हमारा समाज विविधताओं से भरा है, उतनी ही अनोखी हैं, हर क्षेत्र की लोकसंस्कृति व लोकपरम्पराऐं. कमोवेश प्रत्येक लोकजीवन की अपनी-अपनी विशिष्टताऐं होती हैं,लेकिन जब पहाड़ के लोकजीवन की बात आती है तो यहॉ की विषम भौगोलिक परिस्थिति, नागरिक सुविधाओं का अभाव तथा देवभूमि की अपनी मान्यताऐं, परम्पराऐं व आस्थाऐं लोकजीवन को ज्यादा दिलचस्प बना देती हैं.
(Meri Yadon Ka Pahad Book)
लोकजीवन को नजदीक से समझने का सबसे अच्छा तरीका है- यायावरी. खूब घूमो और लोकजीवन का नजदीक से अवलोकन व अध्ययन करो. लेकिन व्यस्त जीवन में यह हर किसी के लिए संभव नहीं. यह भी कि यायावरी में आप कितना कुछ देख पाओगे? लोकजीवन के कोई एक-दो-चार पहलू, बस. हॉ, किसी पुस्तक के माध्यम से लोकजीवन व लोकसंस्कृति के वितान को अधिक समझा व जाना जा सकता है. लेकिन लोकजीवन में झांकने का आनन्द तब दोगुना हो जाता है, जब कोई पुस्तक ही आपको दृश्य-श्रव्य का जीवन्त अनुभव करा दे और लगे कि आप जो पढ़ रहे हैं उसे मन की ऑखों से देखने व कानों से सुनने का भी साथ-साथ अहसास कर रहे हैं. आपको एक ऐसी ही पुस्तक का परिचय कराया जा रहा है, पुस्तक के संस्करण की द्वितीय आवृत्ति भी आ चुकी है, बहुत संभव है, आपने पुस्तक पढ़ ली हो और यदि नहीं पढ़ी तो मेरा सुझाव है,अवश्य पढ़ें. यकीन मानिए एक बार आपने पुस्तक की चन्द लाइनों से पढ़ने की शुरूआत की तो अन्त तक पढ़े बिना स्वयं को नहीं रोक पायेंगे.
दरअसल कोई 7-8 वर्ष पूर्व नैनीताल समाचार ने एक स्तम्भ प्रारम्भ किया था – मेरा गांव: मेरे लोग. पाक्षिक समाचार पत्र में किश्तवार छपने वाले इस स्तम्भ को एक बार पढ़ा तो अगली किश्त का बेकरारी से इन्तजार रहता. नैनीताल समाचार में कुछ ही किश्तें छपी थी कि वर्ष 2013 में ये ही संस्मरण – मेरी यादों का पहाड़, शीर्षक से पुस्तक के रूप में देश के प्रतिष्ठित नेशनल बुक ट्रस्ट,नई दिल्ली से छपकर आ गई. पुस्तक की लोकप्रियता इसी बात से जाहिर होती है कि छह वर्षों के अन्तराल में ही पुस्तक की निरन्तर मांग पर वर्ष 2019 में दूसरी आवृत्ति प्रकाशित हुई. यद्यपि पुस्तक बाल साहित्य के क्षेत्र में हाल ही में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजे गये तथा इससे पूर्व कई प्रतिष्ठित सम्मानों से पुरस्कृत, 30 से अधिक पुस्तकों को लिख चुके, वरिष्ठ विज्ञान कथा लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी जी की संस्मरणात्मक आत्मकथा है.
अपने बचपन के मासूम अनुभवों के बहाने इसमें आपको पहाड़ी लोकजीवन का वह समग्र रूप देखने को भी मिलेगा, जो किसी एक किताब में एक साथ मिल पाना संभव नहीं. जिन्होंने पहाड़ का जीवन स्वयं जिया है उन्हें तो यह अन्दर तक गुदगुदायेगी ही लेकिन जिन्होंने पहाड़ को देखा तक नहीं उन्हें पहाड़ के लोकजीवन व लोकसंस्कृति को बारीकी से जानने व समझने का मौका भी मिलेगा.
आत्मकथात्मक शैली में लेखक ने बड़ी बेवाकी व साफगोई से अपने बचपन की छोटी से छोटी घटनाओं के माध्यम से न केवल अपने समग्र व्यक्तित्व को उघाड़कर रख दिया है बल्कि अपने साथ-साथ स्मृतियों के सहारे पहाड़ के ग्रामीण जनजीवन को हू-ब-हू कैनवास पर उतार कर रख दिया है. रोचक किस्सागोई, पर्वतीय समाज में प्रचलित दन्तकथाऐं एवं अन्तर्कथाऐं ऐसी कि जो आपको मनोरंजन तो देंगी ही साथ ही कभी रूलायेगी, कभी गुदगदायेगीं, कभी जंगलों के बीच हिंसक जानवरों के बीच रोमांचित करेगी तो कभी समाज में प्रचलित रूढ़ियों, अन्धविश्वासों तथा दुश्वारियों के लिए सोचने को उद्वेलित भी करेंगीं.
