार्य करने हेतु चयनित भी कर लिया गया.
6 मई 1999 का दिन प्रबन्ध अध्ययन विभाग में मेरा पहला दिन था. मैं प्रोफेसर बिष्ट से मिला. उन्होने बताया कि तुम्हारा साक्षात्कार बहुत अच्छा तो नहीं था पर मुझे लगा कि तुम स्थानीय हो, तुममे लगन है और तुम इस कार्य के लिये एक उपयुक्त अभियार्थी हो, अत: तुम्हे एक अवसर देना चाहिये. मैंने उनको मुझ पर भरोसा जताने हेतु धन्यवाद दिया और इस भरोसे पर खरा उतरने का आश्वासन भी दिया. यहीं से मेरे मन में उनके प्रति विश्वास जागा और उनके नेतृत्व में कार्य करने की लालसा भी.
शैक्षिणिक गतिविधियों का मुझे कोई खास अनुभव नहीं था. बस कभी-कभार एम.बी.ए. के सहपाठियों व जूनियर छात्रों को अपने लखनऊ प्रवास के दौरान पढ़ा दिया करता था. उस समय एम.बी.ए. विभाग बिड़ला इन्स्टीट्यूट की बिल्डिंग में चला करता था. अमित जोशी, प्रदीप जोशी, मनोज जोशी व मैं केवल चार शिक्षक वहाँ पर अंशकालिक रूप से पढ़ाया करते थे और प्रोफेसर बिष्ट नामी गिरामी प्रोफेसरों को देश के विभिन्न भागों से आमंत्रित किया करते थे. प्रोफेसर बिष्ट व तत्कालीन कुलपति प्रोफेसर बी के जोशी जी के प्रयासों के परिणामस्वरूप कुछ समय के बाद उत्तरप्रदेश शासन द्वारा कुमाऊ मण्डल विकास निगम का टेलीट्रोनिक्स परिसर कुमाऊं विश्वविद्यालय को हस्तांतरित हो गया और हमारा विभाग इस परिसर में कार्यरत हो गया. साथ ही हास्टिल के लिये समीपवर्ती नेहरू युवा केन्द्र की बिल्डिंग को भी ले लिया गया. हम सभी शिक्षकों व कर्मचारियों में प्रोफेसर बिष्ट जी व विभाग के प्रति बहुत गहरी आस्था थी. जोश इतना था कि हम सभी ने मिलकर लाईब्रेरी की अल्मारियाँ, किताबों, मेजों, और कुर्सियों को अपनी पीठ पर लादकर पुराने परिसर से नये परिसर में स्धानांतरित कर दिय़ा. कार्यालयी कर्मचारियों में रघुवीर सिंह जन्तवाल, गोकर्ण सिंह रैखोला, व रमेश चन्द्र आर्य प्रारम्भ से ही विभाग से संबद्ध कर दिये गये थे.
(Prof N S Bisht)
1999 से पहले प्रोफेसर बिष्ट जी की उपलब्धियों को मैं नहीं जानता था. कालान्तर में साथ-साथ कार्य करते हुए उनके कैरियर के बारे में जानने का अवसर मिला. पता चला कि प्रोफेसर बिष्ट ने हाई स्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी और उन्हें इसके लिये मेरिट छात्रवृत्ति से सम्मानित किया गया था. स्नातक स्तर पर जब डी एस बी कॉलेज आगरा विश्वविद्यालय से संबद्ध था, उन्होंने दोनों विश्वविद्यालय की मेरिट सूची में प्रथम आकर एक नया इतिहास रचा और इसके लिए उन्हें उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल महामहिम चेन्ना रेड्डी जी द्वारा राजभवन में व्यक्तिगत रूप से सम्मानित किया गया और उनको 1974 के दीक्षांत समारोह में स्वर्ण पदक से सम्मानित किया. स्नातकोत्तर परिक्षा में भी उन्होंने यूनिवर्सिटी मेरिट लिस्ट में दूसरा स्थान प्राप्त किया और सिल्वर मेडल अर्जित किया था. प्रतिभा व योग्यता के आधार पर प्रोफेसर बिष्ट को महज बीस वर्ष की उम्र में वाणिज्य विभाग डी एस बी परिसर में लेक्चरर पद पर चयनित कर लिया गया.प्रोफेसर बिष्ट कुमाऊं विश्वविद्यालय के ऐसे शिक्षक रहे हैं जिन्हें महज 37 वर्ष की आयु में फुल प्रोफेसर बनने का श्रेय प्राप्त हुआ है और वे डी एस बी परिसर के वाणिज्य विभाग में 16 वर्षों तक विभागाध्यक्ष रहे हैं.
