जहाँ हमारे गाँव की हद खत्म होती है वहीं पर एक जमाने में इंद्रू सुनार की लोहे गलाने की भट्टी हुआ करती थी. इंद्रू केवल नाम भर का सुनार था, काम तो वो खेती किसानी, पशुपालन और रोजमर्रा के घरेलू कामों में इस्तेमाल किए जाने वाले लोहे के औजार बनाने का करता था. छुटपन के दौरान अपने बुजुर्ग के साथ मैं जितनी बार भी इंद्रू के ठिकाने पर गया, उसको वहाँ टिन के पुराने जर्जर पत्तरों की छत वाली मढैया के नीचे, सुलगती भट्टी के सामने बैठा हुआ पाया. पेड़ के तने को काटकर बनाए गये आसन पर विराजमान इंद्रू हर दम व्यस्त नजर आता.
(Indru Story Subhash Taraan)
भट्टी की तपन, धुंए और राख से सराबोर वातावरण होने के बावजूद भी इंद्रू बड़ी तल्लीनता और लगन के साथ अपने काम में जुटा होता था. इंद्रू के पीछे एक खुले मुँह की कोठरी होती थी जिसमें उसके पेशे से संबधित औजार और लोहे के बेतरतीब आकार के टुकड़े पडे़ देखे जा सकते थे. इंद्रू अपने आसन पर बैठ कर जहाँ अपने बांये हाथ से लकड़ी के खाँचों में स्थापित एक साईकिल के रिम को, जो भट्टी में लगे प़ंखे को एक पतली डोरी से घुमाता था, उस पर जड़े लकड़ी के हत्थे के माध्यम से घुमाते हुए भट्टी की भभक को मन माफिक स्तर पर ले जाता, वहीं दांए हाथ मे चिमटानुमा औजार लेकर भट्टी के भीतर तप रहे लोहे की वक्त-वक्त पर खबर लेता रहता.
भट्टी के सामने उसकी पहुँच के अन्दर एक चीड़ के सूखे बक्कलों और छिलकों से भरा बोरा हमेशा औंधे मुँह पड़ा मिलता था. इंद्रू जरुरत के हिसाब से इन सूखे छिलकों और बक्कलों को भट्टी में झौंकता और लोहे को लाल कर उसको मन माफिक आकार दे डालता. इंद्रू के ठीक सामने लोहे का एक चमचमाता ठीया था जिस पर इंद्रू गर्म लोहे को आकार देने के लिए उसे पीटता और पिटवाता था.
इंद्रू ने इस ठीए पर न जाने लोहे के कितने ही आड़े और अड़ियल टुकड़ों को आकार देकर उन्हे श्रम जीवियों की जीवन चर्या से जोड़ दिया था. मढैया की छत के दायरे से थोडा सा बाहर कई मौसमों के मिजाज को झेल चुका, गंदैले पानी से लबालब, एक पुराना सा तसला पड़ा होता था जो भट्टी में गर्मी खाए लोहे को पिटने के बाद उसकी तपिश को उतारने के लिए जवाबदेह था.
इंद्रू की सख्त और तुनक मिजाजी के बारे में मैने अक्सर अपने गाँव के बड़े बूढ़ों से सुना था. वे बताते थे कि इंद्रू किसी से ज्यादा बात नही करता और वो हमेशा तमतमाया हुआ रहता था. यही कारण था कि रोजमर्रा के दौरान इस्तेमाल होने वाले औजारों को बनवाने और उनकी मरम्मत करवाने के सिलसिले में भट्टी पर आने वाले गाँव के बड़े से बड़े चंट और चकड़ैत भी इंद्रू से हमेशा सहमे रहते थे. उसके पक्के नियम थे.
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मसलन, जिसका काम होगा, भट्टी में झौंकने के लिए ईंधन की व्यवस्था भी उसी को करनी होगी और जरुरत पड़ने पर लोहे को पीटने के लिए घन भी वही चलाएगा. हाँ, अकेली औरतों और विकलांगों के लिए उसकी तरफ से कुछ छूट थी. जब कभी इस तरह के असहाय लोग उसके पास आते तो वह अपने छोटे भाई माईदू से घन चलवाता और अपने द्वारा लाए गये ईंधन का इस्तेमाल करता. बताते हैं कि घन के द्वारा लोहे पर चोट करने वाले नौसिखिया युवा इंद्रू से बहुत खौफ खाते थे. कारण यह था कि गर्म लोहे को एक निश्चित आकार देने के लिए उस पर जल्दी-जल्दी चोट करनी होती थी. दूसरे, चोट इंद्रू द्वारा ईंगित जगह पर ही करनी होती थी. अगर कोई इसमे चूक जाय तो उसे इंद्रू के कोप भाजन का शिकार होना पड़ता था. कभी-कभी तो इंद्रू लोहा पीटते वक्त गलती करने वाले की, चोट की जगहों को ईंगित करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली लोहे की छड़ी से ही खबर ले लेता था. मजाल है कि कोई इंद्रू के आगे चूँ भी करता हो. उसका रुतबा ही कुछ ऐसा था.
