पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बाँझ धरती फिर से ख़बरों में है. इस दफा ऐसा इस तथ्य के चलते हुआ है कि बुलंदशहर में तैनात उत्तर प्रदेश पुलिस के एक एस. एच. ओ. इन्स्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की कथित रूप से गौ-रक्षकों द्वारा गोली मार कर हत्या कर दी गयी. जाहिर है वे लोग अपने इलाके में चल रही कथित गौहत्या से इतने क्रोधित थे कि उन्हें अपनी क्रुद्ध भावनाओं को व्यक्त करने के लिए एक मनुष्य की हत्या करनी पड़ी. वह भी एक वर्दी वाले की.
यह सब हम पहले भी देख चुके हैं. भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य में न तो लोगों को जिंदा जलाया जाना कोई अनजानी बात है न पुलिस के सिपाहियों का मारा जाना. जो भी हो यह वही राज्य है जिसने 1922 में चौरीचौरा में पुलिसकर्मियों से भरे एक समूचे थाने को आग के हवाले कर असहयोग आन्दोलन को थाम दिया था. मानव-दाह पर आमादा यूपी की भीड़ की ताकत के सामने गांधी भी लाचार थे. पुलिसकर्मियों जैसे साधारण मनुष्यों की क्या बिसात.
लेकिन इतिहास में इतनी दूर क्यों जाया जाए. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिले बाकायदा एक भारतीय पुलिसकर्मी दहन संगठन की शुरुआत कर सकते हैं. 2011 में मुरादाबाद का प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा था जब कुरआन को अपवित्र किये जाने के कथित आरोप के चलते एक एसएसपी की पीट-पीट कर तकरीबन हत्या कर दी गयी थी. उसकी लगभग दो दर्ज़न हड्डियां टूटीं और वह बमुश्किल बच सका. मथुरा के भले नागरिकों ने एक कदम आगे जाकर 2016 में एक एडीशनल एसपी की बाकायदा हत्या कर डाली थी. मेरठ, मुज़फ्फरनगर, गाज़ियाबाद – सभी के पास पुलिस के विरुद्ध की गयी अनुकरणीय पाशविकता की कहानियां हैं. इन सभी को किसी न किसी “श्रेष्ठ” उद्देश्य के लिए अंजाम दिया गया था.
जैसा पूर्वानुमान लगाया जा सकता था सुबोध कुमार सिंह की चिता के राख में बदलने से पहले ही राजनैतिक आरोप-प्रत्यारोपों का खेल शुरू हो गया. प्रत्यक्ष अपराध गौरक्षकों की लामबंदी का है. और इस अपराध विशेष के सन्दर्भ में यह सवाल उठाया जाना बिलकुल प्रासंगिक है कि दादरी में पहली बार मोहम्मद अख़लाक़ के ज़िंदा जलाए जाने के दिनों से गौरक्षकों को लेकर बढ़ रही क्षमादान की संस्कृति पर सवाल उठाये जाएं. पांच आरोपियों को गिरफ्तार किया जा चुका है जिनमें से कुछ के दक्षिणपंथी संगठनों के साथ स्पष्ट सम्बन्ध हैं. दीगर है कि यूपी में पुलिसकर्मियों को जीवित जलाए जाने की इस संस्कृति का आरोप केवल दक्षिणपंथ पर लगाए जाने का अर्थ होगा लक्षणों को बीमारी समझ बैठना.
तथ्य यह है कि चाहे कोई भी पार्टी सत्ता में रही हो, और कानून की स्थिति बनाए रखने के कितने ही दावे वह करती रही हो, उत्तर प्रदेश की आपराधिक न्याय व्यवस्था देश में सबसे नाकाम है. जलाने पर आमादा भीड़ के निशाने पर आने वाली पुलिस की पीड़ा तो दिखाने भर की एक चीज है. कानून की बुनियाद में अपराध और दंड के बीच एक मूलभूत सम्बन्ध होता है और पिछले कुछ अरसे से उत्तर प्रदेश में इसे तोड़ा जाता रहा है. मुकदमों में कई बरस लग जाते हैं. अपराधसिद्धि की दर दयनीय है. गवाहों का मुकर जाना आम है जिसके कोई दुष्परिणाम भी देखने को नहीं मिलते. फोरेन्सिक सुविधाएं नगण्य हैं. जेलों में जरूरत से ज्यादा भीड़-भाड़ है और अक्सर ये जेलें बढ़िया संपर्क रखने वाले बड़े गैंगस्टर्स के लिए अपना साम्राज्य चलाने के ठिकानों का काम करती हैं.
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत के सबसे बड़े राज्य में क़ानून व्यवस्था चलाने के लिए पर्याप्त पुलिसकर्मी नहीं हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ के मानकों के अनुसार आज की आबादी के हिसाब से उत्तर प्रदेश को करीब दस लाख पुलिसकर्मियों की आवश्यकता है. वर्तमान में यह संख्या तीन लाख है. जो लोग इस सेवा में हैं उन पर न केवल जरूरत से अधिक बोझ है और उनके पास संसाधनों की कमी है, जातिवाद, भ्रष्टाचार और बार-बार होने वाले ट्रांस्फर्स ने उनकी पेशागत रीढ़ को तोड़ कर रख दिया है. ऐसा नहीं है कि उत्तर प्रदेश पुलिस में सारा कुछ सड़-गल चुका है. देश में कहीं भी पाए जा सकने वाले सबसे बहादुर, सबसे समर्पित और जानकार पुलिसकर्मियों में से कुछ भी यहाँ पाए जाते हैं. लेकिन वे एक ऐसे प्रतिकूल पर्यावरण में रहकर काम करते हैं जिसमें आज्ञापालन को पेशेवर प्रदर्शन के ऊपर तरजीह दी जाती है. आईपीएस नेतृत्व के उद्देश्य तो उदात्त हैं लेकिन है वह अप्रभावी ही. किसी भी तरह का फर्क पैदा करने के लिए उनके पास वह एकजुटता, महत्वपूर्ण संख्या और राजनैतिक सहयोग नहीं है. इस व्यवस्था को रास्ते पर लाना कोई राकेट साइंस नहीं है लेकिन वह एक लम्बी और धीमी प्रक्रिया होगी. यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके लिए अमूमन एक ट्वीट से दूसरे ट्वीट, या हद से हद 24/7 के समाचार चक्र के आधार पर काम करने वाली हमारे इस समय की सरकारों के पास शायद न समय होगा, न धैर्य और न कोई अभिरुचि ही.
