Featured

कुमाऊँ रेजीमेंट के सैनिक थे आजाद भारत के पहले परमवीर चक्र विजेता मेजर सोमनाथ

उत्तराखण्ड पूरे देश-दुनिया में कई क्षेत्रों में अपने नागरिकों के कामों से भी पहचाना जाता है. कई सामाजिक क्षेत्रों में उत्तराखंडियों का अच्छा दखल है. होटल-रेस्टोरेंट, पर्वतारोहण, मीडिया, साहित्य समेत कई ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ पहाड़ियों का खासा वर्चस्व है. अपनी मेहनत और लगन से पहाड़ के बाशिंदों ने इन क्षेत्रों में अपनी अमिट छाप छोड़ी है. ऐसा ही एक क्षेत्र है सेना और युद्धभूमि. यहाँ भी उत्तराखण्ड के शूरवीरों ने अपने झंडे गाड़े हैं. उत्तराखण्ड के हर गाँव-घर से हमेशा से सैनिक निकलते हैं.

कुमाऊँ रेजीमेंट और गढ़वाल रेजीमेंट को अपने बेहतरीन युद्ध कौशल के लिए दुनिया भर में जाना जाता है. युद्ध भूमि में शौर्य और पराक्रम के लिए दिए जाने वाले कई पदक उत्तराखण्ड के वीर सैनिकों के नाम हैं. भारतीय सेना में सर्वोच्च शौर्य के लिए दिया जाने वाला पहला परमवीर चक्र भी कुमाऊँ रेजीमेंट के ही एक वीर सिपाही के नाम रहा है. इस पुरस्कार को भारत रत्न के बाद देश का सर्वोच्च पुरस्कार भी माना जाता है. अधिकांश मामलों में यह मरणोपरांत ही दिया जाता है. आजाद भारत में परमवीर चक्र पाने वाले प्रथम सैनिक थे कुमाऊँ रेजीमेंट के मेजर सोमनाथ शर्मा.

प्रथम परमवीर चक्र से सम्मानित मेजर सोमनाथ शर्मा (31 जनवरी, 1923 – 3 नवम्बर, 1947)

कुमाऊँ रेजीमेंट की स्थापना सन 1813 में हुई थी. इसका मुख्यालय उत्तराखण्ड के कुमाऊँ मंडल के रानीखेत में है. कुमाऊँ रेजीमेंट को ख़ास तौर पर 1947 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध तथा 1962 के भारत और चीन युद्ध में गौरवपूर्ण प्रदर्शन के लिए जाना जाता है. इसके अलावा भी इस रेजीमेंट को भारतीय सेना द्वारा लड़े गए कई युद्धों में अहम भूमिका निभाने के लिए पहचाना जाता है.

पहला मरणोपरान्त परमवीर चक्र पाने वाले मेजर सोमनाथ शर्मा भारतीय सेना की इसी कुमाऊँ रेजीमेंट की चौथी बटालियन की डेल्टा कंपनी के कंपनी-कमांडर थे. 3 नवम्बर 1947 को कश्मीर में पाकिस्तानी घुसपैठियों के खिलाफ लड़ते हुए उन्होंने अपना बलिदान दिया.

सोमनाथ शर्मा का जन्म 31 जनवरी 1923 कांगड़ा में हुआ था, जो तब ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रान्त में था और अब हिमाचल प्रदेश में है. उनके पिता अमरनाथ शर्मा भी सैन्य अधिकारी थे. उनके परिवार में फ़ौज में सेवा की एक गौरवशाली परंपरा रही है. सोमनाथ के कई भाई-बहन भी भारतीय सेना में रहे.

सोमनाथ ने शेरवुड कॉलेज, नैनीताल में अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की. उन्होंने देहरादून के प्रिन्स ऑफ़ वेल्स रॉयल मिलिट्री कॉलेज, रॉयल मिलिट्री कॉलेज, सैंडहर्स्ट से उच्च शिक्षा हासिल की.

