आज 10 मार्च को विश्व मशकबीन दिवस है. इस दिन, मशकबीन के सदियों पुराने इतिहास और सांस्कृतिक महत्व को ससम्मान याद किया जाता है. दुनिया भर में प्रचलित मशकबीनों के आकार-प्रकार पर चर्चा की जाती है, उनकी विविध धुनों को पूरे मनोयोग से सुना जाता है और सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ाव की अनुभूति की जाती है. मशकबीन एक ऐसा वाद्य है जो युद्ध, सैन्य-परेड, उत्सव और विवाह में समान रूप से लोकप्रिय है. उत्तराखण्ड की संस्कृति में मशकबीन अपेक्षया नया वाद्य अवश्य है, पर पूरी तरह लोकवाद्य की प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुका है. विश्व मशकबीन दिवस पर उत्तराखण्ड में मशकबीन के सांस्कृतिक महत्व और वैश्विक इतिहास की चर्चा-पड़ताल तो की ही जा सकती है.
(International Bagpipe Day)
ढोल-दमाऊ-मशकबीन के बगैर उत्तराखण्ड में विवाह की कल्पना भी नहीं की जा सकती है. ऐसा भी नहीं है कि इन तीनों का साथ सदियों पुराना हो. ढोल-दमाऊ के पुराने साथी तुरी/तुतरी (तुरही) और रणसिंघा थे. ढोल-दमाऊ तालवाद्य हैं और तुरी-रणसिंघा सुषिरवाद्य. उन्नीसवीं सदी में ब्रिटिश सेना के साथ जो मशकबीन भारत पहुँची, वही बीसवीं सदी में गढ़वाल के लोकवाद्यों में ऐसे शामिल हुुई कि इक्कीसवीं सदी में कोई सोच भी नहीं सकता है कि ये वाद्य मूल रूप में विदेशी था. मशकबीन के मसकबाजा, बीनबाजा, मुस्किबाजा नाम भी उत्तराखण्ड में प्रचलित हैं. मशकबीन की गाथा और यात्रा भी बहुत़ रोचक है.
मशकबीन मूलतः स्कॉटलैण्ड का वाद्य है. बैगपाइप इसका अंग्रेजी नाम है. चौदहवीं शताब्दी के अंग्रेजी साहित्य में भी इसका जिक्र मिलता है. ब्रिटिश सेना के बैण्ड में जगह मिलने के बाद सारी दुनिया के फौजी बैण्डों में इसको जगह मिली. गढ़वाल राइफल्स की स्थापना 1887 में हुई थी. काळोंडांडा में लैंसडाउन नाम से राइफल्स का मुख्यालय स्थापित किया गया. 1921 से गढ़वाल राइफल्स में मशकबीन की ट्रैनिंग होने की शुरूआत हुई. प्रत्येक बटालियन के लिए एक पाइप-मेज़र और बारह पाइपर्स को पाइप-बैंड में रखने का प्रावधान किया गया. प्रथम विश्व युद्ध में शहीद दो गढ़वाली सैनिकों के अवशेष, सौ साल बाद फ्रांस के एक गाँव में मिले थे. साल 2017 में सैन्य सम्मान के साथ उनके अंतिम संस्कार के वक्त, गढ़वाल रेजीमेंट पाइप बैंड के दो मशकबीन वादक (बैगपाइपर्स) भी शामिल हुए थे.
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गढ़वाल राइफल्स और कुमाऊं रेजीमेंट बैण्ड में ही पहली बार मशकबीन उत्तराखण्ड पहुँची. मशकबीन ही उत्तराखण्ड का पहला ऐसा लोकवाद्य है, जिसके शुरुआती वादक शिल्पकार नहीं थे. गढ़वाल राइफल्स और कुमाऊं रेजीमेंट के राजपूत सैनिक ही मशकबीन के शुरूआती वादक थे. बैण्ड-यूनिट के ये सैनिक जब छुट्टी में या रिटायर होकर अपने गाँव गये तो साथ में मशकबीन भी ले गये. 1916 में स्थापित तीसरी बटालियन के बैगपाइपर बैण्ड की गिनती तो ब्रिटिश सेना के सर्वश्रेष्ठ बैण्डों में होती थी.
