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उत्तराखंड में वन्यजीव संघर्ष, पर्यावरण और समाज का मिश्रित सवाल

गढ़वाले मा बाघ लागो,बाघ की डरा… ब्याखूली ए जये घर चैय्ला, अज्याल बाघ की भै डर… गढ़वाल का लोकगीत हो या कुमाऊं की लोकोक्ति दोनों ही बराबर रूप से उत्तराखंड के समाज में बाघ की उपस्थिति उसके भय और बाघ के साथ जिंदा रहने के हमारे ऐतिहासिक कौशल को दर्शाते हैं. वन्यजीवों के साथ संघर्ष, इस संघर्ष के मध्य खेती-किसानी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की परंपरागत निर्भरता, हमारे ग्रामीण समाज के पर्यावरण के संतुलन को दर्शाते हैं.
(Man Animal Conflict in Uttarakhand)

उत्तराखंड राज्य में वन्यजीवों के साथ संघर्ष के मुख्यत: तीन क्षेत्र हैं. एक शिवालिक और मध्य हिमालय क्षेत्र में गुलदार का आतंक जिससे राज्य के 10 पर्वतीय जनपद प्रभावित रहते हैं. दूसरा भाबर में हाथी से संघर्ष, इसके तहत रामनगर, कोटद्वार और राजाजी नेशनल पार्क तथा गोला पार, नन्धौर का क्षेत्र विशेष रूप से प्रभावित रहता है. तीसरा हरिद्वार तथा तराई में चीता (टाइगर) कई बार समस्या बन कर उभरा है. लेकिन राज्य की मुख्य समस्या गुलदार का हमला ही है. जिससे ग्रामीण जनजीवन पूरी तरह भय ग्रस्त होकर अस्त-व्यस्त हो जाता है.

अभी आगरा खाल, नरेंद्र नगर क्षेत्र में 11 अक्टूबर को 7 वर्षीय स्मृति और 13 अक्टूबर को 7 वर्ष के रौनक को सांझ ढले ही घर के आंगन से उठा कर आदमखोर गुलदार ने अपना निवाला बना लेने से, क्षेत्र में व्यापक दहशत व्याप्त हुई और जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ, पूरे इलाके में सांझ होते ही कर्फ्यू जैसे हालात पैदा होने लगे, यह सुखद संयोग था कि आगरा खाल का यह नरभक्षी दूसरी घटना के 2 घंटे के भीतर  ख्यातिलब्ध शिकारी जॉय हुकिल की गोली का निशाना बन गया. जिससे इस क्षेत्र में राहत की सांस ली गई.

एक गुलदार के मारे जाने से पर्वतीय जनजीवन और वन्य जीवन के संघर्ष का समाधान नहीं हो जाता बल्कि इस पूरी घटना से हमलावर हो रहे गुलदार पर्यावरण और पर्वतीय समाज के सह-अस्तित्व पर दोबारा से वैज्ञानिक चिंतन किए जाने की आवश्यकता उत्पन्न हो गई है.

वन्यजीव संघर्ष से हुआ नुकसान :

यदि हम 2017-18 स में घटित वन्य जीव संघर्ष का विश्लेषण करें तो पाते हैं कि इस एक वर्ष में 85 व्यक्ति वन्य जंतु संघर्ष में मारे गए, 436 व्यक्ति घायल हुए, इस संघर्ष में 12546 पालतू जानवर मारे. जंगली जानवरों ने कुल 1497 हेक्टेयर उपज को नुकसान पहुंचाया. यह एक वर्ष की कहानी हर वर्ष दोहराई जाती है. यहां सवाल सिर्फ आर्थिक नुकसान का नहीं है.

अगर सिर्फ गुलदार के हमले की बात करें तो 2019 में उत्तराखंड में गुलदार के हमले की 13 घटनाएं घटित हुई, 2020 में गुलदार के हमले की घटनाएं 19 का आंकड़ा पार कर चुकी है. पिछले दिनों देवप्रयाग बाजार में गुलदार की चहलकदमी का जो वीडियो वायरल हुआ. वह अन्य जानवरों के बड़ते दखल को दर्शाने के लिए काफी है.

कारण और समाधान :

पर्यावरण के प्रति जागरूकता और उत्तराखंड में लगातार वन क्षेत्र के विस्तार के कारण पर्वतीय क्षेत्र में गुलदार की संख्या में भौगोलिक क्षेत्र के अनुपात में अधिक वृद्धि हो गई है. जिस कारण गुलदार और मानव जीवन का संघर्ष तेज हो गया है. चूंकि गुलदार आबादी क्षेत्र से प्रेम करने वाला जानवर है. जिस कारण गांव और कस्बों के आसपास रहने में ही यह रुचि दिखाता है. लेकिन आमतौर पर गुलदार मैनईटर नहीं होता है, कोई गुलदार तभी मैनईटर होता है, जबकि वह बीमार हो, कोई दांत टूट जाए अथवा वह खुद शिकार करने में सक्षम न रह जाय तब आदमियों पर हमले की घटनाएं बड जाती हैं.

उत्तराखंड की पर्वतीय क्षेत्र का यह दुर्भाग्य जनक पहलू है कि वर्तमान में जंगल के साथ ही जो लगे हुए खेत हैं वह भी बंजर होकर जंगल ही हो गए हैं. वहां उग आई झाड़ियां, घास गुलदार को छुपने का मौका देते हैं. खेतों तक गुलदार की यह उपस्थिति सुअर और बंदरों के बाद पर्वतीय कृषि के संकट और अंततः पलायन को बडाने में प्रमुख कारण है.

