टिहरी रियासत के कारकुनों ने 11 जनवरी 1948 को कीर्तिनगर गढ़वाल में नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी की हत्या कर दी. कामरेड नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी की अर्थियों को ले कर जो लोग 12 जनवरी को कीर्तिनगर से चले. उनके हाथों में तिरंगा था और कन्धों में दो अर्थियां. मृतकों के शरीर पर कफन नहीं डाला गया था बल्कि उनकी कमीजें खोल दी गईं थीं ताकि जनता अपने शहीदों के सीने पर लगी गोलियों के घाव देख सके. रास्ते में पड़ने वाले पुलिस थाने-चौकियां या तो वीरान थीं या आत्मसमर्पण के लिए तैयार. ये शवयात्रा तीन दिनों तक चलने के बाद रियासत की राजधानी टिहरी पंहुची. शहीदों की चिताएं ठण्डी होने से पहले राजा की फौज ने आत्मसमर्पण कर दिया और इसी के साथ रियासत टिहरी का भारत संघ में विलय का रास्ता साफ हो गया. ऐसा जनवरी 1948 में हुआ. बापू की हत्या से कुछ दिन पहले. हर दौर के अपने नायक होते हैं और खलनायक भी, लेकिन यह किस्सा इतना पुराना भी नहीं है कि इससे सबक न लिया जा सके.
(Mukhjatra Book Review)
यह प्रसंग है नागेंद्र सकलानी एवं मोलू भरदारी की शव यात्रा और रियासत टिहरी के भारत संघ में विलय का जिसे सुनील कैंथोला की धारदार कलम ने “मुखजात्रा” नाटक के रूप में प्रस्तुत किया है. शहादत की इस कहानी को उन्होंने स्नेहलता रेड्डी को समर्पित किया है. स्नेह 1976 में आपातकाल में गिरफ्तार हुईं. जेल में निर्मम शारीरिक यातनाओं की शिकार हुईं. एक साल बाद पेरोल पर रिहा होने के पांच दिन बाद ही मात्र पेंतालिस साल की आयु में उनकी जीवन यात्रा का समापन कर दिया गया. स्नेह लता रेड्डी सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता थी. सिनेमा और रंगमंच उनका जीवन था.
हर शहादत पिछली अनेक शहादतों की याद दिलाती है. किसी के भी मन में चे ग्वारा, आज़ाद और बोस के चित्र आ सकते हैं. आगे देखें तो गाँधी और आगे भी आज़ाद भारत में तरह तरह के हत्यारे जिन व्यवस्थाओं का प्रतिनिधित्व कर रहे थे वह बौनी जरूर थीं पर कमोबेश आज भी जिन्दा हैं. प्रत्यक्ष भी और हमारे भीतर भी. समाज को शहादतों से सीख लेनी होती है.जो समाज नहीं सीखता उसे बार बार रौंदा जाता है. सिर्फ और सिर्फ आम जन की शक्ति और समझदारी ही सही और टिकाऊ बदलाव ला सकती है. किसी भी व्यवस्था को समझदार बना सकती है.
सूत्रधार कह रहा है सीधे आपसे :
सदियों की दुर्गन्ध को ढोने वाले आज भी गाँधी के उसी हिंदुस्तान के जेहन को रौँदने की कोशिश में लगे हैं. लेकिन यह नाटक उस बारे में नहीं है.. ये नाटक उस बारे में इसलिए नहीं है क्योंकि ये नाटक पूरे हिंदुस्तान में अभी खेला जा रहा है, इसे रंगमंच पर पहले कौन और कैसे खेलेगा, यह तय होना अभी बाकी है. ये नाटक टिहरी गढ़वाल की आम जनता के लम्बे संघर्ष की गाथा है, जिसने अपने दम पर टिहरी रियासत को आजादी के उस सपने से जोड़ने का काम किया जिसे हम भारत कहते हैं.
यह दृश्य गल रहा है. डाउन स्टेज में प्रकाश बढ़ता है दोनों हाथों को ऊपर उठाये नमस्कार की मुद्रा,जैसे सीधे ईश्वर से बात हो रही:
बोलांदा बद्री विशाल! वाह! मतलब राजा. माफ़ कीजिये महाराजा. भगवान बद्रीनाथ यानी कि सृष्टि के पालनहार भगवान विष्णु का जीता जागता स्वरुप. जी ! गढ़वाल के राजा.
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किसने गढ़वाल के राजा को भगवान विष्णु बनाया. नहीं पता. बनाया सो बनाया वैकुंठ धाम. सो ये बड़ा समृद्ध रहा होगा. क्या फिर आवाजें आ रहीं? जरा सुनें तो :
सात भायों कि एक जनानी, स्यूंदी सुप्पा की डैर.
