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लोकतंत्र के पहरुवे

गैरीगुरु की पालिटिकल इकानोमी : अथ चुनाव प्रसंग-4
पिछली कड़ी- घोषणा पत्रों में चरम सुख

बाजार की उथल-पुथल भरी खबर को खंगालते गली मोहल्ले में बीते महीने से बढ़ गई हलचल को मथते गैरी गुरु का मन लोकतंत्र नाम के शब्द पर अटक गया. अपने चेले कालीचरण उर्फ कॉकरोच की पार्टी बदल सफलता से उनका मन ना तो डांवाडोल था और ना ही परम पुलकित. आर्थिक सिद्धांत में संतुलन या आदमी के जीवन में मोक्ष तो बस अवधारणाएं हैं. हर संतुष्टि क्षणिक है अगले पल फिर वही हताशा निराशा. हर पांच साल में ऐसी फिजा आती ही है जब सर्वोच्च चुनने नुमाइंदे फिट करने और प्रतिनिधियों के गोट सजाने का स्वयंवर रचा जाता है.

लग्न की तिथियां लंबी खिंचती हैं. पूरा देश बारात घर में बदल जाता है. वादों की ढोलक बजती है इरादों की शहनाई. घोषणा पत्रों संकल्प पत्रों के मंजीरे टुनटुनाते हैं. शकुनांखरों में जनगणना की खुशहाली की स्वर लहरियां वातावरण को पवित्र प्रदूषण मुक्त कर देती हैं. शोहदे, लफंगे, टुच्चे, पगलेट सनकी भ्रष्ट दुराचारी घमंडी धोखेबाज छिछोरे के समूल नाश की गणपति वंदना के साथ नामांकन को जनता के सेवकों का हुजूम इकट्ठा होता है.

चुनाव की फिजा का आलम ही मस्त बहार है. अनेकानेक संकल्पों का विनियोग कर ऊर्जा उन्माद से उन्मुक्त सेवादार अलग-अलग देशों में निगरगंड हो सेवामीटर की रीडिंग बढ़ाने को तत्पर हैं. त्याग, शालीनता, उदारता व विनम्रता का चोला ओढ़ शत शत प्रणाम की मुद्रा में जनता के कल्याण के लिए आतुर है. अपने जन अपनी माटी अपने देश के लिए शीश झुकाए हर बलिदान हेतु व्याकुल हैं. कातर हैं.

विविधताओं से सम्पुटित कैसे-कैसे दुराचारी, चवन्नी चोर, फटीचर, बड़बोले, मुंहफट नामधारी देश के कायाकल्प की इस पवित्र बेला में गोमूत्र, गंगाजल, आबे जमजम की रिमझिम बूंदों से शुद्धीकृत हो चिर सनातनी भिक्षुक मुद्रा में रूपांतरित हो चुके हैं. उनकी बस एक ही आकांक्षा एक ही हसरत एक ही आरजू है कि उनके नाम निशान कुल गोत्र के ठीक सामने वाले बटन को आपके हाथ की उंगली इतने जोर से तब तक दबाए जब तक मशीन से सुमधुर ध्वनि का प्रसारण ना हो जाए. पहले ठप्पा था. मोहर थी. झूठ सच का, अर्धसत्य का जोड़ घटाना तब भी था अब भी है. बस टेक्निक हाईटेक है. जीत गए तो वरदान, रह गए तो धांधली का रक्षा सूत्र है. इसके साथ और भी कई बटन है जिन्हें दबाने का आपको पूरा अवसर है. मीडिया का बटन है, स्मार्ट फोन का बटन है. दिल दिमाग मन सोच को बरगलाने हाईजैक करने का बटन है. आपकी कमजोरी पकड़ आपको उसी में लपेट च्यांप देने का बटन है. क्यों? देश के लिए राष्ट्र के लिए कभी जवान कभी किसान के लिए बड़े इमोशनल हो? तिरंगे में लिपटा ताबूत देख सिसकने लगते हो? गरीबी बेकारी मुफलिसी फटेहाली से छाती फटती है या फिर सामने छप्पन भोग की थाली है जिसे खा नहीं सकते पचा नहीं सकते? आपके हर अरमान हर हसरत हर दुखती रग हर कमजोर नस का रिमोट कंट्रोल अब इनके हाथ है.