बताते हैं कि भट्टी में ईंधन को सुलगाने के लिए यांत्रिक पंखे से पहले भेड़ की खाल की धौंकनिया हुआ करती थी. नौसिखियों के लिए धौंकनियों से हवा पैदा करना काफी मुश्किल भरा काम होता था. एक बार औजार के तकादे के लिए आए एक आदमी को इंद्रू ने सिखा पढा कर भट्टी पर धौंकनियाँ चलाने बिठा दिया. कई बार बताने के बावजूद भी जब वह आदमी धौंकनियों से हवा पैदा नहीं कर पाया तो इंद्रू आगबबूला हो गया और भट्टी से एक धौंकनी उखाड़ कर उस आदमी के मुँह पर हवा झौंकते हुए झल्लाकर कहने लगा –
“ऐसे चलाओ, ऐसे”.
उस जमाने में इंद्रू और गाँव वालों का व्यवसायिक रिश्ता रुपये पैसे का नहीं श्रम के लेन देन का था. इंद्रू गाँव वालों के लिए लोहे के औजार बनाकर उनके रोज के काम आसान बनाता, गाँव वाले बदले मे हर फसल और त्यौहार पर अपनी उपज का एक हिस्सा इंद्रू को देते. गाँव वालों का यह व्यवसायिक व्यवहार केवल इंद्रू तक ही सीमित नहीं था, गाँव में रहने वाले हर शिल्पकार के साथ गाँव वालों का यही रिश्ता था. उस वक्त रिवाज था कि फसल आने पर सबसे पहले खलिहान में गाँव के सभी शिल्पकारों को उनके द्वारा छ महीने के दौरान उपलब्ध करवाई गई सेवाओं के बदले तय अनाज दिया जाता था. तब बाद में बाकी अनाज अपने घर पहुँचाया जाता था.
साल भर मनाये जाने वाले बार-त्यौहार और मेलों-ठेलों के दौरान घर में जो कुछ भी पकाया या बनाया जाता, उसका एक हिस्सा शिल्पकारों के लिए निश्चित रहता. यहाँ तक कि माघ के महीने में गाँव वालों की इन शिल्पकारों के साथ सूखे माँस और घी तक की हिस्सेदारी होती थी. कुछ लोग इस लेन देन में शिल्पकारों के साथ हेराफेरी करने की फिराक में रहते थे. ऐसे में बाकी शिल्पकार तो भले ही लिहाज और डर के चलते जितना और जैसा मिला, लेकर अपने घर लौट जाते थे लेकिन यदि कोई इंद्रू के साथ इस तरह की चालाकी दिखाने की कोशिश करता तो इंद्रू दी जाने वाली चीज-बसत को देनेवाले के मुँह पर मार कर लौट जाता था. मुझे याद है माघ में जब दादा जी शिल्पकारों के लिए घी और सूखे माँस की हिस्साकशी करते थे तो इंद्रू का विशेष ध्यान रखते थे.
मैने पहली बार इंद्रू को अपने घर पर ही देखा था. वह सर्द माघ महीने का कोई चमकदार दिन था. मामूली सी कद काठी और झुलसे हुए चेहरे पर कछुए जैसी छोटी-छोटी आँखो को झपकता वह बरामदे के कोने में शांत बैठा पतबीड़े में भरा तंबाकू पी रहा था. मैं सहमा सा दरवाजे के पीछे से इंद्रू को देख रहा था. मेरे डर का कारण यह था कि हम छोटे बच्चों को बात-बात पर यह धमकी दी जाती थी कि यदि शैतानी करोगे तो इंद्रू को बुलाकर तुम्हारे कान कटवा दिए जाएंगे. क्योंकि इंद्रू लोहे के औजार बनाता था और लोहे के औजार कुछ भी काट सकते है, इस बात के चलते मेरा डर बिलकुल पुख्ता हो चुका था.
