एक कप पानी. एक कप दूध. अरे गैस तो जलाई ही नहीं. माचिस कहाँ है? कहाँ है माचिस? गैस के नीचे गिर गई होगी. यहाँ तो नहीं है. फ्रिज के ऊपर? यहाँ भी नहीं है. हो सकता है फ्रिज के पीछे गिर गई हो, झाँक कर देखता हूँ. यहाँ भी नहीं है. ऐसा तो नहीं गलती से फ्रिज के अंदर रख दी हो. फ्रिज के अंदर भी नहीं है. फ्रीज़र भी देख ही लेता हूँ. नहीं है. ड्रावर में? नहीं है. सिलेंडर के पीछे? नहीं है. केबिनेट में? नहीं है. हो सकता है सिंक में गिर गई हो? नहीं है. आख़िर कहाँ है माचिस? कोई व्यवस्था नहीं है इस रसोई में. एक चीज़ अपनी जगह पर नहीं है. रसोई नहीं, सरकारी दफ़्तर हो कोई. खून खौल रहा है मेरा. शांत रहो, शांत! क्रोधात भवति सम्मोहः. ये भी हो सकता है माचिस गलती से बाथरूम में रख गई हो. नहीं, नहीं, भटको मत. संशयात्मा विनश्यति. माचिस यहीं है. तुम्हारी आँखों के सामने. गहरी साँस लो. त्राटक का अभ्यास ध्यान करो. माचिस अभी दिखेगी. वैसे अब मुझे सब समझ आ रहा है. ये एक जाल था. एक ट्रैप. इस जाल में तुम्हें फँसना ही नहीं था.
(Satire by Priy Abhishek)
पाठकों! कल की बात है, हाथ में फोन और चेहरे पर अत्यंत मोहक मुस्कान लिये (जो अब याद करने पर कुटिल मुस्कान लगती है) श्रीमतीजी मेरे पास आईं और कहा- ‛तुम्हें बड़ा साहित्यकार बनना है न?’ ‛हाँ, हाँ, बिल्कुल बनना है.’ मैं चौकन्ना होकर बैठ गया. फिर बोलीं- ‛ये देखो क्या कह रहे हैं. पंडित सूर्यनारायण व्यास सुबह चार बजे उठ कर पूरे घर के लिये चाय बनाते थे.’ ‛तो क्या मैं भी सुबह चार बजे उठ कर चाय बनाऊँ?’ ‛सीधे चार बजे नहीं. ऐसा करो, तुम अभी सात बजे उठ कर चाय बनाना शुरू करो. धीरे-धीरे आगे बढ़ो. ऐसा नहीं कि एकदम बड़े साहित्यकार बन गए.’ ‛हाँ मैं ये करूँगा.’
अब आप पाठकगण कहेंगे कि प्रिय, क्या तुम इतने मूर्ख हो जो तुम्हें समझ नहीं आया कि ये एक ट्रैप है और तुमने सुबह चाय बनाने का काम ले लिया. दोस्तों, सामान्यतः मैं सावधानी रखता हूँ. पुरुष होने के नाते मैं हमेशा उन कार्यों का चुनाव करता हूँ जिनमें मेहनत बहुत कम हो, और अहसान बहुत ज्यादा. पर बात बड़ा साहित्यकार बनने की थी. जो लेखक हैं वो जानते हैं ऐसी बातों से आँखें चुंधिया जाती है. लोग क्या-क्या नहीं कर गुजरते बड़ा साहित्यकार बनने के लिये. मुझे तो बस चाय बनानी थी. अब समझ आ रहा है कि ये पति रूपी स्थाई गधे के आगे लटकाई गई अस्थाई गाजर थी. अब आप कहेंगे कि भैया इतनी मेहनत कर रहे थे, सीधा पूछ ही लेते माचिस कहाँ रखी है. बस यहीं आप गलती कर रहे हैं.
(Satire by Priy Abhishek)
मित्रों, एक समय के बाद दाम्पत्य जीवन उस मोड़ पर आ जाता है जहाँ पति-पत्नी ‘कोलेटरल डैमेज’ की चिंता नहीं करते हैं. जैसे कहीं हनीमून मनाने गए जोड़े में यदि पत्नी का पैर फिसल जाय तो पति तत्काल पत्नी को सहारा देते हुए पूछेगा- जानू कहीं चोट तो नहीं लगी? आर यू ओके? और बीस साल बाद वही पति कहेगा- और चलो मुँह ऊपर करके. गिर गईं. आया मजा? इतना बड़ा गड्ढा नहीं दिखा? पति कहे-मेरे सिर में दर्द हो रहा है तो पत्नी कहेगी- मेरे सिर में खुद कल से भयानक दर्द है. पहले तुम मेरा सिर दबा दो, फिर मैं तुम्हारा दबाती हूँ. पत्नी कहे- मेरी क़मर में भयानक दर्द हो रहा है. तो पति कहेगा- मेरे ख़ुद ये इधर, गर्दन से राइट साइड में भयानक दर्द है. पति कहे- मैं मर गया. तो पत्नी कहेगी- अरे भैया हम खुद कल तीन बार मरे.
