पहाड़ और मेरा जीवन – 32
पिथौरागढ़ में रहते हुए मैं बचपन और कैशोर्य का ऐसा बेहोशी भरा जीवन जी रहा था कि मेरे पास मेरे वर्तमान के अलावा और कुछ न था. मैं भविष्य के बारे में एक रत्ती नहीं सोचता था. अतीत के नाम पर अगर मुझे किसी की याद आती थी, तो वह असमय मृत्यु का ग्रास बना मेरा दो साल का छोटा भाई भीम था, जिसके बारे में मैं पहले बता चुका हूं कि कैसे जम्मू में मैं उसके साथ खेला करता था. मुझे घर के बारे में मालूम नहीं चला कि वे हमारे गरीबी के दिन थे क्योंकि खाने-पीने को मुझे अच्छा मिल ही रहा था और जो चीजें पैसों से मिलती थी, उन दिनों मुझे उनकी ज्यादा जरूरत नहीं रहती थी.
वैसे जीवन में जो चीजें कीमती होती हैं, वे पैसों से नहीं मिलती. प्यार और दोस्ती को ही ले लीजिए. मेरे पास दोस्तों की कमी नहीं थी और प्यार भी मैं जबरन मन की कल्पना से भरपूर ले रहा था. लेकिन उस बेहोशी भरे जीवन के बीच भी कुछ घटनाएं मुझे याद हैं, जिन्होंने मुझे यह अहसास करवाया कि अच्छे दिन आने वाले हैं.
उस उम्र में माता-पिता की चुनौतियां कम समझ में आती थीं. पिताजी ने क्यों नौकरी छोड़ी, वे दो साल क्यों बेरोजगार रहे और फिर उन्होंने क्यों फिर से युनिफॉर्म वाली नौकरी शुरू की, यह आज तो समझ में आता है, पर तब मुझे इनके बारे में कुछ पता न था. मुझे तो यह भी पता नहीं चला कि कब पिताजी दूसरों के रेडियों ठीक करने में अपनी जेब से पैसे खर्च करते और इस पर मां से झगड़ते अचानक एक दिन घर से गायब ही हो गए. कई महीनों तक उनका कुछ पता नहीं था, पर घर मां की मेहनत से दुरुस्त चल रहा था. उसके बाद एक दिन डाकिया एक अंतर्देशीय पत्र थमा गया. पत्र पिताजी का ही था. उसमें उन्होंने बताया था कि कैसे उन्हें केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल में नौकरी मिल गई थी और वह राजस्थान में थे. जल्दी ही वे हमें मनी ऑर्डर भेजने वाले थे. मुझे पत्र पढ़कर एक अनजानी खुशी महसूस हुई थी, शायद इसलिए कि पत्र पढ़कर मेरे अचेतन तक भविष्य के थोड़ा बेहतर होने के संकेत पहुंच रहे थे. मैंने मां को जोर-जोर से पढ़कर पिताजी का खत सुनाया और उसकी आंख से आंसू टपकते देखा. कहीं न कहीं उसके अचेतन में भी वैसे ही संकेत पहुंच रहे होंगे. पिताजी के इस पत्र के आने के बाद जीवन में तेजी से बदलाव हुए. परिवार में तुरंत फैसला लिया गया कि पिताजी को राजस्थान में घर मिल रहा था, सो यहां से मां छोटी बहन और मैं तुरंत वहां चले जाएं. भाई की क्योंकि बारहवीं की बोर्ड परीक्षाएं थीं, इसलिए उसे यहीं रुकना था.
सातवीं का परीक्षाफल आने के कुछ ही दिनों बाद मैं मां और बहन के साथ राजस्थान में टोंक जिले के देवली नामक स्थान पहुंचा, जहां केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल का ट्रेनिंग सेंटर है. यह नई जगह थी इसलिए शुरू में मेरे ज्यादा दोस्त नहीं बन पाए. मगर मैंने जल्दी ही इस बात का जुगाड़ कर लिया कि अकेले रहते हुए भी मेरे जीवन में भरपूर रोमांच बना रहे. इसके लिए मैंने वहां एक बहुत ही जबरदस्त गुलेल बनाई. गुलेल का शौक मुझे बहुत था और पिथौरागढ़ में भी मैंने कई बार गुलेल बनाई थी, पर वहां दूसरे बच्चों के साथ खेलने से फुर्सत नहीं मिली कभी. अब यहां दोस्त नहीं थे, तो गुलेल का शौक पूरा किया. मैंने बहुत मन से साइकल की ट्यूब से काटे गए रबड़ से एक गुलेल बनाई. बहुत ही तगड़ी गुलेल. इतनी तगड़ी कि अगर उसे आसमान की ओर कर कोई पत्थर छोड़ता, तो वह अदृश्य हो जाने तक की ऊंचाई तक पहुंचकर लौटता.
