कला साहित्य

प्रेमपरकास की बछिया

प्रेमपरकास अग्गरवाल का खानदान पिछली तीन पीढ़ियों से उस पहाड़ी कसबे में तिजारत कर रहा था. तनिक मुटल्ले प्रेमपरकास से मेरी स्कूल के समय से ही दोस्ती थी. उसके एक हाथ में छः उंगलियाँ थीं और उसका टिफिन हर रोज आलू से बने अकल्पनीय स्वादिष्ट व्यंजनों से भरा होता. शहर की सबसे बड़ी तोंद के मालिक मशहूर लाला गोबरधन उसके बाप थे. गोबरधन लाला के बाप यानी प्रेमपरकास के दादा की किराने की बहुत बड़ी दुकान हुआ करती थी जिसे बाद के सालों में आढ़त में तब्दील कर समूचे जिले के ग्रामीण इलाके में अनाज और मिट्टीतेल वगैरह की सप्लाई का मुख्यालय बना दिया गया था. (Tales by Ashok Pande)

आठवीं में फेल होने क बाद प्रेमपरकास की पढ़ाई छुड़वा दी गयी और आढ़त का माल लेकर जाने वाले ट्रक की निगरानी के काम में लगा दिया गया. ट्रक का स्टाफ पहाड़ी था और प्रेमपरकास के पास इतने पैसे होते थे कि रात किसी पड़ाव में काटने की सूरत में अद्धे-पव्वे का खर्चा निकल सके. तो, जिन दिनों हम बारहवीं करते हुए गणित और रसायनविज्ञान का घोटा लगा रहे होते, किसी सुदूर पहाड़ी इलाके में रात काट रहा प्रेमपरकास किसी भी तरह की कच्ची-पक्की सूत कर अपने स्टाफ के साथ पहाड़ी गाने सीख रहा होता या तीनपत्ती फल्लास के गेम की प्रैक्टिस.

हमारे कॉलेज पहुँचते न पहुँचते वह भले भले पहाड़ियों से बड़ा पहाड़ी बन गया. उसने कुमाऊनी बोली भी सीख ली थी और तमाम पहाड़ी व्यंजनों को बनाने के तरीके भी. इसका सुपरिणाम यह निकला कि वह एक स्थानीय निर्धन परिवार की कन्या को भा गया और परिवार वालों की कड़ी आपत्तियों के बावजूद उन्होंने शादी कर ली. गोबरधन लाला ने अपने इकलौते बेटे को इसकी सजा घर से निकाल कर दी. लेकिन तीन महीने बाद अचानक हार्ट अटैक से उनकी मौत हो गयी और बाप का अंतिम संस्कार करने के लिए प्रेमपरकास को वापस अपने घर लौटना पड़ा.

यह सब 1990 से पहले हो चुका था. जल्दी पैसे कमाने की नई तरकीबें बाजार में आ रही थीं और प्रेमपरकास तब तक पक्का खिलाड़ी बन चुका था. सबसे पहले उसने आढ़त में एक ऑफिस बनाया और आढ़त के मैनेजमेंट के लिए अपने ट्रक ड्राइवर हुकुमसिंह को मैनेजर बनाया और अपने लिए एक घूमने वाली कुर्सी खरीदी.

फिर अचानक बाजार पैसे से अट गया और दिल्ली-बंबई-कलकत्ता वाले रईस लोगों ने पहाड़ी कस्बों के आसपास के गाँवों में अपने लिए गर्मियों में रहने के ठिकाने बनाने शुरू किये. बड़े नगरों के बड़े आर्कीटेक्टों द्वारा डिजाइन किये गए इन घरों को कॉटेज कहा जाता था. इस घरों की खूबी यह होती थी कि उनके महंगे बाथरूमों के गीजर कभी काम नहीं करते थे और टपकती हुई टीन की छतों से उनके गलीचों पर धब्बे बन जाया करते थे. इन धनाढ्य गृहस्वामियों को बजरी-पत्थर के रेट मालूम नहीं होते थे और स्थानीय ठेकेदारों ने उनके इस अज्ञान का फायदा उठाते हुए खूब धुआं काटा.

