‘सबकी अपनी जीवन कहानी होती है और सबका अपना संघर्ष होता है, सबके अपने सौभाग्य और सफलताएं होती हैं, तो अवरोध और असफलताएं भी. फिर भी हर जीवन अपने जमाने से प्रभावित होता है. अनेक जीवन अपने जमाने को जानने और बनाने में बीत जाते हैं और उनके जीवन को जमाना यों ही सोख लेता है… ऐसा ही इन पन्नों में एक सामान्य सा पर असाधारण जीवन पसरा है. कितना तो गुम भी गया होगा, पर जितना आ सका है पठनीय है और प्रेरक भी… बहरा होना और अपने पूरे परिवेश को सुन-समझ लेना यहां संभव हुआ है… बार-बार पत्थरों से बात करने वाला, उनके हिस्से जमा करने वाला, उनके टेढे-मेढे ध्वस्त धूसरपन और कठोरता को परखने वाला सिर्फ जंगलों की हरियाली या पक्षियों के गीतों में ही नहीं डूब जाता था, वह औसत और आम आदमी तक भी पहुंचता था. सीधे या अप्रत्यक्ष उनके जीवन में शामिल हो जाता था. उसे बार-बार लगता कि जिस धरती और भूगर्भ की वह पड़ताल कर रहा है, उसके ऊपर रहने वाले मनुष्य से वह कैसे कन्नी काट सकता है.’ (प्रो. शेखर पाठक पृष्ठ 9-13) Prof. Kharak Singh Valdiya
किसी आत्मकथा को पढ़ना उस व्यक्ति को जानने-समझने के साथ उसके अन्तःमन में छिपे-दुबके अनेकों व्यक्तियों को जानना-समझना भी होता है. व्यक्ति जो दिखता है और व्यक्ति जो होता है, में एक छोटा-लम्बा जैसा भी हो पर फासला होता है. यही फासला व्यक्ति के सुख-दुःख और सफलता-असफलता का कारक भी है. आत्मकथा की शब्द-यात्रा पाठक को इन्हीं कारकों और उनसे उपजे व्यक्तित्वों से परिचय कराती है.
प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया अपनी आत्मकथा ‘पथरीली पगडंडियों पर’ में एक विज्ञानी, शिक्षक, प्रशिक्षक, प्रशासक, यायावर, लेखक, दार्शनिक, चिंतक, किस्सागोई, सामाजिक कार्यकर्ता और ठेठ उत्तराखंडी पहाड़ी किरदार के रूप में परिपूर्णता की ठसक लिए उपस्थित हैं. इसमें रोचकता यह है कि ये किरदार एक दूसरे पर हावी न होते हुए अपनी स्वतंत्र पहचान बनाये हुए गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के ‘एकला चलो रे’ रीति-नीति पर हर क्षण अनवरत चरैवेति-चरैवेति में मग्न हैं. शोध और शिक्षण के आजीवन साधक प्रो. वल्दिया की आत्मकथा का खूबसूरत पक्ष यह भी है कि उन्होंने अपने सम-सामयिक सामाजिक यर्थाथ को बिना लाग-लपेट के उद्घाटित कर दिया है. उन्होंने अपनी जीवनीय सफलताओं को श्रेष्ठ-जनों से मिली नेकी और असफलताओं को जीवन की नियति माना है.
प्रो. वल्दिया ने अपनी आत्मकथा में विनम्रता से स्वयं के परिचय और प्रयासों को कमतर करते हुए जीवन में मिले नायकों की सहृदयता और सीख को बखूबी विस्तार दिया है. जीवनीय अतीत को किताब के 27 अध्यायों में संजोते हुए वे हर पड़ाव में समय और समाज से मिले नए गुरुमत्रों का उल्लेख करते हुए आगे बढ़े हैं. ये गुरुमंत्र ताउम्र उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा रहे हैं. बूबू (दादाजी) से मिली सीख कि ‘भीड़ के साथ चलने वाला नहीं अलग हट कर दिखने वाला बनना है तुम्हें’ ने उनकी जीवन-धारा ही बदल दी तभी तो जीवनभर वे भीड़ से अलग और विशिष्ट पहचान के धनी रहे हैं.