सात भायों को एक हल बैल, हल कर की डैर.
सात भायों को एक ही चुलो, चुल कर की डैर.
लोक कवि ये कुछ ज्यादा ही बढ़ा चढ़ा के कह रहा कि :
सात भाइयों की एक ही पत्नी क्योंकि सिंदूर और सुप्पे पर टैक्स है. सात भायों का एक ही हल, एक ही बैल क्योंकि हल और बैलों पर लगने वाले टैक्स का जो डर है. सात भायों का एक ही चूल्हा, चूल्हे पर भी टैक्स है.
“ओ! हो! म्यार बाबा न घ्यू खाई, ल्या म्यारू हथ सूंघा. ” मेरे बाप ने घी खाया था? लो मेरा हाथ सूंघो.नहीं !नहीं !नहीं. नहीं चलेगा. आखिर कब तक. कब तक. अतीत से आती आवाजें तेज हो रहीं हैं. प्रतिरोध. धमकी. संघर्ष. राजा के सिपाही हैं. ग्रामीण लाठी डंडे हंसिया लिए बढ़ रहे हैं. सिपाही गिर रहे हैं, भाग रहे हैं. न सौणया सेर, न पाला बिसाऊ. नहीं देंगे, नहीं देंगे.
खिलाफत में जब जनता उठ खड़ी होती राज के खिलाफ तो इस अभिव्यक्ति को कहा जाता ‘ढंढक’ और वह कहलाते ढंढकी. ये हजारों की तादात में राजधानी कूच कर जाते और अपने बोलंदा बद्री विशाल से शिकायत करते. राजा की नीतियों की शिकायत, उसके भृष्ट कारिंदों की शिकायत. कभी राजा उनकी बात मान भी लेता या उन्हें कारागार में डाल देता. यही ढंढकें कालान्तर में टिहरी रियासत के भीतर स्वतंत्रता संग्राम के रूप में बदल गईं. आवाज बुलंद करने वालों की यादें आज भी टिहरी के निवासियों की लोक स्मृति में जिन्दा हैं. इनके किस्से लगाने वाले अभी समाज से गायब नहीं हुए हैं.
ढोल दमाऊ और रणसिंघे की आवाजें बढ़ती ही जा रहीं हैं. ये आवाजें 1835 से आनी शुरू हुईं. सकलाना की ढंढक, मुआफीदार के खिलाफ, भू -कर का विरोध-1851, बद्री सिंह असवाल की ढंढक, तिहाड़ कर का विरोध-1862, शिव सिंह बिष्ट की ढंढक,1863 बलभद्र सिंह बिष्ट और नंदराम की ढंढक. और और लछमू कठैत की ढंढक, पाला बिसाऊ का विरोध.
बीसवीं सदी की शुरुवात. टिहरी में सन्यास लिए युवक का प्रवेश जिसके मुरीद टिहरी के राजा प्रताप शाह भी हैं तो जनता भी. व्यावहारिक वेदांत की धारा को हिंदुस्तान के राजनीतिक सामाजिक चिंतन में सम्मिश्रित करने वाला यह स्वामी रामतीर्थ.
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रामतीर्थ का चित्त तो बस अपने देश के प्रति प्रेम से लबालब है वह उसके हर रूप का चिंतन करते हैं. अपनी भारत मां से बस यही अभ्यार्थना करते हैं कि अब वह उस देवता की उपासना करें जिसकी समस्त पूजा एक बूढ़ा बैल, एक टूटी हुई पलंगड़ी, एक पुराना चिमटा, थोड़ी सी राख, नाग और एक खाली खोपड़ी है. यह शिव नहीं साक्षात् नारायण रूपी भूखे देशवासी हैं भारतवासी हैं! विपन्नता में विषमता में जीना क्या इनकी नियति बन चुकी है? वह सावधान करते हैं चेताते हैं कि कभी किसी के कंधों और गर्दनों पर पैर रखने की इच्छा न करो, चाहे वह कितना ही कमजोर क्योँ न हो.
रामतीर्थ टिहरी में रहे. मात्र तेँतीस साल की आयु में उनका देहावसान भी टिहरी में ही हुआ. टिहरी की प्रजा से ले कर राजा प्रताप शाह तक सन्यासी रामतीर्थ के मुरीद थे. रियासत टिहरी अपने पुराने ढर्रे पर चलती रही और ढंढकें भी उसी रफ़्तार से बढ़ती रहीं.