आपके घर परिवार के तेरे मेरे सपने अर्थमैटिक मीन यानी अंकगणितीय माध्य यानी 1, 2, 3, 4 के क्रम में बढ़ते हैं. इनके वादे, इरादे, लक्ष्य, संकल्प ज्योमैट्रिक मीन यानी गुणोत्तर माध्य की भांति अर्थात 1, 2, 4, 8, 16……72 की तरह से फैलेंगे. मतकाएंगे बरगलाएंगे जताएंगे कि आजादी के बाद 72 साल से राजसूराज तो जनता ही कर रही है. वह तो चुने नुमाइंदे हैं. आपने जो रोटी बाटी टिकाई उसी चने चबेने से जीवित हैं. सब रहा बचा, गीला सूखा, किरच किरच खुरच कुतर पचाने की असीम क्षमता पाई है इनने. कभी कुछ ना मिले तो भी धैर्य से चकोर की भांति आस से आसमान निहार दिन महीने साल काट लेते हैं. अपनी संतति, अपनी बिरादरी, लगुए-भगुवे बनाए बढ़ाए रखते हैं. जहां भी आदमी वस्तु मद सेवा दिखे साबुत दिखे या विनिष्ट प्राय, टिकाऊ हो या परिशेबल उसके उपभोग उत्पादन वितरण तथा उससे प्राप्त आय संपत्ति संपदा के अकूत भंडारों तक इनकी सघन गहन अनुपस्थिति होती है.

इनका दृष्टि संघान ‘वेल्थ ऑफ नेशन्स’ तक जाता है. सूक्ष्म-लघु, छोटे बड़,े ऊंचे नीचे, वर्ण संप्रदाय धर्म गोत्र वंश का कोई भेदभाव नहीं. यह लोकतंत्र है यहां सब एक ही खाड़ के पिनालू हैं. इनके बीच विशुद्ध प्रतियोगिता चलती है. मतलब प्योर कंपटीशन. यहां सारी जन इकाइयां एक जैसी होती हैं. बराबर यानी होमोजीनियस. भेदभाव रहित. सरल भाषा में इन इकाइयों का रूप रंग गुण आकार मात्रा भार वजन परिणाम एक जैसा होता है. लोकतंत्र की रक्षा के लिए जो शब्दकोश है उसमें समानता विषमता जैसे शब्द होते ही नहीं. जरा इस इकाई को भी गहराई से समझ लें. अर्थशास्त्र में एक एकल इकाई यानी आदमी की बात तो होती ही नहीं. वह तो हाउसहोल्ड की बात करता. है यानी सर्वप्रथम है परिवार जिससे वंश चलता है. गली मोहल्ले क्षेत्र प्रदेश समाज इसी समय समष्टि से व्यष्टि की ओर गति करता है.

लोकतंत्र में सब समान है. यह राष्ट्रीय अवधारणा है. इसे बनाए रखने के लिए सूट-बूट, त्याग एकौरी धोती लपेट हाथ में लाठी ले तेज चाल से चलने का अभ्यास चाहिए. मन मुताबिक ना होने पर मौन हो जाने, शवासन में चले जाने, प्राणों की उत्सर्ग का दुस्साहस चाहिए. सीखचों में कैद हो इतिहास के गड़े मुर्दों को खुद कलम घिसाई से बेटी के नाम पत्र लिखने की कला चाहिए. अचकन में गुलाब टांग संभ्रांत ‘एफ्लूएंट सोसायटी’ के बीच रहे विदेशी मॉडलों के बूते दरिद्र देश में बहुरंगी योजनाओं का नियोजन चाहिए. गुटनिरपेक्ष रहे पंचशील की छांव में ‘हिंदी चीनी भाई भाई’ की आड़ से कट गई नाक को चिपकाए रखने का जतन चाहिए. तदंतर स्वमूत्र से काया निरोगी बनाए रखने की प्राचीन परिपाटी का अनुगमन चाहिए.

निर्धनता के झीने पर्दे को गायब करने के लिए इमरजेंसी और कीड़े-कितोले सी बढ़ गई आबादी के नियंत्रण हेतु नसबंदी के कार्यक्रम चाहिए. अपने ही अंग रक्षकों से गोली खा फिर धमाकों के साथ अपनी संतति के नश्वर शरीर की पूर्णाहुति का जोखिम चाहिए. कभी नौजवानों को एकबट्या आरक्षण जात पात की फूस धधका सीढ़ियां चढ़ने का कौशल चाहिए. कवि मन चाहिए. उपक्रम नवप्रवर्तन का उद्रेक चाहिए. चाय बनाने की कला चाहिए. 24-7 संभाषण की कंठ ध्वनि चाहिए. एक मिशन एक राष्ट्रवाद का भरोसा चाहिए.