यह किताब कलौ नगर (तब बर्मा अब म्यांमार देश) की ठिठुरती जाड़े की रात में वल्दिया परिवार के मुखिया का ‘अब हमें मुलक लौटना है’ जैसे रहस्यमयी फैसले से आरम्भ होती है. बच्चा खड्क अपने बूबू (दादाजी) लक्ष्मन सिंह के इस फैसले से रोमाचिंत है. अभी कुछ ही समय पहले उसने एक सभा में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को ‘जय हिन्द’ का नारा लगाते देखा था. हम हिन्दुस्तानी हैं और अब हम अपने मुलक हिन्दुस्तान में रहेंगे का सपना सच हो रहा था. सन् 1911 में उसके बूबू यहां आये थे. और 36 साल बाद सन् 1947 की 20 मार्च को (संयोग से स्कूल पंजिका के अनुसार 20 मार्च वल्दियाजी जन्मतिथि भी है.) सम्पन्न कारोबार को त्यागकर अपनी पत्नी और दो अबोध पोतों के साथ अपने खैनालगांव (पिथौरागढ़) की ओर उनका वापसी का सफर शुरू हुआ था. कलौ नगर (बर्मा) से खैनालगांव (भारत) आते हुए वल्दिया परिवार के साथ उनकी स्मृतियां और कौतुहल भी वापसी के सफर में थे. बूबू-आमा जो छोड़ आये उनकी स्मृतियों में तो बच्चे खड्ग-गुडी भविष्य के कौतुहल में खोये थे.
कलौ नगर (बर्मा) में माइल्स सिंह नाम से स्कूल में पढ़ रहा बच्चा अब भारत की सोर घाटी के स्कूल में खड्ग सिंह वल्दिया नाम से जाना जाता था. कुछ समय बाद कलौ नगर (बर्मा) से बालक खड्ग के माता-पिता, दादी, चाचा, बुआ और अन्य भाई-बहिन भी वापस अपने मुलक के गांव खैनालगांव में सकुशल पहुंच गये थे. परन्तु वह कलौ नगर की कळकळी (याद) से उभरा नहीं था. भारतीय उपमहाद्वीप के उस कठिन ऐतिहासिक संक्रमणकारी दौर में उसके मन-मस्तिष्क में बसा हिन्दुस्तान विभाजित होकर आजाद हो रहा था. समाज के सुनहरेपन की जो तस्वीर उसके पास थी वह बिगड़ते हुए तरीके से बदल रही थी. और यह बदलाव उम्र के सयानेपन तक उसे चौंकाते रहे हैं.
‘बचपन में जब भारत पहुंचा, तब मैं एक ही जाति के लोगों को जानता था-हिन्दुस्तानी. कलकत्ते के हरीसन रोड में मालूम हुआ कि दो वर्ग हैं-एक हिन्दू और दूसरा मुसलमान. बूबू-बाबा के पैतृक गांव खैनालगांव पहुंचा तो देखा हिन्दुस्तानियों का तीसरा वर्ग भी है- शिल्पकार (दलित). पिथौरागढ़ में बचपन बीता तो पता चला कि हिन्दुस्तानियों का एक चौथा वर्ग है- ईसाई.
लखनऊ विश्वविद्यालय में हो रहे अन्तर्कलहों की चर्चा करते हुए मित्रों ने बताया कि सवर्ण हिन्दुओं में चार क़िस्म के हिन्दुस्तानी होते हैं-एक बनिया, दूसरा-कायस्थ, तीसरा ब्राह्यमण और चौथा क्षत्रिय. और जब कुमाऊं विश्वविद्यालय के प्रशासन की बागडोर संभाली तो पता चला कि चार प्रकार के हिन्दू रहते हैं उत्तराखंड की धरती पर-बड़ी धोती वाले कुलीन ब्राह्यमण, छोटी धोती वाले खेतिहर ब्राह्यमण, क्षत्रिय और हरिजन एवं आदिवासी. जब वी.पी. सिंह प्रधानमंत्री बने तो ज्ञात हुआ कि एक और किस्म का हिन्दुस्तानी भी है-ओबीसी. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से बचपन में सुना था कि भारत की एक ही कौम है-हिन्दुस्तानी ! पर यहां तो इतनी कौमें हैं, इतने वर्ग या क़िस्म के हिन्दुस्तानी हैं ! आपस में इतनी अनबन है, इतनी टकराहट है, इतना विद्वेष है कि मुझे कहीं हिन्दुस्तानी नज़र ही नहीं आता.’ (पृष्ठ 239-240)
बचपन में ही बहरेपन से वल्दियाजी ग्रसित हो गए थे. बिना ये जाने कि यह बच्चा कम सुनता है, अभिभावकों और शिक्षकों से अनजाने में हुये खराब व्यवहार ने उन्हें अन्तर्मुखी और संकोची बनाया. ‘तारे जमीं पर’ फिल्म के बच्चे की तरह उनका भी मन पढ़ने से उचका रहता. उनकी परेशानी को समझने के बजाय बड़ों से फटकार ही मिलती. उनके शब्दों में ‘छोटी-सी थी दुनिया मेरी, छोटे-छोटे ही थे सपने भी. बड़ा था तो केवल मेरा दर्द.’ बहरेपन के कारण डाक्टर न बन पाने की कसक उन्हें अभी भी जीवन में ढेर सारा पाने के बाद भी है. बचपन में एक साधु ने उनकी उमर 33 साल बताई थी. तब से आज तक उन्हें अपने जीवन का हर नया दिन बोनस लगता है. ‘अतः जो करना है, आज ही करना है, कल तो मेरा है ही नहीं’ यही उनका जीवन मूलमंत्र रहा है.
