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ट्रेनिंग प्रोग्राम, नौकुचियाताल और सुसाइड पॉइंट

एक अरसा बीत गया था खुद को खुद से मिले हुए. बार-बार सोचती थी कि आखिर ये दूरी कैसे कम होगी. हालांकि इससे निकलने के लिए तमाम कोशिशें की. लंबी छुट्टी पर जानें की प्लानिंग भी, पर जिंदगी की तमाम झंझावतों के चलते कहीं नहीं जा सके. इसी दौरान एक वर्कशॉप का पता चला तो झट से आवेदन भी कर दिया. तय फिर भी नहीं था कि जाना ही है. लेकिन कई बार सबकुछ तय करना आपके हाथों में नहीं होता. कुछ बातें, कुछ चाहत और कुछ अहसास कुदरत तय करती है. कुछ ऐसा ही हुआ मेरे भी साथ. चार से पांच दिनों के ही अंतराल में यह पता चल गया कि चयन तो हो गया. अब जाने और न जाने की कशमकश थी जिससे जूझ रही थी मैं. बहरहाल घरवालों और मित्र की जिद के चलते मैं चली ही गई फाइनली. जी हां फाइनली. जानतें हैं क्यूं कह रही हूं ऐसा तो फिर आगे पढि़ए मेरा पहला यात्रा वृतांत.

घड़ी में आठ बजे थे. मैं बैग पैक कर रही थी. हां आखिर अब तो जाना ही था. आप यह तो नहीं सोच रहे कि कहां की तैयारी. जी ये सबकुछ था सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी (CCS) की ओर से नैनीताल के नौकुचियाताल में पत्रकारों के लिए आयोजित तीन दिवसीय वर्कशॉप के लिए. CCS दिल्ली आधारित प्रबुद्ध मंडल संस्था है. इसकी शुरुआत 1997 में मिशिगन यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर पार्थ शाह ने की. यह एक स्वायत्त संस्था है जो शिक्षण के क्षेत्र में रिसर्च और शैक्षिक संगठन के रूप काम करती है. इसका उद्देश्य स्वघोषित मिशन के विकल्प, प्रतियोगिता और समुदाय आधारित नीतिगत सुधारों को बढ़ावा देना है.

रात साढ़े दस बजे चारबाग से बस निकलने का वक्त तय था. हमेशा की तरह वक्त पर पहुंचने की पाबंदी चाहती थी मैं, लेकिन हो न सका. तो लेट-लतीफ ही पहुंचे. वहां पहुंचने पर पता चला कि बस मेरा ही इंतजार था. चलिए अब आगे की बात. बैग भी शिफ्ट हो चुका था और मैं भी अपनी सीट पर. अब इंतजार था तो बस जल्द से जल्द नौकुचियाताल पहुंचने का. अजीब है न वक्त तो अपनी गति से ही चलेगा फिर मुझे जानें क्यूं बहुत जल्दी थी.

रात गहराती जा रही थी और नींद आंखों से गुम थी. जेहन में तमाम सारी बातें चल रही थीं. मौसम कैसा होगा, फिजाएं क्या गुनगुनाऐंगी और पक्षियों का कलरव कैसा होगा. तो फिर मौसम ने भी दस्तक दे ही दी. मेरे लिए यह पहली बारिश थी. क्यूंकि बादल तो पहले भी बरसे थे लेकिन हमारे शहर में नहीं. तो फिर पूरी तरह से भीग जाने की चाहत बढ़ती ही जा रही थी. जबकि इसके लिए सेहत भी इजाजत नहीं दे रही थी. हां ये भी एक बात है कि जब किसी चीज को पाने के लिए दिल से चाहो तो पूरी कायनात तुम्हें उससे मिलाने की कोशिश करती है. मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. अब सुबह हो चुकी थी.

घड़ी की सुइयां जो रात में टिक-टिक करके मुझे मधुर संगीत सुना रहीं थीं. वो अब इंतजार की घडि़यां खत्म होने की घंटी बजा रही थी. जैसे ही बस से नीचे उतरे, मौसम मेहरबान हो गया. बारिश में भीगने की हसरत भी पूरी हो गई. इसके बाद शुरू हुआ सीखने का दौर. सेशन चले और गेम एक्टिविटी भी हुई. इसमें तमाम बातें सीखीं. शिक्षा से जुड़े पहलुओं को बेहद करीब से जाना-समझा. कई अनुभव हमारे आस-पास के थे तो कई खुद हमसे जुड़े थे. तीन दिन कैसे बीते इसे शब्दों में बांध पाना कम से कम मेरे लिए तो मुनासिब नहीं. लेकिन यात्रा रोचक थी. यह कहना गलत नहीं होगा. इस यात्रा में यह भी सीखा कि सुकून खुद में ही होता है. कहीं और तलाशने पर यह केवल मृगतृष्णा के जल सरीखा ही है.

