इतिहास

1985 में पौड़ी गढ़वाल पर लिखा एक महत्वपूर्ण लेख

अपने भाग्य पर आंशू बहती पौड़ी

उत्तर प्रदेश के बारह प्रशासनिक मण्डलों में एक से एक गढ़वाल मंडल का मुख्यालय है पौड़ी गढ़वाल मंडल से पर्यटक, यात्री और पर्वतारोही उसकी गंगा यमुना सी महान नदियों के मातृलोक (मायके) बदरी केदार सरीखे धाम, भारत के सर्वोच्च हिमालयी शिखर नन्दा देवी व नंदा-त्रिशूल तथा विश्व विख्यात फूलों की घाटी ( भ्यूडार ) के कारण हैं परिचित किन्तु मुख्य पर्यटन एवं यात्रा मार्गों से कट होने के कारण अधिकांश यात्री एवं पौड़ी से अनभिज्ञ ही हैं. उत्तर रलवे के कोटद्वार स्टेशन से 108 किलोमीटर उत्तर तथा ऋषिकेश से लगभग 140 किलोमीटर उत्तर पूर्व में सिन्धुतल से 5500 फीट से 8000 फीट तक की उत्तरामुखी ढालदार वनाच्छादित पहाड़ी पर बसी है पौड़ी. जो नीचे से मीढ़ीदार, फिर कुछ-कुछ समतल और फिर सीधे चोटी पर घोड़े की पीठ सरीखी एक लम्बी-चौड़ी पठार बन जाती है. पौड़ी से जितना विस्तृत एवं स्पष्ट हिमालय का दृश्य दिखाई देता है वह अनुपम है. ग्रीष्मकाल में हिमालय इसका प्राकृतिक कूलर बन जाता है और शीतकाल में पौ फूटते ही सूर्य की सुनहरी किरणें धीरे-धीरे इसका प्राकृतिक हीटर बन जाती हैं रातें जरूर ठंडी हैं.
(Pauri Garhwal History)

सदी के प्रथम दशक तक अंग्रेजों ने अधिकांश उत्तर भारत में अपने पांव जमा लिये थे किन्तु वे उसकी सुरक्षा के लिए सदैव ही चीनी-रूसी शक्तियों के प्रति सशकित रहते थे. मध्य हिमालय में पश्चिम की ओर बढ़ती हुई प्रबल गोरखा सैन्य शक्ति के कारण भी वे चिन्तित थे. बस महाराजा गढ़वाल की सहायता का बहाना बनाकर अंग्रेजों ने गौरखा-शक्ति को पराजित करके उत्तर भारत से सामरिक दृष्टिकोण के कारण महत्वपूर्ण इस भू-भाग पर अधिकार कर लिया. इस प्रकार उनकी मनचाही मुराद पूरी हुई और कुमाऊं के अतिरिक्त गढ़वाल के तिब्बत को मिलानेवाले दो मुख्य हिमालयी दर्रे नीति व माणा पर उनका कब्जा हो गया. संसार की छत (तिब्बत) को उन्होंने आगे बढ़कर एक बफर स्टेट बनाने का प्रयास किया और वे काफी हद तक सफल भी हुए. भारत के स्वतंत्र होने तक तिब्बत में डाक-तार व्यवस्था दलाई लामा की सहमति से अंग्रेजों के हाथ में ही रही थी और तिब्बत से भारत का निर्बाध व्यापार चलता रहा था.

मि. जी. डब्ल्यू ट्रेल की प्रथम स. कमिश्नर के रूप में ब्रिटिश गढ़वाल में नियुक्ति हुई. उन्हें गढ़वाल की गरम घाटी में बसी पुरानी राजधानी नगर रास नहीं आई. पुराना नगर अलकनन्दा से सट कर बसा था और उसके कभी बाढ़ की चपेट में आ जाने की आशंका थी. अतः अंग्रेजों को सभी दष्टिकोणों से पौड़ी की स्थिति सर्वोत्तम लगी और उसे ही ब्रिटिश गढवाल का मुख्यालय बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. इस प्रकार एक अल्हड़ पहाड़ी घसियारिन रानी बन गई.

 ट्रेल के पश्चात् पौ साहब गढ़वाल के स. कमिश्नर नियुक्त हुए. वे एक सुलझे हुए विचारों के कल्पनाशील अधिकारी थे. उनके कार्यकाल में दोनों ओर श्रंगारिक एवं फलदार वृक्षों की कतारों वाले अनेक मार्ग गढ़वाल में निर्मित हुए और अलकनन्दा से कुछ ऊपर डांग-ऐठाणा ग्रामों की समतल भूमि में भारत की गुलाबी नगरी जयपुर के नक्शे कदम पर नवीन नगर का पुनर्निर्माण हुआ. किन्तु दीए तले अंधेरे की उक्ति के समान मिस्टर पौ अपनी नाक के नीचे बेतरतीब बस्ती की पौड़ी की ओर ध्यान नहीं दे पाए. नतीजतन आज पौड़ी के समान किच किच और अनियोजित पर्वतीय स्थल कम ही हैं.

