कहो देबी, कथा कहो – 40
पिछली कड़ी- कहो देबी, कथा कहो – 39
वह दौर और वे दिन! कितना कुछ याद आता है. गांव से आने वाली बाज्यू की वे चिट्ठियां जो बड़े-बड़े अक्षरों में वे अपने हाथ से लिख कर भेजते थे, कुछ इस तरह:
प्रिय देबी, तहां की कुशल ठीक ही होगी. यहां के हाल-समाचार ठीक हैं. अपना और बच्चों का ख्याल रखना. बेटा, यहां का क्या बताऊं. फसल-पानी चौपट है. इस साल बरखा हुई ही नहीं. फसल क्या होती. एक बैल भी खतम हो गया है. अब बेटा, तू ही जो मदद करेगा तो बैल खरीद लेंगे. बाकी सब ठीक है. तू कहता था, धूरे में बगीचा हो जाता तो अच्छा होता. मैं भी यही सोचता हूं. तेरे भाई ने भी कभी वहां सेब के पेड़ लगाए थे. लेकिन, वहां जानवर उज्याड़ खा देते हैं. पाथरों की दिबाल जगह-जगह से टूट गई है. तू तारबाड़ की बात कर रहा था. उसमें तो बहुत खर्चा आएगा. फिलहाल, तू मदद करेगा तो दिबाल की मरमत करा लेंगे. बाकी यहां की कोई फिकर मत करना बेटा. अपना जतन करना.
– दस्तखत किशन सिंह
बाज्यू की चिट्ठियां शिद्दत से गांव याद दिलाती रहती थीं. बीच में जब कभी गांव जाता तो धूरे की ज़मीन में मेरी कल्पना का बगीचा जंगल ही नज़र आता था. एकाध बार दुखी होकर बाज्यू से कहा भी, “आप लोगों की अब काफी उम्र हो गई है. धीरे-धीरे खेतों में काम करना आपके लिए मुश्किल होता जाएगा. अगर आप लोग अब भी बगीचा बना लेते हैं तो पांच-सात साल बाद आपको उससे आमदनी मिलने लगेगी. जानवर लेकर तल्ली-मल्ली सारी (गांव में नीचे और ऊपर के खेत) और वन-बनौलिया या माल-भाबर कब तक जा सकेंगे? एक दिन तो यहां गांव में रुकना ही पड़ेगा. अगर उस दिन आपके पास फलदार बगीचा होगा तो कितना आराम मिलेगा? इसलिए जानवर धीरे-धीरे कम कर दीजिए. धूरे में बहुत पहले जब तक ईजा (मां) थी, आप लोग कितना आलू उगाते थे. अब वह जमीन करीब-करीब बंजर पड़ी हुई है. वहां रहिए, खाद-पर्सा डालिए, सेब और आड़ू, नाशपाती के पेड़ लगाइए, फिर देखिए कैसे नहीं बनता है बगीचा.”
बाज्यू ने इतनी देर तक सुनने के बाद लंबी जंभाई लेकर कहा, “द, कब तेरे पेड़ लगेंगे, कब वे बड़े होंगे और कब उनमें फल लगेंगे? कहने की बात हुई बस,” और वहां से उठ कर चले गए. मेरी कल्पना का बाग बस सब्जबाग ही बन कर रह गया.