ढोल बजते जा रहे हैं. रूप सिंह कंडारी की ढंढक, मुआफीदार, बरा-बेगार का विरोध. शासन कीर्ति शाह का. गोपाल सिंह राणा की ढंढक, कड़ाकोट पट्टी, सौणया सेर, पाला बिसाऊ बढ़े लगान का विरोध और फिर 1927 से 1930 तक रवाईं का वन आंदोलन जिसके जुझारू थे नगाण गाँव के हीरा सिंह, कंसेरु के दयाराम और खमुंणडी गोडर के बैज राम.यही वह समय जब आज़ाद सरकार का गठन हुआ. हीरा सिंह पांच सरकार! बैजराम तीन सरकार. रवाईं का वन आंदोलन जब दयाराम, रूद्र सिंह, राम प्रसाद और जमन सिंह को कारावास कैदियों को छुड़ाने के संघर्ष में किशन सिंह, जूना सिंह और अजीत सिंह की मृत्यु.अब तारीख है 30 मई 1930 जब हुआ तिलाड़ी कांड. फ़ौज द्वारा यमुना के तट पर तीन दिशों से गोलाबारी अनेक मृतक, सैकडों घायल कुछ यमुना में बहे. और अड़सठ की संख्या.
जी हां वो अड़सठ थे जो तिलाड़ी हत्या कांड के बाद गिरफ्तार हुए और जिन्दा राजधानी टिहरी पहुंच पाए. कुछ रस्ते में पीट पीट कर मारे गये. कुछ और खतम किए गये. और जो ये अड़सठ थे उन पर मुकदमा चला. सजा हुई. राजा का कैदखाना बदहाल बदनाम. इसी टिहरी राजा की जेल में श्रीदेव सिंह सुमन की हत्या की गई. सुमन पूरे चौरासी दिन भूख हड़ताल पर रहे थे . उनकी एक ही मांग थी कि महराज टिहरी रियासत में प्रजामंडल की अनुमति दें. झूठे मुक़दमे वापस लें. सबसे बड़ी अभिलाषा थी कि उत्तरदायी शासन की स्थापना हो. पर चौरासी दिन की भूख हड़ताल के बाद श्रीदेव सुमन की मृत्यु हो गई उनकी लाश को बोरे में डाल भिलंगना नदी के तीव्र प्रवाह में डाल दिया गया.
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सुमन की यह शहादत टिहरी रियासत के पतन की शुरुवात थी जिसकी चरम परिणति नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी की शवयात्रा से हुआ. स्वतः स्फूर्त ढंढकें अब संगठित आंदोलन का रूप लेने लगीं. पूरे हिंदुस्तान में आजादी की बयार फैल रही थी . टिहरी में इस बयार को लाये श्रीदेव सुमन. गढ़वाली समाज जैसे एक लम्बी नींद से जागने लगा. पुस्तकालय खुले, सरस्वती विद्यालय स्थापित हुए. लोग अपनी आपबीती सुनाने को उत्सुक थे और उनकी व्यथा को स्वर देने के लिए गढ़वाली और कर्मभूमि जैसे अखबार अब लोगों के हाथ में थे. गौर्दा की कविताओं और भवानी दत्त थपलियाल के गढ़वाली नाटकों से अभिव्यक्ति को नये स्वर मिलने लगे. ऐसा कुछ होने लगा कि जो सत्ता ने निषेध घोषित किया उसी के विरोध के स्वर उठते ही जा रहे थे.
टिहरी रियासत से मुक्ति पाने के इस लम्बे सिलसिले में बाल सभाओं का प्रभावी योगदान रहा.इसके साथ ही गढ़वाल के जन रोजगार की तलाश में देश विदेश जा पहुंचे. अब इनमें से कई भगत सिंह से भी जुड़े. चंद्र शेखर आज़ाद को छुपाने की ठौर भी गढ़वाल में मिली. मार्क्सवादी लहर भी आई. नवीन चेतना का यह सैलाब अब बोलांदा बद्री विशाल की सामंती नैया को डुबाने को बेताब था.
टिहरी में प्रताप हाई स्कूल 1940 में इंटरमीडिएट बनाया गया. फिर वहां के विद्यार्थियों ने यूनियन बनाये जाने की मांग कर डाली. तब किसे मालूम था कि इंटर में पढ़ रहे ये बच्चे बस कुछ ही साल में टिहरी की निरंकुश सत्ता के पतन के सूत्रधार बनेंगे. छोटी सी बात थी कि नवीं में पढ़ने वाले राम चंद्र उनियाल ने एक पोस्टर बना लगा डाला !
एक बूढ़ा आदमी आ रहा. पोस्टर को पढ़ रहा.