बरामदे में बैठा इंद्रू तंबाकू से फ़ारिग हुआ ही था कि तभी दादा जी कोठार से एक छाज में इंद्रू को दिया जाने वाला हिस्सा लेकर बरामदे में आ पहुँचे. इंद्रू ने अपनी चादर निकाली और उसमे दिया गया सारा सामान बाँध कर उसकी गठरी बना ली. इंद्रू के पास घी के लिए भी बर्तन था. दादी ने उसके बर्तन में गिलास भर घी उडेला और उसे अगले त्यौहार पर फ़िर से आने की कह कर विदा कर दिया.
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उसी दौरान मेरा स्कूल जाना शुरु हो गया था. कभी कभार स्कूल के रास्ते आते जाते यदि इंद्रू मिल जाए तो हम बच्चे रास्ते से इधर उधर भाग खड़े होते थे. आते जाते वक्त इंद्रू के बारे में प्रचलित किस्सों को बाल मन की धारणाओं के आधार पर आपस में कहा सुना जाता. मेरे दिमाग मे इंद्रू की छवि कुछ इस तरह से बन गयी थी कि इंद्रू बिना कुछ कहे सुने ही सामने पड़ने वाले को पीट देता है. हाँ, कान काटने वाली बात को लेकर मैं इतना जरुर आश्वस्त था कि यह काम घरवालों की मर्जी के बगैर नही हो सकता.
गाँव में मेरा घर बस्ती से काफ़ी हटकर बहुत से खेतों को पार करने के बाद पड़ता है. गाँव से जो रास्ता मेरे घर की तरफ़ आता है उसी से उपर की ओर लगते एक खेत के बीचों बीच एक बड़ी सी चट्टान हुआ करती थी. यह चट्टान लगभग दो कमरों के एक मंजिला मकान के जितनी लंबी, चौड़ी और ऊंची थी. मेरे साथ खेलने वाले कुछ बच्चे कहते थे कि यह चट्टान यहाँ पाँडवों के एक बलशाली भाई भीम ने रखी है. जबकि कुछ का कहना था कि यह चट्टान किसी जमाने में उपर पहाड़ी से लुड़क कर यहाँ आ पहुँची है. वैसे तो पत्थरों से सजे बजे किनारों पुस्तों वाले मेरे गाँव के खेतों में छोटे बड़े पत्थरों की भरमार है लेकिन सारे गाँव की खेती के चक में वह उस वक्त की ईकलौती बड़ी चट्टान थी. खेत खाली होने के दौरान कई बार मेरे हम उम्र दोस्त उस चट्टान पर चढ कर नीचे खेत में छलांग लगाने का खेल खेलते थे.
एक दिन दोपहर बाद स्कूल से लौटते हुए देखा कि चट्टान वाले खेत के मालिकों के साथ इंद्रू और उसका भाई माईदू खड़े कुछ बतिया रहे हैं. मैने घर पहुँच कर माँ को जब इस बारे में बताया तो पता चला कि इंद्रू ने खेत मालिकों से खेत के बीचों-बीच खड़ी उस भीमकाय चट्टान को तोड़ कर वहाँ से हटाने का ठेका लिया है. माँ की बात सुनकर मुझे बड़ी हैरत हुई साथ ही इंद्रू के ताकतवर होने का एहसास और पुख्ता हो गया.
कुछ दिनों बाद मालूम हुआ कि इंद्रू ने इस चट्टान को खेत से दर बदर करने का ठेका बारह सौ रुपये मे लिया था. बारह सौ रुपया तब एक बड़ी रकम थी लेकिन उस वक्त इंद्रू के किरदार के आगे मुझे सब कुछ गौण लग रहा था.
वक्त गुजरने लगा. मैं सुबह स्कूल को जाता तो देखता कि इंद्रू और उसका भाई माईदू उस चट्टान पर घन और सब्बल से पिले पड़े होते थे. चट्टान पर पड़ी घन या सब्बल की चोट उस विशालकाय चट्टान से पत्थर का टुकड़ा चाहे तोड़ पाती हो या न तोड़ पाती हो लेकिन उसकी एवज में निकली आवाज चारों ओर के पहाड़ों से टकराते हुए काफी देर तक वातावरण में गूंजती रहती थी. इंद्रू और उसके भाई का चट्टान से दो-दो हाथ करने का यह सिलसिला शाम के झुरमुटे तक जारी रहता था.