प्रेमपरकास पीछे रहने वाला नहीं था. उसने अपने नए ऑफिस को प्रेमपरकास कॉटेज बिल्डर्स एंड एसोसियेट का हैडक्वार्टर बना लिया और देशी मुर्गों की तलाश में जीजान से जुट गया. दसेक सालों में उसने बड़ा आदमी कहलाये जाने लायक रकम और पहचान बना ली. उसके घर पर पीने को सिंगल माल्ट मिलने लगी और पहाड़ों में बनने वाले मीट-भात की जगह दमपुख्त बिरयानी और स्टार्टर्स ने ली. वह विदेश घूमने जाता तो वहां के होटलों के तौलिये चुरा कर लाया करता.

फिर यूं हुआ कि उसके एक रईस ग्राहक की अचानक मौत हो गयी. विदेश में रहने वाले उसके बच्चों को इंडिया आने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. प्रेमपरकास के पास अपना पैतृक घर था तो भी उसने इन रईसजादों से औने-पौने में उनके बाप की बनाई विशाल कोठीनुमा कॉटेज को भी खरीद लिया.

कॉटेज के बाहर एक रेडी-टू-मूव आउटहाउस था जिसमें केयरटेकर-कम-कुक नामक जीव के रहने की व्यवस्था थी. गाँव के एक मुन्ना नाम्ना लौंडे को इस नौकरी पर लगा दिया गया. तदुपरांत प्रेमपरकास की बीवी के कहने पर उक्त कॉटेज में एक गाय पालने का निर्णय लिया गया. इससे मुन्ना की फ़ोकट की रोटी तोड़ने पर रोक लगती और घर का दूध पीने को मिलता.

पहाड़ की मरियल बाखड़ी गायों की जगह पंतनगर के एक फ़ार्म से विदेशी नस्ल की एक गाय खरीदी गयी जिसने चार माह बाद ब्याना था. कॉटेज के चारों तरफ की हरियाली के कारण गाय के लिए भोजन की इफरात थी. खली-चोकड़ प्रेमपरकास की आढ़त से जाने लगा. मुन्ना ने आसपास की धरती पर धनिया-पोदीना और हरी मिर्च जैसी चीजें उगाकर मालिक के घर पहुंचाना शुरू कर दिया.

प्रेमपरकास के जीवन में बहार आ गयी. वह और उसकी बीवी अक्सर शामों को अपने जीवन में आने वाले सुख पर चर्चा करते जब उन्हें घर का दूध-दही मिलेगा. लम्बे इन्तजार के बाद गैया ब्या गयी और उसने एक सुन्दर सी बछिया को जन्म दिया. प्रेमपरकास की बीवी ने मोहल्ले में लड्डू बांटे.

घर पर सुबह-शाम दूध-दही आने लगा. नौकर मलाई गला कर घी बनाने लगे जिसे प्रेमपरकास की रोटियों पर चुपड़ा जाता. घर से कॉटेज की दूरी दस-बारह किलोमीटर थी. रोज क्या वहां हफ्ते में एक बार जाने की समय भी मियाँ-बीवी को नहीं मिलता था. वे जब भी वहां जाते अपनी बछिया को देख कर मुदित होते. उसे रानी नाम दिया जा चुका था. धीरे-धीरे दूध-दही की मात्रा कम होने लगी.

एक दिन बाजार में प्रेमपरकास को मुन्ना दिख गया. उसके हाथ में स्टील की ढक्कन वाली बाल्टी थी. जन्मजात व्यापारी प्रेमपरकास को दो और दो चार करने में एक मिनट लगाया. वह समझ गया कि मुन्ना धंधे में डंडी मार रहा था अर्थात चोरी-छुपे बाजार में दूध बेच रहा था. उसने मुन्ना को तलब किया और दूध की सप्लाई कम हो जाने का सबब पूछा. “अब वो दे ही इतना रही रही है तो मैं क्या करूं साहब?” मुन्ना ने साफ झूठ बोल दिया. Tales by Ashok Pande

सुबह-सुबह प्रेमपरकास कॉटेज पहुंचा. धूप में लेटे मुन्ना को बढ़िया फटकार लगाई और चोरी करने की सूरत में थाने में बंद करवा देने की धमकी दी. मुन्ना ने “जी साब जी साब” करते हुए साहब के गुस्से को झेल लिया. बंबई से ताजा फंसे एक मुर्गे की कॉटेज बन रही थी. प्रेमपरकास को साइट पहुँचने की देर हो रही थी. गाड़ी में बैठने से पहले एक निगाह अपने चारों तरफ डालते हुए उसने देखा कि गाय तो बंधी है पर बछिया नजर नहीं आ रही.