“क्या ल हूँण लग्युँ?”
धमाका. जवाब मिला.
“कनु धमाका?”
पोस्टर है बड्डा जी.
“फेर कुई राजाज्ञा?”
न बड्डा ये विद्यार्थियों का फरमान है !
“छोरों कु फरमान, बक्की बात !जरा सुणा, क्या च फरमान ?
ये पोस्टर ऐसा धमाका कर गया कि रियासत टिहरी के खिलाफ षड्यंत्र रचने और देश द्रोह के आरोप में बंशी लाल पुंडीर, प्रेम दत्त डोभाल, राम प्रसाद बहुगुणा और राम चंद्र उनियाल की धरपकड़ का हुक्म सुनाती है सरकार . पर लोग तो अब कुछ और ही सुन रहे हैं :
हम करवट लेते वक़्त के जिन्दा गवाही है
हम लाल झंडे के सिपाही हैं, सिपाही हैं
हर शाह को मिट्टी चटाती लोकशाही है
हम लाल झंडे के सिपाही हैं, सिपाही हैं
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नागेंद्र लोगों के बीच हैं उनसे बात कर रहे. संवाद हो रहा. सब से. भाई बंधु, बड्डा -बड्डी, कका -काकी, दीदी -भुल्ली. सब कहते हैं कि हमारा देश भारत आज़ाद हो गया पर टिहरी गढ़वाल की जनता अभी भी रियासत की गुलाम है. ये काम धंधा तो लगा रहेगा. इसी में लगे रहे तो फिर आजादी की लड़ाई कौन लड़ेगा ? बताओ ये बरा बेगार, नज़राना पौन टोटी खतम होनी चाहिए कि नहीं?
“होनी चाहिए.”
हमारे बच्चों को शिक्षा मिलनी चाहिए या नहीं ?
“मिलनी चाहिए.”
पढ़ाई -नौकरी. दकियानूसी समाज से सामंतवाद के पोषण से मुक्ति. अब अगर अपना हक लेना न सीखा तो ये लड़ाई बरसों तक चलती रहेगी.
टीन के भोंपू से राजा की खिलाफत. नागेंद्र उसके प्रगतिशील विचार और उग्र तेवर. प्रजामंडल के युवा उसके साथ डांगाचौरा के किसान आंदोलन में भी. अब आज़ाद हिन्द फ़ौज के बागी भी वापस घर लौटे. इनमें लक्ष्मण सिंह भी था जिसके साथ हजारों की भीड़ के साथ नागेंद्र ने टिहरी जेल में धावा बोल दिया. फिर 13 सितम्बर 1947 के दिन रियासत की फौज ने सकलाना की जनता पर हल्ला बोल दिया. ये भारत के आजाद होने के 29 दिन बाद की बात है. दमन चक्र चला. रियासत से लगा आजाद भारत का क्यारा शरणार्थी शिविर बन गया. बेबस जनता अपना घर- द्वार छोड़ रियासत से भागी. सकलाना का उनियाल गाँव ढंढकियों का गढ़ बना. लक्ष्य बस सबके दिल दिमाग में एक ही कि जल्द से जल्द रियासत टिहरी आजाद हो और आजाद भारत में उसका विलय हो.
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सीन बदलता है. भीड़ के साथ नागेंद्र थाने के भीतर है. पूछता है पुलिस अफसर से, “आप जानते हैं भारत कहाँ है?” पुलिस अधिकारी बैठे -बैठे सिर से समझने का इशारा करता है फिर हाथ से इशारा करते कहता है,”अलकनंदा के उस पार.” नागेंद्र सकलानी: तो यूं समझिये कि उस पार का भारत आज इस पार आ गया है.
(इस बीच दोनों विंग्स से कुछ और कोट पैंट पहने लोग, फ़ाइल पकड़े बाबू और गिरफ्तार किया गया व्यक्ति, और मुखबिर दोनों विंग्स से मंच पर प्रवेश करते हैं. उन्हें देख कर पुलिस अधिकारी खड़ा हो जाता है.)
त्रेपन सिंह नेगी : (उत्तेजित स्वर में )आपको यहाँ किसलिए रखा है ?
पुलिस अधिकारी : रियासत की कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए (इसी बीच देवी दत्त पीछे जा कर पुलिस का बोर्ड उतार देता है )
दौलत राम : (एक कार्य कर्ता को अपना झंडा देते हुए जिसे ले कर वह बाएँ विंग्स से अंदर भाग जाता है )जब रियासत ही नहीं रहेगी तो कौन सी कानून व्यवस्था? आज से यहाँ भारत का कानून चलेगा. फहराओ रे तिरंगा.
