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ओ ईजा! ओ मां! – पहाड़ की एक भीगी याद

बचपन से आज तक ईजा (मां) को कभी नहीं भूला. वह 1956 में विदा हो गई थी, जब मैं छठी कक्षा में पढ़ रहा था और ग्यारह साल का था. वह मेरी यादों में सदैव जीवित है. जब भी कठिन समय आया तो मुझे लगा मां मुझे उसका सामना करने की हिम्मत दे रही है, बाधाओं को पार करने के लिए रास्ता सुझा रही है. मैं नहीं जानता, यह कैसे होता है, लेकिन हुआ. दो-तीन बार जब भी भारी संकट आया तो सपने में मां ने आकर मुझे समझाया और कहा कि बेटा बाधा की फिक्र न कर, तुझे जीवन में और भी बहुत काम करने हैं.

और भी थे इम्तिहां

ईजा का कोई फोटो मेरे पास नहीं था क्योंकि तब गांव में फोटो खींचने की कोई सुविधा ही नहीं थी. ‘मेरी यादों का पहाड़’ में उसका चित्र देने के लिए मैंने अपनी बेटी मानसी को बैठा कर बताया कि मां कैसी थी, वह कैसी दिखती थी. उसके बारे में एक-एक चीज बताई. मैं आज भी अपनी कल्पना में उसे देखता हूं और जैसा देखता हूं वैसा ही मैंने बेटी को समझाया. उसने घर जाकर उन्हीं कल्पनाओं के आधार पर मां का चित्र बनाना शुरू किया और रात दो बजे बाद उसका फोन आया, “मैंने दादी का चित्र पूरा कर लिया है.” मां का यह वही चित्र है.

स्केच: मानसी मेवाड़ी

‘मेरी यादो का पहाड़’ में जब बड़ी शिद्दत से मां के बारे में लिख रहा था तो लगता था वह कहीं आस-पास ही हैं. आज फिर मां के बारे में लिखे उन शब्दों को पढ़ रहा हूं. लिखा है :

ईजा आती. बुरोंज खिलने के मौसम में मेरे लिए घास के गट्ठर के ऊपर रस्सी में खोंस कर बुरोंज के लाल-लाल फूल लाती. पहले उनसे खेलता, बाद में उनका शहद चूस लेता.

हम बच्चे सोचते रहते, ये ईजाएं इतनी देर में क्यों आती होंगी? इनकी कभी छुट्टी क्यों नहीं होती होगी? घर पर वे तभी होती थीं जब या तो खाना पकाना हो या तबियत खराब हो. ईजा और भौजी सुबह-सुबह घास, लकड़ियां या पात-पतेल लेने के लिए निकल जातीं. खाने के लिए या तो देर रात दो रोटी बचा लेतीं या सुबह मुंह अंधेरे बना लेतीं. गुड़ हुआ तो गुड़, नहीं तो सिल पर नमक, मिर्च, लहसुन घिस कर रोटी में लपेटतीं और दराती, रस्सी लेकर ये जा, वो जा. घासपात या लकड़ियां लेकर दिन-दोपहर में आतीं. ईजा या भौजी हम सबके लिए खाना बनाती. सबको खिला कर, पन्यानि में बर्तन घिस-घिसा कर खेतों में काम करने के लिए निकल जातीं. फसल की गोड़ाई करके, बोरी में घोड़े के लिए दूब और कुर-घा बटोर कर देर शाम घर आतीं. घोड़ा गोरु-बाछों की तरह दूसरी घासें नहीं खाता था. दूब और कुर-घा के अलावा ढेकी में मूसल से कूटे धान को सूप में फटका कर निकाला हुआ ‘कौन’ या भिगाया हुआ ‘दाना’ खाता था. जौ, गेहूं या चने का ‘दाना’.

घर लौट कर ईजा चूल्हे में आग जलाती. दूर रखे चीड़ के छिलके के उजाले में साग काट कर चढ़ाती. भौजी आटा गूंधती. ददा, बाज्यू खाने को बैठते. मुझसे कहते, “देबी, जरा लोटे में पानी दे, … थाली लाना तो जरा, … बैठने को चौका देना जरा! ” . तब ईजा कहती, “य ला, वू ला. उसको बैठ कर खाने तो दो. खा बेटा, खा तू.”

हम खा लेते तो छिलके के धुंधले, पीले उजाले में ईजा और भौजी बैठ कर, पैर लंबे करके खुद खाना खातीं. अक्सर जब वे खाना खातीं तो बाकी लोग सो चुके होते. लेकिन, कई बार “क्यों, नींद आ गई भलै?” पूछने पर वे “होई” कहते थे!

सुबह अंधेरे में उठने पर फिर वही रस्सी-दराती लेकर दिन की दौड़ शुरू हो जाती थी
(नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित मेरी पुस्तक ‘मेरी यादों का पहाड़’ से )

समय के थपेड़े
देबी के बाज्यू की चिट्ठियां

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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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