शमशेर सिंह बिष्ट ठेठ पहाड़ी थे. उत्तराखंड के पहाड़ी ग्राम्य जीवन का एक खुरदुरा, ठोस और स्थिर व्यक्तित्व. जल, जंगल और ज़मीन को किसी नारे या मुहावरे की तरह नहीं बल्कि एक प्रखर सच्चाई की तरह जीता हुआ. शमशेर सिंह बिष्ट इसलिए भी याद आते रहेंगे कि उन्होंने पहाड़ के जनसंघर्षों के बीच खुद को जिस तरह खपाया और लंबी बीमारी से अशक्त हो जाने से पहले तक जिस तरह सक्रियतावादी बने रहे, वह दुर्लभ है. यह उनकी संघर्ष चेतना ही नहीं उनकी जिजीविषा और पहाड़ के प्रति उनके अटूट लगाव का भी प्रमाण है. आज उनकी पुण्यतिथि पर पढ़िये उनका एक आत्मीय संस्मरण- संपादक
‘आज शाम ठीक 4 बजे चौघानपाटा में … के खिलाफ आम जन की आवाज बुलंद करने के लिए शमशेर सिंह बिष्ट एवं उनके साथी एक सभा को संबोधित करेगें!’ – रैमजे इंटर कालेज, अल्मोड़ा के मेन फाटक पर हाथ में छोटा चैलेंजर (माइक) लिए एक युवा बाजार में चलते-फिरते लोगों को शाम की सभा की सूचना दे रहा था. शमशेर सिंह बिष्ट नाम से मैं अखबारों और पत्रिकाओं के माध्यम से वाकिफ था. वैसे पुरानी टिहरी में रहते हुए चिपको की पद यात्राओं और कार्यक्रमों में जब भी कुमाऊं की बात आती तो उसमें शमशेर सिंह बिष्ट का जिक्र जरूर होता था. मैं बिल्कुल पास जाकर उस युवा को देखता हूं. दमदार आवाज, खूबसूरत चेहरा, छोटी और तीखी आखें, दशहरे के हल्के सर्द दिनों की सरसरी हवा उस युवा के माथे पर आये लम्बे-घने बालों को लहराते हुए उड़ा रही थी. पर उससे बेखबर वो शक्स शाम की सभा के बारे में और भी बातें बताता जा रहा था. यार, शाम को इस सभा में चलते हैं, मैंने शमशेर सिंह बिष्ट को नहीं देखा है. अरे, जो बोल रहा है वही तो शमशेर बिष्ट है, आनन्द जबाब देता है. आनन्द मेरे साथ ही रानीखेत में बीए फाइनल में पढ़ता है. आजकल हम दोनों दशहरे में अल्मोड़ा आए हुए हैं. मैं चौंका, हें…हें… बस यही बोल पाया. सायं की सभा में शमशेर सिंह बिष्ट को सुना तो जोशीमठ के कामरेड गोविंद सिंह रावत याद आ गए. वही बेधड़क, निडर और गरजती आवाज जल, जंगल और जमीन की हिफाजत से जुड़े सवाल और चिंताये. मुझे इस बात की भी खुशी थी कि शमशेर सिंह बिष्टजी ने अपने भाषण में वन, खनन और शराब के खिलाफ गढ़वाल के विभिन्न क्षेत्रों में चल रहे आन्दोलनों का बार-बार जिक्र किया था. ये बातें है, 41 साल पहले अल्मोड़ा में सन् 1977 के दशहरे में किसी दोपहर और शाम की.
