पटौव्वा रंगवाली, पटवाली या पटरंगवाली शब्द का मतलब है अफवाह. इसकी उत्पत्ति 758-778 ई. में चंद शासक इन्द्रचंद के शासनकाल में हुई मानी जाती है. उस समय तिब्बत से प्राप्त रेशम के कीड़ों को पालने के बाद यहाँ रेशमी वस्त्रों को बनाया जाना शुरू किया गया था. इस काम में लगे व्यवसाइयों को पटवा, पटौव्वा कहा जाता था. इन पटवाओं का मानना था कि रेशम के धागों को रंगते वक्त यदि नगर में बिनापैर की अफवाह फैला दी जाए तो रंग चटख खिलता है.
चैत्र मास की किसी एक शुभ घड़ी में नए साल की रंगसाजी और कढ़ाई का काम शुरू किया जाता था. हर साल ठीक इसी समय एक अफवाह फैला दी जाती थी. अफवाह को विश्वसनी बनाने के लिए बाकायदा राजदरबार से इसे फैलाने का कम किया जाता था. माना जाता था कि अफवाह जितने जोरों से फैलेगी और आम जनजीवन में जितनी ज्यादा उथल-पुथल मचा पायेगी कपड़ों का रंग उतना ही चटख निखरेगा. एक पटौव्वा रंगवाली का नमूना यह रहा—
एक बार यह अफवाह फैला दी गयी कि फलां जगह पर एक लड़की भर-बांह चूड़ियां पहने धान कूट रही थी. उसकी चूड़ियों की खनखनाहट-छनछ्नाहट सुनकर ऊखल में से एक चुड़ैल निकल आई और उसने लड़की की कलाई पकड़ ली. लड़की चुड़ैल को देखते ही मर गयी.
एक हफ्ते के भीतर ही अफवाह यूं फैली जैसे उसके पंख लगे हों. जिस भी स्त्री ने इसे सुना उसने अपने हाथों की चूड़ियाँ निकाल फेंकी. स्थानीय ही नहीं मैदानी क्षेत्र से आए हुए सरकारी कर्मचारियों की पत्नियों, बेटियों तक ने यही किया. हिन्दू हो या मुसलमान सभी इस अफवाह की चपेट में आए. पूरे छह महीने तक चूड़ियों का बाजार वीरान रहा. इसके बाद किसी तरह इस पटौव्वा रंगवाली का प्रभाव समाप्त किया जा सका. इसी तरह की ढेरों अफवाहें और भी मिलती हैं जिन्हें उस दौर में प्रसारित किया गया था.
(उत्तराखण्ड ज्ञानकोष, प्रो. डी. डी. शर्मा के आधार पर)
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