एक बार बाज्यू की चिट्ठी मिली कि ‘तू वहां नौकरी कर रहा है. यहां घर की भी फिकर किया कर.’ मैं चौंका, कि मैं क्या नहीं कर रहा हूं? पूरे परिवार में अब एकमात्र मैं ही तो कमाने वाला सदस्य था. छोटी-सी तनखा मिलती थी. पंतनगर में भी बच्चे पढ़ रहे थे, ओखलकांडा में भाभीमां के पास भी, और नैनीताल में भी बड़ी बेटी पढ़ रही थी. हम सब अपने-अपने हिस्से का संघर्ष कर रहे थे. भाभीमां ने इस बीच बुनाई की मशीन की ट्रेनिंग भी ले ली थी. हाथ से तो वे बहुत अच्छा बुनती ही थीं. कुछ समय बुनाई मशीन से भी थोड़ी आमदनी मिलने लगी लेकिन बाद में वह काम भी नहीं चल सका. वे ओखलकांडा इंटर कालेज में ही रहकर बच्चों को पढ़ाई की राह पर आगे बढ़ा रही थी. अब बाज्यू भी ज्यादातर वहीं बच्चों के साथ रहने लगे. बीच-बीच में कभी उनकी कोई कड़ी चिट्ठी आ जाती. मेरी नौकरी का काम ऐसा था कि वह केवल मुझे ही करना था. मेरी अनुपस्थिति में कोई दूसरा नहीं करता था. इसलिए मैं छुट्टियां अधिक नहीं ले सकता था.
एक बार बाज्यू की ऐसी ही किसी कड़ी चिट्ठी के जवाब में मैंने उन्हें लिखा, “पूज्यवर पिताजी, आपकी चिट्ठी मिल गई है. नौकरी के अलावा हमारा और कोई सहारा नहीं है. इसलिए नौकरी का बहुत ध्यान रखना पड़ता है. मैं शाम को छुट्टी के बाद भी काम में लगा रहता हूं ताकि मेरे काम में कहीं कोई कमी न रहे. पिताजी, आपको तो खुशी होनी चाहिए कि आपने मेरे रूप में एक छोटा-सा पौधा लगाया जो आज एक पेड़ बन गया है और अपनी जड़ों पर खड़ा है.”
लौटती डाक से बाज्यू का उत्तर मिला, “बेटा, तुम्हारी चिट्ठी मिली. तुमने लिखा है, कि आपका लगाया पौधा अब पेड़ बन गया है. हां, मुझे बहुत खुशी है कि वह पौधा अब एक पेड़ बन गया है. लेकिन, बेटा क्या करूं, वह पेड़ फल ही नहीं देता.”
बाज्यू का तुर्की-ब-तुर्की जवाब पाकर पहले तो जोर से हंस पड़ा, फिर अपनी मजबूरी पर रोना आ गया. काश, मुझे इतने पैसे मिलते कि मैं घर को भी, बच्चों को भी जरूरत के मुताबिक पैसे भेज पाता और शहर में आसानी से परिवार का खर्चा भी चला सकता.
पूरे परिवार के संरक्षक ददा दुनिया से विदा हो चुके थे और हम किसी तरह हाथ-पैर मार कर समय की तेज धारा को पार करने की कोशिश कर रहे थे. ददा को गए डेढ़-दो बरस ही बीते थे कि खबर मिली, गांव में बड़ी भाभी नहीं रहीं. परिवार की नींव का एक और पत्थर टूट गया. गांव में परिवार के तीन ही लोग तो थे- बाज्यू, बड़े ददा और बड़ी भाभी. पूरी खेतीपाती और जानवरों की जिम्मेदारी वे ही संभाल रहे थे.
बाज्यू तो छोटे ददा के विदा होने के बाद से आए दिन बच्चों के पास ही आने-जाने लगे थे. इसलिए घर में ज्यादातर बड़े ददा और भाभी ही रहते थे. एक ही बेटी थी कुंती, जिसकी शादी हो चुकी थी. बड़े ददा, बड़ी भाभी के जानवरों के साथ माल-भाबर चले जाने पर घर के सन्नाटे में बाज्यू अकेले रह जाते. अब बड़े ददा के साथ भी वैसा ही हो गया. उनके बारे में सोच कर मुझे बरबस निराला जी की दर्द भरी पंक्तियां याद आ जातीं- ‘दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूं जो कुछ नहीं कही.’ बचपन से उन्होंने दुख झेले थे. दो-तीन सुंदर बच्चे हुए, लेकिन बचे नहीं. साल-छह माह के भीतर ही चल बसे.
