कुमाऊनी में एक मुहावरा बड़ा ही प्रचलित है ‘बुढ़ मर भाग सर’ यानि कि जो बुज़ुर्ग होते हैं वे सभ्यता, सांस्कृतिक परंपराओं के स्तम्भ होते हैं. इन्हीं से अगली पीढ़ी को सभ्यता, संस्कृति परंपराओं का अदृश्य हस्तांतरण होता है. इसी को ‘भाग सर’ कहते हैं. परंपरा, संस्कृति, संवेदनशीलता, मानवीय मूल्यों की रक्षा, विनम्रता, त्याग, शील, मर्यादा और मानवीय व्यवहार हर मनुष्य अपने परिवार से सीखता है. इन सबके मिश्रण से ही मनुष्य के अंदर संस्कारों का अंकुरण होता है. (Memoir by Dr Girija Kishore Pathak)
जहां तक मुझे याद है आमा अपने परिवार के सदस्यों के प्रति ही नहीं पूरे गांव यहां तक कि खेती-बाड़ी हलिया, ल्वार (लोहार) ओड़, टम्टा, खेतों की गुड़ाई-निराई, हुड़की बौल लगाने वाले सारे ग्रामीण श्रमिकों का बहुत सम्मान करती थी. जब भी फ़सल का मौसम होता था तो सबके हिस्से का अनाज ही नहीं दाल, मिर्च, नमक जैसी छोटी-छोटी चीजें भी उनके परिवार के लिए अलग से रखती थी. ढोलियों (मंदिरों में ढोल, दमुआ के साथ मंदिरों में अर्चना का काम करने वाले दास) का भी सम्मान करने का उनका अलग तरीका था. ढोली हमारे गाँव डौणू-दसौली के इर्द-गिर्द के मंदिरों — कोटगाडी, नौलिंग, बजैड़, मूलनारायण, हाट कालिका, संपूर्ण नागलोक मंदिर समूहों में पूजा अर्चना में इश्वरीय वाद्य यंत्रों को बजाने का काम करते थे. वे दमुआ-ढोल बजाते थे उनका हर सीजन की फसलों में विशेष हिस्सा अलग से रखा जाता था. शायद यह परंपरा रही होगी या उन्होंने इसे शुरू किया मैं बहुत नहीं जानता.
हर क्षेत्र की अपनी संस्कृति होती है. कुमाऊँ की अपनी लोक संस्कृति है. यहाँ के लोग उत्सवधर्मी हैं. आमा को 16 संस्कारों का पूरा ज्ञान था. मुझे याद है कि बच्चों की अभिरूचि के त्यौहारों को मनाने में भी आमा विशेष रुचि लेती थी. खतडुआ, घुघूतिया, फूलदई, जन्यापुन्यू (रक्षाबंधन), भैया दूज को हम सब जी भर कर मनाते थे. पूरे गांव के बच्चे त्यौहारों का इंतजार करते थे. इसके अतिरिक्त बिख्खू, बिखौति, बिरुड़ पंचमी, नाग पंचमी, सातों-आठों की गवारा, होली की चीर, छरड़ी, पुन्यू, पड्याव, दशमी, अष्टमी सभी अवसरों पर किन मंदिरों के लिए किस तरह की पूजा सामग्री रखनी है उसमें परिवार का क्या दायित्व है इसका विशेष ध्यान रखती थी. गांव में किन-किन बच्चों की शादी होनी है. उन्हें परिवार की तरफ से दहेज क्या दिया जाना है? कौन सी विवाहित बच्ची गांव में आई है. उसे क्या दिया जाना है. किसी गरीब परिवार को अगर भोजन की अवश्यकता हो तो किस तरह से मदद पहुंचानी है, इन दायित्वों के निर्वाहन में उनका एक अद्भुत प्रबंधन होता था ,जो सीखने लायक था. किसी गरीब की मदद के लिए हमेशा तत्पर रहती थी. उनका ह्रदय अत्यधिक संवेदनशील था शायद इसलिये कि उन्होंने गरीबी, भूख के साथ संधर्ष किया था. आज से 40 बरस पहले गाँव का 90 फीसदी काम वस्तु विनिमय पर चलता था. माड़ा, नाली (instrument of weight measurement in kumaon) के हिसाब से काम के बदले अनाज दिया जाता था. उस जमाने मे पूरे गांव की जीवन रेखा खेती ही होती थी. गाँव शत-प्रतिशत आबाद थे. आज 60% गाँव पलायन के शिकार हैं. पहले भी लोग शहरों की ओर नौकरी-चाकरी के लिए बाहर जाते थे पर अपने गाँव को नहीं छोड़ते थे. विगत 30-35 सालों मे ये परंपरा सुदृढ़ हो गयी है. वीपील कार्ड सिस्टम ने यद्यपि भूख को समाप्त किया है लेकिन उसके बाद तो खेत खलिहान ही बंजर हो गये है.