बंगाल में तैनाती के समय, वहाँ के मेलों में दूर-दूर से लोग गढ़वाली बैण्ड का प्रदर्शन देखने आते थे. दिल्ली में पहले स्वतंत्रता दिवस का झण्डारोहण गढ़वाली बैण्ड की धुन के साथ ही हुआ था. सूबेदार वचनसिंह अत्यंत प्रतिभाशाली वादक थे. पंचमढ़ी में प्रशिक्षण के दौरान ही उन्होंने एक नयी धुन कंपोज कर दी थी. गंगोतरी नाम से प्रसिद्ध ये धुन जिस गीत पर आधारित थी, उसके बोल थे – “तुम मेरा स्वामी परदेस जावा, यखुली छौं मि चिट्ठि भेजि द्यावा.” इससे पहले के पाइपमास्टरों में नायब सूबेदार कुंदन सिंह और बलवंत सिंह का नाम भी उल्लेखनीय है. मशकबीन के मिलिटरी में योगदान के प्रति कृतज्ञतास्वरूप, यूनाइटेड ब्रेवरीज़ कम्पनी ने 1976 में अपनी व्हिस्की का ब्रैंडनेम भी बैगपाइपर रखा था.
मशकबीन का मुख्य भाग मशक अर्थात बैग होता है. मशक हवा के स्टोर-टैंक के रूप में काम करता है. मशक पहले जानवरों की खाल के बनते थे पर अब ये सिंथेटिक मैटीरियल से बनाये जाते हैं. मशक पर एक पाइप, मुँह से हवा भरने के लिए होता है. इसे मुखलाल (माउथपीस) कहा जाता है. पुरानी मशकबीनों में लगतार हवा का दबाव बनाये रखने में बहुत दम लगाना पड़ता था, पर नयी मशकबीनों में वनवे वाल्व वाला मुखलाल पाइप होता है. मुरली जैसा, एक दुसरा पाइप भी होता है, जिसे टनटन या चैंटर कहते हैं. चैंटर जरूरत के हिसाब से सिंगल या डबल रीड के होते हैं. इनके अलावा तीन दूसरे पाइप होते हैं जिनको ड्रोन कहा जाता है.
गढ़वाली-कुमांउनी लोकवाद्यों में मशकबीन शामिल होने से एक रिक्तता की पूर्ति हई. तूरी, रणसिंघा, जौंळमुरली, मुरली जैसे सुषिरवाद्य होने के बावजूद ऐसा कोई सुषिर वाद्य गढ़वाल-कुमाऊं में नहीं था जिसे लगातार लम्बे वक्त तक बजाया जा सके और जिसकी सुरीली तान दूर खाळ-धार तक भी सुनी जा सके. यही कारण है कि स्कॉटलैण्ड हाइहिलर्स का ये वाद्य, गढ़वाल-कुमाऊं की डांडि-कांठ्यों को खूब मुफीद आया. मसल है कि दूर के ढोल सुहावने लगते हैं, पर मशकबीन की धुन दूर और नजदीक दोनों जगहों से अच्छी लगती है, मीठी लगती है. भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे बढ़िया मशकबीन पाकिस्तान के सियालकोट में बनते हैं, जबकि भारत में जालंधर और मेंरठ में. ब्रिटिश उपनिवेश का सांस्कृतिक अवशेष है, मशकबीन. जेसन बजनेव्सकी ने 2013 में, नौ महीने गढ़वाल विश्वविद्यालय श्रीनगर में रह कर मशकबीन पर शोध-अध्ययन किया. उसके शोध का विषय था – मशकबीन संगीत का प्रभाव और प्रकार. शोध-अध्ययन के लिए, जेसन ने् मशकबीन के दो गढ़वाली लोकवादकों और एक फौज़ी वादक की सहायता ली.
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मशकबीन को समुचित प्रोत्साहन दिये जाने की जरूरत है. एक तरफ जहाँ गढ़वाल में मशकबीन को औल्डफैशन्ड वाद्य माना जा रहा है, वहीं देश-दुनिया में ऐसे भी लोग हैं जो इस वाद्य की बदौलत ही बडे स्टार बन गये हैं. अर्चना जयन ऐसा ही एक नाम है. वो भारत की पहली महिला मशकबीन वादक हैं. एक एयर फोर्स ऑफिसर के घर जन्मीं उच्च शिक्षित अर्चना ने अमेरिका के प्रसिद्ध बैगपाइपर्स से वादन के गुर सीखे, जर्मनी से मशकबीन मंगायी और दो-तीन साल के अभ्यास के बाद, जब अर्चना ने मशकबीन वादन का अपना वीडियो यूट्यूब पर डाला तो वो रातोंरात सुपरहिट सनसनी बन गयी. दिल्ली में रहने वाली मलयाली मूल की अर्चना केंद्रीय महिला व बाल विकास मंत्रालय द्वारा भी सम्मानित हो चुकी है.