यहॉ के तीज-त्योहार, पर्वों, जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त लोक में प्रचलित संस्कारों से परिचित भी करायेगी और यहॉ के विभिन्न पेड़-पौधों तथा लोकजीवन में उनके विभिन्न उपयोगों पर भी विशद जानकारी देगी. पशु-पक्षियों से तो लेखक कभी-कभी बतियाते से ही प्रतीत होते हैं और पशु-पक्षियों द्वारा निकाले जाने वाली ध्वनियों को शब्द चित्रों के माध्यम से इस प्रकार उकेरा गया है कि सहज ही घटना का सजीव चित्रण और ध्वनियों के चित्रण से लगता है कि घटना मेरे सामने घटित हो रही है.
(Meri Yadon Ka Pahad Book)
आत्मकथा और वह भी 287 पृष्ठों की पाठकों को ऊबाई न लगे, इसे इक्कीस उपशीर्षकों में बांटा गया है और हर उपशीर्षक के अन्त में ’ओं’ का हुंगुर आगे के शीर्षक में जाने को विवश करता है. सच कहा जाय तो यह लेखक की आत्मकथा के बहाने पूरे पहाड़ को समेटने का एक जीवन्त दस्तावेज है.
लेखक जब अपने पहाड़ के गांव कालाआगर से जाड़ों में माल-ककोड़ गांव को उतरते हैं तो पाठक को लगता है, जैसे किसी ऊॅची जगह पर बैठकर पाठक स्वयं भी मवेशियों के बागुड़ के साथ उतरते हुए उन्हें देख ही नहीं रहा है, बल्कि उनके गले में बंधी घाण्टों की घन-मन, घन-मन सुनने का अनुभव भी कर रहा है.
… आगे-आगे गाय भैंसो का बागुड़(झुण्ड). बागुड़ में सबसे आगे मुिखया भैंस के गले में लटका बड़ा और भारी घांण (घंटा) बीच बीच में बजता –घन-मन्–घन-मन्! उसके पीछे दूसरी भैंसे और उनकी थोरी-कटिया. फिर ठुल ददा. उनके बाद गायें और बैल. फिर घोड़ा. उसके पीछे बाज्यू, मैं, ईजा और बड़ी भौजी. घोड़े के खंकर खनकते रहते …….खन्-खन्, खन-खन्…
इसी वाकये के लेखक केवल एक वाक्य में यह कहकर भी निबटा सकते कि हम अपने मवेशियों के साथ माल-ककोड़ को चले गये. लेकिन वह जीवन्तता नहीं आती. प्रत्येक की पंक्तिवार चलने की स्थिति तथा उनके चलने से होने वाली ध्वनि का शब्दों के माध्यम से हूबहू चित्रण से लगता है कोई चलचित्र हमारे सामने चल रहा है. शब्दों की ध्वनियां केवल मवेशियों के गले की घण्टियों तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि पशु, पक्षियों, वाद्ययंत्रों की घमक आदि जो भी लेखक ने सुना, उन ध्वनियों को शब्दों में बांधने का बेहतरीन प्रयास किया गया है. जिससे दृश्य एकदम जीवन्त हो उठता है.
(Meri Yadon Ka Pahad Book)
पुस्तक में पहाड़ की रूढ़िया भी हैं और अन्धविश्वास भी, परम्पराऐं भी हैं और मान्यताऐं भी. लेकिन इन रूढ़ियों व अन्धविश्वासों को बिना किसी स्वीकृति के अथवा वैज्ञानिक आधार पर खण्डन के निरपेक्ष दृष्टा भाव से लेखक ने स्वयं को अलग रखकर पाठकों के विवेक पर छोड़ दिया है. शिशु के जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त लोकरीति के अनुसार संस्कारों के विधि-विधान, तीज त्योहारों की स्थानीय रवायतें,पहाड़ की रीढ़ महिलाओं का श्रमसाध्य जीवन,जंगली जानवरों तथा श्यों-बाघ के किस्से, उस समय की स्कूली शिक्षा, पहाड़ में उपजने वाली फसलों, फल-फूलों, पहाड़ों की उद्यमिता तथा स्वावलम्बी पहाड़ का शिल्पकौशल सब कुछ एक ही पुस्तक में समा दिया है. पहाड़ की जीवट महिलाओं के बीच परस्पर संवाद सुनिये! जो लेखक के कानों तक पहुंचा.