प्रकृति की गोद में बसा नौकुचियाताल. बहुत खूबसूरत है. इसमें लोग बोटिंग, क्याकिंग और रिवर क्रासिंग करते हैं. लेकिन मैंने इसे महसूसने की कोशिश की. इसकी लहरों को खुद में समाहित करने की चाहत थी. तो इसी कड़ी में बिना किसी पार्टनर के अकेले ही निकल पड़ी कयाकिंग को और शुरू हुई मेरी और नौकुचियाताल की बात. बताती हूं कैसे. पहले कुछ पल उसके साथ को मैंने पैरों को पानी में डुबोकर महसूसा. फिर मैंने हर लहर को छूकर उसके जीवन संदेश को खुद में संचारित करने की कोशिश की. अब सूरज अपने घर वापस जा रहा था. शाम ढलती जा रही थी और मैं अब किनारे पर थी. हां वाकई अब किनारे पर ही थी. नदी के मुहाने पर भी और खुद को तलाशने में भी. पानी के साथ का सफर अभी और देर तक था. अब मैं कंकड़ फेंककर उसकी हलचल को देखना और समझना चाहती थी. जो मेरे लिए जिंदगी के अलग-अलग मायने बताती हैं. हां एक और बात नौकुचियाताल जिसलिए प्रसिद्ध है वह है उसके नौ कोने. किंवदती यह है कि यदि एक ही बार में इसके नौ कोने को देख लिया जाए तो मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है. हां यह अलग बात है कि ऐसा संभव ही नहीं है, अब एक वजह इसका विस्तृत होना भी हो सकती है.

खैर आइए अब नौकुचियाताल के इर्द-गिर्द बसी खूबसूरत पहाड़ी वादियों की सैर करते हैं. जहां कुछ दोस्तों के साथ ट्रैकिंग का सफर पूरा किया मैंने. हर कदम पर जड़ी-बूटियां और रंग-बिरंगे मुस्कुराते फूल. जिन्हें देखकर मोहब्बत के बरसने का अहसास हो रहा था. यूं लग रहा था मानों प्रकृति मानव जीवन को जानें कितना कुछ दे देना चाहती हो. जबकि मनुष्यों द्वारा उसे तकलीफ देने का तो क्रम ही चल रहा है. हां इस बात का जरा सुकून है कि अभी पहाड़ों पर जीवन है. वे अभी मुस्कुरा रहे हैं. उनपर खिलने वाले फूल अपने रंगों से अहसास बिखेर रहे हैं. जड़ी-बूटिंया अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहीं हैं और संचारित कर रही हैं जीवन. इन सबको बहुत करीब से मैंने भी महसूसा. दिल कर रहा था कि बांहें फैलाकर इन्हें खुद में समेट लूं. ताकि यहां से जाने के बाद भी ये मेरे ही साथ रहें. इसी दौरान पहुंची मैं सुसाइड प्वांइट पर. उस जगह के बारे में हमारे गाइड बृजवासी जी ने बताया. साथ ही यह भी कहा कि अभी तक वहां किसी ने जान तो नहीं दी. फिर कैसा सुसाइड प्वाइंट. वह जगह काफी ऊंचाई पर है. जहां जाते-जाते सिर्फ बचती है तो थकान. ऐसे में कौन जान देना चाहेगा भला. तो होने दो नाम का सुसाइड प्वांइट. अजी नाम में क्या रखा है. बहरहाल, पहाड़ी वादियों और पगडंडी का सफर बेहतरीन था.

मेरे इस सफरनामें को अब फिराक गोरखपुरी के शेर के साथ अलविदा कहती हूं: गरज कि काट दिए जिंदगी के दिन ऐ दोस्तवो तेरी याद में हो या तुझे भुलाने में‘ 

 

प्रियंका पाण्डेय

यह आलेख हमारी पाठिका प्रियंका पाण्डेय ने भेजा है. पेशे से पत्रकार और रेडियो जॉकी प्रियंका लखनऊ में रहती हैं और लखनऊ दूरदर्शन में कम्पीयरिंग का काम करती हैं.

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