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में दक्षिण गढ़वाल में दुगड्डा पूर्व में गुजरो मध्य में पौड़ी और उत्तर में नंदप्रयाग का सर्वाधिक योगदान रहा है गढ़ केसरी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा, कोतवाल सिंह नेगी, तारा दत्त चंदोलाआदि स्वतंत्रता संग्राम के जुझारू सैनिकों की पौड़ी कर्म स्थली रही है. भारत के वर्तमान राष्ट्रीय नेता हेमवती नंदन बहुगुणा ने भी अपनी प्रारंभिक शिक्षा पौड़ी में ही प्राप्त की थी यहीं से एबटसन नामक तानाशाह कमिश्नर की कथित एबटसनगर्दी और बदनाम कुली बेगार प्रथा के विरुद्ध अदम्य एवं सफल आंदोलन चलाएंगे और सन 42 में करो मरो आंदोलन में ठंडी जलवायु वाला पौड़ी एक दहकता शोला बन गया.

पौड़ी गढ़वाल भर में अपनी रामलीला के लिए प्रसिद्ध रहा है. चालीस-पचास के दशक में मास्टर मुंशीराम व कमलाबाई की मशहूर नॉटकियों के नगाड़ की धूम-धड़ाक अभी भी ‘सठियाते हुए’ पौड़ी के नागरिकों के दिमाग में जब-तब गूंजती रहती है. एव के प्रांगण में एक सफल गढ़वाली लोक रंगमंच बनते-बनते रह गया था. इसके द्वारा जय शंकर प्रसाद के साहित्यिक नाटक स्कन्दगुप्त और सम्राट चन्द्रगुप्त तक का सफल मंचन किया गया था. खेलकूद प्रतियोगिताओं के लिए भी पौड़ी एक व्यस्ततम पर्वतीय स्थल रहा है.
(Pauri Garhwal History)

सन् 1962 के अप्रत्याशित चीनी आक्रमण ने गढ़वाल और कुमाऊं की सामरिक महता को बढ़ा दिया, जिसके फलस्वरूप पौड़ी की एक तहसील चमोली और टिहरी की तहसील उत्तरकाशी को पूर्ण सीमान्त जिला बना दिया गया और छठे दशक के अन्त तक जब गोपाल रेड्डीउ.प्र. के गर्वनर थे, स्वनामधन्य स्व. मुकुन्दीलाल बॅरिस्टर व तत्कालीन कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता हेमवतीनन्दन बहुगुणा के सदप्रयास से देहरादून सहित गढ़वाल के पांच जिलों का कुमाऊं मण्डल से पृथक एक गढ़वाल मंडल बना दिया गया और अपनी विशेष भौगोलिक स्थिति के कारण पुणे पौड़ी मंडलीय मुख्यालय के पद पर प्रोन्नत हो गई इस प्रकार कभी की अल्हड़ पहाड़ी घसियारिन पहले रानी और फिर पटरानी बन गई. किंतु आज पौड़ी गढ़वाल मंडल की नकली पटरानी है. असली मलका तो नूरजहां के समान दाल भात में मुसल चंद की भांति बीच में ही टपक पड़ी देहरादून नगरी है. जिस पर प्रशासन का जहांगीर बुरी तरह फिदा है नतीजा मंडल के औद्योगिक विकास का शरबत ए आजमइसके ही गुलाबी पेट में जाता है और केवल तलछट ही पटरानी व अन्य रानियों को नसीब हो पाता है. पौड़ी प्राकृतिक रूप से हसीन है तो हुआ करें! क्योंकि कहावत मशहूर है कि जिसे पिया चाहे वही सुहागन.

