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गैरीगुरु की पालिटिकल इकानोमी : अथ चुनाव प्रसंग

गैरीगुरु उर्फ गिरिजा का नाम एडम स्मिथ, रिकार्डों, जेएसमिल के बाद सीधे गुन्नार मिरडल तक जाता है. गिरिजा से उन्हें सुकुमारी होने का बोध हुआ तो गैरी कहलाना पसंद किया. उनके मुंह लगे चेले ने जब धमाकेदार अखबार ‘हिमालय का तांडव’ निकाला तो उनके अग्रलेख में नाम ‘गैरीगू’ छप गया. जिसकी हर प्रति में गू के आगे उन्होंने लाल पैन से ‘रु’ बढ़ा गैरी गुरु कर दिया. कुछ विदेशी जनरलों में डालर ट्रांसफर कर गैरीग्रू के नाम से भी छपते हैं.

बजट की लोक लुभावन घोषणाएं पानी केरा बुदबुदा की तर्ज पर, कमजोर याददाश्त वाले आम आदमी की सोच से गायब हो गई. अब चुनाव का स्वाइन फ्लू सर चढ़कर बढ़ रहा है. चुनाव है तो जनता की क्रयशक्ति बढ़ेगी ही. हजार ख्वाहिशें कर लो और हजार मंसूबे परवान चढ़ा दो, काली लक्ष्मी धरती के गिरहकटों, तिकड़म बाजों, कुर्सी पर आसन्न चिपको, वर्तमान युग के यशस्वी राजा महाराजाधिराजों, नवाबों, जीहुजूरिये सामंत-सिपाहियों की तोंद में समावेशित हो जाती है. राजकुवरों- राजकुमारियों की नयी जमात बहुत कुछ आधुनिकीकृत हो चुकी है. डिजिटल डिवाइसेज के प्रताप से उसे सुदूर संवेदना के उन बहु आयामी प्रपंच तंत्रों की सुविधा आसानी से उपलब्ध हो गयी है. जिससे विश्व में घटित हो रहे किसी भी लोक लुभावन आम जनता को फड़काने वाले लुक्मानी नुस्खे का आसानी से अहसास हो जाता है. बुद्धिजीवी हमेशा की तरह सिद्ध योगी की तरह तटस्थ मुद्रा में अपने-अपने आसनों में मलाई खा रहे हैं और अपना सारा ध्यान बगुले की तरह उस मछली पर टिकाए हैं जिसकी आंख भेदना तो उनके लिए संभव नहीं, पर जिसकी देह यष्टि के मोड़ों-घुमाओं में उन्हें भावी सत्ता सुख के नए नवीन परिष्कृत झीने पारदर्शी दर्शन होंगे. सरकारी अधिष्ठान-प्रतिष्ठान-संस्थाएं कब से अपनी चीर लुटा चुकी हैं अब क्या खिसक जाए? क्या सरक जाए? का भी भय नहीं क्योंकि चुनाव के मौसम में यही सब कुछ बटोर लेने का रुतबा होता है. लपकने का मौका भी.

जहां देखो रेलमपेल चली है. गदबदाती गलियों, खड़खड़ाती सड़कों, तीन से पांच फुट की ईथेन-मीथेन छोड़ते छिद्रों में ढके कई रंग-बिरंगे खादी के कुरते अवतरित होने लगे हैं. टोपियों के रंग केसरी सफेद हरे नीले में ही रंगे हैं ताकि पहचान बनी रहे. इनमें से कई ऐसे भी हैं जिन्होंने डियो, शैम्पू और वाईटलाइजर का निरंतर प्रयोग भी छोड़ दिया है. मिट्टी गोबर का छुटपुट लेप चुपड़ लिया है जिससे ग्रामीण भारत आकृष्ट हो सके तथा खिचड़ी दाढ़ी को हाइड्रोक्विनोन से और सफेद-ग्रे कर डाला है ताकि आम. लोग उन्हें अपनी जैसी अनुकृति का समझें. उनकी जिह्वा में आमजन के लिए अमृत जैसी आश्वासनों की जनम घुट्टी है तो अगले ही पल विरोधी पार्टी के लिए विष वमनों की अविरल धारा. बड़े-बड़े वादे हैं इरादे हैं शहजादों के पास कि खेतिहर किसान अब खेती से कमाएगा कम सरकारी आय-वेतन बंटेगी उसे हर साल. पहले ही सूरमा लोग रिजर्व बैंक को धता बता, पुरानों को हटा, नए को पटा, दो हजार रुपये की परसादी पहुंचा चुके हैं. चरनामृत की भरमार है, स्टॉक भरे पड़े हैं. वो तो गलती है कुछ बिचारे चौकीदारों की जिनकी आंख लगे में करोड़ों का स्टॉक पकड़ में आ गया , पर लकड़-धकड़ हो गयी. गोदाम वाला क्यों कर कहेगा कि यह उसका है. यह तो जिसका है उसी को अर्पित होना है. और होते जा रहा है. साथ में चूरन के रंग वाले नए नोट कर्र-कर्र बटने की तैयारी में हैं. कूच कर गए स्वर्ग सुख भोग रहे सरकारी कर्मचारी भी धरती में चुनाव कार्यालय द्वारा अपनी ड्यूटी लगा देने से परम तरंगित हैं. कि चलो फर्जी मेडिकल तो न लगाना पड़ेगा नहीं अड़ियल करमचारियों को पिलाए जाने वाले पव्वे के पैसों से उनकी अंतरात्मा दुखेगी.

