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तुम्हारी मां अपनी मां की अनचाही संतान है

4G माँ के ख़त 6G बच्चे के नाम-दूसरी क़िस्त

पिछली क़िस्त का लिंक: 4G माँ के ख़त 6G बच्चे के नाम

तुम्हारी मां अभी तक स्वेच्छा से मां नहीं बनना चाहती बेटू. लेकिन उसे मां बनना है, कुछ पारिवारिक व सामाजिक दबावों के चलते. बाप बनने की चाहत तो अभी तक तुम्हारे पिता में भी बिल्कुल नहीं है. लेकिन समाज में ये कोई अपराध नहीं है कि एक पुरुष पिता नहीं बनना चाहता, अपराध यह है कि एक स्त्री मां नहीं बनना चाहती.

यहां एक सवाल ये भी पैदा होता है बेटू कि मां बनने की इच्छा प्राकृतिक है या फिर सामाजिक और सांस्कृतिक? बहुत सारे लोग हैं जिनका कहना है कि मां बनने की इच्छा सांस्कृतिक/सामाजिक है. लेकिन ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जिनका मानना है कि ये एक नैसर्गिक/प्राकृतिक इच्छा है. इस सवाल का कोई मुकम्मल जवाब मुझे भी नहीं पता मेरी बच्ची. हां बस इतना जानती हूं और चाहती हूं कि बच्चा पैदा करने, न करने का हक सिर्फ मां को होना चाहिए. कब और कितने बच्चे पैदा करने हैं, यह सब तय करने का हक और आजादी सिर्फ मां को होनी चाहिए…जो कि 99.9 प्रतिशत मांओं को नहीं है! कम से कम अपने देश की महिलाओं के पास तो यह तय करने का हक कतई नहीं है, कि वे कब मां बनना चाहती हैं और कब नहीं…और कितने बच्चों की मां बनना चाहती हैं?

क्या तुम्हें पता है मेरी जान, कि तुम्हारी मां अपनी मां की अनचाही संतान है! दूसरे बच्चे के पैदा होने में हुई घोर तकलीफ के बाद मेरी मां और बच्चा नहीं चाहती थीं. लेकिन ये बात शायद ही मेरे पिता जानते हों! इसी तरह मेरी सास से मुझे पता चला था कि तुम्हारे चाचा भी अनचाही संतान हैं. लेकिन मुझे पूरी उम्मीद है की तुम्हारे बाबा भी ये बात नहीं जानते होंगे! इन दो घरों की माओं के अनुभवों के आधार पर मैं कह सकती हूँ कि न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया के ज्यादातर देशों के ज्यादातर घरों में कोई न कोई अनचाहा बच्चा जी रहा है… और मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा ये जानकर की इनमें से तमाम ‘अनचाहे बेटे’ फिर ‘अनचाहे बच्चों’ के पिता बने होंगे!

यूं तो बच्चे मुझे तुम्हारे पिता दोनों को पसंद हैं बेटू. मैं मानती हूं कि मां बनके स्त्री प्रकृति के और भी करीब हो जाती होगी. मैं ये भी जानती और मानती हूं कि मां बनना अपनेआप में बेहद अदभुत है, सुखद है, रोमांचाकरी है, पीड़ादयक भी है, लेकिन साथ ही कहीं ज्यादा आह्लादित करने वाला भी है. इस अहसास और सुख का कोई विकल्प नहीं, ये किसी भी अन्य अनुभव से मिलता-जुलता नहीं है. ये अपनेआप में निराला है, अदभुत है, अतुल्नीय है. तुम कहोगी जब ‘मातृत्व-सुख’ के लिए मैं इतनी सारी सकारात्मक बातें खुद ही कह रही हूं, तो फिर इसे लेकर उत्साहित क्यों नहीं हूं? असल में तुम्हें लेकर मेरा एक डर है मेरी बच्ची, जो कि काल्पनिक नहीं हकीकत है.

क्या तुम्हें पता है एक बच्चा अपनी मां के जीवन के कितने घंटे, दिन, सप्ताह या साल मांगता है? बच्चा मां से सिर्फ चंद घंटे, दिन या सप्ताह नहीं, बल्कि उसके जीवन के कईं साल मांगता है…और उससे भी ज्यादा आजादी! सच तो ये है मेरी जान, कि किसी भी लड़की के लिए मां बनना एक किस्म की गुलामी में कदम रखने जैसा है! ऐसी गुलामी जिसे वो धीरे-धीरे, स्वेच्छा से, खुशी से और कुछ विकल्पहीनता के चलते, स्वीकार कर लेती है. कुछ सालों तक बच्चे की जादुई, मोहक अदाओं में मां को कुछ होश ही नहीं रहता, …तारीख, दिन, महीने, साल, सुबह-शाम, मौसम; इन सबसे परे हो जाती है मां.

