आज हमें मुनस्यारी पहुंचना था. नाश्ता निपटाकर, दो दिनों का हिसाब-किताब कर धारचूला टीआरसी से हम निकल चले. कोहरे के कारण अभी मार्किट की दुकानें भी बंद ही थी. इक्का-दुक्का दुकान वाले अपना शटर उठा दुकान खोलने की तैयारी में जुटे थे, तो कुछ सफ़ाई कर्मचारी सड़क के बीच आग सेंकने का मज़ा ले रहे थे. हमें शाम होने से पहले मुनस्यारी पहुंचना था तो हमने सुबह जल्दी निकलना ही मुनासिब समझा. पहाड़ों में मौसम के मिज़ाज़ का भी क्या भरोसा कब तुनक कर रास्ता ही रोक ले और कभी अपनी सुंदरता से मोहकर आपको आगे बढ़ने ही न दे. (New Year’s Eve in Munsyari)
पहले से ज्यादा विकसित धारचूला अब पहचान में भी नहीं आ रहा था. 2003 में जब पंचाचूली बेस कैंप ट्रैक के लिए मैं यहाँ आयी थी तब केंद्रीय विद्यालय में भी एक रात का डेरा था. चूँकि कैंप संगठन की तरफ से था तो आयोजकों ने होटल के बजाय स्कूल के क्लासरूम में ठहराना बेहतर समझा होगा. खैर फिछले दो दिनों में कोई ख़ास कोशिश भी नहीं की और न ही इतना समय मिला कि उस स्कूल को ढूंढा जाये. आज पता नहीं क्यों स्कूल देखने की इच्छा प्रबल थी.
गूगल मैप से स्कूल की ख़ोज चालू हुई और कुछ ही देर में करीब चार किलोमीटर तय करने के बाद हम स्कूल के सामने थे. आँखों के आगे वही रात तैर गयी जब 30 लड़कियों और 10 टीचरों का एक ग्रुप 32 घण्टे की बस यात्रा कर लखनऊ से यहाँ पंहुचा था. कुछ लड़कियां रास्ते में ही पस्त हो चुकी थी और कुछ यहाँ पहुंचकर. रेंगते हुई कमरों में जाकर जब सब रजाइयों में घुसे, तब जाकर टीचरों ने चैन की सांस ली.
दूसरे दिन काली नदी का पुल पार कर लड़कियों को नेपाल बाज़ार घुमाया गया तब उन्हें सुध आयी कि वे यहाँ पहाड़ चढ़ने आयी हैं.
जल्दी में होने की वजह से हम ज़्यादा देर स्कूल में रुके नहीं. एक वर्कशॉप खुली पाकर गाड़ी के टायरों की हवा चैक करवाने के बाद हम कोहरे को चीरते हुए आगे बढ़ चले. कुछ देर बाद जब सूरज भी कोहरे को चीरता हुआ निकला तब एक दिलचस्प नज़ारे ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा. नदी के उस पार, नेपाल में, ऊंचाई पर एक स्कूल के मैदान में सुबह की प्रार्थना चल रही थी. बच्चे काफी जोश से भरे हुए थे, कुछ तो नारे लगा रहे थे. नदी का वह शोर, पहाड़ों से सूरज की किरणों का छंटना और उत्साहित बच्चे माहौल में एक नयी ऊर्जा भर रहे थे.
तक़रीबन एक घंटे बाद हम जौलजीबी पहुंचे तो थोड़ा रुक कर आगे बढ़ने की सोची. दुकानें भी लगभग अब खुल ही चुकी थी और ताज़े फलों से सजी टोकरियां मन को ललचा रही थी. बड़े शहरों के फलों में वह स्वाद कहाँ जो इन पहाड़ के फलों में हुआ, ये सोच मैंने गाड़ी से उतरकर फल खरीदने का फैसला किया. कुछ फल और कोल्ड ड्रिंक लेकर में वापस लौटी और हम निकल पड़े आगे की यात्रा पर.
जौलजीबी से मुनस्यारी की दूरी 67 किलोमीटर है, लेकिन पहाड़ों में ये दूरी आराम से 4 से 5 घंटे का समय ले लेती है. गोरी गंगा के साथ चलते हम नज़ारों का लुत्फ़ लेते हूए आगे बढ़ते रहे. रास्ते में सड़क निर्माण का काम भी हमारी गति को धीमे करने का काम बखूबी कर रहा था और फिर एक दूसरे को आस-पास की सुंदरता से अवगत कराने में हम भी समय का हिसाब ही नहीं रख पा रहे थे.
पहाड़ों में घास को जाती घस्यारिनें छोटे बच्चों को स्कूल पहुंचने की ड्यूटी भी कर लेती हैं. फ़ुर्सत तो कहा हुई उन्हें, एक काम ख़त्म हुआ नहीं कि दूसरा मुँह बाएं खड़ा रहता है. आज भी रास्ते में ऐसी ही कई कठोर परिश्रमी महिलाओं को देखा जो अपना काम रोज़ की तरह बखूबी निभा रही थी.