मैं परिवार के साथ पंतनगर में था. बड़ी भाभी के न रहने की खबर मिलने के बाद हल्द्वानी पहुंचा. रात राजपुरा ‘मेवाड़ी भवन’ में रहा. तब नियमित रूप से योगासन किया करता था. सुबह पांच बजे उठ कर छत पर आधा-पौन घंटा योगासन लगाए. गांव के लिए बस नहीं मिल पाई. तब गांव तक पैदल जाने का निश्चय किया. चचेरा भाई खीम सिंह और गांव का ही भतीजा हिम्मत सिंह दोनों साथ चले. खीम ने जल्दी में रास्ते के लिए एक डबलरोटी खरीद ली. हम हल्द्वानी से विजयपुर का उकाव (चढ़ाई) पार कर हैड़ाखान, जंगल ही जंगल गाजा, ऐंठान, दुमाल होकर कापड़ाक चांच के विकट उकाव में पहुंचे. भूख के मारे हालत खराब हो चुकी थी. डबल रोटी बहुत पहले खा चुके थे. दुमाल में छल-छल बहती नदी के पानी में पैर भिगोए और अंजुली में भर-भर कर नदी का पानी पिया. कापड़ाक चांच के पैताने आम के वे दो छायादार पेड़ दिखे जो माल में हमारे ककोड़ गांव के तोक त्वरताल के डुंड़ ठुलबाज्यू ने वर्षों पहले कभी लगाए थे. आज हम उनकी छांव में बैठे थे. उनकी एक बेटी थी जिसकी शादी हो चुकी थी. अपने गोठ में ठुलबाबू और ठुल ईजा अकेले रहते थे और जब कभी हम बच्चे उनके पास जाते तो वे खीर खिलाते थे. आज के ये छायादार पेड़ ही लोगों को उनकी याद दिलाया करते थे.
पत्थरों और रोड़ियों से भरे, रूखे-सूखे कापड़ाक चांच की चढ़ाई में अट्ठारह बैंड यानी घूम थे. हमने एक-एक कर सभी घूम पार किए. नीचे दूर दुमाल की नदी दिखाई दे रही थी. उकाव अभी खत्म नहीं हुआ था. हम और ऊपर चढ़ते गए. भूख से पेट में मरोड़ें उठ रही थीं. बाज्यू ऐसी भूख के लिए कहा करते थे- यसी भूख लागिछ कि रूख-डाल खान हन मन करनेर भै! (ऐसी भूख लगी कि पेड़-पौधे खा जाने को मन करता था). खैर, चलते-चलते हम अपने गांव के सिरहाने पहुंचे. फिर हिम्मत सिंह के घर. आसमान में तारे उग आए थे. जाते ही उसने आलू और रोटियां बनवाईं. हल्द्वानी से भी अल्सुबह चल पड़े थे और सारा दिन चलते ही रहे. खाना देखते ही हम रोटियों पर टूट पड़े. कितनी खाईं, किसे पता?
हमारा मकान वहां से एकाध किलोमीटर नीचे था. टार्च के उजाले में कच्ची सड़क पर गिरते-पड़ते नीचे अपने मकान में पहुंचे. वहां ददा, बाज्यू के अलावा हमारी बाखली (जुड़े हुए मकानों की कतार) के दो-चार लोग बैठे हुए थे. मैंने पूछा, “क्या हुआ भाभी जी को?”
“द, कौन जाने क्या हुआ? ज्वर-मुड़ा सोच रहे थे हम तो.”
“तो कोई दवाई वगैरह नहीं दी?”
“दवाई क्या करती,” उकड़ूं बैठे हुए एक आदमी ने बीड़ी का कस लेते हुए कहा, “द्यौ-देवता की पकड़ हुई, दवाई का क्या काम?”
“होई, पहले सासू को पकड़ा था, अब इसे ले गई. कितने जो उपाय कर दिए महराज, छोड़ा फिर भी नहीं. पिछले ही दिनों जागा लगाई थी, पूजा देंगे करके जो सोचा था, उससे पहले ही उठा ले गई. ये तो जो हुआ सो हुआ, अब देखो इसके बाद किसको पकड़ती है.”