पौड़ी एक शहर है न कस्बा और ना ही ग्राम जहां इसके ग्रामीण मोहल्ले पौड़ी, बैंजवाड़ी या कांडे में जुते हुए खेतों की सौंधी सुबास आती है. वहीं तल्लाबाजार में कस्बई सीलन की बदबू. धारा रोड बनारस की गलियों की याद दिलाती है तो मोटर-स्टैन्ड पर शहरी भीड़-भाड़. वास्तव में पौड़ी एक त्रय-आयामी जनजीवन वाली गढ़वाली संस्कृति का नाम है. न यहाँ कोई पूंजीपति है और न चचित नव-धनाड्य. यह वेतनभोगी सरकारी कर्मचारियों, छोटे व्यापारियों और अनेकों ढाबों जलपान गृहों, होटलों, दुकानों में मेहनत-मजूरी कर रहे नाबालिग पहाड़ी भुलाओं की बस्ती है. यहां की शिक्षित जनता दो अखबार खरीदती है- एक हिन्दी का और दूसरा अंग्रेजी का. हिन्दी का अखबार वह घर जाकर पढ़ने के लिए खरीदती है किन्तु रास्ते में व अंग्रेजी अखबार के अंदर लेती है. ताकि सनद रहे कि वह अंग्रेजी जानती है. ठीक भी है कि हाथी के दांत खाने के और, और दिखाने के और. नगर न होते भी पौड़ी एक नगरपालिका है. बाजार में ऊपर एक मार्ग बना है. नाम रखा गया विकास-मार्ग. किन्तु पौड़ी की हास्य-व्यंग प्रिय प्रजा ने काशी के पिशाचमोचन मार्ग की तर्ज पर इसका नाम रख दिया है ऋणमोचन मार्ग. यह मुख्य बाजार से ऊपर गुजरती है अतएव दुकानों के अल्पवेतन भोगी पुराने कर्जदारों का यह मार्ग, साप्ताहिक बाजारू छुट्टी के अतिरिक्त 6 दिन तक एक निरापद सहारा बन जाता है सातवें दिन खुदा हाफिज. उत्तर प्रदेश के 12 मंडलों में से एक सदर मुकाम होते हुए भी पौड़ी उद्योग शून्य है.

कोटद्वार से लगभग 100 किलोमीटर चलने के बाद 6000 फीट ऊंचाई पर एक स्थान आएगा बूबा खाल. यहां से आप उत्तर की ओर देखेंगे तो ऊंचे शाहबतूल(बांज), देवदारू और लाल फूलों से लदे बुरांस के फूलों के बीच से वृहद हिमालय के हिम मंडित स्वर्गारोहण चौखंबा नंदा तथा नंदा त्रिशूल के गगनचुंबी शिखर आप को आंख मिचोली सी करते प्रतीत होंगे. तब आपके मन मस्तिष्क में महाकवि कालिदास के शब्द गूंजते लगेंगे उत्तर हिमालय नामक पर्वत ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह पूर्व पश्चिम समुद्र में प्रविष्ट होकर मानव पृथ्वी का मानदंड बन गया है इसी स्थान से दो-तीन किलोमीटर दूर पश्चिम की ओर देखें तो किसी शहद निचुडें मधुमक्खियों के मोमी छत्ते के समान उत्तर की ओर ढलान पर बसी पड़ी नजर आएगी.

पौड़ी में पर्यटन के लिए बहुत कुछ है 8000 फीट झंडीधार और नागदेव की चोटियां वनाच्छादित कंडोलिया और राशि के ऊंचे समतल पठार महाकालेश्वर मंदिर महाहिमालय और उसकी गोद में खड़े इंद्रधनुष के रंगों की छटा देने वाले मध्य हिमालय के गिरिवन छोटे और बड़े महंगे और सस्ते सभी प्रकार के होटल लो और पर्यटक विश्राम गृह भले ही पौड़ी का उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग द्वारा समुचित प्रचार ना हुआ हो पौड़ी है पर्वतीय सौंदर्य की एक अछूती बस्ती यह हिमवंत की उस नकाबपोश हसीना के समान है जिसकी खूबसूरती देखने उसका खामोश रख आप उठाया जाना जरूरी है अंततः ऊपरी दृश्यों के अतिरिक्त पानी की एक दूसरी तस्वीर भी है 1 दिन संध्या को जब मैं अपने आवास स्थान दुगड्डा की बस में बैठ रहा था तो पासी के एक ढाबे के नल पर फटे जान जी उधर ही स्वीट पहने थे सारे गंदे बर्तनों को मान्यता हुआ एक ‘भुला’ एक गढ़वाली तुकबंदी को गाए जा रहा था-

पौड़ी पौड़ी छाछ की रौड़ी
दूध न देंदी लतयांदी गौड़ी
हे भुलाओ भांडा मंजावा भट बुकावा
पैसा बचो ना कौड़ी.

अर्थात यह महंगी पौड़ी आदमी को दही की मथनी के समान मथमथ कर छाछ बना देती है. यह दूध न देने वाली और दुहने की कोशिश करने पर केवल लात मारने वाली गौड़ी के समान है. जिससे लाभ की आशा करना व्यर्थ है इसलिए भाइयों बर्तन मांजो और भुने हुए भट चबाओ क्योंकि जब तक पौड़ी में रहोगे न पैसा बचेगा ना दूर की कौड़ी.
(Pauri Garhwal History)

प्रस्तुति- यदु जोशी

भगवती प्रसाद जोशी ‘हिमवन्तवासी’ का यह लेख सन 1985 में लिखा गया था. यह लेख उनके पुत्र जागेश्वर जोशी द्वारा उपलब्ध कराया गया है.

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