पिथौरागढ़ में प्रो. वल्दिया की माध्यमिक शिक्षा तक अंग्रेजी के अघ्यापक ईश्वरी दत्त पंत एवं शिव बल्लभ बहुगुणा, हिन्दी के पीताम्बर पांडे, संगीत-चित्रकला के हैदर बख्श जी ने अध्ययन, साहित्य, संगीत और समाजसेवा का जो अदभुत पाठ सिखाया-पढ़ाया वह भविष्य के जीवन जीने का प्रमुख आधार बना. उस दौरान सरस्वती देब सिंह विद्यालय, पिथौरागढ़ के वि़द्यार्थी खड्ग ने साथियों के साथ मिलकर ‘गांधी वाचन मंदिर’ संचालित किया. यही नहीं ‘बाल-पुष्प’ हस्तलिखित पत्रिका को निकाला. अध्यापक शिव बल्लभ बहुगुणा का यह संदेश कि ‘अध्ययन को विषयों के घेरे में मत रखो और जीवन को अपनी पंसद की जंजीरों में मत जकड़ो.’ यह जीवन-दर्शन लिए प्रो. वल्दिया जीवन में जिधर डगर मिली उधर ही चलते रहे. परन्तु पूरी निष्ठा, मेहनत और ईमानदारी के साथ. उच्च शिक्षा में जिओलॉजी विषय चयनित करने का सुझाव उन्हें अध्यापक बहुगुणाजी ने ही दिया था.
राजकीय इण्टर कालेज, पिथौरागढ़ से सन् 1953 में इण्टर करने के उपरान्त प्रो. वल्दिया लखनऊ विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा लिए आये और यहीं सन् 1957 में जिओलॉजी लैक्चरर नियुक्त हुए. साथ ही वे शोध कार्य में जुट गए. नेपाल से लेकर हिमाचल प्रदेश की सीमाओं तक फैले हिमालय का भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण उनके शोध अध्ययन का विषय बना. उन्होंने ‘स्ट्रोमैटोलाइट’ और ‘पैलियोकरैन्ट’ का गहन अध्ययन कर हिमालय की उत्पत्ति एवं विकास के गूढ रहस्यों का नवीन वैज्ञानिक इतिहास उजागर किया. सन् 1963 में उन्हें पीएच-डी. की उपाधि मिली. परन्तु उन्हें अकादमिक ख्याति सन् 1964 की अंतरराष्ट्रीय भूगर्भ विज्ञान संगोष्ठी में 3 चर्चित शोध-पत्र प्रस्तुत करने के बाद मिली. अब अंग्रेजी शोध-पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों के साथ-साथ हिन्दी में भी वल्दियाजी के विज्ञान लेख प्रमुखता से प्रकाशित होने लगे.