1942 में रॉयल मिलिट्री कॉलेज के स्नातक सोमनाथ की नियुक्ति ब्रिटिश-भारतीय सेना की उन्नीसवीं हैदराबाद रेजीमेन्ट की आठवीं बटालियन में हुई. यही रेजीमेंट आगे चलकर चौथी बटालियन, कुमाऊँ रेजीमेंट के नाम से जानी गयी. उन्होंने बर्मा में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान कर्नल के. एस. थिमैया की कमान में अराकन अभियान में जापानी सेनाओं के खिलाफ लड़ाई लड़ी. इस अभियान में अपनी बहादुरी के लिए उन्हें मेन्शंड इन डिस्पैचेज में जगह मिली.

जब देश आजाद हुआ तो उसके सामने कई तरह की चुनौतियाँ थीं. कई राजे-रजवाड़ों की बगावतों के साथ ही भारत से अलग होकर बने पकिस्तान के साथ भी लगातार युद्ध की स्थिति बनी हुई थी. कश्मीर के राजा हरिसिंह भी अपने राज्य के भारत या पकिस्तान में विलय के पक्षधर नहीं थे. लगातार संवाद के बाद अंततः पाकिस्तानी सीमा पर कबायलियों द्वारा कश्मीर पर आक्रमण से घबराकर हरिसिंह सशर्त भारत में समाहित होने के लिए तैयार हुए.

आखिरकार 26 अक्टूबर 1947 को कश्मीर के तात्कालीन शासक महाराज हरिसिंह ने भारत के प्रस्ताव पर दस्तखत किये. इसके बाद भारतीय सेना की पहली टुकड़ी को कश्मीर भेजने का वक़्त भी आ चला. इस महत्वपूर्ण मिशन के लिए चुनी गयी अग्रणी दो इंफैन्ट्री बटालियनों में से एक थी फोर कुमाऊं रेजीमेंट और दूसरी थी सिख रेजीमेंट. 27 अक्टूबर 1947 को भारतीय गणराज्य की और ज्यादा मजबूती के लिए भारतीय सेना की पहली टुकड़ी कश्मीर के श्रीनगर हवाई-अड्डॆ पर उतरी. इस लैंडिंग के महत्व को इस तरह देखा जा सकता है कि तब से आज तक इस तारीख को भारतीय सेना में इंफैन्ट्री-दिवस के रूप में मनाया जाता है.

27 अक्टूबर 1947 को कश्मीर के श्रीनगर हवाईअड्डे पर भारतीय सैनिक

इस वक़्त मेजर सोमनाथ शर्मा कुमाऊँ रेजिमेंट की चौथी बटालियन फोर कुमाऊँ की डेल्टा कंपनी के कंपनी-कमांडर थे. अपना बायाँ हाथ टूट जाने की वजह से वह अस्पताल में भर्ती थे. अस्पताल में ही उन्हें फोर कुमाऊं द्वारा पाकिस्तानी कबायलियों से मोर्चा लेने के लिए कश्मीर कूच की खबर मिली. उनकी रगों में खून दौड़ने लगा और वे अस्पताल से भागकर एयरपोर्ट आये और अपने देशभक्त सैनिकों के साथ शामिल हो गए. नीचे की तस्वीर में आप देख सकते हैं कि मोर्चे पर पहुंचे सोमनाथ के बाएं हाथ में प्लास्टर बंधा हुआ है. उन्होंने इसी स्थिति इन्फेंट्री का नेतृत्व किया.

