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कोई जगह किसी का इंतजार नहीं करती ?

कुछ स्मृतियां इस तरह की होती हैं कि आपका पीछा नहीं छोड़ती. सोते-जागते, उठते-बैठते आपको परेशान करते रहती है. आप उनसे मुक्त होना चाहते हैं, मगर मुक्त होने की कोई सूरत नजर नहीं आती. सतवारी की यादें भी मेरा पीछा नहीं छोड़ती. सोते-जागते कभी भी कुछ धुंधली, मगर मोहक तस्वीरें आंखों के आगे घूमने लगती हैं.

इन धुंधली स्मृतियों में फौजी क्वार्टरों के सामने एक मैदान है. ऊंची तार-बाड़ वाली बाउंड्री, उसके साथ लगी हुई एक छोटी नहर, बाउंड्री के पार सड़क और सड़क के बायें कोने पर एक बड़ी नहर का चित्र दिमाग में उभरता है. स्मृतियां और भी हैं. फौजियों के परिवारों के क्वार्टर लाईन से हैं. उन दो लाईनों के बीच में सड़क है. दो-तीन क्वार्टरों के बीच में पानी का सामूहिक नल है. घरों के आगे से गुजरती हुई नाली है, जिसमें हर वक्त गंदगी बनी रहती है. सड़क की ओर टॉयलेट हैं, जिनमें गंदगी से बजबजाते हुए डब्बे रखे हैं, जिन्हें सुबह-सुबह आने वाले सफाई कर्मी साफ करते हैं.

सतवारी जम्मू का एक उपनगरीय इलाका है, जहां स्थित फौजी छावनी में पिताजी उन दिनों तैनात थे. उन दिनों मतलब जब मैं 5-6 साल का रहा हूंगा. माँ पेट दर्द के मर्ज से परेशान रहती थी. उसके इलाज के लिए पिताजी हम सब को वहां लाये थे. छावनी के बाहर एक स्थानीय स्कूल में कुछ समय पढ़ने तथा बच्चों के साथ बाउंड्री से लगी नहर में नहाने की भी स्मृतियां हैं. कभी पिताजी के साथ आर्मी के भीतर ‘जिस देश में गंगा बहती है’ या देवानंद की किसी फिल्म की भी स्मृतियां हैं. पीर बाबा की मजार, रघुनाथ मंदिर और वैष्णों देवी की यात्रा की भी कुछ झलकें हैं.

स्मृतियां इतनी सी ही हैं. दो-तीन साल बाद वहां से आना हो गया था. मगर 40 वर्ष बाद भी सतवारी दिमाग से हटता नहीं. बार-बार आंखों के आगे घूमने लगता है. सोचता हूँ, सतवारी को मस्तिष्क अब पुरानी और महत्वहीन स्मृतियां मानकर स्थायी रूप से खत्म क्यों नहीं कर देता ? उसे पकड़-पकड़कर बार-बार सामने क्यों रख देता है. अपने पास भी ‘रबर’ जैसा कोई साधन नहीं कि उन्हें मिटा दिया जाये.

बार-बार सतवारी सामने आकर खड़ा हो जाता है. मन करता है, एक बार वहां जाकर फिर से उन जगहों को देखूं. कैसे होंगे अब वे क्वार्टर? कैसी होगी बाउंड्री से लगी नहर? सड़क पार की दुकानें. फिर ख्याल आता कि वहां जाकर क्या होगा ? वहां तुम्हें जानने वाला कौन है ? किससे मिलोगे ? इधर-उधर भटककर क्या करोगे? लोग क्या सोचेंगे? किस तरह का आदमी है, जो बचपन की यादों के पीछे भाग रहा है ? वहां का नक्शा भी तो बदल गया होगा ? उन जगहों को देखकर क्या समझ में आयेगा, और उससे होगा क्या?

एक बार ताऊजी अपने साथ अखनूर ले गये थे. वे वहां फौज में तैनात थे. मैं तब आठवीं में पढ़ता था. सतवारी जाने का मन हुआ था. संकोच के साथ भाई लोगों से कहा भी था, मगर वे मेरी तरह छोटे थे. ताऊ जी से कहने की हिम्मत जुटा नहीं पाया था. सतवारी के इतने पास आकर भी वहां न जा पाने का बड़ा मलाल रहा था.

इस बार साले हेम के ऊधमपुर में पोस्टेड होने के कारण एक बार फिर से परिवार सहित जम्मू जाने का मौका मिला. वैसे तो सभी को वैष्णों देवी मंदिर को लेकर उत्सुकता थी. मगर कहने की आवश्यकता नहीं कि मेरे मन-मस्तिष्क में सतवारी गूंज रहा था. हफ्ते भर का प्रोग्राम था. अब मैं बड़ा था, इसलिए कहीं भी जा सकता था तो एक दिन वहां के लिये भी रख लिया था.

सतवारी जाने वाले दिन हमने अमर महल पैलेस, डोगरा आर्ट म्यूजियम तथा मुबारक मंडी पैलेस को देखने का प्रोग्राम भी बना लिया था. साथ में हेम और बड़ा बेटा भावित (16 वर्ष) भी था. दोनों जगहों को देखने के बाद हम लोगों ने लोकल बस से सतवारी का रास्ता पकड़ा. बस ने एक चौराहे पर हमको उतार दिया. चौराहे का कोई चिह्न दिमाग में बचा हुआ नहीं था. सब कुछ नया और अनजाना लग रहा था. एक दुकानदार से बात करने पर पता चला कि सतवारी की वह नहर और सैनिक कॉलोनी सामने ही है. दुकानदार की बात से बड़ी राहत मिली. लगा ठीक जगह की ओर जा रहे हैं.