कमलेश्वर की रोचक कथा है ‘जॉर्ज पंचम की नाक’. जिसमें रानी अपने अधीन देश के दौरे पर आती है. उसे आजाद कर देने के बाद. स्वागत सत्कार अभिनंदन की पूरी तैयारी के बीच पता चलता है कि अचानक ही उनके बुत से पंचम राजा की लम्बी तुर्रम नाक गायब हो जाती है. चतुर मुंह लगा जुगाड़ कर पुनः उस बुत की नाक में फिट कर देता है वह नाक जो इसकी है उसकी है तेरी है मेरी है. क्लाइमेक्स में सब नकटे हैं. अब इसकी लाज बचानी है. इसे छुपाने के लिए एक हाथ काफी है तो दूसरा इसकी लाज बचाने को बटन दबाने की तैयारी में. अब नकटे सरकार चुनेंगे या सरकार नकटों को. प्रश्न पूछ रहा है बेताल. जवाब नहीं मिला तो फिर उड़ गया. जा बैठा 72 साल पुराने लोकतंत्र के पेड़ पर.

फिर सुनाने लगता है नित नई कहानी. शुरुआत करता है देश प्रेम दुखती रग से कहते ही फड़कती है. आगा पीछा नहीं सोचती. राष्ट्र की सीमायें सर्वोपरि हैं उनको बनाए रखना बचाए रखना हमारा आपका परम कर्तव्य है. घुसपैठ, पत्थरबाजी, तोप, स्टेनगन, मोर्टार का भंगड़ा अब नहीं चलता. अब तो सीधे हवा हवाई गरबा है. फिर यह जो 370 है, बंगाल के बड़े जादूगर सरकार के टोटके से इसे गायब कर देंगे. कोई खाओवाद माओवाद नहीं पनपेगा. बीस सौ बाइस तक आमदनी दुगनी कर देनी है. बस हाथ में काला बिंदु लगाओ और कमलापति को भोग लगाओ. पूरे 72 संकल्प लिए हैं. एक एक कर पूरे होते देखो. जाओ अब बटन दबाओ.

आलतू फालतू बात की बतकही नहीं है यह. सारे मुद्दे ज्वलनशील है. विरोधी किस-किस पर धार मार इन्हें बुझाएगा. तुम्हारी बुद्धि में सब आ जाए इसलिए क्वेश्चन बैंक, गाइड बुक की तरह छाप दिए हैं घोषणापत्र संकल्प पत्र. तुम जानते ही हो कि कैसे रट-धोट-पढ़ बहुविध विधियों की नौकाओं को खे पास हुए हो तुम. हमें तुम्हारी चिंता है. तुम भी यह समझ जाओ कि हमारे रहते तुम सुरक्षित हो, सेफ हो, इंडिपेंडेंट हो. गली मोहल्ले के वीर और मतदान में हमारी शमशीर हो. तुम ही हो जिनके बूते वंशवाद मिटेगा गठजोड़ गलेगा. लल्लू, गप्पू, पप्पू मत बनो ना उनकी सुनो. तुम्हारे बीच अगर कोई पप्पू दिखे तो उसे इतना प्रताड़ित करो उसका ऐसा ब्रेनवाश करो कि कन्हैया बनने की कोशिश भूल जाए. बेकारी मुफलिसी भूख गरीबी कहने में उसे लकवा पड़ जाए. सो प्यारे! राजदुलारे. तुम्हारी जवानी देश के लिए बलिहारी. तुम्हें आज पहला मौका मिला है अपनी बेकारी को सीने से चिपटा अपनी उंगली को सशक्त कर मन प्राण से बस हमारा बटन दबाओ.

दुश्मन की मादक चालों विरोधियों के आसुरी द्रव्य रसायनों व विद्रोहियों की संस्कृतिहंतालतों से तुम्हें बचाने के लिए हमने तुम्हारे लिए विशेष जागरूकता केंद्र व उपचार केंद्रों की विशेष व्यवस्था की है. कौशल निर्माण तो तुम्हारा पूर्ण हुआ अब 22 नए सेक्टरों में रहा बचा रोजगार पुष्पित पल्लवित करो.