“रानी नहीं दिख रही” उसने मुन्ना की तरफ सवाल फेंका.

मुन्ना बौड़मों की तरह उसे देखने लगा. उसने खीझ कर कहा – “अबे बछिया कां है बछिया?” उसने पूछा तो मुन्ना ने बताया कि वह ऐसे ही चरने नीचे खेतों की तरफ चली जाती है. वहीं गयी होगी. बच्ची ही ठहरी.

पूरे एक महीने तक कॉटेज जाने की फुर्सत नहीं निकली. घर आने वाले दूध की मात्रा घटकर नित्य तीन पाव पर आ गयी थी. एक साथ सौ कामों में उलझे रहने वाला बिचारा प्रेमपरकास किस-किस बात पर ध्यान दे. एक शाम वह बंबई वाली पार्टी के घर से उम्दा दारू और भोजन दाब कर घर लौटा तो बीवी ने मुन्ना और उसकी हरामखोरी के चिठ्ठे खोलते हुए चेतावनी दी – “एक दिन तुम्हारी कॉटेज बेच खाएगा ये छोकरा.”

रात को प्रेमपरकास ने कापी-कलम निकाला और बाप से सीखा हुआ मोटा हिसाब लगाना शुरू किया. गाय की कीमत, उसे पंतनगर से लाने का खर्च, चार महीने की पलाई, केयरटेकर की तनख्वाह और खली-चोकड़ मिलाकर उसने पाया कि गाय पर हो रहा पूरा खर्च वसूलने में चार साल लगेंगे. इतने सालों में फ्री में मिली उसकी बछिया ने दूध देना शुरू कर देना था. Tales by Ashok Pande

अगले ही दिन गाय को बेचने का फैसला किया गया. पड़ोस के एक गाँव में अपनी कॉटेज में नए-नए शिफ्ट हुए फरीदाबाद वाले गुलाटी साहब ने तकरीबन बाखड़ी हो चुकी उस गाय के उतने ही पैसे गिन दिए जितने में उसे पंतनगर से लाया गया था. गुलाटी साहब की पांच पीढ़ियों ने गाय-बछिया नहीं देखी थी. उनकी एनजीओ बीवी बात-बात पर “आर्गेनिक आर्गेनिक” कहने से लाचार थी. घर में अपनी गाय के आने से ज्यादा आर्गेनिक क्या हो सकता था.

गाय को ले जाते समय भी बछिया नजर नहीं आई. प्रेमपरकास के पूछने पर मुन्ना ने वही जवाब दिया. ऐसे ही चरने नीचे खेतों की तरफ चली जाती है. वहीं गयी होगी. बच्ची ही ठहरी बिचारी.

प्रेमपरकास के भीतर का मनुष्य अभी पूरी तरह मरा नहीं था. उसे लगा कि बच्चे को उसकी माँ से दूर करने से पहले एक बार दोनों की मुलाक़ात तो बनती थी. उसने मुन्ना से कहा कि उसे खोज कर लाये. मुन्ना एक घंटे बाद खाली हाथ लौटा. तब तक गाय जा चुकी थी. प्रेमपरकास ने झल्लाते हुए उसे चेताया कि अगली सुबह उसे बछिया देखनी है.

सुबह बछिया बंधी दिखी. प्रेमपरकास ने पाया उसका रंग भूरा लग रहा था जबकि रानी एकदम काली थी. मुन्ना से इस बात का सबब पूछा गया.

“बढ़ने वाला जानवर हुआ साब. उमर के साथ रंग खिलने वाला हुआ बिचारों का.” मुन्ना ने गोली पिलाई.

तीन दिन बाद नाश्ते की मेज पर प्रेमपरकास ने यह बात पत्नी को बताई तो वह बहुत नाराज हुई. फलस्वरूप पति-पत्नी आधे घंटे के भीतर कॉटेज में थे. बछिया नहीं थी. मुन्ना ने उसके बच्ची होने और नीचे चले जाने वाली बात दोहराई. प्रेमपरकास ने उससे हड़काते हुए कहा कि दस मिनट के भीतर बछिया को ले कर आये.