नवनीत, धर्मयुग, त्रिपथा, विज्ञान जगत और हिन्दुस्तान में उनके नियमित लेख लोकप्रिय हुए. विज्ञान की गूढ़ता को सरल भाषा में अनुवाद एवं नवीन पाठ्य पुस्तकों को तैयार करने में उनकी अभिरुचि पनपने लगी. आगे अध्यापन एवं प्रशासन एक लम्बा सिलसिला चला राजस्थान विश्वविद्यालय, वाडिया संस्थान, जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च और कुमाऊं विश्वविद्यालय. वे सन् 1981 में कुमाऊं विश्वविद्यालय के कुलपति रहे हैं. ‘जियोलाजी ऑफ़ कुमाऊं लैसर हिमालय’, ‘डायनामिक हिमालय’ उत्तराखंड टुडे, ‘हाई डैम्स इन द हिमालया’ जैसी 20 से अधिक अकादमिक पुस्तकों के रचियता प्रो. वल्दिया को उनके उत्कृष्ट वैज्ञानिक और सामाजिक योगदान के लिए शांतिस्वरूप पुरस्कार (1976), नेशनल मिनरल अवार्ड आफ ऐक्सलैंस (1997), पदमश्री (2007), आत्माराम सम्मान (2008), जी. एम. मोदी अवार्ड (2012) और पद्म विभूषण (2015) से नवाज़ा गया है.
अध्यापन और प्रशासन से वल्दियाजी को पद-प्रतिष्ठा जरूर मिली परन्तु उनको विश्वख्याति उत्कृष्ट शोध कार्य से ही हासिल हुई है. अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय उन्होंने शोध अध्ययन में लगाया है. अब तक 20 हजार किमी. से भी अधिक की शोधयात्रा कर चुकने के बाद भी उनका यह सफर जारी है.
प्रो. वल्दियाकी शोध-यात्रा भाबर से लेकर हिमालय के शिखरों तक सन् 1958 से आरम्भ होती है. हिमालयी पत्थरों के अतीत के रहस्यों को जानने, उनकी प्रकृति एवं प्रवृति को समझने के लिए उनके पास पद-यात्रा के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं था. सड़क मार्ग होते भी जगह-जगह के पत्थरों को घण्टों निहारने, उनसे मूक बात-चीत करने, उनमें निहित संगीत को सुनने और फिर वहीं बैठकर डायरी लिखने के लिए पैदल ही चलना हुआ. गरमी, जाड़ा और बरसात की अति को सहन करते हुए उनकी रातें अक्सर वीरान जगहों पर डर और भूख को काबू पाने में बीतती थी. कम सुनना उनकी कमजोरी थी, परन्तु यह कमजोरी अक्सर उनकी ताकत भी बन जाती, क्योंकि प्रकृति की नैसर्गिक नीरवता और सौन्दर्य को सुनना नहीं वरन अहसास करना होता है. बहरे होने का फायदा यह हुआ कि आंखों-आंखों में बात करने और ओठों की आकर्षक मुस्कराहट से दोस्ती करने में उन्होंने महारथ हासिल कर ली थी. पद-यात्राओं में उनका बचपन बार-बार बाहर आने को छटपटाता रहता. वे एक तरफ हिमालय की गूढता की खोज कर रहे होते तो दूसरी तरफ जंगल में पक्षियों के सूखी पत्तियों में फुदकने से हुई छिड़बिड़ाहट और उनकी चूं-चूं में गूंजे संगीत में खोये रहने का आनंद बटोर रहे होते थे. निर्जन जगहों पर निर्मल और स्वच्छंद बहती जलधारायें कहां जा रही है ? उनका मन पूछता. वे तब सोचते मैं पक्षी की तरह उड़ नहीं सकता तो मछली की तरह तैर तो सकता हूं. वे पक्की धारणा बनी कि जब तक मानव जन्तुओं, पक्षियों और वनस्पतियों की मूक भाषा को नहीं समझ लेता तब तक वह जीवन की पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता है. प्रकृति और जंगली जीव-जन्तुओं के साथ अंतरंग आत्मीयता का ही कमाल था कि अन्वेषक वाल्दियाजी को जिस गुफा में ‘स्ट्रोमैटोलाइट’ के बारे में जब खोजी जानकारी मिली थी, उसी समय गुफा अंदर दो बच्चों के साथ बैठी बाघिन उन्हें निहार रही थी. और वे गुफा के बाहर पत्थर पर बैठ बेखबर अपनी शोध डायरी लिखने में तल्लीन थे.
