समाज

पिथौरागढ़ की सौर्याली और काली पार डोटी अंचल की साझी झलक है कबूतरी देवी के गीतों में

कबूतरी देवी का उत्तराखण्ड और हिमालयी इलाके के लोक संगीत में एक बहुत बड़ा नाम रहा है. मधुर और खनकती आवाज की धनी कबूतरी देवी को उत्तराखण्ड में सभी जानते हैं. आज से तीन-चार दशक पूर्व लखनऊ और नजीबाबाद के आकाशवाणी केन्द्रों से ‘उत्तरायण‘ व अन्य कार्यक्रमों से जब उनके गीत प्रसारित हुए तो लोक संगीत की दुनिया में उनकी एक खास और अलग पहचान बनी. पारिवारिक विरासत में मिली लोक गायन की मामूली शिक्षा-दीक्षा के बावजूद भी कबूतरी देवी के गायन शैली में कई विशेषताएं मिलती है. उनके गायन शैली में पिथौरागढ़ की सौर्याली और काली पार डोटी अंचल की जो साझी झलक मिलती है वह बहुत ही विशिष्ट और अद्भुत है. ठेठ पहाड़ी राग में उनके कण्ठ से जब गीतों के स्वर फूटने लगते हैं तो हर श्रोता उनके गीतों का खुद-ब-खुद मुरीद बन जाता है.

आकाशवाणी से प्रसारित उनके कई गीत बहुत ही लोकप्रिय हुए, इनमें यह गीत तो लोगों के बीच में बेहद लोकप्रिय रहा, जिसमें रोजी रोटी के लिए पहाड़ से परदेश जा रहे व्यक्ति ने अपने मन की पीड़ा को व्यक्त करते हुए अपने साथी से अनुरोध पूर्वक कहता है कि मुझे बस-स्टेशन तक पहुंचा कर विदा कर दो, दो-चार दिनों में ही मेरा अपना गांव मुझसे दूर हो जायेगा और मैं परदेश में विरान (अनजान) हो जाऊंगा.

आज पनि जांऊ जांऊ,

भोल पनि जांऊ जांऊ

पोरखिन कै न्हैं जोंला.

स्टेशन सम्म पुजाई दे मनलाई

पछिल विरान होये जौंला.

स्टेशन जौंला टिकट ल्यौंला

गाड़ी में भैटि जौंलां

स्टेशन सम्म पुजाई दे मनलाई

पछिल विरान होये जौंला.

आज से सात दशक पूर्व कबूतरी देवी का जन्म 1945 में चम्पावत के लेटी गांव के मिरासी परिवार में हुआ. इनके पिता का नाम श्री देवी राम और माता का नाम श्रीमती देवकी था. पिता देवीराम को गाने-बजाने में महारत हासिल थी. वे हुड़का और सारंगी के साथ ही तबला व हारमोनियम बहुत अच्छा बजाते थे. कबूतरी देवी की मां भी लोक गायन में निपुण थीं. स्थानीय इलाके में उस समय इनका खूब नाम था. परिवार में नौ बहिनें और एक भाई था.घर की गुजर-बसर छुटपुट खेती बाड़ी और अन्य कामों से किसी तरह चल ही जाती थी. स्कूल दूर होने के कारण गांव के लड़के बमुश्किल पांचवी तक ही पढ़ पाते थे. उस समय लड़कियों की पढ़ाई बहुत दूर की बात समझी जाती थी सो अन्य लड़कियों की तरह कबूतरी देवी की भी स्कूली पढ़ाई नहीं हो सकी. परिवार में गीत-संगीत का भरपूर माहौल था. इसका फायदा कबूतरी देवी को अवश्य मिला और वे बालपन से ही वे गाने-बजाने में पारंगत हो गयी. माता-पिता द्वारा मात्र चैदह साल की उम्र में उनकी शादी कर दी गयी और वे पिथौरागढ़ जिले में मूनाकोट के नजदीक क्वीतड़ गांव के दीवानी राम के साथ वैवाहिक जीवन व्यतीत करने लगीं. उस समय इलाके में यातायात की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध नहीं थी. लोग-बाग पैदल ही चलते थे. कबूतरी देवी जब भी ससुराल (क्वीतड़) से मायके (लेटी) आती तो उन्हें पैदल पहुंचने में कम से कम डेढ़-दो दिन लग जाते.

आज उत्तराखण्ड की लोकगायिका कबूतरी देवी की पहली पुण्यतिथि है

ससुराल के आर्थिक हालात बहुत अच्छे नहीं थे. पति दीवानी राम अपने फक्कड़ मिजाजी के चलते घर की जिम्मेदारियों की तरफ बहुत अधिक ध्यान नहीं दे पाते थे. गुजर-बसर के लिए परिवार के पास खेती की जमीन थी नहीं सो कबूतरी देवी दूसरों के खेतों में काम-धाम करके और किसी तरह मेहनत-मजदूरी करके घर-परिवार का खर्च चलाती रहीं.