तुम्हारे जन्म के बाद बीच-बीच में जब भी मुझे कुछ देर को तुम्हारी जिम्मेदारियों से थोड़ा अवकाश मिलेगा, तो मैं खुद के पास, अपनी पसंदीदा चीजों के पास लौटने के लिए ललचाऊंगी. लेकिन अगले पल ही टट्टी-पेशाब मे सनी तुम या भूख के मारे तुम्हारी किलकारी या फिर तुम्हारी मासूम सी जादुई हंसी/मुस्कुराहट; एक झटके में मुझे उन चाहतों से दूर कर देंगे. कब सुबह से शाम, शाम से रात और रात से दिन होगा है पता ही नहीं चलेगा. सुबह, शाम और रात का होश भी मुझे सिर्फ इस संदर्भ में बचेगा, कि तुम्हें उसी हिसाब से कपड़े पहनाए जा सकें. मौसम का अहसास सिर्फ इस संदर्भ में बचेगा है कि तुम्हारे गीले कपड़े सूख गए हैं या नहीं या फिर कितनी देर में सूखेंगे!

बच्चे के साथ मां, समय और गति के परे चली जाती है मेरी जान. फिर कुछ सालों बाद जब बच्चा मां की परिधि से निकल, अपने स्कूल, दोस्तों, पसंद और आजादी में घिरने लगता है, तो अचानक से मां को झटका सा लगता है. तब मां को अपने पुराने आजादी वाले दिन, अपनी पसंद, चाहतें, मनपसंद काम, सपने, कैरियर सब याद आने लगते हैं. लेकिन तब उसे अहसास होता है कि अपने बच्चे को बड़ा करने के दौरान कितना समय बीत गया, गंगा में कितना पानी बह चुका…

बच्चा एक चैबीस घंटे की नौकरी है मेरी जान. ऐसी नौकरी जिसमें काम के घंटे पूरा दिन हैं और कोई रविवार नहीं, कोई त्यौहार की छुट्टी नहीं. बल्कि त्यौहारों पर तो औरतों के लिए और ज्यादा काम का स्पेशल पैकेज होता है. बच्चा पालना एक ऐसा काम है जिसमें इतनी भी कमाई नहीं, कि बुरे वक्त में मां खुद अपना और बच्चे का पेट भर सके! कभी-कभी तो मुझे ‘बेगार’ जैसा है या कहूं ‘निःस्वार्थ समाजसेवा’ जैसा लगता है मातृत्व! जिसमें सिर्फ बेहिसाब संतुष्टि और खुशी मिलती है. मैं जानती हूं मेरी बच्ची, कि जिंदगी में खुशी और संतुष्टि बहुत बड़ी चीज है. जिसे पैसे से नहीं खरीदा जा सकता, न ही किसी से उधार लिया जा सकता है…पर बात ये भी तो है न बेटू, कि सालों तक दिन-रात की इस मेहनत का ऐसा कोई नतीजा नहीं, जो उस मां को अपने पैरों पर खड़ा कर सके, अपनी खुद की पहचान दिला सके.

मुझे पता है कि आज के समय में खुशी और संतुष्टी अनमोल है और सबको नसीब भी नहीं है. लेकिन इस खुशी और संतुष्टि से अपने और बच्चे के लिए मनपसंद तो दूर, जरूरी खाना तक नहीं जुटाया जा सकता मेरी सोना! रहना, खाना, पढ़ाई, नौकरी ये सब खुशी और संतुष्टी से नहीं मिलता…और इन सबके साथ आपकी अपनी पहचान, वो भी तो एक जरूरत है न मेरी कट्टू! एक मां जिसने तीन-चार बच्चे पैदा किये, पाले और बड़े किये, प्रतिष्ठित जगहों पर पहुंच कर भी वे बच्चे हमेशा अपनी मां का यही परिचय करवाते हैं, कि उनकी ‘मां कुछ नहीं करती‘! (मतलब कि हाऊसवाइफ है) और पिता फलां-फलां हैं. बच्चे के लिए अपने दिन-रात एक कर देने वाली मां के हिस्से में हमेशा गुमनामी ही आती है मेरे जान! भला क्यों?…क्या ये दुखद नहीं है?

एक बार मुझे ट्रेन में एक महिला मिली, उसका तलाक हो चुका था. उनके तीन युवा बच्चे थे. पता है उन्होंने मुझसे क्या कहा, बोलीं ‘‘मैंने ये देखा है कि बच्चों के लिए सबकुछ करके भी मां यदि थोड़ा सा अपने लिए करती है, तो बच्चों को लगता है कि हमारे लिए कहीं न कहीं कटौती करके ही मां ने अपने लिए किया है!‘‘मतलब कि एक मां का खुद की खुशी के लिए कुछ भी करना गुनाह है, जिसे माफ नहीं किया जा सकता! वैसे तो लड़कियों/स्त्रियों का अपनी खुशी के लिए कुछ भी करना लगभग गुनाह ही है मेरी जान, … लेकिन मांओं पर तो यह बात और भी ज्यादा सख्ती से लागू होती है! अपने लिए जीने की चाह रखने वाली, अपनी पसंद की चीजें करने वाली मांओं को हमारा समाज एक बुरी मां के तरह देखता है मेरी बच्ची!

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उत्तर प्रदेश के बागपत से ताल्लुक रखने वाली गायत्री आर्य की आधा दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में महिला मुद्दों पर लगातार लिखने वाली गायत्री साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा मोहन राकेश सम्मान से सम्मानित एवं हिंदी अकादमी, दिल्ली से कविता व कहानियों के लिए पुरस्कृत हैं.

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