मॉं वर्षों पहले दुनिया छोड़ चली गई और उसके जाने के बाद मुझे पता चला कि वह मुझसे बहुत प्रेम करती थी. गठिया, ब्लड प्रेशर समेत अपनी तमाम बीमारियां परिवार में सबसे छुपाकर चुपचाप मुझे सौंप गई. अकसर सीढ़ी चढ़ते-उतरते महसूस होता है जैसे अपने घुटनों में हाथ रखे मेरे साथ चल रही मॉं मुस्कुराते हुए मुझसे पूछ रही है, “अब समझ में आया ये दर्द..?”
जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई यही है कि माँ का चेहरा हर उम्र में बच्चे के लिए ढाल बना रहता है. माँ का जाना मेरे लिए जीवन की सबसे बड़ी चोट थी. उस चोट ने मुझे सिखाया कि जीवन केवल खुशियों का ख़जाना नहीं, दुखों और पीड़ाओं के ताने-बाने से बुनी हुई चादर भी है, जिसे ओढ़े बिना जीवन पूरा नहीं होता. वैसे भी शरीर जब तक साथ देता है, इंसान दुनिया जीतने का सपना देखता है. लेकिन जैसे ही यह डगमगाने लगता है, तब समझ आता है कि असली लड़ाई बाहर नहीं, अपने भीतर है.
वर्षों तक कमर के दर्द से परेशान रहने के बाद डॉक्टरों के चक्कर लगने शुरू हुए. किसी ने कैल्शियम की कमी बताई, तो किसी ने फिजियोथेरेपी का नुस्ख़ा दिया. दवाइयों की फेहरिस्त लंबी होती गई- कभी दर्दनिवारक, कभी इंजेक्शन, कभी सप्लीमेंट…
हर बार उम्मीद बंधती कि अब राहत मिलेगी, लेकिन अगले ही दिन दर्द और गहरा होकर लौट आता. ढेरों जांचों के बाद डॉक्टरों ने बताया कि ये एंकिलॉजिंग स्पॉन्डिलाइटिस है. दवाइयों के साथ ही इंजेक्शनों से बीमारी को भोग लगने लगा तो शुरू में थोड़ी राहत मिली. वक़्त बीतने के बाद जैसे ही दवाइयों का भोग बंद हुआ तो शरीर ने नाराज़ होकर आँख-कान में हमला कर दिया. आँख-कान की सुध ली तो अचानक एक दिन कमर का दर्द खिसक कर घुटने में पहुँच गया. लगा जैसे घुटने का हाल पके हुए कद्दू के माफिक हो गया.
आँखों के एक डाक्टर ने तो साफ फ़रमान सुना दिया कि अब हिमालय में ट्रैकिंग करना बंद करना पड़ेगा. यह बात सुन मेरा मन बैठ गया. अभी तो हिमालय को समझने की शुरूआत ही हुई थी. जाने कितने हिमालयी दर्रों को नापने का मन संजोया था. सपने बिखरते से महसूस होने लगे…
अभी कुछ दिन ही पहले धाकुड़ी के शीर्ष चिल्ठा से नई उर्जा अपनी पोटली में लेकर मैं लौटा था. बरबस मन में वो शांत घने जंगल के साथ-साथ चिल्ठा का मखमली बुग्याल तैरने लगा. लेकिन फिर याद आया, हिमालय में साधु भी तो वर्षों तक तपस्या करते हैं. उनका शरीर तप से जलता होगा, पर आत्मा विश्वास से ठंडी रहती है. मेरा दर्द भी किसी तपस्या से कम है क्या?
बीमारी की तपिश से झुलसते हुए जब-जब मैं आँखें बंद करता, तो मन बार-बार हिमालय की ओर भागता. उसकी बर्फ़ीली चोटियाँ, ठंडी हवाएँ रास्ते में घने जंगलों में नाना प्रकार की वनस्पतियों की खुशबू, और मंदिरों की घंटियाँ मेरे भीतर एक ऐसी शांति जगातीं, जो किसी दवा में नहीं मिलती थी.
अक्टूबर की शुरूआत होते ही गर्मी भी धीरे-धीरे हुए विदा हो चली. और इधर मन भी मौसम की तरह करवटें बदलता रहता है. कितना ही समझाओ लेकिन करनी तो उसे अपने मन की है. एक सुबह गुनगुनी ठंड में मित्र योगेश परिहार ने चिल्ठा बुग्याल चलने की बात कही तो मन फिर से बेकाबू होने लगा. हालांकि पहले भी जाने कितनी बार गर्मियों में इस बुग्याल की मखमली घास अपने आगोश में हमें लेती रही है. और फिर सर्दियों में बर्फ की सफेद चादर ओढ़े यह बुग्याल बरबस हमें बुलाता रहा है.