अचानक मेरे दिल की धड़कन बढ़ने लगी. यकीन नहीं हो रहा था कि सतवारी सामने ही है. कुछ दूर चलने के बाद एक नहर सड़क को पार करती हुई दिखी. नहर उतनी बड़ी नहीं थी, जितनी स्मृतियों में थी. दायीं तरफ आर्मी की कॉलोनी थी, जो सीमेंट की ऊंची तथा पक्की दीवार से घिरी हुई थी. कॉलोनी के सामने से एक रास्ता निकल रहा था. साफ कहूँ तो जो सामने था, वह स्मृतियों से बिलकुल मेल नहीं खाता था, लेकिन जगह तो वही थी.

दीवार के सामने मुख्य रोड थी. रोड के उस पार दुकानें थी. कॉलोनी की दीवार पर लिखा था, किसी प्रकार की संदेहास्पद गतिविधि पर गोली मार दी जायेगी. कॉलोनी के अंदर ऊंचे मचान पर तैनात सशस्त्र सैनिक चारों ओर नजर गड़ाये हुए था. मैं दीवार के अंतिम छोर पर खड़े होकर पूरे इलाके का जायजा लेने लगा. यही जगह थी. मगर सब कुछ बदल चुका था. समय, हालात, माहौल सब कुछ. स्कूल से लौटे हुए कुछ बच्चे अपने घरों की ओर जाने के बजाय सड़क के किनारे खेलने में लगे थे.

दीवार पर लिखी चेतावनी के कारण दूर से सड़क पर हो रही हलचल पर नजर रख रही दर्जनों आंखों को छोड़िए खुद मुझे भी हम लोगों का वहां पर होना संदेहास्पद लग रहा था. वहां कोई भी जान-पहचान का नहीं था. न लोग, न पेड़, न मकान, न सड़क. सब अजनबी थे. मुझे लग रहा था, हमें यहां से तुरंत निकल लेना चाहिये. हेम फौज से होने के कारण मैन गेट में खड़े बन्दे से जुगत लगाकर कॉलोनी के अंदर जाने की योजना बना रहे थे. ज्यों-ज्यों हम आगे बढ़ते गए हमें मचान पर बैठे अन्य सुरक्षाकर्मी भी नजर आने लगे.

कॉलोनी के मुख्य गेट पर तो सुरक्षा और भी कड़ी थी. गेट के ठीक ऊपर मचान पर दो-तीन सशस्त्र सैनिक तैनात थे. वहां पर खड़े होकर अभी हम कुछ सोच ही रहे थे कि मचान पर तैनात और गेट से बाहर को देख रहे सैनिकों ने हम लोगों से हटने को कहा. हेम अभी भी उनसे बात करना चाह रहे थे. मैंने कहा, जिस तरह के हालात हैं, उसमें कोई फायदा नहीं. वैसे भी अंदर का दृश्य बिलकुल बदला हुआ नजर आ रहा था. न मैदान था, न पुराने तरह के क्वाटर्स. उनकी जगह बहुमंजली इमारत नजर आ रही थी. अंदर जाकर चालीस साल पुराना कुछ नहीं दिखने वाला था. मैंने डरते हुए कुछ तस्वीरें खींची. एक बार भरपूर नजर चारों ओर डाली और हम चौराहे की ओर लौट पड़े.

कह सकता हूँ कि वर्षों बाद सतवारी जाने के बावजूद मुझे सतवारी से मुक्ति नहीं मिल पाई है. मेरी स्मृतियों की सतवारी का रंग-ढंग कुछ और था और जिसे देखकर निकले थे, वह कोई और जगह थी. ठीक ऐसे जैसे किसी मकान की जगह कोई नया मकान बन जाता है. किसी मोहल्ले की जगह नई कालोनी बन जाती है. शुक्र है उस बड़ी नहर और सड़क का जो इतने वर्षों के बावजूद अपनी जगह पर कायम रहते हुए मुझ से कह रहे थे, यही वह जगह है, जहां तुम कभी रहे थे.

पुरानी सतवारी में छावनी के हम बच्चे और बड़े कहीं भी आ-जा सकते थे. तब बंदूकें, बंकर और गोली मारने का आदेश नहीं था. सुरक्षा की चिन्ता और इन दिनों की तरह जान-माल का कोई गम्भीर खतरा नहीं था. मेरी स्मृतियों की मनमोहक पुरानी सतवारी के साथ एक नई सतवारी और जुड़ गई है, जहां मुस्तैद सशस्त्र सैनिक हैं, भय-आशंका है और संदेहास्पद होते ही गोली मारने का आदेश है. शायद यही जीवन का सच है. कोई जगह किसी का इंतजार नहीं करती.

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दिनेश कर्नाटक

भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत दिनेश कर्नाटक चर्चित युवा साहित्यकार हैं. रानीबाग में रहने वाले दिनेश की कहानी, उपन्यास व यात्रा की पांच किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. ‘शैक्षिक दख़ल’ पत्रिका की सम्पादकीय टीम का हिस्सा हैं.

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Sudhir Kumar

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