मेरे लिये कर्मपथ की लकीर : कालानतर में बाबू लाहौर से पढ़कर मास्टर हो गये. पूरा गांव उनको पंड़िज्यू ही कहता था. हमारी तुलनात्मक रूप से आर्थिक स्थिति बेहतर हो गयी थी. एक बार गांव के भौनी जेठबौज्यू ने आमा से 100 रुपए उधार लिया होगा और माली हालत के कारण लौटा नहीं पाये होंगे. जब मैं स्कूल जाता था तो रास्ते में उनका घर पड़ता था. आमा ने कहा था पैसा मांग ले आना जरूरत है. मैं करीब तीन-चार बार उनके घर तगादा करने गया. लेकिन उन्होंने बार-बार कहा कि अभी नहीं हैं. मेरे साथ में कई विद्यार्थी स्कूल से साथ आते-जाते थे. एक दिन में चिढ़कर उनके घर से एक तांबे का घड़ा उठाकर घर ले आया. आमा को बताया कि हमने चार-पांच बार उनसे पैसा मांगे, उन्होंने पैसा नहीं दिया इसलिए हम उनका तांबे का घड़ा उठा कर ले आए. पहली बार मैंने आमा का रौद्र रूप देखा. कड़ी डांट अत्यधिक नाराजगी शायद एक आध थप्पड़ भी और बोला कि तत्काल जाओ. वह तुमसे वे कितने बड़े हैं! तुम कैसे उनके घर से तांबे का घड़ा उठा कर ले आए? जाओ तत्काल वहीं घड़ा रख कर आओ. मैं गया घड़ा वहाँ रखकर क्षमा मांग कर घर वापस आया. आमा को उनके आदेश की तमिली दी. यह थी उनकी सूक्ष्म संवेदना. यह घटना मुझे सीख दे गयी कि जीवन में अर्थ नहीं मानवीय मूल्य और संवेदनाएं महत्वपूर्ण हैं.
कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि आमा को सब पता था कि यह सब अनिर्वचनीय है. वे ‘इदं न मम’ के सूत्र पर चलती थी. आमा जब दुनियादारी के दु:ख नहीं झेल पाती थी तो एक दोहा सुनाती थी —
‘घर को दुखिया वन गयो वन में लागो बाघ.
बाघकि डरले रुख गयो रखै लागी आग.
वन बेचारा क्या करे करमें लागी आग.’
यानि घर से दुखी होकर आदमी जंगल (वन) चला गया उसके भाग्य से जगंल में नरभक्षी बाघ आ गया. उसकी डर से बेचारा पेड़ (रूख) पर चढ़ गया दुखिया का दुर्भाग्य देखिये पेड़ में आग लग गयी.
सार ये है कि दुख से भागने वाला बेचारा क्या करें जब उसका करम (भाग्य) ही फूटा है.
आज शहर में हजारों लोग फुटपाथ पर भूखे सोते हैं. गाँव मे ढोली, हलिया, लोहार, टम्टा, बामड़, खस्सी, जिमदार, कोई भूखा नहीं रहता. वड़ के लिये भले ही लड़ें, पर कठिन समय में सब अपने सुख-दुख बांटते हैं, कोई आत्महत्या नहीं करता. मिलजुल कर जीने का नाम है गाँव. हमारी विरासत को जहन में डालने में आमा के अलावा ईजा-बाबू, दद्दा-दीदी, भुला-भुली, काका-काकी, इष्टमित्र और बचपन के लंगोटिए कई किरदार है, जिन्होंने कुम्हार की तरह इस घड़े को स्वरूप दिया है. उन्हें मैं नमन करता हूं. आमा अब इस लोक में नहीं हैं उसके पुरुषार्थ को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम भी अपनी पीढी को अपने लोक संस्कार, परंपरायें और संस्कृति को स्थांतरित कर सकें. यहाँ अमर कौन हैं? शायद नाम के सिवा कोई नहीं. जिन परंपराओं, संस्कारों के वट वृक्ष को उन्होंने हमारे अंदर पोषित किया वह हमारे उत्तरदायित्वों को बढ़ा देते हैं. जिम्मेदारी है उसे अगली पीढ़ी को देते जाए. नहीं तो बुढ़ तो जाएंगे ही भाग, सभ्यता, संस्कृति परम्पराएं विलुप्त हो जाएंगी.
पिछली क़िस्त का लिंक : वड़ की पीड़ा और आमा के हिस्से का पुरुषार्थ
मूल रूप से ग्राम भदीना-डौणू; बेरीनाग, पिथौरागढ के रहने वाले डॉ. गिरिजा किशोर पाठक भोपाल में आईपीएस अधिकारी हैं.
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