देश की पुलिस और विशेष रूप से उत्तर प्रदेश की पुलिस के सामने सबसे बड़ा रोड़ा सभी राजनैतिक दलों में प्रचलित यह विश्वास है कि पुलिस सरकार की बंधुआ नौकर होती है. उसका पहला काम जनसेवा या क़ानून की रक्षा करना नहीं बल्कि सत्तारूढ़ दल के स्वार्थों के पक्ष में खड़े होकर उसके राजनैतिक विपक्षियों के भीतर आतंक पैदा करना है. सुबोध कुमार सिंह को ज़िंदा जलाते समय गौरक्षक उत्तर प्रदेश में हालिया समय में सत्तारूढ़ रहे दलों को मिलने वाली छूट के समयसिद्ध विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर रहे थे. सत्ता के साथ मिलने वाली इस अतिरिक्त सुविधा के इस्तेमाल के लिए आरोपित लिए जाने पर उनमें जो गुस्सा और आश्चर्य दिखाई दे रहा है, उसे समझा जा सकता है. सत्तारूढ़ दल के पदाधिकारियों द्वारा पुलिस के साथ दुर्व्यवहार किया जाना आम है. इस दफा इसे एक अधिक क्रूर, अलबत्ता तार्किक अंत तक पहुंचाया गया.
कुछ लोगों ने एक विशेष तरह का तर्क देना शुरू किया है. जो भी हो उत्तर प्रदेश और अन्य स्थानों के पुलिसकर्मी वैसे भी भ्रष्ट और नृशंस होते हैं. सो उनके साथ अक्सर होने वाला दुर्व्यवहार और उनका जब-तब जला दिया जाना उनके खिलाफ जनता की कुंठा की अभिव्यक्ति होता है. अगर ऐसा है तो अपने सीमित संसाधनों को पुलिस विभाग पर खर्च किया ही क्यों जाए? मुश्किल समय के लिए मुश्किल हल खोजे जाने होते हैं. अगर हम पुलिस के खिलाफ होने वाली इस हिंसा को बर्दाश्त करने की रपटीली ढलान पर चलते रहेंगे तो एक दिन आएगा जब हमें पुलिस महकमे को पूरी तरह बंद कर सत्ता में आने वाली हर नई पार्टी को यह अधिकार दे देना होगा कि वह अपने इलाके में अपनी पसंद के गुंडों को कानून व्यवस्था बनाए रखने के काम में लगा दे. वह होगी लोकतंत्र की सबसे बड़ी विजय.
अगर हम सोचते हैं कि बिना एक पारदर्शी और सक्षम आपराधिक न्याय व्यवस्था के हम भारत में सामाजिक या आर्थिक बदलाव ला सकते हैं तो हम लोग मसखरों की जन्नत में रह रहे हैं. या यह सोचते हैं कि ऐसी कोई व्यवस्था बिना एक पेशेवर और समुचित संसाधनों से लैस पुलिस-बल के बगैर बनाई जा सकेगी जिसकी जवाबदेही केवल कानून के प्रति होगी सत्ताधारी दल की विचारधारा के प्रति नहीं.
असंख्य कमीशनों ने पुलिस-सुधारों की आवश्यकता को रेखांकित किया है. एक दशक से ऊपर हो गया जब सुप्रीम कोर्ट ने प्रकाश सिंह मामले में निर्णय सुनाया था. और तब भी उसका शब्दों और सिद्धांत में पालन किया जाना किसी सुदूर सपने जैसा लगता है.
केवल उम्मीद ही की जा सकती है कि एसएचओ के हत्यारों को कानून की पूरी ताकत का सामना करना पड़ेगा और उन पर जल्द मुकदमा चलाकर उन्हें दंड दिया जाएगा. लेकिन ऐसा होना अनुभव के ऊपर आशाओं की जीत होगा. मुरादाबाद के एसएसपी को ज़िंदा जलाकर तकरीबन मार डालने वाली भीड़ साफ़ बच गयी. जनहित में उनका मामला वापस ले लिया गया. संभवतः इस दफा जनहित को नए सिरे से परिभाषित किया जाएगा वरना ज्यादा समय नहीं लगेगा जब कोई और पुलिसवाला किसी और ऐसी भीड़ द्वारा मार दिया जाएगा जिसे विश्वास होगा कि उसे ऐसा करने का अधिकार था.
अभिनव कुमार आईपीएस हैं. वर्तमान में बीएसफ में आईजी के पद पर तैनात अभिनव कुमार का यह लेख इन्डियन एक्सप्रेस में छप चुका है. पुलिस बल में सुधार से संबंधित उनके लेख इन्डियन एक्सप्रेस में एक दशक से अधिक समय से नियमित छपते आ रहे हैं.
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Really situation is complicated.