आगे बड़े तो एक बेहद शांत जगह मिली, जहां सड़क के एक हिस्से को दूसरे से जोड़ता हुआ पुल हमें पार करना था. ऊपर से आती एक बड़ी गाड़ गोरी गंगा में वहीँ पर मिल रही थी, उस वजह से वो पुल बेहद ज़रूरी था. गाड़ी से उतर कर हम जब पुल पर गए तो पाया नदी के किनारे काफी ख़ाली जगह थी. हम दोनों के दिमाग में एक साथ जैसे एक ही विचार कौंधा हो और चल पड़े हम धीरे-धीरे सड़क के किनारे से नीचे उतरने.
रास्ता वैसे तो आसान ही था पर बीच में ऊपर से आती गाड़ को पार करना थोड़ा मुश्किल हो रहा था. जैसे ही ढ़लान से उतरते वैसे ही पैर पानी में, इसलिए ढ़लान से उतरने के तुरंत बाद एक बेहद ही सजग छलांग ज़रूरी थी. क़ाबिल होने के बाद भी अंत में मेरा एक पैर पत्थर से फिसल कर घुस ही गया गाड़ के ठन्डे पानी में, जल्दी से कूद कर मैंने ने जैसे-तैसे ख़ुद को बचाया. सुज़्ज़ धैर्य के साथ आराम से गाड़ को पार कर आया था और हम दोनों मेरी क़ाबिलयत पे ठहाके लगाते हुए नदी के किनारे तक पहुंचे.
वहां दुनिया अलग ही थी, दूर-दूर तक सिर्फ पानी का शोर और आस-पास उस नदी को घेरे पहाड़. चटक धूप नदी के किनारे पत्थरों को बैठने के लिए एक बेहद ही उपयुक्त जगह बना रही थी. अपने मोजे और जूते धूप में रख कर मैंने कुछ देर पानी को स्पर्श करने की सोची. जब तक मैं पानी में मज़े करती रही, सुज़्ज़ नदी के बीच एक बड़े से पत्थर पर बैठ कर बहती नदी के संगीत में खोया रहा.चुपचाप से मैंने उसकी कुछ तस्वीरें उतारकर उसको वापस लौटने के लिए आवाज़ दी.
मटकोट पहुंच कर चाय की तलब बढ़ गयी थी. एक कोना ढूंढ कर गाड़ी किनारे लगाई और निकल पड़े चाय की दुकान ढूंढने. बहुत ढूढ़ने पर जब एक ठीक-ठाक दुकान मिली तो दाज्यू को समझाया गया कि गडबड (कड़क) चाय कम चीनी और ज़्यादा अदरक डाल के बना दे और दो प्लेट चाउमीन भी. थोड़ी देर बाद चाउमीन की दो प्लेट हमारे टेबल पे थीं, पर मुझे अभी भी चाय की चिंता ज्यादा थी. पहाड़ों में लोग ज़्यादार मीठी चाय पसंद करने वाले हुए और हम तो अब देसी हो गए ठैरे. वहीं से आवाज़ लगा कर मैंने उन्हें दोबारा चेताया कि चीनी कम ही रखें और वो अपनी ही धुन में हाँ बोलते हुए काम में लगे रहे.
थोड़ी देर में बग़ल की टेबल पर बैठे दो लड़कों को शिकार भी मिल गया जिसको देख सुज़्ज़ के मुँह में पानी आ चुका था. अपने मन को धीरज बांधते हुए बोला, अरे आज तो मंडे हुआ, आज कहाँ नॉन-वेज खा सकते है. मैं तो हुई शुद्ध शाकाहारी मज़े से चाउमीन चबाती रही.
चाउमीन ख़त्म कर हमने चाय बाहर धूप में खड़े होकर पीने का फैसला किया. थोड़ी देर में चाय हाज़िर थी, पहला घूंट मारते ही गोल्ज्यू देवता याद आ गए, यहाँ न्याय की दरकार थी. इतना समझाने क बाद भी ‘ढाक के तीन पात.’ मुझसे वह चाय निगली ही नहीं गयी, तो पास में खड़े गुलाब के पौंधे को ही पिला दी. हिसाब करते समय पता चला की दाज्यू दिन में ही चढ़ा के बैठे है.
मटकोट के रास्ते मुनस्यारी जाते समय मुनस्यारी आगे से पहुंचते है और थल की तरफ से जाने में पीछे से. रास्ता इतना खूबसूरत की उसकी सुंदरता की व्याख्या एक कवि भी अधूरी ही कर पाए. आगे से जाने वाला रास्ता कम ही इस्तेमाल होता है इसलिए बीच-बीच में ऐसा लगता है कि आप किसी अलग ही दुनिया में हैं.