किसी भी चूं-चपड़ पर निलंबित करने का दौर शुरु हो गया है. अबे सरकारी कर्मचारी हो तो औकात में रहो. पुलवामा हमले पर सवाल उठाओ? और इमरान खान की तारीफ करो? यह कैसी साजिश है? राष्ट्रद्रोहियो! जिसका खाते हो उसी पर हगते हो? सेवा नियमों का उल्लंघन करते हो? आपत्तिजनक टिप्पणी करते हो. वह भी सोशियल मिडिया पर लाइक बटोरने के लिए. तुम्हें यह पता नहीं कमबख्तो कि साम्प्रदायिकता-जाति-राजनीति और धार्मिकता से रची बसी उल्टी सिर्फ सियासत के धंधेबाज कर सकते हैं. आम भारतीय लल्ले-टल्ले नहीं. विपक्षी गुरुघंटाल सैम पित्रौदा भले ही आंतकियों को बिरयानी खिलाते रहें या यादव सुपुत्र सैफई में दुर्योधन की मूर्ति लगाएं! आमजन की सुरक्षा तो तभी होगी जब बहन बेटियां मुंह-अंधेरे ही अपने घर पहुंच जायेंगी और बुचड़खाने बंद हो जायेंगे. करोड़ों को शौचालय बना दिया तो मुंह अंधेरे या रात-अधरात छेड़खानी रेप-खेप या एम.एम.एस. बनाने की कोई गुंजाइश नहीं. फिर कई करोड़ घरों में लम्फू की तरह बिजली के तार भी तो पहुंचा दी. अभी तो देश में अमन-चैन कायम हो गया है. प्रदेश में गुण्डे जेल के भीतर हैं या राम नाम सत्त करवा चुके हैं बल. आम आदमी का असलहा जमा है. बड़ा अवतार बन रहे ये विपक्षी. अरे शिव के सच्चे भगत हो तो भांग धतूरा छोड़ पांच सौ ग्राम जहर पीकर दिखाओ. अब शिव हो तो मिलीग्राम साईनाइड तो अपमान की बात होगी. सो आधा किलो विष मर्यादा के अनुरूप सही रहेगा. अब जिन्दा रह गए तो अंठा तुम्हारे बाप का. क्या यूं ही खेतों में टाइल लगा कर किसानों का विकास करोगे. वैसे भी भारत माता के लाल हो तो सिद्ध करो अन्यथा संकर ही कहलाओगे.

क्या हुआ जो ग्रोथ रेट में धार नहीं रही. अरे किडनी फेल हो गई देश के स्वनामधन्य अर्थशास्त्रियों की. जो कमबख्त न तो क्लास पढ़ा पाए न अपने अंचल-कस्बे गांव को समझ दे पाए. अब तो अखबारों में छुटपुट बयान देते हुए उनका अपमान होता है कि अखबार का फोटोग्राफर कभी थोपड़े को मोबाईल कैमरे से खींच उनकी सारी मुखमुद्रा को त्रिआयामी बना घोड़े से ऊंटवाकार बना देता है और नाम के नीचे मुख्य अर्थशास्त्री का टैग भी नहीं लगता. टीवी शो में टुल्ले खुद शादियों में डीजे जैसा कानफोडू-कुकाट कर देते हैं कि सिवाय प्लेट में रखे निमकी व पार्ले के बिस्कुट ठुसने और कम दूध-चीनी-पत्ती वाली ढटपाणी सपड़ने के सिवाय कोई चारा नहीं रहता. पहले की सभा-गोष्ठियों-सेमीनार-वर्कशाप में यूजीसी के साथ आईसीएआर, आईसीएसएसआर और विदेशी फंडिंग के आयोजनों की स्मृति में ही टिसवे बहा इस तथाकथित वित्तीय अनुशासन की मां-बहिन करने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं. यही ठोस कारण है कि तमाम अर्थशास्त्री गंभीर मुद्रा में माथे पर पांच से अधिक सलवटें ला और भोंहों को धनुषाकार बना विश्व खुशहाली रिपोर्ट का समर्थन करते हैं कि आजादी, विश्वास, उदारता, सामाजिक सहभागिता व स्वस्थ जीवन की प्रत्याशा के साथ आय का कारक नीचे खिसक कर भारत 140वां आ गया है वो भी कुल जमा 156 देशों में. अब तो जरा खरी कहो तो या रवीश कुमार की तरह मोतिहारी जाने की दृढ़ता दिखाओ वो भी मात्र एक टिन के संदूक के साथ या पुण्य प्रसून की तरह प्रिया गोल्ड बिस्कुट वाले लाला के सूर्या समाचार से जयहिंद करवाओ. या शत्रुघन सिन्हा की तरह खामोश कर दिये जाओ. बुड्या गये हो और बकतरी करते हो तो भी आउट.