उत्तराखंड में सत्तर का दशक युवाओं की सामाजिक सक्रियता के लिए जाना जाता है. पहाड़ में वन, शराब, पर्यावरण, शिक्षा, रोजगार आदि विषयों पर युवाओं में खुली चर्चा और आन्दोलनों का दौर तब बढ़ने लगा था. विशेषकर वन कटान के खिलाफ गढ़वाल में फैले चिपको आन्दोलन की गूंज कुमाऊं में भी थी. वनों की नीलामी के खिलाफ घटित ‘नैनीताल अग्नि कांड’ की चर्चा रानीखेत महाविद्यालय जहां मैं पढ़ रहा था में खूब गर्म रहती थी. अल्मोड़ा कालेज से तब के छात्र नेता पी.सी. तिवारी, प्रदीप टम्टा, जगत रौतेला आदि अक्सर हमारे रानीखेत महाविद्यालय के छात्र-छात्राओं के बीच समसामयिक मुद्दों पर परिचर्चा के लिए आते थे. शमशेर सिंह बिष्ट, शेखर पाठक, बालम सिंह जनोटी, बिपिन त्रिपाठी तब अखबारों की खबरों में रहते थे. याद है, चिपको आन्दोलन के सर्मथन में निकले जुलूस पर पुलिस के लाठी चार्ज के विरोध में 24 फरवरी, 1978 को पूरा उत्तराखंड बंद रहा था. रानीखेत में इस बंद के लिए छात्र-छात्रायें कई दिन-रात तैयारी में जुटे रहे. शमशेर सिंह बिष्ट का नाम इस पूरे दौर में नये-नये बने हम युवाओं के बीच अग्रणी नायक के रूप में हमारी बातचीत और चर्चाओं में रहता था. सरेआम चर्चा यह भी होती थी कि बड़े राजनैतिक दल युवाओं में शमशेर सिंह बिष्ट जी की लोकप्रियता के कारण उन्हें अपने दल में महत्वपूर्ण पद के साथ शामिल करना चाहते हैं. परन्तु उत्तराखंड के मूलभूत आधार और अस्मिता जल, जंगल और जमीन की लड़ाई को क्षेत्रीय पहचान के साथ जीतने का संकल्प शमशेर सिंह बिष्ट जी ले चुके थे. और हम-सबको गर्व है कि जीवनभर वह इन्हीं उसूलों पर अडिग रहे.
मैं सन् 1980 में श्रीनगर आ गया. उसके बाद अखबारों-पत्रिकाओं और मित्रों के जरिये शमशेर सिंह बिष्ट जी के बारे में पढ़ने और सुनने मिलता था. उस दौर में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के अध्यक्ष के रूप में शमशेर सिंह बिष्ट समूचे पहाड़ की एक बुलंद आवाज थी. यह महत्वपूर्ण है कि अल्मोड़ा के बसभीड़ा गांव में आयोजित 2 एवं 3 फरवरी 1984 के सम्मेलन से उपजा ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन का नेतृत्व उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी ही कर रही थी. इस आन्दोलन के 2-3 फरवरी, 1986 के वार्षिक सम्मेलन में लगभग 8 साल बाद शमशेरदा से फिर मेरा मिलना हो पाया था. मैं देख रहा था, शमशेरदा में वैसा ही पुराना जोश, स्पष्ट और निडर होकर बोलने का अंदाज बरकार था. उस दौरान हम संघर्ष वाहिनी से जुड़े कई दोस्त गिरि विकास अध्ययन संस्थान, लखनऊ में बतौर शोध छात्र कार्य कर रहे थे. शमशेर सिंह बिष्ट जी का अन्य साथियों के साथ जब भी लखनऊ आना होता तो मेरी कोशिश होती कि ज्यादा से ज्यादा उनके साथ रहूं.