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नागेंद्र ने 10 जनवरी 1948 को अपनी रिपोर्ट पार्टी कार्यालय को भेजी जिसमें तमाम सरकारी कर्मचारियों को यह अल्टीमेटम देने की बात थी कि वह कल को ही कीर्तिनगर खाली कर दें. वह सब भागे. फौज ने जनता के आगे आत्मसमर्पण कर दिया.
हमने कीर्तिनगर में आजाद पंचायत बना ली है. आज कीर्तिनगर आजाद कीर्तिनगर बन गया है. कड़ाकोट, बडियार गढ़, मलेथा, खासपट्टी, मैलचामी हिंदो जैसी दस बारह पट्टी से राजा के मुलाज़िम भाग गये हैं और पंचायती सरकार बन गई है. कल 11 बजे सुबह दो सौ आदमियों का जत्था देवप्रयाग पर कब्ज़ा करेगा.15 तारीख को तमाम पटटियों से लोग आ कर टिहरी के बाजार में जमा हो जाएं.
नागेंद्र को 15 जनवरी को टिहरी पहुंचना था. वह एक कम्युनिस्ट कार्यकर्त्ता के रूप में व्यवस्थित कार्य योजना पर अमल करते प्रजामंडल और कांग्रेस के साथ मिल ऐसे मुक्ति युद्ध का संचालन कर रहे थे जो टिहरी जन क्रांति के नाम से जानी गई. पर 11 जनवरी को ही कीर्तिनगर की आजाद पंचायत की रक्षा करते नागेंद्र शहीद हो गये.
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पर अपनी शहादत के बावजूद नागेंद्र अपने तय समय से एक दिन पहले ही टिहरी पंहुच गए . ऐसा तो इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ कि जनता अपने शहीदों की अर्थियों को उठाये तीन दिनों तक चलती रहे. ऐसा कभी नहीं हुआ कि एक शव यात्रा के राजधानी पहुँचने पर राजतन्त्र खतम हो जाये.
सूत्रधार कह रहा है :
” सदियों से पीड़ित, करों के बोझ से दबी और सामंती आस्थाओं की बेड़ियाँ डाल गुलाम बना दी गई आम जनता के भीतर छिपी उस विराट शक्ति के विस्फोट का किस्सा है ये , वर्ग संघर्ष का अपने अलग मुकाम पर पहुँचने का कथानक .”
“मुखजात्रा” अर्थात शहीद के अंतिम दर्शन:
नागेंद्र अर मोलू न
छाती म जो गोली खै
शादत अपणी देकि वो
दुन्या आंखा खोली गे
कथा यीं क्रांति की
सबुतै सुणोला हम
इंकलाब जिंदाबाद
गीत अब लगौँला हम.
1 अगस्त 1949 रियासत टिहरी का भारत संघ में वैधानिक विलय. मुखजात्रा नाटक को प्रस्तुत करते सुनील कैंथोला लिखते हैं कि नागेंद्र की कथा पर काम करते हुए मेरा ध्यान उन रास्तों और परिस्थितियों पर चला गया कि जिनसे हो कर गोरे मेरे घर, गाँव और वतन तक आए थे और फिर कैसे वो रास्ते इतने बड़े होते चले गये कि उनसे मेरे घर गाँव और वतन की दौलत पश्चिम की ओर बहने लगी. सिर्फ दौलत ही नहीं,जवानी भी जो प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में पूरब से चली और पश्चिम में खप गई. इन्हीं किस्सों को टटोलते हुए, इतिहास के गलियारों को कूदते -फांदते मैंने उन परिस्थितियों को समझने की कोशिश की जिनके गर्भ से प्रतिरोध जन्म लेता है.
इसलिए नागेंद्र सकलानी की यह कथा दरअसल लूट की उन परिस्थितियों की कथा है जो संगठित प्रतिरोध के विस्फोट के रूप में प्रकट होती है. दिलचस्प यह है कि यह कथा सनातन है, यह नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी की अंतयेष्टि और रियासत टिहरी के खात्मे केसाथ यहीं समाप्त नहीं हो जाती बल्कि कुछ और दशकों को समेट कर वृहद स्वरुप ले लेती है. आजादी के सात दशक से ज्यादा बीत जाने के बाद नागेंद्र सकलानी की कहानी को यदि पलट कर देखें तो यही समझ पड़ता है कि जिन्हें तब खतम मान लिया गया था जो राजे-महाराजे अपनी पूरी सामंती ठसक के साथ अब पूरी संसद में कब्जा जमाये बैठे हैं.
(Mukhjatra Book Review)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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