मुनस्यारी पहुंचने में अभी 8 किलोमीटर बाकी बचे थे तो सड़क किनारे अकेले खड़ी आमा दिखी, उम्र में होंगी 80 के पार. उन्होंने झोला थामे हमें रुकने का इशारा किया. हमने भी उनको अकेला देख पहले ही रुकने की सोच ली थी. उनके पास पहुंचते ही मैंने खिड़की से बाहर मुंह निकालकर पूचा ‘आमा का जांण छू?’ (आमा कहाँ जाना है?), उनकी शक्ल देखते ही मैं तेजी से दरवाजा खोल गाड़ी से उतरी. वे रुआंसा होकर कांपती आवाज़ में हाथ से इशारा करके बोली कि उन्हें पास के गांव तक जाना है. मैंने बिना देरी किए पीछे का दरवाज़ा खोला और वो जल्दी से गाड़ी में बैठ गयीं.
मुझे और सुज़्ज़ को कुछ समझ ही नहीं आया की आमा क्यों रो रही है. कुछ देर आगे बढ़ने के बाद मैंने सवाल दोहराया कि ‘आमा आपको कहाँ जाना है.’ वो कुछ बड़बड़ायी जो हमारी समझ से बाहर था, हां इतना ज़रूर समझ आया कि वे अपनी बेटी के घर जा रही है.
आगे भी रास्ता बहुत ख़राब था. नयी सड़क बनाने का काम चल ही रहा था जिस वजह से पूरा मार्ग कीचड़ और पत्थरों से भरा था. आगे कुछ मजदूर मिले, हमने आमा से उनसे अपने गांव का पता पूछने को बोला. तब जाकर पता चला कि आमा पास के ही एक तक गांव जाना चाहती थी जो अब नज़र आ रहा था. उन मज़दूरों ने हमें वो गांव दिखा भी दिया था. ख़राब सड़क पर गाड़ी चलाना बहुत ही मुश्किल होता जा रहा था, पर सुज़्ज़ की कुशलता और गाड़ी पर पकड़ इतनी मजबूत थी कि मैं निश्चिंत बैठी रही. कहीं न कहीं ख़राब रास्ते की वजह से शायद सुज़्ज़ खीझ भी चुका था.
आगे पहुंचकर आमा का गांव भी आ गया पर ख़राब रास्ता ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहा था. आमा को आराम से उतार कर उनके गांव के गेट क पास छोड़ने गई तो आमा ने मुझसे पूछ लिया ‘डबल कतु हैईं?’ (कितने रुपये हुए), इस उम्र में भी उनका स्वाभिमान देख कर मन में प्रसन्ता हुई और उन्हें गले लगाने का दिल किया. उनके मासूम सवाल का मुस्कुराते हुए मैंने जवाब दिया ‘ना आमा डबल नी चैन, तुम भलिके जाया’ (नहीं अम्मा पैसे नहीं चाहिए, आप आराम से जाना). उनकी आँखों में एक चमक सी आ गई और वो कुछ आशीष बड़बड़ाते हुए मेरे सर पे हाथ फेरकर आगे बढ़ गई. कीचड़ से बचते बचाते मैं भी गाड़ी में घुसी और सुज़्ज़ को आमा की बात बताई. वह भी आमा की मासूमियत पर फिदा हो गया. ख़राब रोड को कोसते हुए हम लोग सावधानी से आगे बढ़ चले.
हम अब पक्की सड़क पे आ चुके थे और थोड़ी देर में ‘मुनस्यारी में आपका स्वागत है’ पढ़ते ही सारी थकान भूल गए. केएमवीएन गेस्ट हाउस का रास्ता पूछने पर पता चला कि तक़रीबन डेढ़ किलोमीटर आगे है. गेस्ट हाउस पहुंच कर मालूम हुआ कि सारे कमरे पहले से ही बुक हैं और एक कमरा है जो सिर्फ आज के लिए खाली है, कल के लिए वह भी पहले से बुक है.
हम नया साल भीड़-भाड़ से दूर शांति से मनाना चाहते थे, पर पता नहीं था कि हम जैसे बहुत और भी हैं. खैर पहाड़ी आदमी हुआ तो मन से नेक ही, बातों-बातों में एक कर्मचारी ने हमें बग़ल के एक गेस्ट हाउस में पूछने की सलाह दे डाली. ऊपर जाते ही एक गेस्ट हाउस मिला जो एकदम सड़क के किनारे पर था, जब हमने उसकी पीछे की बालकनी से नज़ारा देखा तो तय कर लिया कि नया साल यही मनाएंगे. पंचाचूली की पूरी रेंज यहाँ से बिलकुल साफ़ नज़र आ रही थी.
रेट और न्यू ईयर ईव पर खुली छत में बोनफायर करना तय कर हम गेस्ट हाउस के दूसरे माले के अपने कमरे में चले गऐ. शाम के साढ़े तीन बज रहे थे, ठीक से कुछ न खाने के कारण भूख भी लग ही आयी थी तो हमने चाय के साथ पकौड़ों का आर्डर दे ही डाला. हाथ-मुँह धोकर चाय पीते हुए हम तय करने लगे कि अभी आस-पास कहाँ घूमने जाया जाए.
पर्वतारोहण की शौकीन ज्योति डौरबी मूल रूप से रानीखेत की रहने वाली हैं, हाल-फिलहाल बैंगलुरू में रहती हैं और मन पहाड़ों में बसता है.
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