मैं हैरान होकर कभी इनकी, कभी उनकी बात सुन रहा था. भाभी जी के प्राण चले गए और वे लोग बूबू-पड़बूबू (दादा-परदादा) के समय से इस द्यौ-देवता की पकड़ की बात कर रहे हैं.
“क्यों गांव में आयुर्वेदिक का ही सही डाक्टर कंपाउंडर तो है सुना. उसे दिखा सकते थे,” मैंने कहा.
“डाक्टर क्या कर लेता? उसके बस का जो क्या हुआ यह केस?” किसी ने कहा.
यानी, जो हो गया, हो गया की बात की जा रही थी. बारहवें दिन आत्मा की मुक्ति के लिए पीपलपानी की रस्म निभा दी गई.
बड़े ददा और बाज्यू को अकेला छोड़ कर मैं नौकरी पर वापस लौट गया. उनके अलावा घर में दो-चार गाय-भैसें, बैल और एक घोड़ा भी था. वे सभी अब बड़े ददा और बाज्यू पर निर्भर थे. मूक जानवर थे तो क्या हुआ, गुस्यांनी (मालकिन) चली गई करके तो अब तक वे भी समझ ही चुके होंगे. सब कुछ समझते थे वे.
फिर मैं लखनऊ, फिर दिल्ली. इस बीच मेहनत से पढ़ते छोटे ददा के बच्चे आगे बढ़ते रहे. बड़ा बेटा मदन हर कक्षा में प्रथम आता और प्रथम स्थान पर रहता. आठवीं कक्षा के बाद उसका चयन मेधावी विद्यार्थी के रूप में राजकीय इंटर कालेज, अल्मोड़ा के लिए हो गया. यह पढ़ाई की आवासीय सुविधा थी और वहां जाकर वह वजीफे पर पढ़ने लगा. छोटी बेटी को भी राजकीय इंटर कालेज, ओखलकांडा में वजीफा मिल गया.
उसी दौर में न जाने क्यों बाज्यू की चिट्ठियों का स्वर बदल गया. कुछ इस तरह की चिट्ठियां मिलने लगीं:
‘प्रिय देबी, तू परिवार के साथ राजी-खुशी होगा. तू इधर बहुत दिनों से घर को भी नहीं आया. समझ में नहीं आता, तू इन बच्चियों की शादी के बारे में कुछ क्यों नहीं सोच रहा है. तेरा बड़ा भाई भी गांव में अकेला है. उसके बारे में भी तूने सोचना है. तू कर क्या रहा है. तेरा दिमाग खराब तो नहीं हो गया है. फौरन से पेश्तर जवाब देना. घर आना. तेरा पिता- दस्तखत किशन सिंह.
मुझे ऐसे पत्र पढ़ कर दुख तो होता ही, हैरानी भी होती थी क्योंकि वे पत्र बाज्यू के हाथ से लिखे नहीं होते थे. किसी चिट्ठी में उनके दस्तखत तो होते लेकिन बाकी चिट्ठियों में उनके दस्तखत भी चिट्ठी लिखने वाला ही कर देता. एक बार गांव जाने पर बड़े ददा से पूछा भी, उन्होंने कहा, “बाज्यू न जाने किससे लिखवा लेते हैं चिट्ठी. मैं कहता भी हूं कि उल्टी-सीधी बात मत लिखना. वह शहर में नौकरी कर रहा है, खाली परेशान होगा. वहां कौन अपना हुआ? फिर चिट्ठी लिखने वाला भी क्या सोचता होगा कि अपने बेटे को क्या-क्या लिखवाते रहते हैं. मत भेजिए ऐसी चिट्ठी. यहां ऐसी क्या परेशानी हो रही है? फिर भी पता ही नहीं लगता, वे कब, कहां किससे चिट्ठी लिखवा लेते हैं.”