बागेश्वर जिले के पिंडर घाटी क्षेत्र में कर्मी गांव के ऊपर लगभग आठ से ग्यारह हजार फीट की ऊँचाई में फैला हुआ है चिल्ठा बुग्याल. बुग्याल के शिखर में मॉं चिल्ठा का काफी पुराना मंदिर है जिसे दानपुर घाटी के वाशिंदे पवित्र देवी के रूप में पूजते आ रहे हैं. यहां से गढ़वाल से कुमाऊँ और नेपाल तक फैले हिमालय के धवलशिखरों का अद्भुत नजारा दिखाई देता है. नीचे घाटियों में बसे गांव और उनके साथ जुड़े सीढ़ीदार खेत जैसे किसी चित्रकार की कूंची से रंगे हुए प्रतीत होते हैं. यहाँ चारों ओर फैली असीम नीरवता के बीच शीतल हवा की फुसफुसाहट मन को ठहरने पर मजबूर कर देती है.
कुछ माह पूर्व मित्रों की एक मंडली धाकुड़ी गई थी और वहीं से वे लोग चिल्ठा का बुग्याल भी चले गए थे. चिल्ठा मंदिर के दर्शन के बाद उनकी नजर ऊपर बुग्याल की ओर उठी तो हवा में लहराते एक झंडे ने उन्हें कुतूहल से भर दिया. उनमें से कुछ-एक ने वहां पहुंचने का फैसला लिया. नजदीक पहुंचने पर उन्हें वहां एक कुटिया दिखाई दी. पास पहुंचे तो एक युवा जटाधारी साधु ने कठोर शब्दों में उन्हें रोकने का प्रयास किया और आने का कारण पूछा. मंशा जानने की बाद वह शांत हो गए और कुछ देर बाद उन्होंने मित्रों को जड़ी-बूटी का काढ़ा पिलाया. युवा साधु की बाल सुलभ मुस्कान और बातों ने सभी मित्रों को आत्मीय बना लिया. वापस लौटने पर मित्र दीपक परिहार कई दिनों तक इस बाबत चहकते हुए बताते रहे. एक दिन शाम को दीपक मुझे खींचते हुए योगेश के घर को ले गए और बोले, “चिल्ठा वाले स्वामीजी आए हैं, एक बार मिल तो लो.” मैं भी बेमन से दीपक के साथ हो लिया. भगवा और धर्म के नाम पर देशभर में जो प्रपंच चल रहा है, उसे देखते हुए मैं इन सबसे दूर ही रहना पसंद करता हूं.
योगेश के घर से ढोलक-हारमोनिय की थाप पर भजन की आवाजें आ रही थीं. योगेश का बालक कृष्णा की उंगलियां हारमोनियम में भाग रही थीं तो उसके बगल में उसी की उम्र का एक बालक पितांबरी वस्त्र धारण किए ढोलक को थाप देने में मग्न था. कमरा हर उम्र के सत्संगियों से भरा हुआ था. एक ओर बाल सुलभ मुस्कान लिए भगवा वस्त्र धारी युवा साधु भी भजन में तल्लीन दिखे. आधे घंटे बाद भजन संध्या समाप्त हुई तो साधु ने मुझे अपने सामने बैठने को कहा. झिझकते हुए मैं सामने की कुर्सी में सर्तक होकर बैठ गया. धर्म, जीवन, मृत्यु पर तर्क वितर्क होने शुरू हुए. लेकिन उनकी बातें तर्कपूर्ण और सच्चाई से भरी थी. कहीं कोई छल नहीं. सार यह कि, स्वयं को जानने के लिए खुद के भीतर ही उतरना होता है. अब आगे बहस में जाने में पड़ने की कोई गुंजाइश नहीं थी. उनकी बातों से सहमत होकर मैं वहां से चला आया.
1997 में बल्जूरी चोटी के अभियान में पिंडारी ग्लेशियर के पास साधनारत स्वामी धर्मानंदजी से जब मेरी मुलाकात हुई तो उन भगवा वेश धारी को भी मैंने कुछ अलग ही पाया था. लोगों को धर्म के पाखंड में जकड़ने के वजाय उन्होंने मल्लादानपुर क्षेत्र के शैक्षिक उद्धार को अपना कर्म बनाना ठीक समझा.
“चिल्ठा में बाबाजी के पास ध्यान सीखने को चलें? उन्होंने कहा भी है. कुछ दिन के लिए हो आते हैं. कुछ तो सीखने को मिलेगा. चिल्ठा जाने के लिए दो मित्र और भी राजी हैं.” वर्ष 2023 की एक सुबह योगेश ने कहा तो 8 अक्टूबर निकलने पर सहमति बन गई.
इस बीच दो अन्य मित्रों को कई सारे काम याद आए तो वे उन्हीं में रम गए. 8 अक्टूबर की सुबह हम दोनो चिल्ठा की राह पर थे. बागेश्वर से भराड़ी और फिर कर्मी गांव होते हुए कर्मी विनायक के पास महिपाल सिंह के होटल में पहुंचने तक सुबह की गुनगुनी धूप निकल आई थी. इस बार नए रास्ते से जाने चिल्ठा पहुँचने का मन था. सौंग के साथ-साथ खरकिया और धूर से कई बार चिल्ठा जाना हुआ था. महिपाल से पता चला कि नया रास्ता कर्मी विनायक से दाहिनी ओर चढ़ाई वाला है और इस रास्ते से कम ही लोग आते-जाते हैं. बीच में कई दोराहे मिलते हैं जिससे कि ये राह भूल भुलैया वाली भी है. हमारे पास सामान ज्यादा था इसलिए हमें एक पोर्टर के साथ-साथ एक गाइड की भी जरूरत थी. थोड़ी जद्दो-जेहद के बाद महिपाल ने सुखद सूचना दी, “तोली गांव के राजू से बात हो गई है, उसने चिल्ठा का यह रास्ता देखा है. वह अपने एक साथी के साथ आ रहा है. कुछेक घंटों में वे दोनों यहां पहुंच जाएंगे.”
