पहाड़ और मेरा जीवन – 26
ठूलीगाड़ में गुजारे दिनों की बात चल रही है, तो किस्से पर किस्से याद आ रहे हैं. पिछले सप्ताह आपने बूबू के रेडियो के बारे में पढ़ा. इस बार भी मैं बूबू से जुड़ी हुई कुछ और बातें आपको बताऊंगा. यह तो मैं बता ही चुका हूं कि बूबू मौसम के हिसाब से सब्जियों की खेती करते थे. सब्जियां घर के इस्तेमाल के लिए ही होतीं, पर बाद में बंपर फसल होने पर वे उन्हें बेचने भी लगे. जाहिर है वे बाजार में मिलने वाली सब्जियों की तुलना में बहुत सस्ते दर पर बेचते थे. उन दिनों तो मैं बच्चा था. हेल्दी भोजन के महत्य को समझता नहीं था. पर अब जबकि मुंबई जैसे शहर में रह रहा हूं जहां न सिर्फ सब्जियों को कैमिकल से चमकाने या गटर के पानी से उनकी सिंचाई, धुलाई आदि की शिकायतें मिलती रहती हैं, उनके दाम भी हमेशा आसमान में अटके रहते हैं, मैं समझ सकता हूं कि लोग क्यों बूबू के सामने कतार लगाए रहते थे. ऐसे भी लोग थे, जिनकी पिथौरागढ़ बाजार में अपनी दुकानें थीं. वे बूबू से थोक के भाव सब्जी खरीद बाजार में अपने भाव बेचकर भी बहुत मुनाफा कमा लेते थे. हाल यह था कि मैं कभी भी खेत में जाकर मूली, गाजर उखाड़ लाता और नहर के पानी में धो उन्हें कच्चा ही खा जाता. बूबू के टमाटर सेब के साइज के होते थे, झख लाल. उन्हें देखकर ही मुंह में पानी आ जाता था. मैं जितनी बार मुंह में पानी आता, उतनी बार खेत में उतरकर अपने मनपसंद रूप रंग का टमाटर तोड़कर खा जाता. पहाड़ी ककड़ी तो आप लोगों ने देखी ही होगी. वह जब पक जाती है, तो रायता बनाने के काम आती है. उस ककड़ी की बेलें जहां तहां पेड़ों पर चढ़ी होती थीं. जब मन किया तब हाथ बढ़ाकर ककड़ी तोड़ ली जाती. मैं तो उसे धोए बगैर ही खा जाता था. बस उसे पैंट या नेकर के कपड़े से एक बार पोंछ लेता था. मुझे आलुओं की खुदाई याद है कि कैसे मिट्टी से लिथड़े हुए आलुओं को नहर के पानी में धो-धोकर बोरे में भरा जाता. भिंडी और हरी मिर्च की भी बहुत ही उम्दा फसल होती थी. हरी सब्जियों के तो कहने ही क्या. मुझे याद नहीं पड़ता कि ठूलीगाड़ रहते हुए मैंने कभी बिना हरी सब्जी के भात-दाल खाया हो. हरी सब्जियों में मुझे राई की सब्जी खास पसंद थी. उसे बनाने में देर भी नहीं लगती थी. जरा से तेल में दो लाल मिर्च तलकर ऊपर से कटी हुई राई की पत्तियां डाल दो. ऊपर से जरा-सा नमक छिड़क दो. दस मिनट में सब्जी तैयार. बूबू को कद्दू से भी बहुत प्यार था. पहाड़ी ककड़ियों की तरह कद्दू की बेल भी जहां-तहां पेड़ों पर चढ़ी होती थी. कद्दू की सब्जी तो खाई ही जाती थी, उन्हें धूप में सुखाया भी जाता था और बाद में उसे उबालकर खाया जाता था. खाली समय में कद्दू के बीज भी बहुत खाए जाते थे. उन दिनों इन बीजों की कोई अहमियत नहीं थे. हम फेंक भी देते थे. आज लोग ऑरगेनिक फूड की दुकान से कद्दू के बीज खरीदकर खाते हैं. सौ ग्राम की जरा-सी पुड़िया भी डेढ़ सौ रुपये से कम की नहीं मिलती. कद्दू की तरह ही बूबू लौकी भी सुखाया करते थे. बूबू को लहसुन भी बहुत पसंद था. वे कच्चा लहसुन चबाया भी करते थे. आजकल मैं भी सुबह उठने के बाद खाली पेट लहसुन चबाकर खा जाता हूं. कहते हैं कि यह खून को पतला बनाता है और दिल को तंदुरुस्त रखता है.