कबूतरी देवी को गीत संगीत की आधारिक शिक्षा-दीक्षा उनके माता-पिता से ही प्राप्त हुई. विवाह के पश्चात पति दीवानी राम और सुपरिचित गायक भानुराम सुकोटी (जो कबूतरी देवी के ककिया ससुर भी थे) द्वारा संगीत के क्षेत्र में सही तरीके से मार्गदर्शन किया गया. हांलाकि कबूतरी देवी को ससुराल में गीत संगीत का मायके जैसा माहौल तो नहीं मिल पाया पर उनके गायन की कदर परिवार के लोग अवश्य करते थे. पति दीवानी राम ने उनके इस शौक को पूरा करने में भरपूर मदद की. दीवानी राम भले ही खुद गाना नहीं गाते थे पर जब-तब कबूतरी देवी के गायन को बढ़ावा दिया करते थे. कबूतरी देवी के साथ बैठकर वे बहुत शौक से नये गीतों को बनाने और उसको संवारने में अपना योगदान दिया करते.

उनके पति को घूमने-फिरने का भी बहुत शौक था. कई बार वे कबूतरी देवी को भी अपने साथ ले जाया करते थे जिस वजह से गांव-शहर के समाज में दूर-दूर तक उनका परिचय होने के साथ ही अन्य नयी जानकारियां भी मिलती रहती थीं. इन्हीं दिनों एक बार पति दीवानी राम को आकाशवाणी से प्रसारित होने वाले लोक गीतों के गायन प्रक्रिया की जानकारी मिली तो वे कबूतरी देवी को लखनऊ के आकाशवाणी केन्द्र में ले गये. इस तरह 28 मई, 1979 को उन्होंने आकाशवाणी की स्वर परीक्षा उत्तीर्ण कर अपना पहला गीत लखनऊ के आकाशवाणी केन्द्र में रिकार्ड करवाया. इस तरह आकाशवाणी के माध्यम से उनके गाये गीत लोगों के बीच लोकप्रिय होते चले गये. बाद में आकाशवाणी के नजीबाबाद, रामपुर समेत अन्य कई केन्द्रों में भी इनके गीतो की रिकार्डिंग हुई और उनके गीत वहां से प्रसारित भी हुए. परिवार की आर्थिक तंगी के कारण उनदिनों पिथौरागढ़ से आकाशवाणी केन्द्रों तक आना-जाना भी मुश्किल भरा काम होता था. कबूतरी देवी को तब उस समय एक गीत को गाने का पारिश्रमिक केवल 50 रुपया ही मिलता था जो उनके आने-जाने के खर्च के हिसाब से कम हुआ करता था, फलतः उन्हें कई बार मेहनत-मजदूरी से अतिरिक्त पैसा जुटाना पड़ता था.

पारिवारिक जीवन का सिलसिला कुछ इसी तरह चल ही रहा था कि 1984 में अचानक पति दीवानी राम की भी मृत्यु हो गयी. पति की असमय मौत के बाद अब घर की पूरी जिम्मेदारी कबूतरी देवी सिर पर आ गयी.पारिवारिक जीवन पहले से कहीं अधिक कष्टप्रद तरीके से बीतने लगा. जैसे-तैसे अपनी दो लड़कियों और एक लड़के की परवरिश की. बाद में लड़कियों की भी शादी कर दी. गुजर-बसर के सिलसिले में  जब उनका लड़का मुम्बई चला गया तो कबूतरी देवी के गायन और संगीत का क्रम भी कुछ सालों तक छूट सा गया. आर्थिक अभाव के चलते मानसिक तौर पर परेशान रहने के कारण वे तकरीबन 10-12 सालों से अधिक समय तक गुमनामी के अँधेरे में जीती रहीं. बाद में पिथौरागढ़ के संस्कृति कर्मी हेमराज बिष्ट ने अपने खुद के प्रयासों से उनको फिर से गीत-संगीत के प्रति प्रोत्साहित किया तथा साथ ही आर्थिक सम्बल प्रदान करने के लिए संस्कृति विभाग से आर्थिक सहायता और पेंशन दिलाने के लिए समय-समय पर दौड़-धूप की. पिथौरागढ़ के सांस्कृतिक मेले में जब कबूतरी देवी के कार्यक्रमों की प्रस्तुति हुई तो लोग उनके गीतों के फिर से मुरीद बनने लग गये. इस तरह गीत-संगीत की दुनिया में उनका एक तरह से दुबारा जन्म सम्भव हुआ.