राजू के इंतजार में शाम के तीन बज गए. वह तोली से पैदल 11 किलोमीटर पैदल चलकर आए थे. राशन, बर्तन व बैग आदि सामानों को दो खेपों में बाँटकर उन्होंने अपनी पीठ में लाद लिया. योगेश ने अपना रकसेक और मैंने छोटा बैग अपने हवाले किया और हम राजू के पीछे हो लिए. बांज, बुरांश के घने जंगल को पार करने के बाद दूर तक मखमली बुग्याल हमारे स्वागत को फैला हुआ था. यहां किनारे पर एक मंदिर नज़र आया. राजू ने बताया कि साल में कई बार यहां मेला लगता है. यहां से आगे खड़ी चढ़ाई में सीढ़ीनुमा रास्ता है. रास्ते में कई जगहों पर तेज होती सांसों को थामने के लिए रुकना पड़ता तो राजू के चेहरे में चिंता की लकीरें उभरने लगतीं. हमें चिल्ठा पहुंचाने के बाद उसने वापस अपने गांव तोली भी लौटना था.
सुबह से चलते हुए उसका यह सफर बहुत लंबा होने वाला था. इधर शाम तेजी से ढलने लगी थी तो उसने मुझसे मेरा बैग यह कहते हुए ले लिया, “दाज्यू चिल्ठा जल्दी नहीं पहुंचे तो हमें वापसी में रात हो जाएगी और रास्ता भी घने जंगल वाला है. रात के सफर में तो बाघ-भालू भी पुलिसिया रौब दिखाते हुए पूछताछ करने लग जाते हैं.” मैंने योगेश को कहा कि तुम सब आगे निकल जाओ, मैं धीरे-धीरे आ जाऊंगा. दरअसल मेरे घुटनों में तेज दर्द होने लगा था और चाहकर भी मैं तेज नहीं चल पा रहा था. हालांकि अब मैं खाली हाथ था. योगेश, राजू और उसका साथी आगे निकल गए.
घंटेभर बाद मैंने देखा कि वे लोग मेरे इंतजार में बैठे हैं. योगेश ने मुझे समझाया कि जंगल घना है और हम पहली बार इस रास्ते आ रहे हैं. कई जगहों पर रास्ते अलग-अलग दिशाओं में निकलते हैं, इसलिए साथ चलना ही बेहतर होगा. राजू भाई लोगों को देर हो जाएगी तो ये भी वहीं रुक जाएंगे, वैसे भी इन्हें रात-अधरात चलने की आदत हुई और बाघ-भालू भी इन्हें लोकल जानकर ज्यादा पूछताछ नहीं करते हैं. योगेश की बात पर हामी भरने के अलावा कोई चारा नहीं था तो मन मजबूत कर घुटनों को समझाते हुए बिना रुके सर्पिली चढ़ाई नापनी शुरू कर दी. ‘बस अब यहां से आगे रास्ता कम चढ़ाई वाला है उसके बाद चिल्ठा माई का मंदिर आ जाता है.’ खुश होते हुए राजू ने ऊपर धार से घोषणा की तो चाल में तेजी आ गई.
बलखाते रास्ते के किनारे एक जगह पानी का साफ स्रोत मिला. बोतलों को भर लिया गया. कुछ पल बाद ही हम चिल्ठा मंदिर के बगल में बनी धर्मशाला में पहुंच गए. राजू और उसके साथियों ने हमसे विदा ली और धाकुड़ी-भगदाणु वाले रास्ते की ओर हिरनों की भांति कुलांचे भरते हुए निकल गए.
धर्मशाला में ताला लगा था. स्वामीजी की कुटिया किलोमीटर भर ऊपर बुग्याल में थी. योगेश ने कहा, “एक चाभी स्वामीजी के पास रहती है. तुम यहीं रुको, मैं लेकर आता हूं.” योगश ने बुग्याल की चढ़ाई नापनी शुरू कर दी. मैं चुपचाप सामने नागाधिराज हिमालय की चांदी की चमक बिखेरती चोटियों के दीदार में खो गया. पहाड़ियों के सीने से चिपके गांवों की झिलमिल लाइटें जुगनुओं की तरह टिमटिमा रही थीं.