प्रोफेसर बिष्ट प्रबन्धन पढ़ाते ही नहीं थे बल्कि वह स्वयं ही प्रबन्धन की एक बानगी रहे. आज प्रबन्ध के क्षेत्र में “स्टोरी टैलिंग” को बहुत महत्व दिया जाता है. प्रोफसर बिष्ट परिसर में कक्षाओं के उपरान्त हम शिक्षकों को अपने अनुभवों को सहेजते हुए तरह-तरह के प्रेरक किस्से सुनाया करते थे, जिससे हमें उनसे सीख व सबक लेकर आगे बढ़ने का अनुभव मिला. यही नहीं विभागीय खरीद हो या रंग चूना सभी का अवलोकन वह स्वत: ही किया करते थे और गुणवत्ता में कमी पाये जाने पर टोका-टोकी व डाँट-डपट भी करते थे. आज भी अगर मैं विभाग में जाता हूँ तो उनके समय की खरीदी हुई अल्मारियों, कुर्सियां और मेजें आदि को जस की तस हालत में लाईब्रेरी और कार्यालयों में पाता हूँ.
मेरा व्यक्तिगत रूप से उनके प्रति समर्पण ही मेरे कैरियर को अग्रसरित करने में निर्णायक साबित हुआ. जब भी वो कोई कार्य मुझे देते मैं प्राथमिकता से उसे पूर्ण करता और इस प्रकार उनका मुझे कार्य देने का सिलसिला बढ़ता गया और मैं शिक्षण के साथ-साथ विभागीय पत्राचार और विकास सम्बन्धित कार्यों में भी रूचि लेने लगा. कम्प्यूटर का बैकग्राउंड होने के कारण उन्होंने मुझे कम्प्यूटर लैब विकसित करने का दायित्व सौपा. हमारे किसी भी विकासोन्मुख सुझाव को वो मान लेते थे. परिणाम यह था कि उनके प्रोत्साहन के कारण मैं विभाग में वी-सैट इन्टरनेट कनेक्शन जो कि उस समय विश्वविद्यालय में कहीं नहीं था लगाने में कामयाब रहा. साथ ही उनके प्रोत्साहन से मैने प्रबन्ध अध्ययन विभाग की वेबसाईट भी विकसित कर दी थी, जिसका उद्घाटन तत्कालीन कुलपति प्रो. आर सी पंत जी ने बिड़ला इन्स्टीट्यूट के डाईरेक्टर प्रोफेसर पी के पाण्डे जी की उपस्थिति में किया. मैं ही नहीं मेरे अन्य साथी भी अपनी-अपनी जगह अपना योगदान दे रहे थे.
(Prof N S Bisht)
प्रोफेसर बिष्ट भली भांति जानते थे कि कौन किस कार्य को बखूबी पूरा कर सकता है. उनके संरक्षण में विभाग ने बहुत कम समय में समस्त भारत में एक स्थान हासिल कर लिया था. इस बात का पता तब लगा जब 2003 में उत्तरांचल के प्रथक राज्य बनने के बाद कुमाऊँ विश्वविद्यालय को एम.बी.ए और एम सी ए काउंसलिग का जिम्मा दिया और आल इण्डिया काउंसलिगं में कुमाऊँ विश्वविद्यालय के प्रबन्ध अध्ययन विभाग की तीस की तीस सीटें प्रथम दिवस में ही भर गयीं थी. प्रोफेसर बिष्ट इस काउंसलिंग के सम्वयक थे और उन्होंने कुलपति की अनुमति लेकर मुझे एसिस्टेंट कोर्डिनेटर बनाया था. बिड़ला इंस्टीट्यूट से डा. के के पाण्डे और एम सी ए के चुनिंदा छात्रों ने इस काउंसलिंग को सफल बनाने के लिये हमारा साथ दिया था.