बूबू की सब्जियां खरीदने की मारामारी हमेशा लगी ही रहती थी. वह ऐसे ही दिनों की बात थी जब बूबू की खूब आमदनी हो रही थी. इतने कि बूबू से पैसों का हिसाब रखते न बन रहा था जब एक दिन मैंने उनके पोते हरीश यानी हरसू उर्फ हैरी को बोल उनकी अलमारी से पांच रुपया का एक सिक्का निकलवा लिया. इस पांच रुपये की मैंने रेवड़ी और मूंगफली खरीदी. थोड़ी हरीश को दी और बाकी मैंने ही खाई. जो बच गई उसे ऊपर नहर के साथ लगी दीवार से एक पत्थर बाहर निकालकर अंदर छिपा दिया. बाहर से फिर पत्थर लगा दिया गया. हरसू तब सात एक साल का रहा होगा. मैंने सोचा तो यह था कि बूबू के डिब्बे में बेतरतीब पैसे पड़े रहते हैं, उन्हें हवा तक न लगेगी, लेकिन अगले दिन मैंने सुना कि ऊपर घर में कुहराम मचा हुआ था. बूबू अपनी ही अदा में दरवाजे पर खड़े हो चिल्ला रहे थे – ‘लाटसाहब के बच्चे बना दिए हैं. चोरी भी करने लगे हैं. अब तो घर में पैसे भी नहीं रख सकते. क्या सिखा रहे हैं बच्चों को. क्या जमाना आ गया है. घर के ही लोग चोर बन गए हैं.‘ बूबू की आवाज सुनते ही उनके बेटे यानी हमारी मकान मालिक यानी हरसू के पिताजी के कान खड़े हो जाते थे और तब वे कान लगाकर सुनते थे कि वे कह क्या रहे हैं. हरसू के पिताजी अपने पिताजी की हर बात को बहुत ध्यान से इसलिए भी सुनते थे क्योंकि वह मन ही मन जानते थे कि उनके परिवार का ठूलीगाड़ में अस्तित्व बूबू के कारण ही था. इतने भरे-पूरे परिवार की परवरिश, उनके खाने-पीने, राशन-पानी आदि सबकुछ बूबू के कारण था. मैं अगले दिन सुबह उठकर दीवार में पत्थर के पीछे रखी बची हुई रेवड़ियों और मूंगफलियों को एक आखिरी भरपूर आनंद लेते हुए खत्म कर देना चाहता था कि मेरे पैर मकान मालिक के घर से रोने की आवाज सुनकर रुक गए. वह हरसू की रोने की आवाज थी. वह डाड़ मारकर रोता था. डाड़ मारने से होता यह था कि मारने वाला घबराकर कम मारता था क्योंकि उसे लगता था कि डाड़ की तीव्रता उसके द्वारा किए जा रहे प्रहारों की तीव्रता के समानुपाती है. लेकिन आज हरसू की डाड़ का मारने वाले पर कोई फर्क नहीं पड़ता जान पड़ रहा था. उसकी हर नई डाड़ पिछली डाड़ से तीव्र होती. अब मुझे डाड़ के साथ आवाज भी मारने वाले की आवाज भी सुनाई पड़ी – बता, बूबू की अलमारी से पैसे निकाले तूने. हें (एक थप्पड़), क्यों निकाले, हेंss! (और जोर का थप्पड़), निकालेगा अब, हेंss!(एक और थप्पड़) मैं आवाज सुनकर अंदाज लगा रहा था कि हरसू पर थप्पड़ों की बरसात हो रही है और जिस तीव्रता से उसकी डाड़ निकल रही थी, मुझे लग रहा था कि वह कभी भी बीच में यह कहकर अपने पिता को मारना बंद करने को कह सकता था कि उसने खुद वो पैसे नहीं निकाले, न ही खर्च किए, सुंदर दा ने ही उसे पैसे निकालने को कहा और सुंदर दा ने ही पैसे खर्च किए. मेरी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की नीचे थी. भीतर मुजरिम को थर्ड डिग्री की यातना दी जा रही थी और बाहर मेरी आंस अटकी हुई थी कि बच्चा ही तो है, जरा सी ऊची आवाज में ही टूट जाए, यहां तो तड़ातड़ थप्पड़ बरस रहे थे. मैं बहुत देर तक दम साधे खड़ा रहा बाहर. हरसू के पिताजी के बाद मां, आमां, दीदी सबने अपने-अपने तरीके से उसे डांट लगाई, गुस्से के अतिरेक में थप्पड़ भी मारे, पर हरसू ने कमाल की ताकत दिखाई. उसने मेरा नाम नहीं लिया, तो नहीं ही लिया. मैं आज भी उसकी इस खूबी का कायल हूं.
मैंने बाकायदा पथ्थर हटाकर अपनी रेवड़ी-मूंगफली बाहर निकाली. हरसू पर मुझे इतना फख्र हो रहा था कि उस बची हुई रेवड़ी-मूंगफली, जिसे मैं झटपट खा जाना चाहता था, में से मैंने थोड़ा हिस्सा हरसू के लिए बचा लिया. अब इतना तो उसका बनता ही था. वैसे बड़ होने के बाद मैंने यह बात सबको बता दी थी कि बूबू के डिब्बे में से पांच रुपये का चोर मैं था, न कि हरसू. मैंने बात बताई क्योंकि मैं जानता था कि अब इस बात पर मुझे कोई पीटने वाला न था. वैसे हरसू के साथ कभी बैठना होता है, तो इस किस्से को याद कर हम दोनों खूब हंसते हैं.
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कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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Bahut Sundar warnan.....sab aankho ke samne chalta hua said laga