शोध-यात्राओं में मिले अनुभवों और किस्सों ने वल्दियाजी को सामाजिक सरोकारों के नजदीक लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया. एक संवेदनशील व्यक्ति ही अच्छा वैज्ञानिक बन सकता है, ये समझ इन यात्राओं ने उन्हें दी है. तभी तो वे घनघोर वन में अपने झुंड से बिछड़ी बकरी को मीलों आगे उसके परिवार से मिलाने का सुख लेते हैं. बूढ़े और अपंग लान्सनायक के मनोबल को बढ़ाते हैं, जिसकी वीरता का श्रेय उसका कैप्टेन हड़प गया था. अपना शोध-सर्वेक्षण छोड़कर उस युवती को ढ़ाढस बांधते हैं जिसके पति की अभी तीन दिन पहले मृत्यु हो गई थी. असल में वल्दिया ने इस दौर में पत्थरों का ही नहीं मानवीय जीवन का भी अध्ययन किया है. वे अंचभित होते कि जवानी आते ही बुढ़ा गई औरतें आस-पास के समाज से कैसे अपने लिए खुशियां बटौर लेती हैं. शोध-यात्रा में रास्ते के धारे पर मिली महिलाओं से बात-चीत का एक रोचक प्रंसग का आप भी आनंद लीजिए-
‘अपना बैग और हथौड़ा रख पानी पीकर डायरी लिखने बैठ गया. एक सयानी सी महिला ने पूछा-
‘हाथ में हथौड़ा लिये क्यों घूम रहे हो तुम ? क्या करते हो इससे ?’
‘पत्थर तोड़कर उन्हें अच्छी तरह देखता हूं कि पत्थर में क्या-क्या धातु हैं.’
‘सोना-तांबा भी होता होगा ?’
‘हां कहीं तांबा भी दिख जाता है. सोना तो बहुत कम होता है. पर वह भी कहीं-कहीं दिख जाता है.’
‘अच्छा ?’
फिर कुछ रुक कर बोली, ‘तुम्हारे पास तो बहुत सोना होगा ? अपनी ‘सैनी’ (घरवाली) के लिए बड़ी नत्थ बना ली होगी.’
और खिलखिला कर सभी महिलायें हंस पड़ी. मैं भी हंसा.
‘मैं तो अपनी घरवाली के लिए एक चूड़ी तक नहीं बना पाया हूं.’
अपनी पिछौड़ियों से मुख ढककर महिलाएं हंस पड़ी.’
मैंने कैफ़ियत दी, ‘अगर कहीं सोना मिला भी तो वह सरकार का हो जाता है.’
…
सबसे छोटी गुलाबी गालवाली कोमलांगी जाते-जाते बोली-
‘अगली बार सोना मिला तो अपनी ‘सैनी’ के लिए नत्थ बना देना, हां.’ (पृष्ठ 201-203)
बचपन के सामाजिक परिवेश में व्याप्त अनिश्चितता, पारिवारिक आर्थिक अभाव और श्रवणशक्ति की कमजोरी ने प्रो. वल्दिया को विचलित तो किया परन्तु वे उनके व्यक्तित्व पर हावी नहीं हो पाये. उन्होंने आक्रमकता से नहीं वरन बेहद सादगी से इन विसंगतियों पर विजय पाई. प्रो. वल्दिया ने अपने स्वभाव को हठीला जरूर रखा पर अन्तःमन में भावनाओं को निर्बाध रूप में बहने दिया है. इसका फायदा यह हुआ कि उन्होंने जीवन के बड़े से बड़े निर्णयों को लेने में वक्त नहीं लगाया. कुलपति जैसे उच्च पद को त्यागने का साहस उन्होंने दिखाया और अपने सिद्धान्तों के प्रतिकूल ऐसे कई अनुरोधों को मना कर दिया जिसे पाने के लिए साथ के साथी ऐड़ी-चोटी का जोर लगा रहे होते थे. पद-प्रतिष्ठा के मोह से विरक्त एक आम आदमी को उन्होंने अपने में हमेशा जिंदा रखा है. आत्मकथा में उनकी शादी का यह किस्सा उनकी सादगी और दृढ-स्वभाव का परिचय देता है, जिस पर वे आज भी कायम हैं-
‘किसने भेजा है बैन्ड ?’
उत्तर मिला, ‘मेजर साहब ने भिजवाया है.’
मैंने गुस्से में ज़ोर से कहा-
‘अच्छा ! तो आप लोग फ़ौरन चले जाइये और मेजर साहब के घर बैन्ड बजाइये.’