प्रोफेसर बिष्ट का दूसरा पक्ष मैंने एम.बी.ए के पाठ्यक्रम को बनाने व उसको लगातार परिमार्जित करने में देखा. प्रबन्ध के क्षेत्र में देश की नामचीन प्रोफेसर उनके निमंत्रण को मनाने के लिये मानद राशि की परवाह किये बगैर भीमताल आते-जाते रहते थे. मुख्यत: जिनका मैं उल्लेख करना चाहूँगा- दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रोफेसर एस पी गुप्ता, प्रोफेसर बी पी सिंह, प्रोफेसर एम पी गुप्ता, प्रोफेसर गौरी शंकर गुप्ता और प्रोफेसर ए एस नारग, ए एम यू से प्रोफेसर अजहर काजमी, चण्डीगढ़ विश्वविद्यालय से प्रोफेसर एस पी सिंह, आई आई टी दिल्ली से प्रोफेसर एस के जैन और आई आई एम लखनऊ से प्रोफेसर पंकज कुमार आदि अनेक विद्वत जनों का विभाग में आना जाना लगा रहता था और हम सभी शिक्षको को उनके साथ व्यक्तिगत रूप से जुड़ने का मौका मिलता था. सुबह से शाम तक पाठ्यक्रम में होने वाली परिचर्चा, सहमतियों व अहसहमतियों का दौर वास्तव में उस पीढ़ी के शिक्षकों की मूल्य प्रणाली का परिचायक था. प्रोफेसर बिष्ट अपने साथ हमको भी गैस्ट लैक्चरों में भाग लेने को प्रोत्साहित किया करते जिससे कि हम शिक्षा के क्षेत्र में होने वाली नवीनतम जानकारियों से अवगत हो सकें. साथ ही उनके द्वारा हमें विभिन्न कन्फ्रेंसों में शोधपत्र प्रस्तुत करने के लिये प्रेरणा मिलती थी. मैने अपने अकादमिक सफर का पहला शोधपत्र उनके साथ ही एम बी कौलेज हल्दवानी में प्रस्तुत किया था जिसके उपरान्त उन्होंने मुझे बहुत प्रोत्साहित किया और वहाँ मौजूद कौन्फ्रेंस के मुख्य अतिथि कुमाऊं विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति प्रोफेसर डी डी पन्त जी से भी मिलवाया.