अब आपने तो दो टप्पे का खेल चला दिया है प्रभु. जब से आप अवतरित हुए हैं नमो-नमो ही चल रिया. कौन से बॉल से क्या चटकेगा, क्या चिरेगा, किसकी टूटेगी किसके गूमड़ उठेगा, किसका झरेगा आप सब जानते हैं. मलते सहलाते पुरखों की याद कर प्रवाह की असह्य वेदना को भोगते कौन दिशा मैदान कूच करेगा इसके आप विशेषज्ञ हैं. आपके तंत्र की सीमा में अटके इस लोक में आप सा मुखर कोई नहीं. आप सम्मोहन विशेषज्ञ हैं. मन की बात जानते हैं. पूरी तैयारी से आए हैं. आप का ही बोलबाला है. प्रभु! हम पर दया करना.

आपके बयार पूरे देश में बह रही. इधर-उधर सब आपका ही गुणगान कर रहे. थोड़े बहुत नाक भों भी सिकोड़ रहे. इधर उधर खुजा रहे. कहीं त्रिकोण कहीं षटकोण बना रहे. क्या यही गठबंधन है प्रभु.

अब पुरातन संयुक्त प्रांत और आज के उत्तर प्रदेश को देख लीजिए. पहले बाबूजी और बहन जी में ठनी. फिर बेटे से ठनी. फिर चाचा ताऊ में ठनी. अब सब साथ. सही गाइडेंस के लिए चचा चौधरी भी गल बहैयां लेने लगे. याद करो छब्बीस साल पहले शाने अवध की पुरनूर फिजाओं में पिछड़ों दलितों के उद्धार के लिए माया मुलायम उड़ते डोलते थे. तब पार्श्व गीत सुनाई देता था ‘मिले मुलायम माया राम, हवा में उड़ गए काशीराम.’ हाय रे हरजाई. किसने नजर लगाई. दिल अपना और प्रीत पराई. दो साल भी ना चल पाई. तब मुलायम की नाक चढ़ी और माया की बुद्धि दाढ़ उगी. अपने बूते अपना राज का राग बिहाग. एक तरफ हाथियों के बुत, दूसरी तरफ समाजवादियों के एक्सप्रेस हाईवे. प्रकाश की कुल्फी, बम भोले की ठंडाई, चौक वाले टुंडे के कबाब, महाकाली के पान. नजाकत तहजीब से पूरे अदब से हर खास और आम से पहले आप पहले आप कह, योगीराज को दे गया सिंहासन. जय हो बाबा गोरखनाथ.

चौबीस साल गुजर गए हैं गुरु. लैरिटो वैसा ही है. मेफेयर फिर उजड़ गया. हजरतगंज की रौनक पुरबहार है. जिया बेकरार है. बुआ और बब्बा के बीच बेटे का करार है. बब्बा के माथे संरक्षक का सरोपा नमूदार है. यही राग मल्हार है. सुपुत्र हो तो ऐसा. नैया मेरी मझदार को पार कराने पर मछली शहर के निषाद भी पटा लाया. इसे कहते हैं सराब का फुल इफेक्ट. इस सुरूर को थोड़ा झटकाने में हैरान परेशान हैं सपा के देवेंद्र सिंह जी. यादव मतदाताओं में भितरघातियों व पार्टी विरोधियों ने गोमती का तमाम पानी प्रदूषित कर दिया है. अगल बगल बसपा के यादव और महिला प्रत्याशी भी आ जमे हैं. यादव वोटों के बैठने की जगह कम पड़ गई है. वह सपा के स्टार प्रचारक मानपाल जो पूर्व राज्य मंत्री भी रहे अब रूठ गए. टिकट जो कट गया उनका. अब वह भी देंगे झटका. सपा का दामन छोड़ हाथ में फूल थाम चक्कूओं के शहर रामपुर में खूब जुबानी छूरी कांटे चले. कभी खाकी चड्डी पर ऐतराज़ कभी अनारकली कहे जाने पर. तमतमाई गुस्से में भरी वह भी कह बैठी आजम भैया से कि मायावती की एक्स-रे आंखें आपके ऊपर भी कहां-कहां नजर डाल क्या क्या देखेंगी. वह तो चुनाव आयोग बढ़ा चौकस हो गया कि तुरंत अमर्यादित भाषा का केस पंजीकृत कर गया.

