माना कि राज्य की आर्थिक प्रगति के लिए निवेश जरूरी है, उद्योगों की स्थापना जरूरी है. लेकिन सवाल यह उठता है कि किस ‘कीमत’ पर और किन ‘शर्तों’ पर ? सरकार निवेशकों को सुरक्षा की गारंटी दे, कारोबार के लिये अच्छा माहौल और बेहतर सुविधाओं का भरोसा दे तो बात समझ में आती है. लेकिन यहां तो सरकार निवेशकों के लिए प्रदेश के ‘अस्तित्व’ को ही दाव पर लगाने की तैयारी में है.
उत्तराखंड में इन्वेस्टर मीट से ठीक पहले सरकार ने ‘पहाड़’ में जमीन की खरीद फरोख्त की तय सीमा खत्म कर साफ कर दिया है कि वह पूंजीपतियों के लिए किसी भी सीमा तक जा सकती है. सरकार के फैसले के मुताबिक अब कोई भी पूंजीपति ‘पहाड़’ पर असीमित जमीन खरीद सकेगा. वो चाहे तो बेरोकटोक गांव के गांव खरीद सकता है, पूरा ‘पहाड़’ खरीद सकता है. इसके लिये न सीलिंग आड़े आएगी और न ही भू-उपयोग की बाध्यता रहेगी.
सरकार इसके लिए मौजूदा भू-कानून में संशोधन करने जा रही है. इस फैसले ने अंबानी, अडानी, मुंजाल, जिंदल, टाटा, बिरला, रामदेव समेत तमाम दूसरे पूंजीपतियों और उद्योगपतियों में भविष्य तलाश रही सरकार की मंशा पर सवाल खड़ा कर दिया है. पूंजीपतियों को रिझाने के लिए सरकार जो फैसले ले रही है वह पूंजीपतियों के हित में जरूर हैं लेकिन उत्तराखंड के अस्तित्व के लिए बेहद खतरनाक है. आज जब प्रदेश में घटती कृषि भूमि और लचीला भू-कानून चिंता बना हुआ है, उच्च न्यायालय भी हिमाचल की तर्ज पर उत्तराखंड में भू-कानून की जरूरत पर बात कर रहा है. ऐसे में सरकार का यह फैसला राज्य के लिए बड़े खतरे का संकेत बना हुआ है.
पिछले सौ दिन से पूरी सरकार सब कुछ छोड़ सिर्फ उत्तराखंड की इनवेस्टर मीट की ब्रांडिग में जुटी है. सरकार को इसकी कोई परवाह नहीं है कि राज्य की सैकड़ों सड़कें बंद हैं, राजधानी के सबसे बड़े सरकारी अस्तपाल में जच्चा-बच्चा ने फर्श पर दम तोड़ा है. सरकार को यह भी चिंता नहीं कि 108 सेवा सुचारू नहीं है, विकास योजनाओं पर बजट खर्च नहीं हो पा रहा है. फिलवक्त प्राथमिकता यह है कि किसी भी तरह किसी भी शर्त पर पूंजीपति उत्तराखंड के साथ करार करें. इसके लिए सरकार ने देश के प्रमुख शहरों में ही नहीं बल्कि विदेशों तक में रोड़ शो किये, ताबड़तोड़ कैबिनेट बैठकें कर पूंजीपतियों के मनमाफिक नीतिगत फैसले लिए.
मोटे अनुमान के मुताबिक तकरीबन सौ करोड़ रुपए सरकार इसके प्रचार-प्रसार और तैयारियों पर खर्च कर चुकी है. दिलचस्प यह है कि सरकार की यह पूरी कवायद प्रदेश की हालिया जरूरतों से इतर है. उन जरूरतों का जिक्र फिर कभी, फिलहाल तो जनता को सतरंगी सपने दिखाये जा रहे हैं कि देश-विदेश से प्रदेश में तकरीबन 80 हजार करोड़ का निवेश होने जा रहा है. दावा किया जा रहा है कि इससे तरक्की और रोजगार के नए रास्ते खुलेंगे. यह दावे तब हैं जब पुराने अनुभव इसकी गवाही देने को तैयार नहीं है.