समय समय पर प्रोफेसर बिष्ट नें हम सभी शिक्षकों को पी-एच0 डी0 करने के लिये प्रोत्साहित किया. परिणामस्वरूप विभाग के तीन शिक्षकों – अमित जोशी, प्रदीप जोशी तथा मैं स्वयं राकेश बेलवाल ने उनके शोध निर्देशन में शोध कार्य पूर्ण किया. प्रोफेसर बिष्ट के शोध निर्देशन में 22 शोधार्धियों ने शोध उपाधि प्राप्त की. उनके निर्देशन में पी-एच0 डी0 की उपाथि प्राप्त करने वाले सभी शोधार्थी आज देश व विदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में, प्रशाशनिक सेवाओ में अपना विशिष्ट योगदान दे रहे है. प्रोफेसर बिष्ट द्वारा कुमाउ विश्वविद्यालय के प्रबन्ध अध्ययन विभाग हेतु स्तरीय पुस्तकों को क्रय करने हेतु उत्तराखंड शासन को प्रस्ताव भेजा गया था. उनके प्रयासों का ही परिणाम रहा कि शासन द्वारा इस उद्देश्य के लिये 30 लाख रूपये की अनुदान राशि स्वीकृत हुई. लाईब्रेरी में उन्होने कई अच्छे जर्नलों व किताबों को पठन-पाठन हेतु उपलब्ध कराया. जब कभी भी कोई कैटेलोग आता था तो वो उसे शिक्षकों को मार्क करते थै और सभी लोग अपने अपने विशेषताओं के क्षेत्र में पुस्तकों को खरीदने हेतु चयन करते थे. पुस्तकों के चयन एवम् क्रय करने हेतु उन्होने दिल्ली से विभिन्न प्रकाशकों को आमन्त्रित कर विभाग में पुस्तक मेले का आयोजन भी किया. तत्कालीन कुलपति द्वारा उनके इस प्रयास की प्रशंशा की गयी थी. उस समय देश के अन्य स्थानों के शोधार्थी प्रबंध के क्षेत्र में शोध कार्यों के लिये विभागीय लाईब्रेरी में आने को लालायित रहते थे.
यद्पि प्रोफेसर बिष्ट एक सीमित समय (आठ वर्ष) के लिये ही प्रबंध अध्ययन विभाग से संबद्ध रहे तथापि विभाग ने उनके समय में दिन दूनी व रात चौगुनी प्रगति की. छात्रों को प्रोत्साहित करने के लिये उन्होनें न केवल सांस्कृतिक गतिविधियों का आयोजन करवाया अपितु विद्यार्थियों के सहयोग से विभाग में पौधारोपण करवाया तथा बैटमिन्टन व बॉलीबॉल कोर्ट भी बनवाये.
(Prof N S Bisht)
45 वर्षों से अधिक के अपने शानदार कैरियर में प्रोफेसर बिष्ट ने कई प्रशाशनिक जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया. डी एस बी परिसर के डायरेक्टर रहे और कई बड़ी जिम्मेदारियां जैसे कि संकायाध्यक्ष, विभागाध्यक्ष, परिक्षा नियंत्रक, प्रौक्टर, अधिष्ठाता छात्र कल्याण व लाईब्रेरी व खेलकूद आदि के लिये बनी समितियों के समन्वयक भी रहे. उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, दिल्ली, चण्डीगढ में स्थित विभिन्न संस्थानों की विभिन्न शैक्षणिक कमेटियों के संयोजक और सदस्य भी रहे.
प्रोफेसर बिष्ट भले ही अधिकारिक रूप से सेवानिवृत हो रहे हों लेकिन स्वभवत: उनका जुड़ाव उच्च शिक्षा के प्रचार व प्रसार में निरंतर बना रहेगा. उनकी धर्मपत्नि प्रोफेसर शुचि बिष्ट डी एस बी परिसर में भौतिकि विभाग की विभागाध्यक्ष रही हैं. कुमाऊ विश्वविद्यालय के इतिहास में सबसे लम्बी सेवा को देते हुए सेवानिवृत होना उनके व उनके छात्रों, सहकर्मियों व प्रशंशको के लिये निश्चय ही एक उपलब्धि है. मेरे ये संस्मरण उनके जीवन काल के कुछ समय के परिचायक भले ही हों, लेकिन समग्रता में उनका व्यक्तित्व तथा विश्वविद्यालय व समाज के प्रति योगदान अतुलनीय है. मैं ईश्वर से उनके चिरायु व स्वस्थय रहने की प्रार्थना करता हूँ तथा आशा करता हूँ कि भविष्य में भी उनका मार्गदर्शन हमारे समाज को प्राप्त होता रहेगा.
(Prof N S Bisht)
प्रोफेसर राकेश बेलवाल, सोहार विश्वविद्यालय, सल्तनेत औफ ओमान में कार्यरत हैं. मूल रूप से कुमाऊं के रहने वाले राकेश बेलवाल से उनकी ईमेल आईडी rakesh.belwal@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
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