इसके बाद प्रेमपरकास को भी डांटा गया कि बछिया और बछड़े में फर्क नहीं कर सकता. उसे फर्क देखना बताया भी गया.

मुन्ना ने दांतों में दबाये घास के तिनके को बाहर निकाल कर उसका मुआयना करना शुरू किया – “गलती हो गयी सायद मेरे से. बगल वाले जोसी जी की बछिया तो नहीं ले आया मैं कहीं. अब बचपन में सब जानवर एक जैसे ही दिखने वाले हुए. कल को ले आऊंगा अपनी वाली.”

“कल क्यों अभी ले कर आ” प्रेमपरकास की पत्नी ने दहाड़ लगाई.

“अभी कहाँ से लाऊं. जोसीजी की बुआ नहीं थी वो ताड़ीखेत वाली. बिचारी मर नहीं गयी थी परारके हप्ते. उनके पीपलपानी में गए हैं जोसी जी लोग.”

“मतलब हमारी रानी भी ताड़ीखेत गयी होगी तेरे जोशी जी के साथ. उल्लू बनाता है! जा अभी ले के आ”

“अब आप देख लो. मेरे से कुछ ऊंच-नीच हो गयी तो बदनामी आप लोगों की होने वाली हुई कि लालाजी का आदमी हमारी बंधी हुई बछिया खोल के ले गया कर के…”

बंबई वालों की कॉटेज के बाथरूम्स की टाइलें ले कर आ रहे ट्रक को सेल टैक्स वालों ने सुबह से चुंगी में रोक रखा था. प्रेमपरकास को देर हो रही थी. उसने एक थप्पड़ मुन्ना को जड़ते हुए अंतिम वार्निंग दी – “कल सुबे मेरी बछिया यहाँ होनी चाहिए. नहीं तो तू तो बेटा गया काम से!”

सेठानी जी को सुबह हल्का बुखार आ गया था. उनकी हिदायत पर प्रेमपरकास आठ बजे ही कॉटेज पर जा पहुंचा. गोठ के बाहर बछिया बंधी हुई थी और घास खा रही थी. वह काली थी तो लेकिन अजीब तरह से काली. रंग खुल रहा होगा बिचारी का. उसने सोचा.

मुन्ना नदारद था. प्रेमपरकास ने उसे आवाज दी. कोई उत्तर न मिला तो वह मुन्ना के कमरे में घुसा. कुर्सी-खाट-गैस का चूल्हा-सिलिंडर समेत सारा सामान गायब था. केवल खूंटी पर मुन्ना की उधड़ी सिलाई वाली मटमैली पड़ चुकी बंडी टंगी हुई थी. बाहर आते हुए उसने पाया कि आउटहाउस के दोनों दरवाजों की पीतल की कुण्डियाँ भी उखाड़ ली गयी थीं.

बछिया टुकुर-टुकुर प्रेमपरकास को देख रही थी. मुन्ना के भाग जाने के सदमे से बड़ा सदमा यह था कि दो कौड़ी का एक गंवार छोकरा उसे बेवकूफ बनाकर भाग गया था. कुण्डियाँ ले गया सो अलग.

दो मिनट तक विचार करने के बाद उसके व्यापारी मन ने हिसाब लगाया कि एक नया लड़का भी इस बछिया की टहल के लिए रखा जाय तो चार साल में पूरे पैसे वसूल हो जाने हैं. उसे इस बात की टीस भरी हल्की सी याद थी कि बछिया को उसकी माँ से किन स्थितियों में अलग किया गया था.

उसके मन में बछिया के लिए मोहब्बत उमड़ने लगी. उसने उसे सहलाना शुरू किया. अचानक बीवी की दी हुई हिदायत याद आई तो उसने झुक कर देखा. बछड़ा था.

हाथ में कुछ लसलसा सा महसूस होना और गोठ के दरवाजे पर उलटे पड़े टीन के गैलन का दिखना एक साथ हुआ. प्रेमपरकास ने देखा उसके हाथ काले पड़ गए हैं. जाने से पहले मुन्ना पिछले दिन वाले बछड़े को जला हुआ मोबिल आयल घिस कर काला बना गया था. Tales by Ashok Pande

– अशोक पाण्डे

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