दि दिदी , कैसा आराम ? रात्तैब्यान (सुबह) से अधराति तक काम ही काम हुआ. एक घड़ी भी बैठने की फुरसत नहीं हुई
ह्वै बैनी(बहिन) किलै नें. मेरी भी तो यही बात हुई
रातैब्यान उठाकर जंगोर झाड़ना (झाड़ू लगाना) रोटी, साग-पात बनाना, फिर पानी भरने दौड़ना. दो रोटी खाकर घास काटने चल देना. अब लौटी हॅू तो सीधे खेत में चली जाऊॅगी,मंडुवा लगाने. ब्याल (सांझ) तक लौटूंगी. फिर वही पानी-रोटी, साग-पात. बच्चे अलग. सोने तक तो आधी रात बीत जाती है दिदी..
द बैनी सैनि (औरत) जात के भाग मंे तो दुख ही दुख हुआ…… चल, चलें अब. इजू, अबेर (देर) हो जायेगी.
लेखक के बालमन की जिज्ञासाऐं उनकी ईजा ही शान्त करती नजर आती हैं. ईजा व बेटे देबी के बीच छोटी-छोटी बातों को लेकर परस्पर संवाद बड़े ही रोचक ढंग से लिखे गये हैं. बालक देबी को जब भी कुछ जानना होता है, तो वह अपनी ईजा से ही पूछता है और ईजा अपने ज्ञान के आधार पर उनका समाधान ही नहीं देती, बल्कि जीव जन्तुओं पर दया तथा करूणा का भाव जगाते हुए पराचित (प्रायश्चित) का डर दिखाती है और उस दौर में भी पर्यावरण संरक्षण की सीख अपने तरीके से देती हुई नजर आती हैं. ईजा व बाज्यू उनमें मनुष्य एवं मानवेतर जीवों के प्रति संवेदना का भाव जगाने में सदैव मुखर नजर आते हैं, जाहिर है कि उसका प्रतिबिम्ब लेखक की सहृदयता व संवेदनशील व्यक्तित्व पर आज भी झलकता है. एक घटना में उनके घर का गुजारा बैल गिरकर चोटिल हो जाता है और उस घायल बैल को उठाकर घर नहीं ला पाते, रोज उसी स्थल पर जाकर उसे कुछ दिन घास-पानी देते हैं और एक दिन जब वह दुनियां छोड़कर चला जाता है तो बाज्यू की संवेदनशीलता देखिये.
एक दिन बाज्यू ने उसके पास से लोटकर कहा, मुक्ति है गेछ गुजारा कि.
तुमार जान् लै ज्योनै छि कि मर गैछ. ददा ने पूछा.
बाज्यू ने कहा, ज्योनै छि. मैंने उसकी ऑखों में देखकर कहा – तूने हमारा बहुत साथ दिया गुजारा. उसकी पीठ पर तीन बार थपकी देकर बचन दिया, चल तेरा जो भी रिन था सब तर गया ! तर गया ! तर गया ! अब तू शान्ति से जा गुजारा … अभी मेरा हाथ उसकी पीठ पर ही था कि उसने लम्बी सांस भरकर ऑखें पलट दी. परान उड़ गए. सच्चा बल्द था बेचारा.
पहाड़ में वह दौर ऐसा था जब पैंसो का लेनदेन कमही होता था, हस्तशिल्पी अपना बनाया सामान गांव वालों को देते और बदले में उन्हें अनाज दिया जाता. लोहार, दर्जी, बढ़ई, राज-मिस्त्री, नाई आदि तो थे ही लेकिन काठ की डोरी, हड़पी व कोहड़ी बनाने वाले चुनार भी वहॉ थे, जिनके बारे में अधिसंख्य पहाड़ी कम ही जानते होंगे. इन्हीं चुनारों के बारे में लेखक अपनी ईजा से जिज्ञासा करते नजर आते हैं.
मैंने ईजा से पूछा – ईजा , इन डोरि, ठेकि का बटी औनी? बजार बटी?
बजार में कां मिलनी इन ? इनोंकें चुनार बनौनी.
चुनार कौन हुए?
किलै, आदिमी भै, ईजा ने हंसकर कहा. कारीगर हुए, लकड़ी के बर्तन बनाते हैं.