उत्तर प्रदेश में पहलवानी लठैती भिड़ैती के गवंइगुर निराले हैं. इनके उस्तादी से नेतागिरी चमकाने के चरम सुख हैं. लो काबिना मंत्री भी रहो और रह रह कर पुरबिया उत्तर प्रदेश में अपनी ही सरकार को दिन दुपहरी रात अधरात आंखें भी दिखाते रहो राजभर. पक्का एंठू बने रहने के कमाल हंै कि अपनी पूरी जमात को सरकारी ओहदे तमगे सुविधा बंटवा दी. तो एटा से राज्य मंत्री रहे सूरज शाक्य जी प्रलोभन वश पंजे में शामिल हो गए.

ज्ञानी ध्यानी कह रहे हैं कि सबसे ज्यादा दुर्गत कुकुरगत इसी पंजे की हुई है उत्तर प्रदेश में. साइकिल बैठाती नहीं. हाथी चढ़ाता नहीं. अब पूरे केश वस्त्र विन्यास का अनुसरण कर भैया जी का साथ निभाने राजकुमारी प्रयाग में गंगा पूजन से विनम्र संस्कारी सरल सहज मुखाकृति से अवतरित हो गई है. उन्हें पता है कि वंशवाद की छाया में सिमटे 72 सालों में 37 साल देश में उनके परिवार का मन छुआ है. पर पप्पू प्यारे यह भूल गए कि जो हाथ पहले दो बैलों की जोड़ी संभालता था उसमें कद्दावर नेताओं का आक्रामक गठजोड़ था. बड़े-बड़े नाम नीलम संजीव रेड्डी, निजलिंगगप्पा, अजय कुमार मुखर्जी, मोरारजी देसाई, यशवंत राव चव्हाण, यशवंत सिंह परमार, देवकांत बरुआ…..और भी कई. पर आज वादियों में भोजपुरी लोक गीत पूरे राग ताल के साथ बजाया जा रहा ‘सुन ए राहुल गांधी, मोदी जी के चल लंबा आंधी, देखिह वोट दिहन चौकीदार के.’

अब डार्क कॉमेडी के बघार में पकी नवरत्न खिचड़ी का स्वाद लीजिए बिहार में. भैंसों का करुण क्रंदन सलाखों की छाया में लेटे गोपालक लालू सुन रहे हैं. हास परिहास लुप्त हो गया, बस परिजनों से मिलने, जमानत में छूटने का मीनिया है. ‘गोपालगंज से रायसीना तक’ सीधे गरीब रथ पर सवारी गांठ राबड़ी पुत्रों के राजकाज की सरफुटौवल को निपटा पाएं, यही हसरत है.

तेजस्वी को तेज प्रताप ने एक समय अर्जुन कहा और खुद को बना दिया कृष्ण. यादवों के वंशज जो हुए. ढेर भाई बहनों के बीच ऐसी खचढ़-पचढ़ मची कि अर्जुन बन गया दुर्योधन. फटाफट इसका ट्वीट भी हो गया. वह भी छंद में. ‘दुर्योधन वह भी ना दे सका, आशीष समाज से ले ना सका. उल्टे हरि को बांधने चला, जो था असाध्य साधने चला. नाश मनुष्य पर छाता है पहले विवेक मर जाता है. तेजप्रताप भी आखिर पिताश्री के गुण सूत्रों से पंडिताई कर रहे. सो उन्होंने भविष्यवाणी कर दी कि जो भी मेरे और मेरे परिवार के बीच आएगा उसका सर्वनाश निश्चित है. ताजा तरीन खबर फैल गई कि राजद से अलग होकर नई फर्म ‘लालू राबड़ी मोर्चा’ के नाम से पंजीकृत होने जा रही है.

साथ साथ गठबंधन एक तरफ तेजस्वी आंखें तरेर रहे तो हाथ का पंजा भी 11 सीट पाने की जुगत भिड़ा रहा. तेजस्वी भी अड़याट कि 8 से ज्यादा तो देंगे नहीं. ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों को भी छोड़ देंगे जो सप्रंग के लिए अनिष्टकारी है. रस्साकशी में हाथ ने बटोरी 9 सीटें. पड़ गई मार गांठ.