तो हुआ ये कि कुछ दिन पहले भावनाओं में बह कर मैंने श्रीमतीजी को बता दिया कि डूबते हुए यस-बैंक में मेरा भी एकाउंट है, और कुछ रुपये भी उसमें जमा हैं. बस पाठकों, उसके बाद तो श्रीमतीजी ने चौक पुराए, मंगल गाये. बालकनी में घण्टे,शंख, बजाए. तत्काल यह शुभ सूचना ससुराल तक पहुंचाई गई कि इनका भी तो यस-बैंक में एकाउंट है. साले, सालियाँ फोन लगा-लगा कर पूछें- ‛जीजाजी आपका यस-बैंक में एकाउंट है? ही, ही, ही! जीजाजी तो बड़े ‘भोले’ हैं.’ दोस्तों, आप ‛भोले’ का अर्थ समझ रहे हैं न? बात मेरी नानी के मायके तक पहुँच गई. वो तो भला हो सरकार का जो बैंक का अधिग्रहण कर लिया. अन्यथा यस-बैंक का ये कलंक स्थाई हो जाता, और मैं हमेशा के लिये ‛भोला’ करार दे दिया गया होता. इस तरह अपमान और प्रतिशोध की आग में कई दिन जला. पर ऊपर वाले के घर देर है, अंधेर नहीं. शीघ्र ही मुझे भी मौका मिल गया.
एक दिन श्रीमतीजी मेरे पास बहुत बेचैन हो कर आईं कि पीठ में गैस फँस गई है, जरा हल्के-हल्के घूँसे मार दो. मित्रों, गैस का तो पता नहीं, पर मेरी भड़ास ज़रूर निकल गई. इसलिये यह पूछना कि माचिस कहाँ रखी है, सिलेबस से बाहर का प्रश्न है. बात अब पद-प्रतिष्ठा की है. माचिस खोजना जारी रहेगा. हो सकता है वो जूते की रैक में रख गई हो.
(Satire by Priy Abhishek)
“क्या हुआ, इतनी देर में तो पूरा खाना बन जाता है. इतनी देर क्यों लग रही है?”
“थोड़ा स्ट्रेचिंग कर रहा था. व्यायाम.”
“कमाल है. पतीली में दूध-पानी डाल कर व्यायाम कर रहे हो. वो भी रसोई में. सब कुशल-मंगल है न? बीस मिनट हो गए हैं तुमको चाय बनाते. और अभी गैस भी नहीं जली है. कोई समस्या हो तो बताओ!”
“समस्या? कोई चीज़ अपनी जगह पर नहीं है यहाँ. माचिस कहाँ है?”
“ओह, श्रीमान नारीवादी को माचिस नहीं मिल रही?” मुझे पराजय का अहसास कराती वही कुटिल मुस्कान.
“जगह पर रखी हो, तब न मिलेगी.”
“ओह, मिस्टर सिमोन शायद भूल गए कि अपने घर में गैस लाइटर से जलाई जाती है. वो सामने रखा है लाइटर.”
“मुझे तो माचिस से ही जलानी है गैस.”
“लाइटर के ठीक पीछे माचिस रखी है. और कुछ जानना चाहते हैं श्री मेरी वोलसन क्राफ्ट? दूध-पत्ती वगैरह के बारे में? वो सामने….”
“पता है. दो डिब्बे हैं, एक पर ‘टी’ लिखा है, दूसरे पर ‘शुगर’. जिस पर ‘टी’ लिखा है उसमें चीनी रखी है और जिस पर ‘शुगर’ लिखा है उसमें धनिया.”
“और वो लाल वाले डिब्बे में चाय-पत्ती है. अब मैं जाऊँ?”
“हाँ बाय.”
“बाय. आते रहियेगा रसोई में. हैप्पी फेमिनिज़्म.”
पत्ती डाल दी. शक्कर भी. अब अदरक कहाँ है?
(Satire by Priy Abhishek)
प्रिय अभिषेक
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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