पहाड़ और मेरा जीवन – 34
(पिछली कड़ी:वो दिनभर किराए की साइकिल चलाना और बतौर कप्तान वो फुटबॉल मैच में मेरा अविश्वसनीय गोल)
आजकल के माता-पिता अपने बच्चों को कलेजे से लगाकर रखते हैं. उन्हें कुछ भी अकेले नहीं करने देते. अकेले यात्राओं पर नहीं भेजते. घर से थोड़ी दूरी भी अकेले नहीं निकलने देते. इस लिहाज से पहाड़ों से दूर राजस्थान में गुजरा मेरा एक साल, जिस दौरान मैंने आठवीं कक्षा पास की, बहुत अहम साबित हुआ. क्योंकि यहां लगभग साल भर मैं अकेला ही था. बड़ा भाई कुछ ही दिनों के लिए यहां आया था और मेरी छोटी बहन बहुत ज्यादा छोटी थी. इसी साल मैंने परिवार की जद से बाहर निकलकर अपनी खुद की पसंद के हिसाब से जिंदगी जीना शुरू किया. अकेले और आजादी के साथ ऐसे ही जीवन ने मुझ भीतर से बहुत मजबूत बनाया. इतना कि मैं कभी किसी भी, कैसी भी विपरीत स्थिति में घबराया नहीं. (My Childhood by Sundar Chand Thakur)
देवली में वह सीआईएसएफ का ट्रेनिंग सेंटर था, जहां हमारा परिवार रह था. सीआईएसएफ के नए जवानों को यहां बेसिक ट्रेनिंग दी जाती थी और वे यहीं से पासआऊट भी होते थे. मेरी खेलों में गहरी रुचि थी. मैं अक्सर सीआईएसएफ के जवानों को खेलते हुए देखता था. मैदान में ऑब्सटेकल कोर्स बना हुआ था, जिसे कभी भविष्य में फौज की ट्रेनिंग के दौरान मैंने भी कई बार किया, जिस पर सुबह-शाम जवान ट्रेनिंग करते दिख जाते थे. उन जवानों को इस तरह ऑब्सटेकल्स पार करते देखकर मेरे मन में भी इच्छा जागती थी कि मैं भी कर के देखूं.
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मैं कई बार सुबह के समय भी ट्रेनिंग ग्राउंड चला जाता. यहां सफेद नेकर और लाल रंग की बॉर्डर वाली सैंडो बनियान में पीटी के उस्ताद मिलते, जो जवानों को शारीरिक चुस्ती का प्रशिक्षण देते थे. गठीले शरीर वाले ये सभी उस्ताद देखने में ही मुझे बहुत आकर्षक लगते थे. हरेक किसी न किसी खास गतिविधि का उस्ताद था. ऐसे ही एक जिमनास्ट के उस्ताद सुरेंद्रन से मेरी दोस्ती हो गई. केरल के रहने वाले सुरेंद्रन का ओहदा सब इंस्पेक्टर था. लंबा कद था. छरहरा शरीर. भुजाएं बलिष्ठ दिखती थीं. उनसे मेरी खास दोस्ती हो गई. इतनी खास कि वे जब कभी कैंटीन में मिल जाते, तो मुझे समोसा और सॉफ्ट ड्रिंक तो दिला ही देते. उन्होंने शायद मैदान के बाहर से रोज कौतुहल भरी मेरी आंखों को देख समझ लिया था कि मैं खेलों में बहुत रुचि रखता हूं. और जल्दी ही उन्हें मेरी प्रतिभा देखने का मौका भी मिला.
असल में वे हर संडे क्रिकेट मैच खेलते थे. सीआईएसफ की बाकायदा एक टीम बनी हुई थी, जो संडे और छुट्टी के दिन प्रैक्टिस करती. सुरेंद्रन ने मुझे एक संडे क्रिकेट मैच खेलने आने का न्योता दिया. मेरे लिए यह बहुत उत्साह बढ़ाने वाली बात थी क्योंकि मैंने इन लोगों को बाकायदा पैड पहनकर और नई वाली लैदर बॉल से क्रिकेट खेलते देखा था, जहां विकेटकीपर ने भी पैड और गलव्स पहने होते थे. इससे भी बड़ी बात यह थी कि वे मैट बिछाकर खेलते थे. हरे रंग का पिच की साइज का मैट विकेट से विकेट तक बिछा होता था. मेरे सर्कल में ऐसी लग्जरी सबको नहीं मिलती थी उन दिनों. हालांकि क्रिकेट हम खूब खेलते थे. वहां क्रिकेट के कई टूर्नामेंट होते थे, जिनमें थोड़े पैसे डालकर अपनी-अपनी टीमें उतारी जा सकती थीं. मेरे पास ऐसे टूर्नामेंटों के दर्जनों सर्टिफिकेट्स हैं, जिनमें मैंने कभी बेस्ट बोलर, बेस्ट बैट्समैन और बेस्ट ऑलराउंडर के इनाम जीते थे.