बाज्यू पंतनगर आते थे तो मैं बातचीत में उन्हें समझा देता था कि बेटियां अभी छोटी हैं. यह उनकी शादी की नहीं, पढ़ने की उम्र है. आज ददा होते तो क्या इतनी छोटी बच्चियों की शादी कर देते? वे कभी नहीं करते. उन्हें पढ़ा-लिखा कर पैरों पर खड़ा होने देते. फिर भी वे जब भी आते, घुमा-फिरा कर कह ही देते कि लड़कियों को कौन पढ़ाता है, उनकी शादी कर देनी चाहिए. उधर, बच्चों का संघर्ष जारी था. वे अपनी हर कक्षा में आगे बढ़ रहे थे. बड़ी बेटी ने नैनीताल में बी.एस.सी. करने के बाद अल्मोड़ा से बी.एड. और नैनीताल से एम.एस.सी. कर लिया. दूसरी बेटी ने बी.ए., बी.एड., एम.ए. और तीसरी बेटी ने नैनीताल से बी.एससी. के बाद गणित में प्रथम श्रेणी में एम.एस.सी. कर लिया. बड़ा बेटा इंजीनियरी परीक्षा में पास होकर इंजीनियरी की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद चला गया और दोनों छोटे बेटों ने नैनीताल से एम.ए. कर लिया. उस पूरे दौर में भाभीमां बच्चों के लिए मशाले-राह बनी रहीं. आज तीनों बेटियां वरिष्ठ शिक्षिकाएं हैं, बड़ा बेटा एक जानी-मानी कम्प्यूटर कंपनी में सीनियर वाइस प्रेसिडेंट, दूसरा बेटा एक टेलीविजन चैनल में और छोटा बेटा स्वरोजगार कर रहा है. भाभीमां पढ़ाने के बाद बच्चों की शादी भी कर गईं. जीवन भर शिक्षा का प्रकाश फैलाने वाले शिक्षक ददा के सभी बच्चे कठिन संघर्ष के बाद आज अपने पैरों पर खड़े हैं. मेरा जीवन भी वे ही बना गए. इसलिए अक्सर कहता हूं, वे मेरे भी माता-पिता हुए और बच्चों का मैं बड़ा भाई भी हुआ.
हां तो मैं कह रहा था, मैं परिवार के साथ दिल्ली पहुंच गया. अधिकांश समय काम में उलझा रहता. विभाग में मुखिया के बाद मेरा स्थान था जो वहां वर्षों से मैनेजर रहे साथी को शायद जमा नहीं. आए दिन उनकी कुढ़न कई तरह के रंग दिखाती. मैं उनके मनोविज्ञान को समझता था. वे वर्षों से वहां थे, इसलिए मुखिया के करीबी थे. विभाग में पहले दिन ही मुझे बता दिया गया था कि उनको कोई काम मैंने नहीं देना है क्योंकि वे विभाग की बहुत सेवा कर चुके हैं और उनका स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता. मुझे अपने काम से मतलब था इसलिए कोई दिक्कत नहीं थी. फिर भी वे दांव-पेंच चलाते रहते. वे बैसाखियों के सहारे चलते थे और अक्सर तबियत खराब होने पर अस्पताल में भर्ती होते रहते थे. कभी मुझ पर मुखिया झल्ला उठे तो उनके चेहरे पर चमक आ जाती थी. मैंने एक बार उनके पास बैठ कर प्यार से कहा, “बैंकिंग में आप मुझसे अधिक अनुभवी हैं, शाखाओं में रहे हैं, जो आपको आता है वह मुझे नहीं आता, मैं आपका इतना आदर भी करता हूं, सदा आप कह कर बात करता हूं. मैं तो मात्र एक तकनीकी अधिकारी हूं और केवल जनसंपर्क तथा प्रचार का विषय जानता हूं. फिर, आपको मुझसे दिक्कत क्यों है?”
“क्योंकि तुम सीनियर मैनेजर हो,” उन्होंने व्यंग्य भरी मुस्कान के साथ कहा.