मैं स्कूल को जाते और स्कूल से आते हुए कनखियों से तोड़ी जा रही चट्टान का जायजा लेने की कोशिश करता था. मेरा बड़ा मन होता कि काश मैं भी चट्टान के करीब जा पाता और इंद्रू से इस पहाड़ जैसे पत्थर को तोड़ने के गुर सीख पाता. मेरी समझ से वे दोनो भाई दिन भर जोर आजमाने के बाद चुनौती की तरह खड़ी चट्टान से बमुश्किल दो चार टोकरी पत्थर ही छुड़ा पाते होंगे.
कुछ ही दिन गुजरे, एक दिन अचानक चट्टान पर चोट से उठने वाली लयबद्ध गूंज सुनाई देनी बंद हो गयी. मुझे लगा आज शायद इंद्रू और माईदू काम पर नहीं आए होंगे. मैं स्कूल के लिए निकला तो देखता हूँ कि तोड़ी जा रही चट्टान के बाहर मोटी-मोटी लकड़ियों के गट्ठर पड़े हुए है. थोड़ा नजदीक पहुंचने पर देखा तो इंद्रू और उसका भाई लकड़ियों के बोझ पीठ पर लाद कर सड़क से नीचे खेतों की तरफ़ आती पगडंडी में सरकते हुए दिखाई दे रहे हैं. मैं बड़ी असंमझस में था.
कल तक चट्टान से लोहा ले रहे दोनों भाईयों ने आज अचानक अपने ईरादे क्यों बदल दिए होंगे? कल तक चट्टान को अपने बाजुओं के भरोसे नेस्तानाबूद करने के मंसूबे बांधने वाले आज सूखी लकड़ियां क्यों इकट्ठी कर रहे होंगे? बहरहाल, मैं दिमाग में कुलबुला रहे सवालों को झटक कर स्क़ूल की तरफ़ हो लिया.
वह इतवार का दिन था. स्कूल की छुट्टी के चलते मैं देर तक सोता रहा. आँख खुली तो सीधा आंगन की ओर लपक लिया. छुट्टी का दिन होने के चलते मेरे बाल मन में जो पहला ख्याल आता था वो था खेलना. बाहर आंगन में कुछ भी करो, कोई रोक टोक नहीं होती थी. जबकि घर के अंदर पाबंदिया ही पाबंदिया थी. बरामदा पार कर जैसे ही आंगन में पहुँच, अपने लकड़ी और मिट्टी के स्वनिर्मित खिलौनों की खबर लेने हेतु ईधर उधर नजर दौड़ाई तो अचानक खेतों की तरफ धुआं उठता दिखाई देने लगा. गौर से देखा तो धुआं उस चट्टान के पास से उठ रहा था जिसको तोड़ने का ठेका इंद्रू और उसके भाई ने लिया हुआ था. खिलौनो का ख्याल एक तरफ रख मैं खेतों की तरफ हो लिया.
जिस खेत में इंद्रू और उसका भाई चट्टान तोड़ने के जतन कर रहे थे वह खेत मेरे घर से लगभग तीन सौ मीटर की दूरी पर रहा होगा. हालांकि इंद्रू के नजदीक जाने की हिम्मत मेरे अंदर दूर-दूर तक नहीं थी लेकिन वो इस चट्टान को कैसे तोड़ेगा, यह ख्याल मुझे एक ऐसी उचित दूरी तक ले गया जहाँ से मैं खुद को छुपा कर दोनो भाईयों के क्रिया कलापों को आसानी से देख सकता था.
बगल के खेत में जिस पुश्ते की ओट लिए मैं खड़ा था वहाँ से धुएं और लपटों से घिरी चट्टान के मिजाज को सब्बल की नोक से परखता इंद्रू अपने भाई को आग में और लकड़ियां झौंकने को निर्देशित करते हुए साफ दिखाई दे रहा था. दिन के पहले पहर की अनियमित हवाएं भले ही आग की लपटों को बेलगाम इधर उधर हाँक रही थी लेकिन मजाल है कि इंद्रू उनकी परवाह कर रहा हो. लपटों और धुएं का अस्तित्व खत्म हुआ तो मोटी लकड़ियों के बचे अवशेष सुलगते अंगारों ने उनकी जगह ले ली.
