समाज

दो सैंणियों वाले कव्वे की रीस: उत्तराखंडी लोककथा

एक कव्वा था. उसकी दो सैंणियाँ थीं. एक नई जवान देखणंचाणं थी, दूसरी उतनी सुन्दर तो नहीं थी. पर होशियार सीप वाली थी. देखणंचांण जवान सेंणी को कव्वा ज्यादा भल मानता था. दोनों पत्नियों में बनती थी नहीं. वह हमेशा एक दूसरे से काँव-काँव लड़ती रहती थीं.
(Kavve ki Riis Folk Stories of Uttarakhand)

कव्वा अपने स्वभाव में काँव-काँव तो करता था पर सैंणियों की काँव- काँव से वह परेशान रहता था. औरों की काँव-काँव तो सहन हो जाती है पर दो पत्नियों की काँव-काँव को सहन करना किसी किस मैश (पति) के हिम्मत की ही बात हुई! एक सैंणी ही नहीं निभने वाली ठैरी यहाँ तो दो दो औरतें हुईं.

देखणचांण सेंणी खूब नखरे वाली ठेरी. कभी यह लाओ कभी वह लाओ. ये वाला खाना नहीं खाऊँगी दूसरा लाओ. पुरानी वाली पत्नी खूब काम करती थी फिर भी कब्वे की डाँठ खाती रहती. इस प्रकार कव्वा, सुन्दर वाली नई सेंणि से परेशान था तो पुरानी सेंणी अपने पति से परेशान. ऐसा ही ठैरा, कोई कैसे परेशान कोई कैसे.

पर जीवन तो गुजर ही जाता है चाहे नदी की तरह हो या फिर चट्टान की तरह. एक दिन कव्वे की जवान देखणचांण पत्नी से सिटौले की सेंणी फसक मारने आई. फसक मारने क्या, उसे जलाने, भड़काने आई. उसने कहा- अहा रे शहर की क्या जो माया ठैरी…”
(Kavve ki Riis Folk Stories of Uttarakhand)

उसने उसको शहर के खुब किस्से सुनाए और यह भी छोंका लगाया- कैसा तुम्हारा पति है जो तुम्हें घूमाने नहीं ले जा रहा. अरे कहाँ कुए का मैढक बना रखा है इतने साल हो गए कभी एक बोट (पेड़) में तो कभी दूसरे बोट में. ये कोई बात ठैरी. लगता है तुम्हारा जादू नहीं रहा है और जब तुम्हारा जादू खतम हुआ तो समझो तुमगई.तुम्हारी सौत बहुत चालाक है. एक-एक कल जानती है. कल जब तुम्हारी ये सुन्दरता खत्म हो गई तो फिर वह दूसरी को ही चाहेगा. पुराने चावल स्वादिष्ट होते हैं यह तो तुम जानती हो…

बस क्या था. सुन्दर देखणंचांण पत्नी कव्वे के पास गई और शहर घुमाने की जिद करने लगी. कव्वे ने कितना ही समझाया कि परदेश जाकर क्या करना. जब यही सब कुछ है. जंगल की ताजा हवा इतने फल यहाँ हैं. यहाँ का मरा जानवर भी ताजा-ताजा होता है. वहाँ क्या करना शहर में झूठा खाना. दवाई मिला हुआ खाना. कितने ही जानवर उन्हें खा कर मर गए हैं. सुना नहीं तुमने…

जवान सैंणि ने कहा, “मैंने कुछ नहीं सुनना मुझे शहर ले जाओ. उसने भूख हड़ताल कर दी. हाथ पाँव उताणें कर दिए. अब वह क्या करे? इस पर वह अपनी होशियार औरत के पास गया. उसने जब सारी बात सुनी तो उसने कहा, “अरे उसका तो दिमाग तुमने चढ़ा रखे हैं. शहर वो जाता है जिसको जंगल में कुछ नहीं मिलता. यहाँ क्या नहीं है? जरूर उसे सिटौले ने भड़काया होगा. परदेश में तो दुःख ही दुःख हैं. मुझसे तो कह रही थी तेरी सौत को तो शहर जाने की रहती है. सिटौले का क्या? वह तो रात कहेगी- आज से गू नहीं खाऊँगा सुबह हुई तो गू खाएगी.
(Kavve ki Riis Folk Stories of Uttarakhand)

कव्वे ने अपना सर खुजलाया. सेंणी दिखंणचाणं हुई तो वह भी तो आफत ठैरी. उसने सोचा जाना तो पड़ेगा ही पर मुसीबत में परदेश में एक होशियार का साथ जरूरी है. सो उसने पुरानी वाली को पुठ (पीठ) पर चढ़ाया जवान सुन्दर सेंणी को खाप (मुँह) में ले गया. पुरानी होशियार सैंणी को जवान सेंणी ने खूब चिढ़ाया कि देखा कितना प्यार करता है मेरा पति मुझे कि खाप में ले जा रहा है.

पुरानी पत्नी के बात कलेजे में लग गई ठैरी हो. हुआ भी! कितना सहे कोई! कव्वा दोनों को लेकर जाते रहा जाते रहा तो एक जगह बंण में खूब आग जल रही थी. तभी पीठ पर चढ़ी कव्वी ने कव्वे को चिढ़ाते हुए कहा-तेरी रांणी है क द्ववी ब्या तेरी राणी की द्वीवी ब्या…

कव्वा वैसे ही परेशान था. वह बहुत देर तक सुनता रहा सुनता रहा, पर उसे बाद में उसे सहन नहीं हुआ. वह नहीं रह पाया. उसे रीश आ गई उसने कहा तेर रांणि हैं के दहा पणों (तुझ दुष्ट को इससे क्या आग लगी है!) उसने यह कहा तो खाप में बैठी सुन्दर कव्वी उस नीचे लगी आग में गिरकर मर गई.
(Kavve ki Riis Folk Stories of Uttarakhand)

प्रभात उप्रेती 

किसी जमाने में पॉलीथीन बाबा के नाम से विख्यात हो चुके प्रभात उप्रेती उत्तराखंड के तमाम महाविद्यालयों में अध्यापन कर चुकने के बाद अब सेवानिवृत्त होकर हल्द्वानी में रहते हैं. अनेक पुस्तकें लिख चुके उप्रेती जी की यात्राओं और पर्यावरण में गहरी दिलचस्पी रही है.

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