वहीं अब हाथ का छाप तिलक अपने कपाल पर लगाएं और अपने हाथ में सहधर्मिणी का कोमल कर थामे दशरथ पुत्र शत्रुघ्न साफ कह गया कि जहां पूनम वहां हम. वहीं लव कुश वही हमारा घर रामायण हमें सबसे प्यारा. सपा से पत्नी का नामांकन करा, बसपा को भी माखन लगा गया यह कह के कि प्रधानमंत्री हो तो अखिलेश सर या मायावती जैसा. पता चले लोगों को कि अंदर की काबिलियत और काम करने की तत्परता होती क्या है आखिर? कई उन्हें लालू का दलाल कह रहे तो वह कह रहे हैं कि जब मैं किसी के साथ दोस्ती करता हूं तो भी अपनी वफादारी नहीं बदलता. यह बात अलग है कि सपनों में उन्हें साइकिल पर जाते अखिलेश प्राइम मिनिस्टर दिखने लगे हैं. पहले सब खामोश किए. फिर वन मैन आर्मी टू मैन शो के डायलॉग मार पुराना साथ छोड़ थाली का बैंगन बन गए.

वहीं नायिकाओं ने भी बिहारी सतसई पढ़ी है. पूरे पांच बरस सज धज कटि कामिनी रूप लावण्य श्रृंगार पिटार की चितवन से मोहित करती अनुप्रिया अगली पारी में पुनि पुनि प्रविष्ट के लिए रूठने ऐंठने गुस्साने के वियोग की पटकी दे गई और सटक ली दो सीटें अपने सूबे बिहार में. जदयू और लोक जनशक्ति को भी मन मुताबिक सीटों का आश्वासन मिला. कमल को जीती हुई पांच सीट निछावर कर क्षति पूर्ति सिद्धांत पर आश्रित रहना पड़ा.

अब ऐसे में कर्नाटक मुख्यमंत्री ब्रह्मसूत्र देते हैं कि आज देश के सामने वंशवाद मुख्य मुद्दा नहीं बल्कि इसके होने और साथ में क्षेत्रवाद होने की वजह से ही बहुत सारे राज्यों में विकास की आंधी चली. कई कई सूत्री कार्यक्रम चले. गरीबी हटी रोजगार बड़ा. अरे महाराज यही सोच तो लोकतंत्र में वंशवादी राजनीति की गहरी धंसी जड़ों और इसे खाद पानी कीटनाशक मिलते रहने की भरपूर वकालत करती है. मजे की बात यह है कि युवा तुर्क इस वंशवादी परंपरा में सर्वाधिक अंक बटोर ले गए हैं. यानी 30 वर्ष से कम वाले राजकुंवर 80 प्रतिशत हैं तो 30 से 40 की आयु वाले 50 प्रतिशत, 40 से 50 के अधेड़ युवा 30 प्रतिशत. इन वंशवादियों की बेलों की कई किस्में हैं जिनमें मुख्य लहलहाने वाले गांधी के साथ यादव, रेड्डी, पासवान, अब्दुल्ला, हुड्डा, चौटाला, पटनायक, सिंधिया, करुणानिधि, पंवार और ठाकरे.

ठाकरे ने कार्टूनिस्ट से पत्रकारिता कर सामना छापा और बन गई शिवसेना. उनके संतति भी अपनी गठजोड़ी पार्टी के कान उमेटने के कौतुक करते फिरते हैं. कभी राम लला की चौखट पहुंच अपने बूते मंदिर बना डालने का नाटक करते हैं कभी आमची प्यारी मुंबई से शक्तिपात. यह तरकीबें कारगर रही और इस बार भी मिल गई मन मुताबिक गद्दियां. अब सत्ताधारी इसी असमंजस में कि कहो ना प्यार है की तान किसके साथ छेड़े. एक तरफ उधर नीतीश तो उस सिरे में रामविलास पासवान जी. असली प्यार तो सीटों के जमाव से है. बस जो गोटी जहां टिके वहीं फिट. ऐसे में सीट भी हिट. नेता तो आते जाते रहते हैं बतियाते और दुत्कारे भी जाते हैं. वानप्रस्थ को ठेले जाते हैं. वाम मार्गी हो जाते हैं.

