बहुत पुरानी बात है. उस पहाड़ी गाँव में एक लड़की रहती थी. माँ के अलावा उसका इस दुनिया में कोई नहीं था. वह बहुत छोटी थी कि पिता चल बसे. चाचा-ताऊ थे नहीं और न भाई-बहन. माँ ने ही उसे पाल-पोसकर बड़ा किया. माँ दिन भर खेती और मजदूरी करती तब जाकर दो वक़्त का खाना नसीब होता था. कभी एक वक़्त के भोजन से ही संतोष करना पड़ता था. फिर भी दोनों अपने जीवन से खुश थे. (Kumaoni Folktale Teen Patlisi Rotiya)
जब लड़की बड़ी हुई तो उसके ब्याह की चिंता माँ को सताने लगी. गाँव के लोग भी उसकी शादी की चिंता करते— पिता का साया जो सर पर नहीं था. लड़की बहुत सुंदर थी तो गाँव वालों की वजह से उसके लिए अच्छे रिश्ते आने लगे. एक जगह बात ठहर भी गयी.
उसका रिश्ता दूर शहर के संपन्न परिवार में बंधा. धूमधाम से शादी हुई, गाँव के सभी लोगों ने सहयोग किया. सौरास में खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी, दूध-दही की भी बहार थी. गाँव वाले ख़ुश होते कि एक पितृविहीन लड़की इतने अच्छे घर में ब्याही गयी. सभी कहते भाग हों तो ऐसे, वर्ना उस लड़की को अच्छा घर-बार मिलना मुश्किल है जिसके पिता न हों.
अब जैसा बाहर से दिखाई दिया वैसा भीतर भी हो ऐसा जरूरी नहीं. लड़की की सास बहुत दुष्ट थी. खाना बनाना, झाड़ू लगाना, बर्तन-कपड़े धोना सभी काम लड़की के सर पर थे. गाय, बछिया को सानी-पानी देना, उनका गोबर साफ करना, जंगल से घास-पात, लकड़ी लाना भी उसी को करना पड़ता था. फिर भी सास बोलने में लकड़ियाँ जैसी तोड़ती थी. ससुराल में वह दो मीठे बचन सुनने को तरस गयी. न उसे पेट भर खाने को मिलता था न पहनने को, खाने की जगह ताने थे. घर के सब लोगों के भोजन कर लेने के बाद सास तीन सूखी पतली रोटियाँ उसके आगे डाल देती. इन रोटियों के साथ नमक भी कभी ही नसीब होता. वह सब सहन करती, आख़िर कहाँ जाती, किस से कहती.
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वक़्त बीता तो उसका मन हुआ कि अपनी माँ से मिल आये कभी. जब भी वह सास से अपने मायके, गाँव और माँ का जिक्र करती वह फनफनाकर दुत्कार देती. वह दुखी रहने लगी. उसकी व्यथा सुनने वाला तक कोई नहीं था. इन कष्टों और अकेलेपन की वजह से वह धीरे-धीरे बीमार रहने लगी. आखिर उसने चारपाई पकड़ ली.
जैसे-तैसे होते-जाते माँ को ख़बर मिली कि उसकी बेटी बीमार है, उस पर विपत्तियों का पहाड़ जैसा टूटा हुआ है. माँ अपनी बेटी की कुशल लेने चल पड़ी. जब वह लड़की के ससुराल पहुँची तो उसके हाल बुरे हो रखे थे. वह बिस्तर में ऐसी परहोश पड़ी थी कि अपनी माँ के आने की भी ख़बर नहीं लगी. माँ ने प्यार से उसके माथे पर हाथ फेरा और नाम पुकारा तो वह चौंक कर उठी. सामने माँ को देखकर उसके आँखे गधेरे जैसी बहने लगीं. वह ठीक से बोल भी नहीं पा रही थी. बहुत ताकत लगा कर वह इतना ही बोल पायी— इजा! तीन पतली-से रोटियाँ. जैसी वह इतना ही कहने को बची होगी, बोलकर वह चल बसी. उसकी माँ रोती रह गयी.
अगले जनम में उसे एक तीतर की योनि मिली. वह पक्षी आज भी कातर स्वर में बोलता है तो ‘तीन पतली-सी रोटियाँ’ जैसा ही सुनाई देता है.
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