गुलदार के आतंक का सही आकलन न कर पाना, हमारे वन महकमे की एक बड़ी नाकामी है. तराई क्षेत्र अथवा देश के अन्य टाइगर रिजर्व में इन जानवरों की गणना के लिए रेडियो कॉलर टैपिंग और कैमरा ट्रैप की सहायता लेकर उनकी जनसंख्या का सही-सही अनुमान लगाया गया है. जबकि पर्वतीय क्षेत्र में गुलदार की जनसंख्या का आकलन करने की कोई भी तकनीक अथवा रणनीति अभी तक विकसित नहीं की गई है और न ही नरभक्षी हो रहे कुल गुलदारों की पहचान और जीवित बचाव का कोई वैज्ञानिक तरीका विकसित किया गया है.
(Man Animal Conflict in Uttarakhand)

 गुलदार वन्य जंतुओं की संरक्षित सूची के अनुसूची एक का जानवर है. जिसे मारे जाने की अनुमति आसानी से नहीं मिलती. फिर गुलदार को मार देना ही कोई समाधान अन्तिम समाधान भी नहीं है. आगरा खाल के आदमखोर को मारने वाले प्रसिद्ध शिकारी जॉय हुकिल जो कि वर्ष 2007 से व्यवसायिक शिकारी बने, जो अब तक 39 आदमखोर बाघों का शिकार कर चुके हैं, कहते हैं कि बाघ को मारने का सबसे अधिक दुख अगर किसी को होता है तो वह उस शिकारी को होता है जिसकी गोली से उस बाघ की मौत होती है. अंतिम समय में बाघ की तड़प और उसके आदमखोर हो जाने की लाचारगी दोनों उसे अंदर तक झकझोरते रहते हैं. इसलिए बाघ को मारना उनका अंतिम विकल्प होता है. उससे पहले बाघ की पहचान और उसे ट्रैक करना उससे बड़ा काम है. ताकि आदमखोर की जगह कोई निरीह वन्य प्राणी न मारा जाए.

प्रसिद्ध शिकारी जॉय हुकिल

उत्तराखंड में इससे पहले के प्रसिद्ध शिकारी जिम कॉर्बेट के विषय में तो यह भी कहा जाता है कि वह बाघ को मारने का फैसला मजबूरी में ही लेते थे. उससे पहले बाघ के हमले से हुई हर भरपाई को वह खुद भरने के लिए तैयार रहते थे. जिम कॉर्बेट के हिस्से चंपावत की वह बाघिन जिसने 436 मासूमों को अपना निवाला बना दिया था तथा गुलाबराय रुद्रप्रयाग के आदमखोर से मुक्ति जिसके लिए वह आठ वर्ष अलग-अलग समय में रुद्रप्रयाग आते रहे और आखिर 2 मई 1926 को गुलाबराय के मैन ईटर से इलाके को मुक्ति दिलाने में कामयाब हुए.

जिम कॉर्बेट ने कुल कितने बाघों को मारा यह साफ-साफ कहीं दर्ज नहीं है. लेकिन माना जाता है कि उन्होंने 12 आदमखोर बाघों को मारा था. और बहुत कम समय में जॉय हुकैन के हिस्से यह संख्या 39 तक पहुंच गई है जिससे वह बेहद दुखी हैं और कहते हैं कि हमें पर्यावरण और समाज दोनों को बचाना है. इसके लिए पर्यावरणविदों और समाज शास्त्रियों तथा वैज्ञानिकों को एक साथ बैठकर आधुनिक तकनीक अपनाकर ग्रामीण जीवन की खुशहाली और वन्य जीवन की सुरक्षा के लिए एक साथ बड़े उपाय करने होंगे.
(Man Animal Conflict in Uttarakhand)

इनमें सबसे पहला कदम तो गुलदार की गणना का ही होगा.यह काम कठिन तो है लेकिन असंभव नहीं वीट वाचर गुलदार के विचरण का ट्रैक चिन्हित कर, वहां कैमरे लगाकर रिकॉर्डिंग कर, गुलदार की संख्या के साथ ही बुजुर्ग और घायल हो रहे गुलदारों कि समय पर पहचान कर उन्हें सुरक्षित रेस्क्यू कर हम ऐसा कर सकते हैं. लेकिन इसके लिए सबसे जरूरी है. ऐसा करने की इच्छा शक्ति की उम्मीद की जानी चाहिए.

उत्तराखंड के ग्रामीण समाज में रोज घटित हो रही गुलदार हमले की घटनाएं शीघ्र कोई नया सुरक्षित रास्ता हमें देंगे, ताकि हम वन्यजीवों का सम्मान करने वाली कौम का अपना सामाजिक खिताब बचाए रख सकें, पर्यावरण और समाज के संतुलन का एक नया मार्ग दे सकें.
(Man Animal Conflict in Uttarakhand)

प्रमोद साह
हल्द्वानी में रहने वाले प्रमोद साह वर्तमान में उत्तराखंड पुलिस में कार्यरत हैं. एक सजग और प्रखर वक्ता और लेखक के रूप में उन्होंने सोशल मीडिया पर अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफलता पाई है. वे काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

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