मशकबीन मूल रूप में युद्ध का वाद्य था, रणभेरी जैसा. पहले और दुसरे विश्व युद्ध में स्कॉटलैण्ड के सैनिक मशकबीन बैण्ड के साथ ही लाम को गये थे. उनके कमांडर मानते थे कि मशकबीन की कर्णभेदी धुन सुनकर ही दुश्मन डर जाते हैं. पंद्रह किलोमीटर दूर तक मशकबीन की धुन सुनी जा सकती है. युद्धों में मशकबीन वादकों का महत्व इस तथ्य से समझा जा सकता है कि कॉमनवेल्थ देशों की सेनाओं के तीन मशकबीन वादकों को उनके शौर्यपूर्ण योगदान के लिए विक्टोरिया क्रॉस तक प्राप्त हो चुका है.
जॉर्ज फ्रेडरिक फिंडलेटर को 1897-98 में भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत के युद्ध में, डेनियल लैडलॉ को को प्रथम विश्व युद्ध में 1915 की लूस की लड़ाई में और जेम्स रिचर्डसन को प्रथम विश्व युद्ध में 1916 की सॉमी की लड़ाई में उनके शौर्यपूर्ण प्रदर्शन के लिए विक्टोरिया क्रॉस प्रदान किया गया था. फिंडलेटर अपनी बटालियन में जोश भरने के लिए मोर्चे पर आगे बढ़ते हुए मशकबीन से जोशीली धुन बजा रहे थे. दोनों पांवों पर गोली लगने से वे चलने में असमर्थ हो गये. फिर भी एक बड़ी चट्टान की आड़ में रह कर वो मशकबीन बजा कर अपने साथियों का हौसला बढ़ाता रहा. लैंडलॉ की बटालियन को जर्मन खंदकों पर हमला करने का आदेश हुआ था. उसने देखा कि उसके साथी दुश्मन द्वारा छोड़ी गयी जहरीली गैस के प्रभाव में आ रहे हैं. स्वयं घायल होने के बावजूद वो खंदको के पैराफिट पर तब तक मशकबीन बजाता रहा, जब तक कि उसके साथियों ने होश में आकर, दुश्मन की खंदकों पर कब्जा नहीं कर लिया. रिचर्डसन अपने घायल सार्जेंट मेजर को लाने के लिए कंटीले तारों की बाड़ से होकर नो मैन्स लैंड में गया. मेजर को एक सुरक्षित गड्डे तक लाकर उसे ध्यान आया कि अपनी मशकबीन तो वो वहीं छोड़ आया है. मशकबीन के बगैर लौटना उसके लिए किसी पराजय से कम नहीं था. वो फिर कंटीले तारों को लांघ कर दुश्मन के काफी करीब गया. फिर कभी उसे मशकबीन बजाते हुए नहीं सुना गया. उसे मरणोपरांत विक्टोरिया क्रॉस प्रदान किया गया.
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बारात भी एक तरह की विजय-यात्रा ही है. इसलिए भी मशकबीन बारात-वाद्यों का अभिन्न हिस्सा बन गयी है. सरौं नृत्य भी मशकबीन और ढोल-दमो के साथ किया जाता है. भौगोलिक कारणों से भी मशकबीन पहाड़ की चढ़ाई-उतराई के सर्वथा अनुकूल है. अमेंरिकन शोधकर्ता, एंड्रयु ऑल्टौर बताते हैं कि मशकबीन में हवा स्टोर की जा सकती है, इससे बजाने में वादक को दुसरे सुषिर-वाद्यों के बनिस्बत कम हाँपना पड़ता है. मसल है कि रोम जलता रहा और नीरो बंसी बजाता रहा. दरअसल नीरो के पास बंसी नहीं थी, वो उस जमाने की मशकबीन ही थी. मशकबीन का जादू ही ऐसा है कि जब सुधबुध खो के कोई बजाने बैठता है तो उसकी बला से ताज़ जले या राज.
मशकबीन में कुछ कमी भी है. जैसे कि इसमें सप्तक अर्थात् पिच बदलने की कोई गुंजाइश नहीं होती. अधिक से अधिक वादक धुन लम्बी खींच सकता है या छोटी कर सकता है. नौ-सुर वाले मशकबीन से सुर-प्रवाह लगातार बना रहता है. दूसरे वाद्यों की तरह मशकबीन में सुर-अंतराल रखने की गुंजाइश नहीं होती. मशकबीन थामने और साथ ही उसकी मुरली पर उंगलियां साधना भी एक कला है, जिसके लिए अभ्यास की जरूरत होती है. बडे लोगों की बडी़ पसंद. कहा जाता है कि ब्रिटेन की महारानी ऐलिजाबैथ सुबह उठने के लिए अलार्म की जगह अपने बेडरूम की खिड़की के बाहर पंद्रह मिनट तक मशकबीन की धुन सुनना पसंद करती थी. स्कॉटलैण्ड द ब्रेव मशकबीन पर बजायी जाने वाली सबसे क्रॉमन धुन है. पुराने मशकबीन कलावंत इस धुन को बजाते भी थे. भले ही सात समंदर पार की ये धुन रही हो, पर है तो पहाड़ों की ही.