देखा ना पश्चिमी बंगाल और त्रिपुरा में कैसा पटकी गया वाममोर्चा. बस अब केरल बच गया. 3 साल पहले विधानसभा चुनाव में केरल के वाममोर्चा की सरकार बनी. भाजपा के बुजुर्ग नेता ओ राजगोपाल ने तिरुअनंतपुरम की नेमन सीट पर जीत कर भगवान का अपना देश माने जाने वाले केरल में पार्टी का खाता खोल दिया. अब हवाओं ने रुख बदल दिया. माना आप पढ़े लिखे हैं. आर्थिक रूप से समृद्ध हैं. सामाजिक दृष्टि से जागरूक हैं पर जो बात लहर में है वह सबरीमाला है. केरल के मुख्यमंत्री ने महिलाओं के मंदिर में प्रवेश दिलाने की हर संभव कोशिश की तो भाजपा ने परंपरा की दुहाई दी. राज्य भर में आंदोलन छिड़ गए. हाथ वाले तो सबरीमाला में महिलाओं के प्रवेश के ना तो पक्ष में दिखे ना उसके खिलाफ ही गए. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पालन की दुहाई दी. बड़े समुदाय की धार्मिक भावनाओं को आहत नहीं किया चुप लगा गए. केरल में संघ ने मजबूती फैलाई. 3 करोड़ की आबादी वाले प्रदेश में 6845 शाखा और चार लाख सक्रिय सदस्य बन गए.

वहीं कभी वामपंथ को लंबा खींच कर चले बंगाल में अब चार तरह के मतदाताओं के दर्शन हो रहे हैं. पहले में तो हिंदी भाषी व्यापारी और श्रमिक हैं तो दूसरे में यहां के हिंदू बंगाली. तीसरे बंगाल में बांग्लादेश से आकर बसे मुस्लिम व चौथे में वह बुद्धिजीवी जिनमें बांग्ला के कवि, नाटककार, लेखक, पत्रकार शामिल हैं जिनकी सोच चुनाव की जीत तय करने में निर्णायक भूमिका रखती थी.

पर अब लहर बदल गई है. हिंदू बंगाली कमोवेश भाजपा वाले बनते जा रहे हैं. हिंदी भाषी भी भाजपा समर्थक हैं जिन्हें तृणमूल लगातार लुभाये रखने के प्रयास में है. वामपंथी समर्थक इन्हीं दोनों दलों के साथ बैठ गए हैं. तृणमूल के खिलाफ भाजपा एक सशक्त विपक्ष के रूप में उभर रही है. यहां उसका कोई सहयोगी दल नहीं है. तृणमूल यदि अपनी वोटों की बढ़त बनाए रखती है तो भाजपा के लिए ज्यादा सीटें बटोर लेना मुश्किल ही होगा.

पूर्वोत्तर में भी भाजपा का हिंदुत्ववादी एजेंडा ऋणात्मक है. विवादों से भरे नागरिकता संशोधन विधेयक 2016 में हिंदू बांग्लादेशियों को भी सिटीजनशिप देने की बात कही गई पर राज्यसभा में वह पारित नहीं हो पाया. पूर्वोत्तर के स्थानीय समुदाय पर स्थानीय पार्टियों ने इसे विश्वासघात माना. एनडीए से असम गण परिषद बिखर गई. अब अगप फिर से शामिल तो है पर ऑल असम स्टूडेंट यूनियन व कृषक मुक्ति संग्राम समिति ने कर दी इसकी काट. असम का स्वदेशी समुदाय सतर्क है क्योंकि वह बांग्लादेश से आए हिंदू व मुसलमानों में अंतर नहीं करता. वह दोनों को घुसपैठिया मानता है. इसलिए नागरिकता संशोधन विधेयक लाने के वादे से उसे फिर से असम मेघालय त्रिपुरा में बंगाली हिंदुओं का वोट मिल सकता है. इससे स्वदेशी समुदाय और मुसलमान असहमत हैं जो धर्म आधारित नागरिकता का विरोध करते हैं. भाजपा ने छह स्वदेशी समुदायों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने का प्रस्ताव दिया ताकि वह इनका दिल जीत सके. इसे वहां आदिवासी बहुल राज्य बनने के कदम के रूप में भी देखा जा रहा है.