गज्जब के ठस्स बुद्धि होते हैं ये अर्थशास्त्री बाजार का रुख नहीं पहचानते मौसम नहीं पहचानते. आम जन की हैल्थ और स्तम्भन के साथ उसकी विटैलिटी की तो परवाह ही नहीं. भाई चुनाव का मौसम है तो क्या? गरमी भी तो बढ़ रही है. अब ठंडी चीजों की मांग बढ़ेगी कि नहीं. बस थोड़ा अखबार पल्टा. अपने कबाड़खाने मेंपड़ी दो रुपये किलो की रद्दी पलटी और लिख मारा कि ऊपीए के मुकाबले अब ठंडा रहा बाजार. मारकिट रिटर्न डूब रहा है और क्यों न डूबे, किससे पूछ कर लगाया जीएसटी और और क्यों करी नोट बंदी. इक्विटी डूब गयी. म्यूच्यूअल फंड भी फुस्स. अरे ऐसे कदमों से तो डिस्को और पब में थिरकते युवा और मिनिमाईक्रो स्कर्ट वाली बालाओं के पैरेंट्स की तरह बड़े धन्ना सेठों लालाओं पूंजीसम्राटों का कारपोरेट सेक्टर तक चूने टपकने लगा. पांच से आठ हजार में मनीजर-इंजीनियर नौकरी दे-दो, दे-दो की टर्राट करने लगे ब्राण्डेड पहनने को, बाइक राइडिंग को, बार में बहकने को. तुम रनकरों को अब गांव का हिंदुस्तान और गरीबी हटाओ का पुराना नारा याद आया है. भूल गए नसबंदी, जेल बंदी.

हर साल डामर पोत, हर बरसात के बाद खड़खड़ाती सड़कों वाले भारत देश में, जहां स्वास्थ्य बनाए रखने व शरीर को हर विचलन धक्के से परिचित कराने का पाठ हमारी लोक निर्माण योजनाएं धूल-गर्द-गुबार और यातायात नियमों के उल्लंघन के साथ बेरोकटोक बढ़ा ही ही है. वहां हर साल बहत्तर हजार रूपये कहीं पांच तो कहीं पच्चीस करोड़ लोगों को बांट, उनकी आदत खराब कर तुम चार युग पूर्व के सतयुग में ले आओगे महाराज! ये कैसी उलटबांसी हुई. अवाम के बीस फीसदी परिवारों को न्यूनतम गारंटिड आय देकर निर्धनता पर सर्जिकल स्ट्राइक क्या वैसी ही तुकबंदी-जुगलबंदी तो नहीं होगी जैसी असल के बाद भी नकल बदलने की उलटबांसी कर गए थे साथी. अब राजकुंवर इसे ‘बिग बैग’ का फतवा देते हैं जो धमाका है बम फटेगा की तर्ज पर बेकारी और मुफलिसी के कुश को चाणक्य की तरह गलाएगा क्योंकि मठ्ठे से कीड़े आकर्षित होंगे दीमकें पधारेंगी और वह जड़ ही खा जाएंगी तो पौंध कहां रहेगी तुम गरीबों को गला दो. बस तक इक्कीसवीं सदी में कोई गरीब नहीं रहेगा. वैसे भी मनरेगा और खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम का ये पांच साला सफर तो फुस कर ही दिया पर खलवाट पधान के लौंडे का पचास हजारा बिजनेस तो करोड़ों में पहुंच गया. वित्तमंत्री की कन्या के खाते में भी भारी गठरी वाले चौकसी ने अपार लक्ष्मी सरकायी और भगोड़े से पार्लियामेंट में मुलाकात की गवाही भी बजबजा दी चहुंओर. अब अगर ये गपोड़पंथी है तो सत्ता पक्ष की तरह सब खारिज कर दें और कह दें दिल पर मत ले यार.

कुछ भी मत ले यार. बस चुनावी बयार में निगरगंड घूम फिर. अभी मौका है जहां से मिले गठरी भर जो निर्माण-सिरमाण कराना है, फौरन कर डाल. जहां कब्जा करना है कर. सारे आका-हुक्मरान तो चुनाव आयोग के डंडे में हैं और न्याय व्यवस्था कानून की माला वोटस्थली के जनवासे, वोट टपकन के ब्लेकेंट हॉल, नोट से बदलते वोटों की सुरक्षा, गिनती के तंत्र और अव्वल आने वालों के लिए तोरण द्वार सजा रही हैं. तब तक तू ही अपना हाथ जोड़ स्वागत करा लोकतंत्र के पालन हार.

अरे कुछ और ख़बरें आ गयी हैं इसलिए ‘गैरी गुरु’ अभी अपनी कलम बंद कर ढक्कन खोल रहे हैं चुनाव का पंचामृत आ गया है.

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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Girish Lohani

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