मैंने कहा, “इसमें तो मेरी कोई गलती नहीं. बैंक ने इंटरव्यू लेकर मुझे सीनियर मैनेजर बना दिया, मैं क्या करूं? आप तो इंटरव्यू देते नहीं.” उन्होंने बात बदल दी. उन्होंने मुझे घर पर केवल दो बार फोन किया. एक बार तब जब मेरी छोटी बेटी का हाईस्कूल का रिजल्ट आना था हालांकि उनके पास उसका रोल नंबर नहीं था. उस दिन एकदम सुबह साढ़े पांच बजे उनका फोन आया और उन्होंने कहा, “अरे भई रिजल्ट तो निकल गया है लेकिन तुम्हारी लड़की का रौल नंबर मुझे उसमें नहीं दिखा.” उन्होंने फिर फोन रख दिया. बाद में अखबार आने पर हमने रिजल्ट देखा. मेरी बिटिया हाईस्कूल में पास हो चुकी थी. दूसरी बार जब उनका सुबह-सुबह फोन आया तो वे बोले, “तुम्हारी बेटी के लिए एक अच्छा विज्ञापन आया है. नर्स की ट्रेनिंग के लिए है. तुम उससे फार्म भरवा सकते हो.” मैं उनका फोन सुनकर हैरान रह गया और सोचने लगा कि आखिर कोई आदमी ऐसा क्यों करता होगा?
हैरान तो मैं और भी अधिक तब रह गया, जब वे विभाग से रिटायर होकर दो महीने बाद फिर वहां आए तो पेंट की दोनों जेबों में हाथ डाल कर घूमते हुए आए. हमने आंखें फाड़ कर उन्हें देखा और पूछा, “यह चमत्कार कैसे हुआ?”
उन्होंने अपनी तीर्थ यात्रा की एक लंबी कहानी सुनाई कि, “मुझे सपने में एक तीर्थ में आने के लिए कहा गया. मैं लोगों के साथ बस में बैठ कर वहां गया. अचानक बिना बैसाखियों के बस से उतर कर पहाड़ की सीढ़ियों पर चढ़ा और मंदिर में पहुंच गया. बस, उस दिन से बैसाखियां छूट गईं,” उन्होंने मुस्करा कर कहा. हम उनकी बात सुनते ही और उन्हें देखते ही रह गए.
विभाग में मैं अकेला सीनियर मैनेजर था. धीरे-धीरे आउटडोर एडवर्टाइजिंग, प्रदर्शनी, प्रेस एडवर्टाइजिंग, रेडियो-टेलीविजन एडवर्टाइजिंग, डोनेशन, इनोवेटिव बैंकिंग यानी रक्तदान, मेडिकल कैंप, कैंसर जांच आदि, संसद की ओर से पूछे गए सवालों के उत्तर, भारतीय बैंक एसोसिएशन की बैठकों के लिए बैंक के अध्यक्ष की टिप्पणियां, प्रेस कवरेज आदि सभी कामों की जिम्मेदारी धीरे-धीरे मेरी ओर आ गई.
उन्हीं दिनों की बात है. एक दिन अपनी सीट पर काम कर रहा था कि फोन बजा. मैंने कहा, “हैलो” फोन पर दूसरी ओर से आवाज आई, “पीआरओ बोल रहे हो?”
“जी हां,” मैंने कहा.
“प्रेस विज्ञापनों का काम तुम्हीं देखते हो?”
“हां, मैं देखता हूं.”
“तो सुनो, मैं लोकसभा एनैक्सी से बोल रहा हूं. तुम्हें पता होगा, हम हर साल कुछ पुरस्कार देते हैं. ये उच्च स्तर के पुरस्कार हैं और एक भव्य समारोह में लोकसभा अध्यक्ष स्वयं देते हैं. इस बार का बैंकिंग का पुरस्कार तुम्हारे बैंक के चेयरमैन को देने पर विचार कर रहे हैं.”