इंद्रू अब भी लगातार चट्टान पर चोट किए जा रहा था. हालांकि हर वार की एवज में चट्टान से कुछ टुकड़े पत्थर टूट कर इधर उधर गिर रहे थे लेकिन यह सब एक साधारण मेहनताने से भी बहुत कम था. घर में डांट न पड़े, इसके चलते मैं चुपचाप दबे पाँव उल्टे घर को लौट आया.
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महीना भर गुजर जाने के बाद भी वह चट्टान मामूली टूट फ़ूट के अलावा अपनी जगह ज्यौं की त्यौं ख़ड़ी थी. न तो उसका घन और सब्बल की चोटें कुछ खास बिगाड़ पाई थी और न ही आग से उसका मिजाज पसीजा था. जबकि इंद्रू और उसका भाई बिला नागा उस चट्टान से रोज के रोज जूझ रहे थे. अचानक एक दिन चट्टान पर चोट करने की आवाजें आनी बंद हो गई. मैने इस बावत जब घर के बुजुर्ग से पूछा तो मालूम पड़ा कि इंद्रू और उसके भाई ने चट्टान तोड़ने का काम बंद कर दिया है.
इंद्रू और उसके भाई नें चट्टान तोड़ने का काम क्यों बंद किया इस बारे में मेरे पास कोई जानकारी नहीं थी. स्कूल को आते जाते समय हम उम्र बच्चों के बीच इंद्रू द्वारा चट्टान को न तोड़ पाने को लेकर विभिन्न प्रकार के कयास लगाए जाने लगे थे. मसलन, कोई कहता कि यह चट्टान क्योंकि भीम द्वारा स्थापित की गई है इसलिए इसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता, तो कोई कहता कि इसके नीचे एक भूत रहता है, जो बहुत ताकतवर है और एक ताकतवर भूत अपना घर कैसे उजड़ने दे सकता है. कुछ अंध विश्वासी किस्म के बच्चों का कहना तो ये तक था कि इंद्रू को पाँडवों का दोष हो गया है जिसके कारण उसे यह काम छोड़ कर भाग जाना पड़ा. जितने मुंह उतनी बातें.
मुझ समेत दो चार बच्चों के अलावा बाकी सभी बच्चों के पास इंद्रू के काम छोड़ कर जाने की सशक्त दलीलें थी. बल्की जेरे बहस कुछ एक ने तो अपनी बात को सही साबित करने के लिए एक दूसरे से दो-दो हाथ भी कर लिए थे.
क्योंकि अब इंद्रू और उसका भाई वहाँ काम पर नहीं आते थे इसलिए मैं अक्सर स्कूल को जाते और लौटते हुए उस चट्टान को कई बार नजदीक से देख आता था. चट्टान अब सब्बल और घन जैसे लोहे के औजारों की चोटों और आग की आँच से और ज्यादा निखर उठी थी. जहाँ पहले वह काई और धूल की परत के चलते काली दिखाई देती थी वहीं अब वह चट्टान तराशी हुई मालूम पड़ रही थी.
इधर कुछ दिनों बाद स्कूल में गर्मी की छुट्टियाँ पड़ गई. मेरे बाल मन में चट्टान का आकर्षण तभी तक बना रहा जब तक इंद्रू और उसका भाई वहाँ काम कर रहे थे. काफ़ी दिन गुजर चुके थे. मेरा जेहन अब चट्टान और इंद्रू के ख्याल से फ़ारिग होकर गर्मी के दौरान गाँव के बगल में बह रही नदी में तैराकी के लिए जाने की तरकीबें तलाशने में मशगूल हो गया था.
एक दिन सुबह सो कर उठा तो कानों में लोहे और पत्थर की जानी पहचानी आवाजें सुनाई देने लगी. बिस्तर छोड़ कर तेजी से बाहर बरामदे के छोर पर पहुँच कर देखा तो इंद्रू अपने चिर परिचित अंदाज में चट्टान पर सब्बल की चोट कर रहा था. उसका भाई मायदू उसकी बगल में बैठा नजर आ रहा था. एक निश्चित समयांतराल के दौरान चट्टान पर किए जा रहे प्रहार से ऐसा मालूम पड़ रहा था मानों इंद्रू सब्बल से उस चट्टान के सीने पर सुराख करने की फ़िराक में हो. मेरा बड़ा मन हुआ कि नजदीक जाकर देखूँ कि ये दोनो भाई करना क्या चाह रहे हैं लेकिन इंद्रू का खौफ़ मन मस्तिष्क पर बुरी तरह से हावी था.