योगेश के वापस आने तक घना अंधेरा घिर आया था. हमने अपने हेडलैंप जला लिए. धर्मशाला का ताला खोल अंदर देखा तो कमरा अच्छा खासा बड़ा था. दरवाजे के दाहिनी ओर बर्तनों का ढेर लगा था और कोने में टिन का एक बड़ा बक्सा रखा हुआ था. फर्श पर कुछ चटाइयां भी बिछी थीं. रकसेक किनारे रखकर हमने अपनी मेट्रेस बिछा लीं और राशन की पोटली में से बर्तन निकालकर खिचड़ी बनाने की तैयारी शुरू कर दी. धर्मशाला और मंदिर के बीच पानी के टैंक थे जिनमें बरसात का पानी इकट्ठा किया गया था. यहां पानी के स्रोत बहुत दूर हैं. “ताजा पानी भर लाता हूं.” योगेश ने तांबे की गागर उठाते हुए कहा तो मैं भी उसके साथ हो लिया. आते वक्त पानी का जो स्रोत मिला था वहीं से पानी लाना था. यहां पानी का एक स्रोत काफी नीचे है लेकिन जानवरों की वजह से अकसर वह दूषित रहता है. वापस कमरे में पहुंचकर खिचड़ी बनाने में जुट गए.
अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई और नजर सामने की ओर उठ गई. सामने युवा स्वामीजी और उनके साथ उनके एक शिष्य अंदर आए. स्वामीजी ने उड़ती नजर से कमरे का निरीक्षण करने के बाद आश्चर्य जताया कि हमने कमरे में दरियां क्यों नहीं बिछाई. उन्होंने अपने शिष्य को कमरा व्यवस्थित करने को कहा तो शिष्य उर्फ बाल ब्रह्मचारी राजूजी ने तुरंत टिन का बड़ा बक्सा खोल उसमें से कंबल-दरियां निकालकर कमरे के फर्श में बिछानी शुरू कर दी. एक कोने में कंबल के ऊपर आसन बिछा दिया गया. अब कमरा अच्छा खासा भरा-भरा सा लगने लगा था. इस सबसे अंजान कुकर ने सीटी मार खिचड़ी बन जाने की सूचना दी तो एमएसआर स्टोव बंद कर दिया गया.
स्वामीजी ने एक्स-रे मशीन की तरह अपनी नज़रें हम और हमारे सामान पर डालीं और अपनी बाल सुलभ मुस्कान के साथ आसान में बैठ गए. बातचीत का दौर चला तो जिज्ञासावश हमने उनसे उनके जन्मस्थान के बारे में पूछ लिया. हंसते हुए वह बोले, “भई! साधू का कोई ठिकाना नहीं होता. वह जहां रुक जाय वहीं का हो जाता है. अब देखो न पिंडारी बाले बाबा को लोग उड़ीसा का कहते हैं, जबकि उन्होंने तो अपना घर बार सब त्याग दिया और वर्षों से पिंडारी के पास अपनी धूनी रमा ली है. अब वह उड़ीसा के कैसे हो गए? अब तो वह पिंडारी वाले बाबा हुए. ऐसे ही मैंने अपना घर त्याग यहां चिल्ठा में अपनी धूनी जमा ली तो अभी मैं ‘चिल्ठा’ वाला हो गया ना. नाम में क्या रखा है जी. और साधू का कोई एक जगह ठिकाना नहीं रहता. वह तो रमता जोगी ठहरा.”
मैं खामोश हो गया तो उन्होंने बाल सुलभ मीठी सी मुस्कान बिखेरते हुए बताया कि इस धरती में वह उत्तराखंड के नजदीक ही उत्तर प्रदेश में पैदा हुए और शिक्षा दीक्षा अमरकंटक में हुई. वहां अध्यात्म की साधना की ओर झुकाव इतना बढ़ चला कि सब त्याग यहां चिल्ठा आ गया. स्वामीजी अपनी रौ में आ गए थे. ध्यान के साथ ही अध्यात्म के बारे में रोचक बातें होते रहीं. चर्चा का सिलसिला थमने तक रात के ग्यारह बज चुके थे. उन्होंने अपने शिष्य ‘राजू भाई’ को हमारे साथ ही रुकने को कहा और अपना त्रिशूल थाम अंधेरी रात में ऊपर कुटिया की ओर का बुग्याली रास्ते में चल पड़े.
कुकर प्रेशर पर नजर पड़ी तो लगा जैसे वह ऊंघ रहा है. गैस जलने पर उसकी नींद में खलल पड़ा और कुछ ही पलों में उसने सीटी मार दी. थोड़ी-थोड़ी खिचड़ी का भोग लगाकर हम अपने स्लीपिंग बैगों में समा गए. बाल ब्रह्मचारी राजूजी ने भी कोने में अपना बिस्तर लगाकर एक कंबल ओढ़ लिया. छत के बांसे में एक कील में छोटे से एक सोलर लाइट को टांग नाइट लैंप बना लिया.
रात ठिठुरन भरी थी. बार-बार नींद उचट जा रही थी कि अचानक कुछ खटका होने पर लैंप की मध्यम रोशनी में देखा. ब्रह्मचारी राजूजी ने अपना कंबल किनारे रखा और दरवाजा खोलकर बाहर चले गए. रात के सवा दो बजे थे. “शायद फारिग होने गए होंगे.” मैं सोने की कोशिश करने लगा. पल भर में आभास हो गया कि राजूजी अंदर अपने बिस्तर में लौट आए हैं. नींद फिर से उचटी तो कंबल से सिर समेत पूरे शरीर को ओढ़े पद्मासन की मुद्रा में राजूजी को देख आंखों से नींद भाग खड़ी हुई.