“यह तो अच्छी बात है,” मैंने कहा.
“पहले पूरी बात सुन लो. करना यह है कि इसके लिए एक पचास हजार रुपए का विज्ञापन देना होगा. उसके साथ अपने चैयरमैन का बायोडाटा भेज दो. आज या कल तक भेज देना होगा. हम अधिक नहीं रुकेंगे. कुछ दूसरे बैंकों के चेयरमैनों के भी नाम हैं हमारे पास. लेकिन, पहले हम तुम्हारे बैंक के चेयरमैन के नाम पर विचार करेंगे. इसलिए जल्दी भेजो,” उधर से कहा गया.
“लेकिन आप का नाम क्या है सर?” मैंने पूछा.
“मणि मधुकर”
मैं जैसे आसमान से गिरा. मणि मधुकर? यानी मेरे प्रिय लेखक? ‘पत्तों की बिरादरी’, ‘सफेद मेमने’, ‘दुलारीबाई’, ‘खंड-खंड पाखंड पर्व’ के रचनाकार? वे जो मुझे कभी हैदराबाद में ‘कल्पना’ पत्रिका के ऑफिस में मिले थे? अच्छा हुआ, उन्होंने मुझसे बात की. ऐसा खरीदा हुआ पुरस्कार न हमारे बैंक के चेयरमैन को लेना चाहिए, न किसी दूसरे बैंक के चेयरमैन को. मैं चुप्पी साध गया. अगर सीधे चेयरमैन सचिवालय में किसी से बात होती और कहा जाता कि आपके पीआरओ से बात हुई थी तो खतरा हो सकता था. लेकिन, मैं मौन ही रहा. कुछ समय बाद समाचारपत्रों में मणि जी की कीमती पत्थरों, हीरे-नगीनों की विशेषज्ञता के बारे में पढ़ा तो अफसोस हुआ कि भटकी हुई रचनाधर्मिता का यह रूप भी हो सकता है.
वह मेरे लिए काम की भाग-दौड़ का चरम दौर था. बाकी काम तो देख ही रहा था, परिस्थितियां ऐसी बनी कि बैंक की पत्रिका ‘पीएनबी स्टाफ जर्नल’ को देखने की जिम्मेदारी भी मुझे दे दी गई. दिल्ली में दोनों बड़ी बेटियों के एडमिशन में कठिनाई हो रही थी इसलिए मैंने उन्हें नैनीताल भेज कर कुमाऊं विश्वविद्यालय में पढ़ाने का निश्चय किया. जुलाई माह के शुरू में उन्हें लेकर मैं नैनीताल चला गया और विश्वविद्यालय के डीएसबी कैंपस में उनका एडमिशन करा दिया. दिल्ली लौटा तो पत्नी ने बताया,“ सुनो, एक बुरी खबर है, ससुर जी नहीं रहे. गांव से दो लोग आए थे. कह रहे थे, बारहवें दिन उनके पीपलपानी के अवसर पर भोज वगैरह के खर्चे के लिए पैसे की जरूरत है. मैंने उन्हें बताया कि तुम बेटियों के एडमिशन के लिए नैनीताल गए हो. खर्चा वगैरह कर लेना, वे आकर सारे पैसे चुका देंगे.”
मैं हतप्रभ सोचता रह गया- यह कैसा दिनों का फेर चल रहा है? मैं क्या करूं? अगली सुबह आफिस गया और मुखिया को बताया, “मेरे पिताजी का निधन हो गया है, मुझे गांव जाना होगा.”
“पीएनबी स्टाफ जर्नल की पांडुलिपि तैयार करके प्रेस को भेज दीजिए. उसके बाद चले जाइए,” उन्होंने गंभीर स्वर में जवाब दिया.