(शमशेर सिंह बिष्ट की कलम से उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन का एक जीवंत दस्तावेज)
डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट जी की निड़रता और प्रखरता को मैंने उमेश डोभाल आंदोलन के दौरान बखूबी देखा था. 26 मार्च, 1988 को मित्र पत्रकार उमेश डोभाल की हत्या के बाद गढ़वाल ही नहीं पूरे उत्तराखंड में शराब माफिया के खिलाफ आन्दोलन चला था. पहाड़ से बाहर देश के विभिन्न शहरों में भी इसकी गूंज हुई. परन्तु इस घटना के शुरुआती दिनों में शराब माफिया के खिलाफ उसके खौफपूर्ण वर्चस्व के कारण कोई भी खुलकर बोलने को तैयार नहीं था. ऐसे समय में डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट पहले व्यक्ति थे जिन्होने शराब माफिया मनमोहन नेगी और उसके साथियों को पौड़ी बाजार में दिन-दहाड़े अकेले ही खुले-आम दहाड़ कर चेतावनी दी थी. शमशेरदा की निडरता ने अन्य मित्रों को साहस दिलाया और इस आन्दोलन में पत्रकारों के साथ ही आम जनता भी शराब कारोबारियों के खिलाफ लामबंद हुई थी. मुझे याद है कि उमेश डोभाल आंदोलन के सिलसिले में तब शमशेर सिंह बिष्ट जी अन्य कई साथियों के साथ अलीगंज, लखनऊ आये थे. हमने उनको बताया कि पौड़ी जिले का एसपी बंसीलाल जो कि ‘उमेश डोभाल आंदोलन’ में शराब माफिया को मदद कर रहा था का मकान यहीं पास ही है. बिष्ट जी के कहने पर उमेश डोभाल आन्दोलन के पर्चे मैं और मंगल सिंह रात के अंधेरे में बंसीलाल के घर चुपके से गिरा आये थे. लोगों से नजर बचाते हुए रात को पर्चे डालते समय डर से हिर्र तो हुआ था. घर पहुंचने पर बिष्ट जी का यह कहना कि ‘कुछ नहीं होगा शराब के खिलाफ आंदोलन के खबर से वह डरेगा तो सही’ हममें हिम्मत आयी थी. और यही हुआ, पर्चे डालने की रात के बाद कई दिनों तक बंसीलाल ने अपने घर में पुलिस लगा ली थी.
विधानसभा चुनाव, 1989 में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी की ओर से साथी प्रदीप टम्टा बागेश्वर से चुनावी मैदान में थे. शमशेरदा के साथ इस चुनाव-प्रचार में मैं कई दिन-रात बागेश्वर के गांव-गावों में साथ रहा. उस समय यूकेडी का बोलबाला क्या आंतक था. यूकेडी का मुख्य टारगेट वाहिनी ही थी. पूरे चुनाव-प्रचार में यूकेड़ी के कार्यकर्ताओं से रोज ही भिंडत होती थी. तब शमशेरदा की उपस्थिति हमारे लिए सबसे बड़ी ताकत होती थी. याद है, उसी चुनाव में बागेश्वर बाजार में कांग्रेस सर्मथक दबंग होटल वाले ने देर रात को हमारे लिए खाने की थाली लगाने के बाद भी खिलाने से इंकार कर दिया था. परंतु जैसे ही उसे पता चला कि शमशेर सिंह बिष्ट जी भी हमारे साथ हैं, वह हाथ जोड़कर माफी मांगने लगा था. उसने कहा कि ‘वो शमशेर सिंह बिष्ट जी को वोट तो नहीं दे सकता परन्तु उनके लिए जान जरूर दे सकता है.’ कहां तो वह खाना खिलाने को तैयार नहीं था और अब शमशेरदा के सामने गुस्ताखी करने के कारण माफी के रूप में 15 से ज्यादा लोगों के खाने के पैसे लेने को बिल्कुल तैयार नहीं हुआ.
वास्तव में, शमशेर सिंह बिष्ट जी हमारी पीढ़ी के लिए हमेशा एक अभिभावक रहे हैं. तमाम आदोलनों और कार्यक्रमों की संपूर्णता हमारे लिए तभी होती जब शमशेरदा उसमें साथ रहते. आज उनके न रहने से एक बड़े भाई का अपनत्व और आत्मीय मार्गदर्शन की अनुभूति से हम वंचित हुए हैं. मुझे उनके सहज, सरल और आत्मीय व्यक्तित्व में उनकी शोहरत, ज्ञान, अनुभव और सम्मानों के बोझ की शिकन कभी कहीं नजर नहीं आई. ‘कैसा उत्तराखंड बन गया’ इस पर वे चिंतित जरूर रहते परन्तु निराश और हताश वो कभी नहीं रहे.
[अरुण कुकसाल का यह संस्मरण हमने नैनीताल समाचार से साभार लिया है.]
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