अपना-सा मुंह लेकर वे लौट गये. बिना बाजे-गाजे के बारात लेकर दुल्हन (मेजर साहब) के घर पहुंचे. अगले दिन दुल्हन लेकर रेगुलर बस की प्रतीक्षा में सड़क पर खड़े हो गये. पहली बस भरी हुई थी. जगह नहीं मिली. दूसरी बस दो घंटे बाद मिली.’ (पृष्ठ-136)
यह आत्मकथा भारतीय अकादमिक जगत में व्याप्त लालफीताशाही, शिथिलता, चापलूसी और आपसी दांव-पेंचों की ओर इशारा करती है. राजनैतिज्ञों के समक्ष नतमस्तक और विदेशी वैज्ञानिकों के सामने हीनता से ग्रस्त भारतीय वैज्ञानिकों की मनोदशा के कई प्रसंग किताब में हैं. मिलने पर पीठ थपथपाते और पीठ पीछे धोका देते गुरु और दोस्तों के किस्से वल्दियाजी ने बखूबी कहे हैं.
अपनी आत्मकथा में वल्दिया ने उन महानुभावों को हर स्तर और समय पर आदर व्यक्त किया है जिनकी प्रेरणा, मार्गदर्शन और सहयोग से वे जीवन-पथ पर अग्रसर हुए हैं. अपने बूबू (दादाजी) लक्षमन सिंह और बचपन में देखे सुभाष चन्द्र बोस उनके आजीवन आदर्श रहे हैं. बूबू से मिले साहस और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से मिली देशभक्ति ने उन्हें देश-समाज के प्रति दायित्वशील और संवेदनशील नागरिक बनाया. ‘जय हिन्द’ उनका प्रिय संबोधन है, जिसे उन्होंने जीवनभर हर अकादमिक व्याख्यान में बुलंदी से बोला है. वे अपने जीवन यात्रा के साथी रहे विशाल हृदय के धनी वैज्ञानिक प्रो. डी. डी. पंत, प्रो. रमेश चन्द्र मिश्र और प्रो. डी. एन. वाडिया, दूरदर्शी अध्यापक शिव बल्लभ बहुगुणा, ईश्वरी दत्त पंत एवं हैदर बख्श, समर्पित फील्ड सहायक गिरजाशंकर मिश्र और नुज़हत हुसैन हाशिमी, सौम्य राजनीतिज्ञ नारायण दत्त तिवारी, रोचक तहसीलदार सुरेन्द्र सिंह नेगी, मित्र प्रेमसिंह धानिक, प्रताप भैया, चेतराम साह एवं शेखर पाठक के सद्गुणों का जिक्र करते नहीं भूलते हैं.
पहाड़, नैनीताल द्वारा वर्ष-2015 में प्रकाशित प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया की आत्मकथा ‘पथरीली पगडंडियों पर’ पढ़ते एक साथ कई भाव आते हैं. मानवीय जीवन के कई विश्वविद्यालय इस किताब में निहित हैं. यह एक ऐसे जीवट व्यक्ति की जीवन-यात्रा है जिसे विकट परिस्थितियां भी बदल नहीं पायी हैं. वह जीने की राह बदलता रहा पर जीने का उद्धेश्य उसका अटल रहा है. वह इस बात पर दृडमत है कि आने वाली पीढ़ी को पता रहना चाहिए कि वर्तमान में हमारी भूमिका कैसी थी ? इस संदर्भ में यह पुस्तक संपूर्ण व्यवस्था को भी चुनौती देती हुई लगती है. वर्तमान शिक्षा प्रणाली, वैज्ञानिक जगत, राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था से टकराती यह आत्मकथा यह संदेश देती है कि बिना गलत समझौते किए भी अपने जीवनीय लक्ष्यों को हासिल किया जा सकता है.
यह आत्मकथा ऐसे व्यक्तित्व की है जो भूगर्भीय हलचलों के साथ ही मानव मन की धड़कनों को समझने का भी विशेषज्ञ है. तभी तो ‘पत्थरों का उपासक-प्रकृति का पुजारी’ बना वह साधारण व्यक्ति असाधारण व्यक्तित्व का धनी है.
हिमालय पुत्र प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया हमेशा स्वस्थ रहें और हमारे समाज का आत्मीय मार्गदर्शन करते रहें, यही कामना है. Prof. Kharak Singh Valdiya
–अरुण कुकसाल
(वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी अरुण कुकसाल का यह लेख उनकी अनुमति से उनकी फेसबुक वॉल से लिया गया है)
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