हाल ही में सत्ता पक्ष के एक विधायक ने सदन में सरकार के उन दावों को झुठलाया है कि राज्य में स्थापित उद्योगों और संस्थानों में 68 फीसदी रोजगार स्थानीय लोगों को मिला है. महालेखाकार की रिपोर्ट में भी यह खुलासा हो चुका है कि प्रदेश में जिन निजी विश्वविद्यालयों और संस्थानों को मंजूरी दी गयी वह अनुबंध व शर्तों के मुताबिक राज्य का लाभ नहीं दे रहे हैं. राज्य में औद्योगिक विकास के लिए बनाया गया सिडकुल तकरीबन वीरान हो चुका है. जिसके जरिये अरबों का कारोबार हुआ नेताओं, अफसरों, ठेकेदारों और कारोबारियों ने करोड़ों के वारे-न्यारे किये, वह कंगाली के कगार पर है. वहां घोटालों का अंबार लगा है.
मैदानी इलाकों में बने सिडकुल के औद्योगिक क्षेत्र उजाड़ होने लगे हैं. आश्चर्य यह है कि यह सब कुछ जानते हुए भी सरकार पुरानी गलतियां दोहराने को तैयार है. सरकार के फैसलों और निवेशकों की दिलचस्पी से यह साफ हो चुका है कि खेल आखिरकार जमीनों का है. ऐसा लगता है कि निवेश के बहाने सरकार और निवेशक दोनो की नजरें प्रदेश की बची जमीनों पर हैं. पिछली सरकारों ने तो औद्योगीकरण के नाम पर मैदानी इलाकों में कृषि भूमि कौढ़ियों के दाम पर पूंजीपतियों को सौंपी, लेकिन मौजूदा सरकार पहाड़ में भी पूंजीपतियों के लिए जमीन की खरीद फरोख्त का रास्ता खोल रही है.
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि सरकार यह फैसला तब ले रही है जबकि सरकार को मालूम है कि प्रदेश के पास जमीनों का अभाव है. स्थिति भयावह बनी हुई है, बीते 18 सालों में 72 हजार हेक्टेअर कृषि भूमि खत्म हो चुकी है. यही रफ्तार रही तो अगले चार दशक बाद राज्य में नाम मात्र के लिए भी कृषि भूमि शेष नहीं बचेगी. आश्चर्य यह है कि सरकार उस स्थिति में पूंजीपतियों को पहाड़ की जमीन परोस रही है, जब उत्तराखंड में भी हिमाचल प्रदेश जैसे सख्त भू-कानून की मांग उठ रही है.
पड़ोसी हिमाचल में उसकी स्थापना के वक्त से आज तक भू-कानून अस्तित्व में है. हिमाचल के विकास में, वहां के कृषि उत्पादन में, औद्यानिकी विकास में, संस्कृति संरक्षण में उसके भू-कानून का अहम योगदान है. हिमाचल के भू-कानून के मुताबिक हिमाचल में किसी भी बाहरी व्यक्ति को कृषि भूमि की खरीद का अधिकार नहीं है. इतना ही नहीं वहां हिमाचल के कारोबारियों तक को भी कृषि भूमि खरीद का अधिकार नहीं है. इसके विपरीत उत्तराखंड में होम-स्टे और औद्यानिकी संबंधी योजनाओं के लिए भी सरकार प्रदेश के बाहर से कारोबारियों को रेड कार्पेट बिछा रही है. अंतरिम सरकार के कार्यकाल से शुरू हुआ जमीनों का खेल आज तक जारी है.
याद कीजिये राज्य बनने के बाद अंतरिम सरकार में सबसे पहले कुछ संस्थाओं को मुफ्त जमीनों का आवंटन हुआ. उन संस्थाओं का ताल्लुक बड़े राजनेताओं से था. इसके बाद जब पहली निर्वाचित सरकार आयी तो जमीनों का खेल बड़े पैमाने पर खेला गया. तरक्की और रोजगार के सपने दिखाकर खेती की हजारों हेक्टेअर जमीन उद्योगपतियों को कौड़ियों के भाव बांट दी गयी. सरकारी उद्यान, फार्म, कोल्ड स्टोरेज आदि प्राइवेट हाथों में सौंप दिये गए.
जल विद्युत परियोजनाओं के नाम पर नदियां जेपी और रेड्डी बंधुओं के हवाले कर दी गयीं. अब सवाल यह उठता है कि इस सबके एवज में राज्य और राज्य की जनता को क्या हासिल हुआ ? दुखद यह है कि इसका मूल्यांकन आज तक नहीं हुआ. राज्य में बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार का सवाल जस का तस है. बहरहाल एक बार फिर तरक्की और रोजगार के नाम पर उत्तराखंड को छले जाने की तैयारी है. सरकार की तैयारियां पूरी हैं, इन्वेस्टर समिट में उत्तराखंड ‘बिकने’ को तैयार है.
योगेश भट्ट (पत्रकार )
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