हालांकि यह काम मेरे दो अन्य साथियों का था, लेकिन इन दिनों वह मुझे दिया गया था इसलिए उसे प्रेस को भेजना मेरी जिम्मेदारी थी. पांडुलिपि को पूरी तरह तैयार करने में दो-तीन दिन लग गए. फिर मैं कुछ दिन की छुट्टियां लेकर बस से गांव को रवाना हुआ. दिल्ली से हल्द्वानी, हल्द्वानी से नैनीताल, फिर भटलिया जहां मेरी बड़ी भतीजी शिक्षिका के रूप में काम करने लगी थी और भाभीमां भी वहीं रह रहीं थीं. बाज्यू वहां भी आते रहते थे. भाभीमां और मैं वहां से गांव के लिए रवाना हुए. वहां जाकर मैंने बड़े ददा से पूछा, “बाज्यू को हुआ क्या था?”
“द कुच्छ नहीं, थोड़ा बुखार और सर्दी-जुकाम जैसा हुआ. पेट भी चल पड़ा. इसलिए कमजोरी हो गई. हर समय चलते-फिरते रहने वाले बाज्यू परास्त पड़ गए और एकाध हफ्ता खाट पकड़ ली. मुझे लग रहा था कि इस बार अब बाज्यू शायद ही उठ सकें. वैसा ही हुआ. तुझे बहुत याद करते थे. हफ्ते भर में सब कुछ हो गया. इसलिए तुझे खबर नहीं कर पाए.”
“खाना खाते थे?”
“मुश्किल से. बस उनका दही खाने का बहुत मन होता था जो उन्हें सदा पसंद था. जब बहुत कमजोर हो गए तो मैंने उनसे कहा- आपकी तबियत ज्यादा ही खराब लग रही है, अगर आपको कुछ हो-हुआ गया तो बाद में फूल (अस्थियां) हरिद्वार जाकर गंगा में डाल आवूंगा. ठीक है?”
“ना, ना, ना, कहीं जाने की जरूरत नहीं बेटा. मेरी राख में से एक मुट्ठी भी राख मत उठाना. शरीर जैसे जलेगा, छारा (राख) बन जाएगा. उसे वैसे ही रहने देना, बस पानी से ठंडा कर देना. उन्होंने बाद में फिर कमजोर आवाज में कहा- “मुझे दही पिला दे. मैंने उन्हें दही पिलाया और उसके साथ ही उनके परान उड़ गए,” ददा ने आंखें पौंछते हुए कहा.
मैं बदहवास सुनता रहा. बाज्यू की बातें याद आती रहीं. वे कहा करते थे कि उन्हें 90 वर्ष तक जीना है. कहते थे, 1900 में पैदा हुआ हूं, 1990 में चला जाऊंगा. उनके छोटे से काले टीन के बक्से में बचपन में किसी पंडित जी की बनाई हुई बहुत लंबी कुंडली रखी थी जिसे वे पढ़ने नहीं देते थे. शायद उसी में लिखा गया था कि वे नब्बे वर्ष जीवित रहेंगे. यह तो मेरी एक चचेरी बहिन ने कुछ साल बाद मिलने पर मुझे बताया कि बूबू जी (दादाजी) अपने आखिरी दिनों में बहुत उदास रहते थे. वे घर से निकल कर सामने सड़क पर पत्थरों की दीवाल में बैठ कर अक्सर धीरे-धीरे गाया करते थे:
घुघुती नैं बासा आमै की डाई मां,
घुघुती नैं बासा
त्वै जस मैं ले हुनौं
उड़ि बैर एै जांनौ देबी
तेरी मुखड़ी देखन…
(हे घुघुती पंछी, आम की डाल पर बैठ कर मत बोल, मत बोल. मैं भी मुझ जैसा होता तो देबी तेरा मुंह देखने के लिए उड़ कर आ जाता.)
“ओहो, वह बड़ा विकट समय रहा होगा हो देबी?”
“सच कह रहे हैं आप. विकट ही समय था. मुझे वह सब देखना था और देखा.”
“चलो, पिछली बार थिरेपी की बात कर रहे थे, अब अगली बार सुना देना.”
“होई, किलै नैं”
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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