छह बज गए थे. योगेश भी जाग गया था. हम दोनों ने अनुमान लगाया कि शायद राजूजी ध्यान कर रहे हैं. हम चुपचाप बाहर निकल आए. यह किस तरह का ध्यान है? रात ढाई बजे से इसी तरह से बैठे हुए हैं? इसका जबाव हम दोनों के पास नहीं था.
नीचे बुरांश के झुरमुट के जंगल से हमारे वापस आने तक राजूजी भी जागृत अवस्था में मिले. मन की शंका को दूर करते हुए उन्होंने बताया, “रात्रि में दो बजे के बाद का समय ध्यान के लिए उत्तम होता है. अकसर इस तरह का ध्यान सात घंटे तक का होता है, आज कम ही किया.” हम दोनों हैरान थे. ध्यान के लिए हम कितना ही कोशिश करते लेकिन दसेक मिनट बाद ही जिंदगी की झंझावतें रंग बिरंगे मुखौटे लगाए आंखों के आगे नाचने लग जातीं.
कॉफी पीने के बाद राजूजी बाबाजी की कुटिया की ओर चले गए और कुछ देर बाद हम भी वहीं को चल पड़े. सामने मैक्तोली की चोटी पर सूरज की सिंदूरी लालिमा बिखर चुकी थी. कुटिया में पहुंचे तो राजूजी ने जड़ी-बूटी मिश्रित चाय के प्याले हाथ में थमा दिए. “चलिए आज आपको ध्यान की विधियां बताते हैं.” बाबाजी के कहने पर राजूजी अंदर से कुछ दरियां उठा लाए. बाहर घास के मैदान में दरियां बिछा सभी पद्मासन लगा बैठ गए. मेरे घुटने ने ऐसा करने से मना कर दिया तो बाबाजी उठ खड़े हुए. राजूजी और बाबाजी ने मेरी बीमारी की जड़ कमर को बता मेरा उपचार करना शुरू कर दिया. कमर के साथ ही हाथों की खीचतान भरी मालिश होते हुए मुझे आभास होने लगा जैसे मेरा इलाज इन्द्र के दरबार में हो रहा हो और अब कुछ ही देर बाद मैं नीचे दूर दूर तक पसरी हुई घाटियों में चमगादड़ की तरह उड़ान भरने लगूंगा.
आधे घंटे के उपचार के बाद मुझे एक पांव सीधा रख ध्यान सीखने की अनुमति मिल गई. ध्यान के लिए पहली विधि, आँखों को बंद रख अपनी आती-जाती सांसों पर ही ध्यान केन्द्रित रखें . साथ ही शरीर जो करे, मन जो करे, विचार जो आएं, उन्हें मात्र दर्शक बनकर देखें. यह बताकर बाबाजी समेत हम सभी मौन में चले गए. कुछेक पलों में लगा कि जैसे मैं एक नई आंतरिक दुनियां में विचरण कर रहा हूं. मन का तनाव कम होने लगा. हृदय की गति भी धीमी हो गई. शरीर हल्का और शांत सा होने लगा. इतनी शांति कभी महसूस नहीं की थी. बीसेक मिनट बाद बाबाजी की आवाज से वापस लौट आए. एक बार फिर से मेरे मेरूदंड के साथ नूरा कुश्ती की गई. वापस नीचे को लौटते वक्त बुग्याल में पसरने के बाद पांव का दर्द भूलकर मैं फिर से हिमालय के विराटता में खो गया.
“दाल-चावल बना लेते हैं आज.” योगेश के सुझाव पर ना का सवाल था ही नहीं. भोजनोपरान्त गुनगुनी धूप की छांव में बुग्याल में पसरे हम दोनों हिमालय के दुर्गम ट्रेकों में जाने के भविष्य के सुनहरे सपने बुनने लगे. शाम ढली तो बाबाजी और राजूजी भी नीचे आ गए. दो घंटे तक ध्यान की नई विधि में रमने के बाद बाबाजी ने किस्सों की पोटली खोल ली. पता चला कि राजूजी बचपन से ही ध्यान में इतना रम गए कि बाल ब्रह्मचारी बन गए. पढ़ाई के बाद बैटरी के काम की अच्छी जानकारी के चलते आजीविका के लिए उसी की दुकान खोल ली. युवा बाबाजी के संपर्क में आए तो दुकान को अपने भतीजे को भेंट कर हिमालय की ओर हो लिए. यह सब सुनते हुए राजूजी बस मुस्कुराते रहे. रात गहरा गई तो बाबाजी राजू को वही छोड़ अपनी कुटिया को चले गए.
अगली रात दो बजे राजूजी फिर से ध्यानावस्था में चले गए. आज मंगलवार था और योगेश का उपवास था. दिन भर पानी के अलावा वह और कुछ नहीं लेते. कुछ देर में बाबाजी भी आ गए. ध्यान और योग के बाद आध्यात्म पर चर्चा होने लगी. उधर कोने में स्टोव भी बीच-बीच में तिरछी आँख से हमें देख सोचने में लगा था कि ये किस तरह का ध्यान हो गया इनका कि उसे भी ध्यान में छोड़ दिया. मंदिर की घंटी बजी तो बरबस ध्यान उस ओर चला गया. पांच मित्र जनों की टोली धाकुड़ी से यहां ट्रैकिंग के साथ ही मंदिर के दर्शन के लिए आई थी. कुछ देर रहकर वे सभी वापस लौट गए.