ध्रुवीकरण के गठजोड़ में राष्ट्रीय दल बड़े मजबूर हैं. क्षेत्रीय दलों और इलाकाई क्षेत्रों में जात पात का ऐसा रायता फैलाया है कि राष्ट्रीय पार्टियां उसी पत्तल पर रोटी, बाटी, दाल, भात परोसने को विवश है. दलितों के वोट सभी पार्टियों को चाहिए इसलिए सभी दलितों के हितैषी बन रहे हैं यह जुगाड़ भिड़ाये रखना है. भाजपा भी सारे जतन कर रही. प्रधानमंत्री अंबेडकर के अस्थि कलश के आगे सर नवाते हैं. सफाई कर्मचारियों के पांव पखरते हैं दलितों के घर जाकर भोजन करना जारी है.साथ में अपने नामांकन में पूरा एवेंजर्स एन्डगेम की रिलीज. कलाइमेक्स में डोमराजा मन प्राण से आशीर्वाद दे रहे हैं.कोई हमें यहां मंदिर नहीं जाने देता. शादी ब्याह में नहीं बुलाता. बस वैतरणी पार की अग्नि सुलगाता. यह भेदभाव दूर करो नमो.

अनुसूचित जनजाति एक्ट के बारे में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश से गुस्साए दलितों को खुश करने के लिए संसद में संशोधन विधेयक लाया जाता है. दूसरी तरफ जादूगरनी मायावती लुभाने फुसलाने बहकाने की भाजपा कांग्रेस की चालों से आगाह कर रही. वहीं गांव कस्बों में दलितों के साथ हमेशा धोबीपछाड़ मुद्रा दिखाएं पिछड़ी जातियों के नेता अखिलेश जी यादव पहली बार यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि वह उनके लिए कितने फिक्र मंद हंै. उधर बिहार मैं लालू, नीतीश, पासवान भी दलित वोटरों पर कब्जे की ताल ठोके खड़े हैं. इस दंगल में दलितों में भी दलित यानी महादलित उप जातियों के नए नेता भी प्रकट हो गए हैं जो दलितों की लड़ाई को और घमासान बना रहे.

लोकतंत्र में चुनाव की पॉलीटिकल इकोनामी ने हर इलाके का एक विशिष्ट जातीय धार्मिक गणित तैयार कर दिया है. इनका अवकलन हिंदू, मुसलमान, हिंदू सवर्ण, पिछड़ी जाति, दलित और इनकी उप जातियों के साथ साथ क्षेत्र के अन्य पैरामीटरों के समाकलन से इकोनॉमिक्स की क्लास लगा रहा है. पूरा चुनाव इसी गणित व गोलबंदी से लड़ा जाता है. सांख्यिकी बता रही कि मात्र 25-30 प्रतिशत वोट से प्रत्याशी चुनाव जीत जाता है. 70 प्रतिशत विधायक और सांसद कुल पड़े वोटों के अल्पमत से चुनाव जीतते हैं. यानी मतदाताओं का बहुमत उनके विरुद्ध होता है.

चुनाव जीतने के लिए 30 प्रतिशत वोट पर्याप्त हो तो सभी उम्मीदवार जातीय धार्मिक मतदाता समूहों को लक्ष्य कर प्रचार करते हैं. जात पात धर्म, वर्ण संप्रदाय की वंशावली बनती है. यही इनका मूलाधार है. अब बड़बोलेपन, छिछोरेपन, कांइयापन का बोलबाला है. गलती ना मानना भी इसी रणनीति का हिस्सा है. यानी जो कहा सही कहा और डंके की चोट पर कहा. लोकतंत्र में कॉकरोच इसी माहौल में जन्म लेता है पनपता है और सब कुछ खा जाने पचा जाने और हाजमा दुरुस्त रखते हुए जहां कहीं से गुजरता है कुछ बदनुमा दाग छोड़ जाता है.

द इकोनॉमिस्ट डेमोक्रेसी इंडेक्स 2018 की रिपोर्ट में भारत को दोषपूर्ण लोकतंत्र की श्रेणी में पटक दिया गया था. इस रपट से यह सिद्ध होता है कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र चुनाव प्रक्रिया और बहुलतावाद, सरकार की कार्यशैली, राजनीतिक सहभागिता, राजनैतिक संस्कृति और नागरिक आजादी की कसौटी पर बुरी तरह पिट गया है.

(जारी)

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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Girish Lohani

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