कबूतरी देवी के गाये तमाम गीतों का यदि हम सांस्कृतिक व सामाजिक नजरिये से विश्लेषण करें तो हमें उनके गीतों और गायन शैली में पहाडी़ लोक की मूल सुगन्ध का समूचा संसार समाहित हुआ दिखायी पड़ता है. उनके गीतों में पहाड़ के ऊंचे-नीचे डाने-काने हैं, परदेश के एकाकीपन की टीस है, शिव के हिमालय में मन्द-मन्द झूलती हुई सन्ध्या है, विरहिणी नारी की प्रतीक्षा है और तो और साथ में सोतों का मीठा पानी व लोगों की मीठी वाणी भी है. उनके गाये एक ऋतुरैण गीत में चैत की भिटौली और ईजू की नराई का बहुत ही मार्मिक व सजीव चित्रण मिलता है-

बरस दिन को पैलो म्हैणा

आयो ईजू भिटौलिया म्हैणा

मैं बुलानि कन

मेरि ईजू झुर झुरिये झन

आयो ईजू भिटौलिया म्हैणा

बरस दिन को पैलो म्हैणा.

पहाड़ के सोतों का पानी कितना मीठा है और साथ ही यहां की बोली भी कितनी मीठी है. अहा इसे देखकर ठण्डा भी नहीं लगता है. इस देवभूमि को छोड़कर जाने का हमारा मन करता ही नहीं है. पर्वतीय परिवेश की इस खासियत को कबूतरी देवी ने गीत-संगीत में जिस सुन्दरता के साथ पिरोया है उसकी छाप लोगों के दिल में गहराई तक समायी हुई है. आज भी यह लोकगीत भी लोगों के बीच खासा लोकप्रिय है-

पहाड़ को ठण्डो पाणि

के भली मीठी वाणी

टौण लै नि लागनि

देव भूमि छोड़ि बेर

जाण जस नि लागनि

पहाड़ को ठण्डो पाणि

के भली मीठी वाणी.

पहाड़ की विशिष्ट गायन शैली की परम्परा को जीवित रखने में लोक गायिका कबूतरी देवी का योगदान सच में बहुत बडा़ योगदान रहा है. उन्हें अपने पुरखों से गीतों की एक लम्बी-चैड़ी विरासत मिली हुई थी. दरअसल कबूतरी देवी उस परिवार से ताल्लुक रखती थीं जिन्होंने अपने गायन-वादन से यहां के लोक गीतों को बचाये रखा है. किसी समय अपने गायन-वादन और नृत्य के जरिये आजीविका चलाने वाले कबूतरी देवी जैसे कई परिवार आज अपनी रोजी-रोटी सहित तमाम अन्य समस्याओं से जूझ रहे हैं. कबूतरी देवी का स्वयं अपने बारे में कहना  था कि ‘एक कलाकार के लिए इससे बड़ा कष्ट और क्या हो सकता है कि उसको मंच न मिल सके. कुछ ही महीने पहले उनकी यह पीड़ा बहुत मुखर रही कि गरीबी और खराब स्वास्थ्य के चलते कहीं उनकी आवाज गुम होकर रह न जाय. इलाज कराने को उनके पास पैसा नहीं, कानों से सुनायी नहीं देता. कान की मशीनें खराब हो चुकी हैं, खरीदने के लिए पैसा नहीं है… आदि-आदि. उनका यह भी कहना था कि  जीवन में दुःख-तकलीफ तो खैर हमेशा से ही लगे रहे हैं.

लोक संवाहक के रुप में महति भूमिका होने के बावजूद भी कलाकारों की विपन्नता से कबूतरी देवी बहुत खिन्न नजर आती थीं. उनका साफ तौर पर कहना था कि सरकार अपने पहाड़ और राज्य के कलाकारों की अच्छी तरह सुध ले और उनके सम्मानजनक जीवन जीने की व्यवस्था करे. हमारे पास मौजूद लोकसंगीत आने वाली पीढ़ी को अनवरत रूप से मिलता रहे.

(लोक गायिका कबूतरी देवी  पर यह आलेख दो साल पूर्व लिखा गया था. यह आलेख कबूतरी देवी के शुभचिन्तक व उनकी समस्याओं के प्रति हमेशा सजग रहे स्वतन्त्र पत्रकार सुधीर कुमार से प्राप्त जानकारी पर आधारित है.)


चंद्रशेखर तिवारी. पहाड़ की लोककला संस्कृति और समाज के अध्येता और लेखक चंद्रशेखर तिवारी दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र, 21,परेड ग्राउण्ड ,देहरादून में रिसर्च एसोसियेट के पद पर कार्यरत हैं.

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