बचपन का वह गांव का जीवन और महानगर में रहकर किताब लिखने तक का यह 40-50 साल का लंबा अन्तराल और लेखक द्वारा पुस्तक में भ्वैन, लोकगीतों व जागरों के बोलों याद कर जस का तस कागज पर उतार देना और पशु-पक्षियों की अलग-अलग ध्वनियों का शब्दांकन सचमुच में लेखक की याददाश्त पाठक को हैरत में डाल देती है.
काफल खाने जंगल जाते तो वहॉ चारों आर चिड़ियों की चहचहाहट ़सुनाई देती थी. कोई चिड़िया पास के ही किसी पेड़ की टहनी पर गा रही होती ’ह्वी टी-टी-टी-ह्वी’ तो कोई सीटी बजा रही होती – ’स्वीह – स्वीह!’ कहीं ’ कुर-कुर-कुर-कुर’ कहीं ’चीं चीं चीं ई ई ई वीं ची ई’ और कहीं ’ हो हो हो हो !’. जंगल के भीतर कहीं से आवाज आती ’ को को को को …..को को को को !’’ किसी ओर ’पी ई ई पी ही …….पी ई ई ….पि पी ही पी ई ई ’ सुनाई देती तो कहीं कोई चड़ी लगातार ’ पीईप- पीईप-पीईप-पीईप’ कह रही होती. कोई गाती ’ कुर-कुर कुई ई ई !’ किसी पेड़ पर बैठा कोई कठफोड़वा तने पर हथौड़ी की तरह बड़ी जोर से चोंच ठकठकाता ’ ठक-ठक-ठक-ठक-ठक’ बगल की शाख पर बैठी चड़ी कानों में अपने सुर का मधुर रस घोल देती -’ टी वी टी ई….टी टी वीऽ !’’
आत्मकथा का वह मार्मिक प्रसंग जब कक्षा- 6 में पढ़ने वाले मासूम देबी की सबसे प्यारी ईजा उसे छोड़कर अनन्त लोक की यात्रा को निकल पड़ती हैं, तो यह दृश्य हर किसी के ऑखों में ऑसू लाने को विवश कर देता है. यह और भी दुखद है कि अपनी ईजा का प्यारा लाडला देबी मरते समय उसके पास तक नहीं रहता और जब दूर ओखलकाण्डा से रातभर कई मील पैदल चलकर घर पहुंचता है तो मॉ की अर्थी घर के आंगन में देखता है.
सर के पास उकड़ू बैठे बाज्यू उठे. मेरे सिर व गालों को मुसारते (सहलाते) हुए भरे गले से बोले- च्यला तेरि ईज मरि गेछ. तुझे छोड़कर चली गई. वे अपनी अंगुलियों से मेरे ऑसू भी पोछ रहे थे. फिर अचानक उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर कहा – आ, यहॉ आ. अपनी ईजा से आखिरी बार मिल ले. मुझसे बचन ले गई, देबी जब तक पढ़ना चाहेगा, पढ़ाते रहना.
(Meri Yadon Ka Pahad Book)
उन्होंने किनारे से कफन हटाकर मेरा हाथ भीतर डाला और बोले- अपनी ईजा को अच्छी तरह छू ले. मैंने ईजा के पेट पर हथेली रखी.
सच कहें तो यह एक लेखक की अपनी आत्मकथा न रहकर पूरे पहाड़ी समाज की आत्मकथा बन गई है. जिसमें ईशारों-ईशारों में लेखक ने समाज की अच्छाइयों व विसंगतियों को बड़ी सहजता व चतुराई के साथ उजागर किया है. गैर कुमाउनियों के लिए यह न केवल यहॉ के सामाजिक ताने-बाने को समझने का एक माध्यम है, बल्कि कुछ-कुछ कुमाऊनी शब्दों की सीखने का मौका भी है, जिसका हिन्दी अर्थ पुस्तक के अन्त में दिया गया है. पुत्री मानसी के सहयोग से रेखांकन पुस्तक को और भी रूचिकर बना देता है. विशेष रूप उन गैर पहाड़ी पाठकों के लिए जो वर्णित चीजों की केवल कल्पना ही नहीं कर पाते बल्कि रेखाचित्रों के माध्यम से उनके आकार-प्रकार का ज्ञान भी कराते हैं. इतने प्रतिष्ठित लेखक की पुस्तक पर कोई समीक्षा लिखने का तो मैं दुस्साहस नहीं कर सकता, लेकिन पुस्तक को पढ़कर जो उद्गार मन में आये, उन्हें साझा किये बिना रह भी नहीं सकता.
मात्र 160 रूपये मूल्य की यह पुस्तक अमेजन की ऑनलाइन शापिंग एप्प पर भी उपलब्ध है.
(Meri Yadon Ka Pahad Book)
– भुवन चन्द्र पन्त
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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