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जिन्होंने मैट पर खेला है, वे जानते होंगे कि वहां बॉल तेज रफ्तार से आती है और उसमें उछाल भी अच्छी रहती है. सीआईएसफ के बोलर बहुत तेज थे. मैं बैटिंग करने गया, तो शुरू में कुछ बॉल तो सांय-सांय करती आगे-पीछे से निकल गई. बॉल इतनी तेजी से निकल रही थी कि मुझमें सामने शॉट खेलने का साहस ही नहीं बन पा रहा था और तब एक बॉल को आखिरी क्षण तक देखते हुए मैंने लेट कट खेला, जिस पर मुझे चौका मिला. पैर पर आने वाली बॉल मैं फ्लिक करता रहा. इस तरह लगभग सारी बॉल मैंने विकेट के पीछे खेलते हुए 26 रन बनाए. सुरेंद्रन मेरी बैटिंग से बहुत खुश हुए. मैच के बाद वे मुझे कैंटीन ले गए और वहां मुझे उन्होंने गर्म-गर्म जलेबियां खिलाई.
कुछ ही दिनों में वे मुझे बैडमिंटन खेलाने भी ले जाने लगे. वह आजकल के इनडोर कोर्ट जैसा तो न था, पर वहां फर्श पर पेंट से कोर्ट बनाया हुआ था, नेट लगा हुआ था और चारों ओर से ऊंची-ऊंची दीवारें थीं, बस छत नहीं थी. दीवारें इतनी ऊंची थीं कि अगर हवा चल भी रही होती थी, तो उसका असर भीतर नहीं पहुंच पाता था. यहां हम बैडमिंटन खेलते. सुरेंद्रन ने मुझे हार्थो के ऊपर खड़ा होना भी सिखाया, हालांकि इसके लिए मैं दीवार का सहारा लेता था. बड़ा भाई छुट्टियों में कुछ दिनों के लिए जब यहां आया, तो वह भी मेरे साथ बैडमिंटन खेलने जाने लगा. मेरी तुलना में वह कहीं बेहतर तरीके से हाथों पर खड़े होने का कारनामा दिखा लिया करता था. हालांकि दीवार का सहारा उसे भी लेना पड़ता था.
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कैंटीन के ठीक सामने यहां बच्चों के लिए कई झूले बने हुए थे, जिनमें एक लोहे की संरचना थी, जिसमें आप लटककर एक सिरे से दूसरे सिरे तक डंडे पकड़ते हुए जाते हैं. मैं उसमें बीच वाले सबसे ऊंचे डंडे को पकड़कर हवा में पेंग बढ़ाता था और जितनी दूर संभव हो कूद मार देता था. मेरे हाथों में छाले पड़ जाते थे, पर पता नहीं क्या सनक थी कि मैं लगभग रोज ही इस झूले में लटकने पहुंच जाता और हवा में झूलते हुए लंबी-लंबी छलांग मारकर खुद ही खुश होता.
इससे और कोई फायदा हुआ हो या नहीं, पर मुझे लगता है कि आठवीं से नवीं में आते हुए मेरे थोड़े मोटे व ठिगने स्वरूप से पतले व छरहरे रूप में कायांतरण होने में इस झूले ने अहम भूमिका निभाई. ऐसा मैं इसलिए भी कह रहा हूं क्योंकि आज भी लोगों को बोलते सुनता हूं कि लंबाई बढ़ानी है, तो रोज कुछ देर तक लटकना शुरू करो. लटकने मात्र से ही लंबाई बढ़ जाती है, मैं तो लटककर पेंग मारते हुए झूला झूलता था.
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कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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