लगभग सौ साल की संगीत-यात्रा के बाद, आज मशकबीन गढ़वाल-कुमाऊं का प्रतिनिधि लोकवाद्य है. बीसवीं सदी के तीसरे दशक तक के गढ़वाली साहित्य और लोकगीतों में मशकबीन का कहीं उल्लेख नहीं मिलता. पहले विश्व युद्ध के दौरान गढ़वाली कविता के जनक कहे जाने वाले सत्यशरण रतूड़ी की लिखी युद्ध का वास्ता प्रस्थान कविता में भी मशकबीन का जिक्र नहीं है. कविता की पंक्तियां इस तरह हैं –
जर्मनकु ध्वंश कैद्या बंदूक से उड़ैद्या
कुर खेत ही मचैद्या रण सूरसिंह छैं तुम.
बाजा बजावा मारू, रणसिंह, नाद, भेरी
डौंरू, कँसाल, घंटा, सब थौळ मा सजा तुम.
गढ़वाल-कुमाऊं के अधिकतर लोकप्रिय गीत-लोकगीतों की धुन यहाँ के कलावंत मशकबीन पर बेहतरीन ढंग से बजा रहे हैं. यमकेश्वर ब्लॉक के, 82 साल के प्रेमदास आकाशवाणी नजीबाबाद के पंजीकृत मशकबीन वादक हैं. उदयपुर पट्टी के बिथ्याणी गाँव के प्रेमदास की मशकबीन धुन, आकाशवाणी नजीबाबाद के प्रत्येक गढ़वाली कार्यक्रम में सुनी जा सकती है. इसी तरह गंगाराम और हरीशराम आकाशवाणी अल्मोड़ा के बी ग्रेड के शुरूआती मशकबीन वादक हैं. मशकबीन वादन में 22 साल के हरीश शर्मा इस सदी के प्रतिभाशाली वादक हैं. एयरफोर्स स्कूल दिल्ली में शिक्षक हरीश शौकिया वादक हैं. महिपाल सिंह रावत मदरसन कम्पनी में असिस्टेंट वाइस प्रेजिडेंट हैं. रणगाँव, धूमाकोट के मूल निवासी महिपालजी ट्रैवल-हॉस्पिटबलिटी इंडस्ट्री के जाने-माने व्यवसायी हैं. वे गढ़वाल-कुमाऊं की संस्कृति और लोकसंगीत के लिए प्रतिबद्ध हैं और हरीश शर्मा जैसे उभरते कलाकारों को मंच प्रदान कर रहे हैं. हरीश भट्ट जैसे कुछ अन्य युवा भी मशकबीन को संरक्षित करने का प्रयास कर रहे हैं. ये युवा ढोल-दमाऊ-मशकबीन वाले अपने लोकवाद्य ऑकेस्ट्रा के साथ विभिन्न मांगलिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमों में प्रोफेशनल्स की तरह अपनी उत्कृष्ट कला का प्रदर्शन और संस्कृति-संरक्षण दोनों कर रहे हैं.
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इस सबके बावजूद, अभी मशकबीन को स्टूडियो के अनुकूल, रिकार्डिंग-फ्रैंडली बनाये जाने की जरूरत है. देश-दुनिया में अब छोटे साइज और कम वॉल्यूम वाले मशकबीन भी प्रचलन में आ गये हैं. आइरिस मशकबीन में तो मुँह से हवा भरने की भी जरूरत नहीं होती है. गढ़वाल-कुमाऊं के संगीत-सिद्धपुरुषों से अपेक्षा है कि वो इसके बाबत बाजगी और तकनीकी सहायकों को मार्गदर्शन प्रदान करेंगे.
सम्प्रति राजकीय इण्टरमीडिएट कॉलेज में प्रवक्ता हैं. साहित्य, संस्कृति, शिक्षा और इतिहास विषयक मुद्दों पर विश्लेषणात्मक, शोधपरक, चिंतनशील लेखन के लिए जाने जाते हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ ( संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित), कैप्टन धूम सिंह चौहान (सैन्य इतिहास, विनसर देहरादून से प्रकाशित), घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित) और सीखते सिखाते (शैक्षिक संस्मरण और विमर्श, समय-साक्ष्य देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी प्रकाशित हैं. आकाशवाणी और दूरदर्शन से वार्ताओं के प्रसारण के अतिरिक्त विभिन्न पोर्टल्स पर 200 से अधिक लेख प्रकाशित हो चुके हैं.
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