स्कूल में छुट्टियों के चलते दिन भर घर पर रह कर खेलने के अलावा मेरे पास और कोई काम नहीं था. मेरे बाल मन ने मन ही मन यह तय कर लिया था कि शाम को जैसे ही इंद्रू और उसका भाई घर चले जाएंगे, मैं फ़िर से चट्टान तक हो आऊंगा और ये देख आऊंगा कि ये दोनो भाई आखिर इस हठधर्मी चट्टान को तोड़ने के लिए फ़िर से किन उम्मीदों के सहारे वापिस काम पर आए हैं. सुबह से शाम की तरफ़ चला वह दिन मेरे सब्र के लिए किसी एक सदी से कम नहीं था. कई दफ़ा तो ऐसा भी लग रहा था कि आज शाम होगी भी, या नहीं. बहरहाल, शाम हो ही गई.
जैसे ही चट्टान पर चोट पड़ने की आवाजे बन्द हुई, मैंने अपने घर के बरामदे के छोर से चट्टान के इर्द-गिर्द का जायजा लेना शुरु कर दिया. वे दोनो भाई अभी भी चट्टान पर बैठे हुए थे और कुछ कर रहे थे. क्या कर रहे थे, दूर होने के चलते मैं नहीं देख पा रहा था. ऐसा लग रहा था जैसे वे चट्टान पर धीरे-धीरे कुछ कूट रहे हो. यह सब कुछ बे आवाज हो रहा था. थोड़ी देर के बाद वे दोनो भाई चट्टान पर से नीचे उतर आए और चट्टान के पीछे ओझल हो गए.
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मैं इस दौरान दो खेत आगे बढ कर अगले खेत के पुस्ते की ओट लेकर सतर्क निगाहों से दोनो के खेत से उपर सड़क की तरफ़ जाती पगडंडी पर नजर आने का इंतजार करने लगा. काफ़ी देर होने के बाद भी जब वे दोनो मुझे दिखाई नहीं दिए तो मुझे लगा कि जब मैं छुपते हुए पिछले दो खेतों को पार कर रहा था, शायद उसी समय वे दोनों भाई सड़क पर पहुँच कर अपने घर चले गए होंगे. मैं एक सधे हुए सैनिक की तरह वहाँ से तेजी के साथ आगे बढने लगा और अपने पुराने वाले उस मोर्चे पर पहुँच गया. यह वही जगह थी जहाँ मैं पिछली बार इंद्रू द्वारा आग का प्रयोग कर पत्थर तोड़ने के प्रयास का प्रत्यक्षदर्शी बना था. मैं निश्चिंत होकर वहाँ से चट्टान की तरफ़ आगे बढा ही था कि तभी चट्टान के उपर सरसरहाट के साथ हल्का धुंआ उठने लगा और चट्टान की तरफ़ से इंद्रू और उसका भाई मायदू मेरी ओर दौड़ते हुए नजर आने लगे. मेरे होश फ़ाख्ता हो गए.
मैं उल्टे पाँव दौड़ने को हुआ तो इंद्रू ने लगभग चीखते हुए कहा, – भागना नही, वहीं रुक जाओ,
मैं बुरी तरह सहम गया था लेकिन मैने महसूस किया कि इंद्रू की आवाज में रोष नहीं, चेतावनी है. मैं वहीं ठहर गया. क्षण भर गुजरा होगा, इंद्रू नें मुझे गोद में लपका और पुश्ते की ओट में अपने भाई संग लगभग दुबक के बैठ गया. भय के इस वातावरण में कुछ समझ-सोच पाता कि तभी चट्टान पर एक के बाद एक तीन धमाके हुए और हर धमाके के बाद पत्थरों के छोटे-छोटे टुकड़े हमारे सामने फ़ैले खेत पर बरसने लगे. मैं बुरी तरह से डर गया था.