गुलेल बनाने के बाद से मेरे जीवन से बोरियत गायब हो गई क्योंकि दोपहर ढलने से पहले जबकि बोरियत सिर उठाना शुरू करती है, मैं गुलेल लेकर बाहर निकल जाता था. सामान्यत: मां मुझे चार बजे से पहले घर से बाहर नहीं निकलने देती थी क्योंकि बाहर बहुत ज्यादा गर्मी होती थी. लेकिन चार बजते ही मैं बाहर निकल जाता था. गुलेल के लायक पत्थर ढूंढने में मुझे कुछ समय लगाना पड़ता था क्योंकि मैं बहुत इत्मीनान से गुलेल से निशाना आजमाने का खेल खेलना चाहता था, इसीलिए पहले मैं अपनी दोनों जेबों को इस्तेमाल किए जाने लायक पत्थरों से भर लेता. मेरे निशाना लगाने के लिए घर के बाहर बिजली के तारों, नीम और पीपल के बड़े-बड़े पेड़ों की शाखों पर बैठते कबूतर व अन्य चिड़ियाएं रहतीं. लेकिन बावजूद इसके कि गुलले का पत्थर अंतरिक्ष की ओर छोड़ने पर अदृश्य होने तक की ऊंचाई पा लेता था, मैं किसी चिड़िया पर ठीक-ठीक निशाना नहीं लगा सका.
एक ऐसी ही दोपहर मैं चिड़ियाओं पर निशाना आजमाते हुए घर से बहुत दूर निकल गया. एक खुली जगह मैंने अचानक आसमान में तोतों की ट्वां-ट्वां सुनी. सिर उठाकर देखा तो तोतों का एक बहुत बड़ा दल ठीक मेरे सिर के ऊपर से उड़ता हुआ निकल गया. लेकिन वह ज्यादा दूर नहीं गया. मेरे सामने करीब पचास मीटर दूर एक बहुत बड़ा पीपल का पेड़ था, पूरा दल पेड़ पर उतर गया. अब मेरे सामने निशाना आजमाने का अच्छा मौका था. पेड़ के थोड़ा और नजदीक जाकर मैंने गुलेल पर एक गोल पत्थर चढ़ाया और नाक तक रबड़ खींच पेड़ की ओर चला दिया. पहली बार मेरा निशाना सही लगा क्योंकि मैंने देखा कि पत्थर लगते ही एक तोता नीचे गिरा. मैं उत्सुकता और उत्तेजना से भरा दौड़ता हुआ पेड़ के नीचे पहुंचा. वहां तोता बहुत तेज सांस ले रहा था. मैंने उसे थोड़ा सहमते हुए उठा लिया. मैं उसके कोमल पंखों पर अपने हाथ फेरना चाहता था. हाथ में उठाते ही मैंने महसूस किया कि उसका शरीर बहुत गर्म था. मैंने उसकी सुंदर आंखों की ओर देखा. लगा कि जैसे वह मुझे ही देख रही थीं. मैं तोते के सिर से पूंछ तक हाथ फेर रहा था, सहला रहा था पर मैंने अनुभव किया कि कुछ ही क्षणों में उसका शरीर स्थिर हो गया था. जल्दी ही उसकी आंखें भी बंद हो गईं. शरीर ठंडा पड़ गया. अब वह पूरी तरह निस्पंद होकर मेरे हाथों में पड़ा हुआ था.
मुझे समझने में देर नहीं लगी कि तोते की मृत्यु हो गई है. और इस बात का एहसास होते ही एक डर मेरे दिल में उतरने लगा. मुझसे बहुत बड़ा पाप हो गया! मुझसे बहुत बड़ा पाप हो गया! मैं खुद से ही संवाद कर रहा था. मैं अपने गुनाह की गंभीरता समझ रहा था और यह समझ मेरे डर को और बढ़ा रही थी. मैं जान रहा था कि भगवान मेरे इतने बड़े पाप के लिए ऐसे ही माफ करने वाले नहीं थे. मेरा दिमाग बहुत तेजी से काम कर रहा था. एक ओर भगवान के गुस्से का डर और दूसरी ओर मेरे दिल में तोते के लिए लगातार बढ़ता हुआ वास्तविक अफसोस. कुछ देर किंकर्तव्यविमूढ़ खड़े रहने के बाद मैंने पेड़ के तने के पास ही एक जगह से मिट्टी खोदी और बहुत मन से तोते की आत्मा को शांति देने की प्रार्थना करते हुए उसे वहीं दफ्न कर दिया. मैंने भगवान से माफी मांगते हुए वादा किया कि मैं ऐसा काम जीवन में कभी दोबारा नहीं करूंगा और उसे भरोसा देने के लिए अपनी गुलेल भी तोते के साथ ही रख दी. जेबें उलटकर मैंने सारे पत्थर वहीं जमीन पर बिखेर दिए. मेरे लिए तब मेरे मन में चल रही उथलपुथल का वर्णन करना आसान नहीं क्योंकि बहुत सारे भाव बहुत तेजी से उठ रहे थे, डूब रहे थे. पर मैं यह कह सकता हूं कि उस हादसे ने मुझे बहुत भीतर तक हिला दिया. मैं जानता नहीं था कि गुलेल का एक सही निशाना ऐसा गुल खिला देगा. पाप के इस बोध से निकलने में मुझे बहुत दिन लगे, लेकिन सच कहूं तो मैं उससे पूरी तरह तो कभी नहीं उबर पाया. आज तक भी नहीं. इसलिए तो पूरी कहानी लिखी कि लिखकर ही मन का बोझ कुछ हल्का हो.
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कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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