शाम ढलने लगी तो एक बार फिर से हम सभी देर तक ध्यान में चले गए. ध्यान से वापस आने के बाद स्टोव की सुध ली तो वह भी अलसाया हुआ सा जागा. हल्का भोजन लेने के बाद फिर से बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ तो रात के एक बज चुके थे. मेरे जिद करने पर आज बाबाजी ने भी यही रुकने का मन बना लिया. सुबह छह बजे जब नीद खुली तो राजूजी के साथ ही बाबाजी को भी ध्यान में पाया.
आज हमें वापस लौटना था. बाबाजी ने बताया, “रात सपने में मॉं नंदा देवी ने दर्शन दिए तो अचानक उनकी आँख खुल गई. उसके बाद मैं फिर से ध्यान करने लगा. मॉं के साक्षात दर्शन होने के बाद अब आज ही सुंदरढुंगा घाटी में मॉं नंदा की अराधना को निकलना है.”
बाबाजी और राजूजी से विदा ले हम दोनों ने वापसी की राह पकड़ी. मौसम बेहद सुहावना था. रास्ते में बुग्याल में कुछ देर रुके तो नीचे नजर गई. कर्मी गाड़ तक इंसानी बसेरे बिखरे दिखे. ऊपर दूर मजुवा का पहाड़ और उसमें फैला खूबसूरत बुग्याल जैसे हमें बुला रहा था. दोपहर तक हम कर्मी विनायक धार में पहुंच गए थे. आज मन काफी हल्का था लेकिन घुटने को आज ज्यादा काम करना पड़ा तो उसका मुंह फुल कर कुप्पा हो गया था.
बागेश्वर पहुंचने पर दूसरे दिन जिला अस्पताल में आर्थो डॉक्टर की शरण में भागा. उन्होंने घोषणा की, “घुटने में पानी भर गया है निकालना पड़ेगा.” घंटों इंतजार कराने के बाद निहायत बेगानेपर से एक कुशल कसाई की तरह उन्होंने घुटने का पानी बाहर निकाला और कुछ दवाइयां लिखकर अपनी ड्यूटी पूरी कर दी. दो दिन बाद घुटना फिर से मोटा ताजा हो गया तो मैं फिर से डाक्टर के पास भागा. “घुटने में पानी भर गया है निकालना पड़ेगा.” अबकी बार हलाल होने के वजाय वहां से भागने में ही मैंने अपनी भलाई समझी.
इस बार दिल्ली में मित्र जलज मेहता को पीड़ा बताई तो उन्होंने तुरंत आईबीएस अस्पताल में डॉ. विकास त्यागीजी से बात कर मुझे जल्द दिल्ली बुला लिया. शाम को घुटनों के बारे में फौजी बापू को जब मैंने पुरसाहाल बताया तो उन्होंने तोप के गोले की तरह तंज मारा, “तेरे को हमेशा आवारागर्दी के बहाने चाहिए.!” चालीस मिनट तक हड़काते हुए फिर एक और बार याद दिलाया कि उन्होंने कितनी मेहनत की और आज कैसे यह मुकाम हासिल किया. घुटनों का मुद्दा नेपथ्य में चला गया. फौजी बापू के त्याग की कहानी सुनकर मेरे घुटनों ने भी विलाप करना शुरू कर दिया. अगली सुबह मैं दिल्ली पहुँचकर अस्पताल में भर्ती हो गया. कई जांचों के बाद डॉक्टरों की टीम में शामिल डॉ. आशीषजी ने बताया कि एक घुटना सही है लेकिन दूसरे घुटने में इंफेक्शन है. इसकी आर्थोस्कोपी होगी. मुझे उनकी बात समझ में नहीं आई तो उन्होंने समझाया, “घुटने का एक छोटा सा ऑपरेशन कर उसके जोड़ में इंफेक्शन की सफाई कर दी जाएगी, उसे ही आर्थोस्कोपी कहते हैं. इससे कुछ सालों तक आराम मिल जाएगा लेकिन बाद में ज्यादा दिक्कत होने पर घुटना ही बदलना पड़ेगा.” घुटने में जमा पानी निकालने के बाद कुछ दिन आराम रहा लेकिन दर्द फिर से उभर आया तो वापस दिल्ली डॉ. आशीष की राय पर आर्थोस्कोपी के लिए चला गया. नियत दिन ऑपरेशन होना था.
कोई तीमारदार साथ न होने पर मुझे खूब झाड़ भी मिली. सुबह से ही कुछ न खाने की हिदायत मिली थी. शाम ऑपरेशन के लिए जाने से पहले शरीर के सारे वस्त्रों का त्याग करवा दिया गया. ऑपरेशन थिएटर में जांच के बाद एक डॉ. ने बातों ही बातों में कमर में एनेस्थीसिया का इंजेक्शन लगा दिया. कुछ देर बाद मुझे एहसास हुआ कि मेरे कमर से नीचे के हिस्से गायब हो गए हैं. थोड़ी ही देर में डॉक्टरों की टीम चीरफाड़ में जुट गई. मुझे कुछ भी एहसास नहीं हो रहा था. गर्दन किनारे को हुई तो एक बड़े से स्क्रीन में घुटने के अंदर के ताजा हालात दिख रहे थे. डॉक्टरों ने घुटने में दो सुराख कर दिए थे और एक में कैमरा और एक में वैक्यूम क्लीनर जैसा कुछ यंत्र अंदर डाला हुआ था. वैक्यूम क्लीनर वाले यंत्र का मुंह किसी शार्क मछली की तरह था जो मानो शैवालों को खा रही थी.