अस्पताल से सीधे युद्ध मैदान जाने को तत्पर हो गए मेजर सोमनाथ शर्मा के टूटे हाथ पर लगा प्लास्टर साफ़ देखा जा सकता है

जब डेल्टा कंपनी कश्मीर की धरती पर उतरी तो कबायली बारामूला तक पहुँच चुके थे. उनकी बर्बर कत्लोगारत से कश्मीर सहमा हुआ था. भारतीय सेना की अतिरिक्त टुकड़ियाँ के श्रीनगर उतरने की भनक पाकर दुश्मन श्रीनगर को कब्जाने निकल पड़ा. आनन-फानन में मेजर सोमनाथ शर्मा को सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हो चले श्रीनगर हवाई-अड्डे की हिफाजत का जिम्मा दिया गया. जब मेजर सोमनाथ शर्मा समेत मात्र पचपन सैनिक ही वहां पहुंचे थे कि दुश्मन ने हमला बोल दिया. दुश्मन की तादाद पाँच सौ के करीब थी. सेना की अतिरिक्त मदद पहुँचने तक इन बर्बर लड़ाकों को रोके रखने का जिम्मा इन पचपन पराक्रमियों पर था. अगर हवाई अड्डा हाथ से निकल जाता तो भारत का नक्शा ऐसा नहीं होता जैसा कि वह आज है. अतिरिक्त मदद पहुँचने में छः-सात घंटे का समय लगा.

इस दौरान कुमाऊँ रेजीमेंट के रक्त से श्रीनगर की धरती पर आजाद भारत के अध्याय का पहला पन्ना लिखा जाता रहा. ये छः-सात घंटे कुमाऊँ रेजीमेंट के अभूतपूर्व शौर्य, पराक्रम और देशभक्ति के जुनून की मिसाल बन गए. बटालियन ने कबायलियों की फौज को तब तक रोके रखा जब तक कि भारतीय सेना की अतिरिक्त मदद वहां तक पहुँच नहीं गयी. इस संघर्ष में मेजर सोमनाथ के साथ फोर कुमाऊं की डेल्टा-कंपनी के इन पचपन सैनिकों ने अपना अंतिम बलिदान दे दिया. शहादत से कुछ लम्हों पहले मेजर सोमनाथ ने सेना मुख्यालय को भेजे अपने रेडियो सन्देश में कहा: “मैं एक इंच भी पीछे नहीं हटूंगा और तब तक लडूंगा, जब तक कि मेरे पास आखिरी जवान और आखिरी गोली है”

मेजर सोमनाथ शर्मा को मरणोपरांत आजाद भारत के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से नवाजा गया और वे इस सम्मान को हासिल करने वाले पहले भारतीय बने. उनकी स्मृति में उत्तराखण्ड के रानीखेत में सबसे बड़ा मैदान सोमनाथ ग्राउंड कहलाता है. श्रीनगर एयरपोर्ट के बाहर आज भी कुमाऊँ रेजीमेंट के इस हीरो मेजर सोमनाथ की मूर्ति लगी है. इस तरह आजाद भारत में सेना के सर्वोच्च सम्मान को पाने का पहला अवसर कुमाऊँ रेजीमेंट को मिला.

आज भी कुमाऊँ रेजीमेंट के सिपाही सोमनाथ जैसे वीरों से प्रेरणा लेकर भारतीय सेना में देश सेवा के लिए निकल पड़ते है. सोमनाथ जैसे बलिदानियों के शौर्य और पराक्रम से प्रेरित ढेरों नौजवानों को आप अलसुबह ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर भर्ती की दौड़ लगाते देख सकते हैं. इसी परंपरा का निर्वाह करते हुए आज भी उत्तराखण्ड के ढेरों नौजवानों की यह दौड़ सेना के ताबूतों में जाकर ही ख़त्म होती है.

 

काफल ट्री के फेसबुक पेज को लाइक करें : Kafal Tree Online

फ्रेंड ऑफ विंटर कहा जाने वाला चीड़ जंगलों का दुश्मन कैसे बना

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

Recent Posts

अंग्रेजों के जमाने में नैनीताल की गर्मियाँ और हल्द्वानी की सर्दियाँ

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…

2 days ago

पिथौरागढ़ के कर्नल रजनीश जोशी ने हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान, दार्जिलिंग के प्राचार्य का कार्यभार संभाला

उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…

2 days ago

1886 की गर्मियों में बरेली से नैनीताल की यात्रा: खेतों से स्वर्ग तक

(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…

3 days ago

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

4 days ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

4 days ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

1 week ago