नैनीताल के मल्लीताल रिक्शा स्टैंड के सामने जहाँ से फ्लैट्स की तरफ जाने का रास्ता शुरू होता है, एक ज़माने में वहां ऐन कोने में जमनसिंह मूंगफली का ठेला लगाते थे. 60-65 के फेरे में रहे होंगे. लंबा कद, सर पर ठेठ कुमाऊनी टोपी, बंद गले वाला कोट और कड़क फ़ौजी मूंछें. कुमाऊनी में कविता भी किया करते थे.
(Nainital Memoir Ashok Pande)
उन दिनों मेरा अपने से दो पीढ़ी बड़े बुजुर्गों – शेरदा अनपढ़ और अवस्थी मास्साब – के साथ फ्लैट्स में घूमने का नियम बन गया था. हम हर शाम करीब पांच बजे गाड़ी पड़ाव से साथ चलते और पूरे मैदान का चक्कर लगाते. कोई मैच चल रहा होता तो कुछ देर उसे भी देखते. अपने समय में बढिया हॉकी और क्रिकेट खेलने वाले अवस्थी मास्साब को खेलों के बारे में अच्छा ज्ञान था. कभी-कभार वे चल रहे खेल पर कोई चुटीली टिप्पणी करते तो शेरदा कहते, “भौत्तै बड़ी मास्सैब!” यानी भौत ही बढ़िया, मास्साब! “भौत्तै बड़ी” शेरदा का तकिया कलाम हुआ करता था. फिर हम बातें करते रिक्शा स्टैंड की तरफ निकलते.
जमनसिंह अर्थात जमनदा हमें दूर से ताड़ लेते थे और हमारे नज़दीक पहुँचने तक कागज़ की तीन छोटी-छोटी शंक्वाकार पुड़िया बनाकर उनमें मूंगफली भर चुके होते थे. इन मूंगफलियों के हमसे पैसे नहीं लिए जाते थे. जमनदा हाथ जोड़कर हाल-चाल पूछते और वार्तालाप के दौरान कोई उचित मौक़ा निकालकर कोट की जेब से अपनी ताज़ा कविता निकाल लेते. हम पीछे झील किनारे लगी पत्थर की रेलिंग पर बैठ जाते और मूंगफली टूंगते जमनदा की कविता सुनते. अमूमन ये कवितायेँ हल्की-फुल्की तुकबन्दियाँ हुआ करतीं. मास्साब मंद-मंद मुस्कराते रहते. शेरदा कहते, “भौत्तै बड़ी जमनसिंगौ, भौत्तै बड़ी!”
बड़ा बाज़ार में सभी के साथ बेहद स्नेहिल व्यवहार करने वाले दो बुज़ुर्ग टंडन बन्धु एक भोजनालय चलाया करते थे. ये दोनों भी जमनसिंह की काट वाली टोपी और कोट पहना करते. वे इस कदर मीठे थे कि उन्हें देखकर हमेशा अपने घर के सबसे भले बुजुर्गों की याद आ जाती थी. उनके यहाँ करारे परांठे बनते थे जिन्हें दोनों भाई आपको यूं परोसा करते मानो आप उनके घर आये हुए बच्चे हों. एक शंकर भोजनालय भी था जहां शंकर की अम्मा तवे पर पतले-पतले परांठे सेंका करती. करौंदे के अचार के साथ उन्हें परोसा जाता. चाय अलग से मिलती. ठीक-ठीक कह पाना मुश्किल है किसका परांठा बेहतर होता था.
नैनीताल के पास उन दिनों करीब आधा दर्ज़न शानदार पागलों की एक टीम थी. ये सभी समूचे नैनीताल के अपने थे और हर कोई उनकी सहायता के लिए हमेशा तत्पर रहता. पूरन नाम का एक बुढ़ाता हुआ आदमी इस पागल टीम का अघोषित कप्तान था.
(Nainital Memoir Ashok Pande)
बुज़ुर्ग टंडन बन्धु पूरन को हर रोज़ तीन समय का खाना तो खिलाते ही थे, उसे हर सुबह पहनने को कुछ न कुछ ज़रूर देते थे. पूरन बाकायदा पागल था और उसे एक ऐसी आदत थी जो दुनिया के सबसे पहुंचे हुए तपस्वी सौ साल की तपस्या के बाद भी हासिल नहीं कर पाते होंगे. सर्दी-गर्मी-बरसात का कैसा भी मौसम हो, बर्फ पड़ी हो चाहे मूसलाधार मेंह बरस रहा हो, दिन के किसी उचित लग्न में पूरन अपने सारे वस्त्र उतार कर उनमें आग लगा देता. उस आग को कुछ देर तापने के बाद देह को महज़ दिशाओं से ढांपे हुए उसी अवस्था में बाकी का बचा हुआ दिन मल्लीताल की बाज़ारों के भ्रमण में बिताया करता. कभी मूड हुआ तो किसी से बीड़ी मांग ली, या हद से हद एक रुपया. हम दोस्त लोग उसे पूरन भाई कहते थे. टंडन बन्धुओं को हम जब भी देखते, श्रद्धा से माथा झुक जाता कि कैसे महात्मा लोग हैं जो बरसों से पूरन का ख़याल रखते आ रहे हैं.
किस्सों-कथाओं से बना यह एक ऐसा नैनीताल था जहां कदम-कदम पर इतने बड़े दिल वाले जानदार बूढ़े भी बसते थे. कुछ दिन पहले बड़ा बाजार में था तो टंडन बन्धुओं के भोजनालय गया. आगे की संततियों ने उसके दो हिस्से कर दिए हैं. काउन्टर के पीछे दोनों की पिठ्या लगी ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर टंगी है. मैंने हाथ जोड़कर उनमें से एक के बेटे से पूछा, “कब?”
“दो-तीन साल हुए” उसने बताया.
कलेजा गले में आकर फंस सा गया. बाहर आकर कदम रिक्शा स्टैंड की तरफ बढ़ा रहा था. डबडबा आईं अपनी आँखों को छिपाने का कोई मतलब नहीं था.
जमनसिंह वाला कोना दिखाई देने लगा था. वहां फोल्डिंग चारपाइयों वाली पूरी बाजार सजी थी – चाइनीज़ खिलौने, मोबाइल कवर, भुट्टे, दस्ताने-मोज़े और जाने क्या-क्या. दर्ज़न भर नाव वालों ने टूरिस्ट समझकर मेरे साथ “बोटिंग, बोटिंग?” किया.
ठंड के मौसम में हाथ में सॉफ्टी थामे एक पर्यटक युवती भुट्टे वाले से पूछ रही है, “देखने को और क्या-क्या है तुम्हारे नैनीताल में? हम तो एक ही दिन में बोर हो गए यहाँ.”
(Nainital Memoir Ashok Pande)
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