मुझसे रोया भी नहीं जा रहा था. मैं इंद्रू को देख रहा था. इंद्रू के बख्तरबंद जैसे चेहरे पर मुस्कान तो थी लेकिन उसकी कछुए जैसी छोटी-छोटी आँखों में पानी भर आया था. उसने धीरे से मेरे सर पर हाथ फ़ेरा और मसखरे अंदाज में कहने लगा कि आज तो तुमने मेरे लिए आफ़त कमा ली थी. आज तो बाल हत्या का पाप मेरे सर चढते-चढते बचा. इंद्रू का इतना नजदीक महसूस करना मेरे लिए कल्पना से परे की बात थी. तंबाकू की गंध से सराबोर इंद्रू की आँखों में करुणा झलक रही थी. उसकी पत्थरीली हथेलियों का स्पर्श मुझे अपनेपन का भान करवा रहा था. इंद्रू नें मेरा हाथ पकड़ा और मुझे चट्टान की तरफ़ ले जाते हुए कहने लगा –
क्या देखना चाहते हो?
मुझसे कुछ नहीं बोला जा रहा था लेकिन मेरा डर अब काफ़ी कम हो चुका था. मेरे लिए डरावना और क्रूर इंद्रू अब गए समय की बात हो गया था. जो इंद्रू मेरे सामने था वह बहुत ही सरल और दोस्ताना बुजुर्ग था. हम लोग चट्टान के पास पहुँचे. चट्टान की एक तरफ़ का एक बड़ा हिस्सा उधड़ कर पत्थरों के छोटे बड़े टुकड़ों की शक्ल में चट्टान के इर्द गिर्द खेत में पर बिखरा पड़ा था. इंद्रू नें चट्टान को तोड़ने के लिए जो नई तरकीब आजमाई थी वह डाईनामाईट थे.
अगले कुछ दिनों तक रोज शाम के वक्त चट्टान पर धमाकों का सिलसिला जारी रहा. इंद्रू और उसका भाई मायदू आधा दिन तक चट्टान के टुकड़ो को ढो कर खेत के किनारे तक ले जाते और उससे खेत के किनारों पुश्तों की दीवार बनाते जबकि आधे दिन के बाद शाम तक सब्बल से चट्टान की तयशुदा जगहों पर सुराख करते और फ़िर उन सुराखों में डाईनामाईट की छड़ों के बीच में डेटोनेटर में बत्ती लगा कर दिन भर के दौरान किए गए सुराखों में ठूँस देते थे. वैसे भी उस समय शाम के वक्त खेतों में दूर-दूर तक कोई नहीं होता था लेकिन एक दिन बाद ही इंद्रू ने एक सीटी खरीद ली थी, जिसे चट्टान में किए गए सुराखों में ठूँसी गई डाईनामाईट की छड़ों को उड़ाने से पहले जोर-जोर से बजाया जाता.
इस दौरान मेरी इंद्रू और उसके भाई मायदू से काफ़ी आत्मियता हो गयी थी. इंद्रू ने मुझे सख्त हिदायत दे रखी थी कि शाम के वक्त मै इस तरफ़ कभी न आऊँ. अगर मैंने ऐसा किया तो वह मेरे घर पर मेरी शिकायत लगा देगा. लेकिन दिन के समय मुझे वहाँ जाने की कोई मनाही नहीं थी. मैं स्क़ूल से लौटते हुए रोज दिन के समय उन लोगों के पास जाता और उनसे सवाल करता. सब्बल जैसे लोहे के एक साधारण औजार से रोज के रोज चट्टान में पंद्रह से बीस इंच के तीन से चार सुराख करना कोई आसान काम न था. लेकिन इंद्रू भी इंद्रू था.
ऐसा लगता था कि प्रक़ृति ने उसको लोहे और पत्थरों की सख्ती से निपटने के लिए ही पैदा किया हो. थोड़े दिनों के अन्दर ही इंद्रू और उसके भाई मायदू ने उस चट्टान को नेस्तानाबूद कर दिया. हालांकि इसमे एक बड़ा योगदान डाईनामाईट का था लेकिन इंद्रू के जज्बे के बगैर इसकी कल्पना ही बेमानी थी. इंद्रू की ईच्छा शक्ति ने चट्टान की जद में आए उस जमीन के टुकड़े को मनुष्यों की भावी पीढियों के लिए अन्न उगाने लायक बना दिया था. बताते हैं कि खेत में खड़ी उस चट्टान को हटाने की एवज में खेत मालिकों ने बारह सौ रुपए के अलावा खुश होकर इंद्रू को ईनाम स्वरुप एक भेड़ दी थी.
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कई साल गुजर गए. स्कूल आते-जाते जब मुझे कहीं भी इंद्रू मिलता तो मैं उसका अभिवादन करता. वो कुछ न कहता, बस धीरे से मुस्कुरा कर आगे बढ जाता. इंद्रू अब काफ़ी बूढा हो चला था. प्राथमिक पाठशाला से पाँचवी की परीक्षा पास करने के बाद अब मैं गाँव के जूनियर हाई स्कूल का विद्यार्थी हो गया था.