ऑपरेशन खत्म हो जाने के बाद मय स्ट्रेचर मुझे एक ठंडे कमरे में डाल दिया गया. इस बीच कोई भलमानस कमरे से कंबल लाकर मुझे ओढ़ा गया. बेहोशी भरी नींद में कई घंटे हाड़ कंपाती ठंड में पड़ा रहा. अंतत: मुझे कमरे में शिफ्ट कर दिया गया. एक कर्मचारी मेरी सेवा टहल में जुट गया. उसने चादर देखी तो वो गीली हो चुकी थी. बमुश्किल मुझे उठाकर उसने चादर बदली.
मैं हैरान परेशान था कि यह सब कैसे और कब हो गया. उसने बताया कि इंजेक्शन की वजह से कमर से नीचे के हिस्से सुन्न हो जाते हैं जिससे यह सब हो जाना आम बात है. कल दोपहर तक पांवों में दर्दभरी चेतना लौट आएगी. चादर गीली होने से मैं परेशान हो गया था. हालांकि बचपन समेत युवापन में भी कई बार यह सब जाना आम बात रही थी. अचानक मुझे याद आया कि चादर को रंगीन होने से बचाने के लिए डायपर पहन लेना बेहतर रहेगा तो सेवादार से एक बड़ा डायपर लाने की गुजारिश की. उसने मुझे चौंककर देखा. मैंने उसे समझाया कि इसका फायदा चादर के साथ ही मुझे भी मिलेगा. इसकी बदौलत उम्र के इस पड़ाव में मुझे शर्मसार नहीं होना पड़ेगा और चादर भी साफ रहेगी. उसने मुस्कुराते हुए तुरंत डायपर लाकर पहना दी. सेवादार को धन्यवाद देकर मैंने उसे विदा कर दिया.
नींद कोसों दूर थी. टीवी में चित्रहार नुमा पुराने गाने का चैनल लगा मन बीती यादों में खो सा गया. बचपन गांव में गरीबी के हालात में गुजरा था. तब नंगे बदन पर कपड़ों के नाम पर कुछ चिथड़े लटके रहते थे. ज्यादातर घरों में बच्चों के हाल कुछ इसी तरह के थे. कुछेक घरों में बच्चों को ‘झगराज’ उर्फ ‘झगुल’ नाम से मशहूर घुटनों से नीचे तक एक बड़ी कुर्ती पहना दी जाती थी. शरीर में उसके अलावा कुछ नहीं पहनाया जाता था. दिनभर मुंह चलते रहने से बच्चों की चड्डीयां भी गंदी हो जाती थीं, जिस कारण बच्चों को पहनाए जाने वाले झगराज बच्चों के साथ-साथ घर वालों के लिए काफी सुविधाजनक रहते थे. बच्चों का जहां मन चाहे वे वहां बैठ जाते. बार-बार चड्डी बदलने का झंझट भी ख़त्म! कुछेक घरों में बाजार में मिलने वाला ‘सल्दराज’ भी चलन में आ चुका था.
डायपर का आविष्कार तब तक गांवों में अपनी पहुंच नहीं बना सका था. बचपन में बागेश्वर से अकसर बड़े भाई के कुछ कपड़े आ जाते थे जिन्हें कठपुड़िया का टेलर मास्टर पीछे से रंग-बिरंगे पैबंद लगा फिर कर देता और मैं उन्हें पहन खुश हो लेता. ये पैबंद बहुत काम के हुआ करते थे. गाय बकरियों के ग्वाला जाने पर हम बच्चों का पिरूल में फिसलने का खेल सभी में प्रिय था और इससे स्कूल के लिए बना मोटे कपड़े का निक्कर भी पीछे से फट जाता था. निक्कर फटने पर मुझे अच्छी तरह से कूटने का काम चाचाजी पूरी शिद्दत से किया करते थे. बागेश्वर से आए कपड़ों में पैबंद चाचाजी की कुटाई से बचने के लिए लगाए जाते थे. उन दिनों चंढीगढ़ वाले चाचाजी भी साल में एक बार गर्मियों में गांव में आते तो वह भी कुछ अच्छे कपड़े ले आते थे. ‘सल्दराज’ से मेरा साबका नहीं पड़ा. आज जब मैं अस्पताल में डायपर पहने था तो बचपन के दिन बरबस से याद हो आए.
