जिसे यह बात समझ में आ जाए कि जीवन जीने के लिए है, सोचने के लिए नहीं, उसे कभी कोई दुख नहीं सता सकता, क्योंकि जीने के लिए इतने सारे अनुभव हैं. आखिर हम अनुभवों और अनुभूतियों के लिए ही तो जीते हैं. एक पंचतारा होटल के डीलक्स रूम का किराया अगर देते हैं, तो इसीलिए कि उसमें रहने का अनुभव होगा. किसी नदी, पहाड़ पर पिकनिक बनाने जाते हैं, तो वह भी अनुभव हासिल करने के लिए ही. इस लिहाज से जीवन में अगर बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं, तो वह कोई दुख-संताप की बात नहीं, क्योंकि आदमी उन्हें पाने के लिए मन लगाकर जीता है.
(Mind Fit 49 Column)
बेघर आदमी महलों में जन्म लेने वाले से ज्यादा खुशनसीब होता है, क्योंकि महल में जन्म लेने वाले के पास अब पाने को क्या है. उसके पास तो सब उड़ाने को ही है. लेकिन बेघर को तो घर बनाना है. जैसे चिड़िया तिनका-तिनका करके अपना घर बनाती है, वैसे ही वह ईंट-ईंट करके अपना घर बनाएगा. उसके भीतर एक-एक करके गृहस्थी का साजो-सामान जुटाएगा. इससे सुंदर क्या हो सकता है. चिड़िया कितने उत्साह से यह काम करती है. वह घोंसला बनाती है, अंडे देती है, अंडे सेती है, बच्चों को खाना खिलाकर पालती है, बड़ा करती है और एक दिन जब उनके पंख आ जाते हैं, तो उन्हें उड़ा भी देती है.
हमारी यह दिक्कत है कि बच्चों को छोड़ना तो बहुत दूर, हम अतीत में जिए जा चुके अपने अनुभवों तक को नहीं छोड़ पाते. वे चाहे अच्छे हों या बुरे, अतीत के अनुभवों को छोड़ा जाना जरूरी है. हम बुरे अनुभवों को याद करके अपना मूड खराब करते रहते हैं और अच्छे अनुभवों को याद कर इसलिए रोते हैं कि वे फिर से रिपीट नहीं हो रहे होते हैं. सोचने का जब तक हम कर्म की तरह इस्तेमाल कर रहे, तब तक ठीक है, पर जैसे ही उसका हम एक किस्म की बेहोशी में इस्तेमाल करना शुरू करते हैं, वैसे ही गड़बड़ होनी शुरू हो जाती है. क्योंकि यह सोचना उद्देश्य के साथ सोचना नहीं है. जैसे मैं इस वक्त यह सब लिखते हुए सोच रहा हूं. मगर मेरा सोचना एक उद्देश्य के तहत है और मेरे सोचे-समझे फैसले और रजामंदी के साथ हो रहा है. दिक्कत तब होती है, जब आप कोई काम करते हुए अनचाहे ही सोचने लगते हैं.”
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कार में बैठकर आप दफ्तर जा रहे होते हैं और सोचने लग जाते हैं. सोचते-सोचते किसी सोच पर अटक जाते हैं – ‘पिछले दिनों बॉस ने सबके सामने मेरा अपमान किया था. बॉस को ऐसा नहीं करना चाहिए था. वह क्या समझता है, मुझे बाहर कोई दूसरी नौकरी नहीं मिल सकती क्या? मेरे साथ जाने क्या दिक्कत है उसे. काम भी मुझसे ही चाहिए और सुनाना भी मुझे ही है.’ तो यह जो सोचने का सिलसिला है, इसका कोई प्रयोजन नहीं है. कितने सालों की मेहनत की कमाई से आपने यह कार खरीदी. बाहर मौसम भी बड़ा खुशनुमा था. आप चाहते, तो सजग रहते हुए कार में सफर का और मौसम का आनंद ले सकते थे. मगर आपको भी पता नहीं चला कि कब दिमाग में वह विचार आया और उसके बाद आप उसके भीतर गहरे उतरते चले गए, जैसे कोई किसी भंवर में उतरता है. दफ्तर पहुंचने तक आप अपने बॉस के लिए इतने गुस्से और हिकारत से भर चुके थे कि दफ्तर में जब वह लिफ्ट के बाहर टकराया, तो उसकी मुस्कान की प्रतिक्रिया में आप ठीक से मुस्करा भी न सके.
अगर हम अपनी बेहोशी में सोचने की लत को दूर नहीं करेंगे, तो अपने लिए बिना वजह नई-नई मुसीबतें खड़ी करते रहेंगे. अगर हमारा सारा समय खुद की ही पैदा की गई मुसीबतों से निपटने में चला जाए, तो हम कैसे खुश रह पाएंगे. इस बेहोशी में रहकर सोचने को अगर हम होश में रहकर किए जाने वाले कर्म से बदल दें, तो जीवन में क्रांति आना तय है, क्योंकि होश के साथ जिया गया एक लम्हा भी बेहोशी में जी ली गई पूरी जिंदगी पर भारी पड़ेगा.
याद रखो कि प्रबोधन यानी इनलाइटनमेंट भी एक लम्हे में ही घट जाता है. उसकी यात्रा लंबी होती है, वहां तक पहुंचने की तैयारी जरूरी करनी होती है, मगर वह एक ही लम्हे में घट जाता है. दिलचस्प यह है कि अगर हम होश में रहना शुरू करेंगे, तो अपने आप हम कर्म की ओर बढ़ेंगे, कर्म के जरिए जीवन को आत्मसात करेंगे. जीवन सोचने के लिए नहीं है. कम से कम वैसे सोचने के लिए तो हरगिज नहीं, जिसमें हमें खुद को भी पता न चले कि हम सोच रहे हैं. जीवन का अर्थ ही जागना है. जागे बिना आप जीवन के सौंदर्य को कैसे देख सकते हो. जागोगे तो देखोगे, सोचोगे नहीं.
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-सुंदर चंद ठाकुर
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कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे. सुन्दर ने कोई साल भर तक काफल ट्री के लिए अपने बचपन के एक्सक्लूसिव संस्मरण लिखे थे जिन्हें पाठकों की बहुत सराहना मिली थी.
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