दूसरे दिन सुबह-सुबह बड़ी बिटिया और छोटे जीजाजी सूचना न देने की मीठी शिकायत लिए अस्पताल पहुंच गए. दो दिन अस्पताल में रहने के बाद मैं मित्र हरीश जोशी के साथ उनके घर चला आया. उसके दो दिन बाद वापस बागेश्वर लौट गया. डॉक्टरों ने ढेर सारी हिदायतों के साथ भरोसा दिलाया कि कुछ दिनों बाद घुटने का दर्द कम हो जाएगा. दिन बीतने के साथ ही महिने बीतने लगे लेकिन घुटने का दर्द बदस्तूर बढ़ते चला गया.
अस्पताल की गंध अब जीवन का हिस्सा बन चुकी है. टेस्ट रिपोर्ट्स बैग में डाले मैं अकसर सोचता रहता हूं, क्या अब मेरा शरीर मेरी आज़ादी छीन लेगा…? पहले जहाँ पहाड़ों की पगडंडियाँ मुझे बुलाती थीं, वहीं अब सीढ़ियाँ चढ़ना भी किसी युद्ध से कम नहीं लगता है. इस बीच मन में बार-बार यह सवाल उठता-क्या यही जीवन का शेष है? पहली बार गहराई से मुझे महसूस हुआ कि शरीर के टूटने से पहले आत्मा टूटती है और जब आत्मा हिल जाती है, तब सबसे बड़ा संघर्ष शुरू होता है. जब जीवन का हर कोना दर्द से भर जाए, तब इंसान बाहर की दुनिया से ज़्यादा भीतर की तलाश करने लगता है. मेरे लिए यह तलाश मुझे बार-बार हिमालय की ओर खींच ले गई.
ऐसा भी महसूस हुआ कि बीमारी केवल शरीर को नहीं तोड़ती, वह रिश्तों की परख भी करती है. रेत से बनी कई रिश्तों की दीवारें इस मौके पर भरभराती हुई दिखीं. पता चला कि बीमारी में सबसे बड़ी चुनौती केवल शरीर का दर्द नहीं है, बल्कि उसे जी पाने की सलाहियत में है. यह जानते हुए कि सिकंदर भी आख़िरकार खाली हाथ ही गया था तो फिर कई भद्र जन ढेर आडम्बरों में लिप्त बड़े-बड़े आयोजन कर अपने अहंकार का दिखावा क्यों करते होगें…? सहज ढंग से जीना क्यों छोड़ देते होंगे?
मनुष्य का स्वभाव है कि वह हमेशा पूरी यात्रा करना चाहता है. हर सपना पूरा हो, हर मंज़िल पाई जाए, यही हमारी चाह होती है. लेकिन जीवन की सच्चाई कुछ और है. अगर सब कुछ पूरा हो जाए तो शायद जीवन की रहस्यात्मकता ही खत्म हो जाए. अधूरापन ही तो हमें खोजने, सोचने और भीतर झाँकने की प्रेरणा देता है.
चिल्ठा से वापस आने के कुछ दिनों बाद बाबाजी का फोन आया तो उन्होंने कहा, “छोटे बन जाओ, उसका आनंद ही कुछ अलग है.” बाबाजी के कहने पर मैं छोटा भी बन गया लेकिन उसमें भी अपने बेवजह शंकाग्रस्त होकर नफरत भरी शिकायती निगाहों से घूरने और ताने मारते हैं. शायद यही जिंदगी होती है… . और इसे इसी तरह से इसे बेवजह जिया जाता होगा. एक बार फिर बाबाजी से बात हुई तो उन्होंने बताया कि, अब वह बाहर हैं और भागवत कथा के साथ योग और आध्यात्म के रास्ते पर चल चुके हैं. कभी कभार बीच में हिमालय की गोद में भी जाते रहेंगे.
बीमारी ने मेरे कदमों को थाम लिया है. अभी मैं वैसा सफ़र नहीं कर सकता जैसा पहले करता था. लेकिन यादों का यह सफ़र अब और भी गहरा हो गया है. जहाँ पहले मैं पहाड़ों को उनकी गोद में पैदल जाकर आँखों से देखता था, अब उन्हें आत्मा से जानने का प्रयास करता हूँ. हिमालय मेरे लिए अब सिर्फ़ भूगोल नहीं रहा. वह मेरी पीड़ा का साथी, मेरी आस्था का आधार और मेरे संघर्ष का प्रतीक बन गया है. हर बार जब मैं टूटने लगता हूँ, उसकी पुकार मुझे फिर खड़ा कर देती है. हिमालय की पुकार ने मुझे यह विश्वास दिलाया कि हर दर्द के पार एक ऊँचाई है. अब मैं जानता हूँ कि शरीर चाहे टूटे, पर आत्मा की उड़ान को कोई रोक नहीं सकता.
बीमारी और दर्द ने मुझे सिखाया कि हर यात्रा पूरी हो, यह ज़रूरी नहीं, अधूरी यात्रा भी अपने आप में संपूर्ण हो सकती है. अब धीरे-धीरे समझ में आता है कि जीवन की पूर्णता यात्रा पूरी करने में नहीं, यात्री बनकर उसे महसूस करने में है. मैंने जितना हिमालय देखा, उतना ही मेरे लिए काफी है. उसकी ठंडी हवा, उसके जंगल, उसकी नदियाँ, उसकी चोटियाँ वे सब मेरे भीतर हमेशा जीवित रहेंगे. क्या यही किसी यात्रा का हासिल नहीं है?
बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
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