एक दिन पिता जी ने कहा कि स्कूल से लौटते हुए वापसी में आरन (लौहार की भट्टी) पर जाकर वहाँ से मरम्मत के लिए छोड़ी गई दरातियां भी लेता आऊँ. मैं स्कूल की छुट्टी के बाद सीधा इंद्रू की भट्टी पर पहुँच गया. वहाँ कोई नहीं था. जब वहाँ कोई नहीं मिला तो मैं दरातियों की मालूमात के लिए नीचे बस्ती में स्थित इंद्रू के घर की तरफ़ चल दिया. इंद्रू के घर के बाहर पहुँचते ही मैं उसको आवाज लगाने को हुआ ही था कि तभी सामने घर की सीढियों के सहारे, अपने सर को घुटनों के बीच झुकाए इंद्रू बैठा दिखाई दिया.
मैने अभिवादन स्वरुप उसको आवाज लगाई,
ईंद्रुआ!
ऊकड़ूं बैठे इंद्रू नें सर उपर आसमान की ओर किया और कहने लगा,
कुण ऐ? (कौन है?)
मैने कहा – मैं सुभाष हूँ.
जर्जर हो चुके इंद्रू के बख़्तरबंद से चेहरे पर एक पीड़ादायक मुस्कान तैर गई. वह जमीन पर टटोलते हुए कहने लगा-
मेरी आँखे फ़ूट गई है. पता नहीं किस जन्म के फ़ल भोग रहा हूँ.
मैने कहा, अब तो डाक्टर आँखों का ईलाज कर लेते हैं. हमारे ईलाके में आँखों के ईलाज के कैंप तो लगते रहते है. तुम्हारी आँखें ठीक हो जाएगी.
इंद्रू ठहाका लगा कर हंसा और कहने लगा -डाक्टर भगवान थोड़े ही होते हैं. अगर डाक्टर इतने ही ताकतवर होते तो पहले वे उन लोगों को वापिस ले आते जो मर चुके हैं.
इंद्रू की बात का मेरे पास कोई जवाब न था. उसी वक्त उसका भाई मायदू भी वहाँ पहुँच गया. मैं अपनी दरातियाँ लेकर अपने घर लौट आया. असहाय इंद्रू को देखकर मेरा अंतर्मन द्रवित हो उठा. मैं मन ही मन सोच रहा था कि क्या यह वही इंद्रू है जिस से लोग एक जमाने में खौफ़ खाया करते थे.
हमारी इस मुलाकात को कुछ ही दिन गुजरे होंगे कि अचानक एक दिन खबर आई कि इंद्रू अब इस दुनिया में नहीं रहा. हमारे यहाँ रिवाज है कि गाँव के किसी भी व्यक्ति की मृत्यु होने पर गाँव के हर घर का एक व्यक्ति जंगल से लकड़ियां काट कर चिता के लिए लेकर जाता है. हमारे घर से भी किसी एक व्यक्ति को जंगल से लकड़ी लेकर जाना था. हालांकि इंद्रू के देहांत के वक्त मेरी उम्र बारह या तेरह बरस रही होगी लेकिन फ़िर भी हिम्मत कर मैंने पिता जी से कहा कि इंद्रू की अंत्येष्टि के लिए लकड़ी लेकर मुझे जाने दिया जाए. पिताजी नें हामी भर दी.
मैं कुल्हाड़ी लेकर गाँव के बड़े बिरादरों के साथ जंगल की तरफ़ हो लिया और उठाए जाने लायक सूखे पेड़ की एक बड़ी टहनी काट, उसे कंधे पर लाद कर उनके साथ ही शमशान घाट पहुँच गया. गाँव के लोगों द्वारा लाई जा रही लकड़ियों से शमशान घाट पर इंद्रू के लिए चिता बनाई जा रही थी. कुछ देर बाद इंद्रू की मृत देह चिता पर थी. जिन्दगी भर आग, लोहे और पत्थरों से जूझने वाला इंद्रू अब कफ़न में लिपटा हमेशा के लिए शांत होकर चिता पर लेटा हुआ था.
चिता की सूखी लकड़ियाँ आग का इंतजार रही थी. आग दिखाते ही चिता इंद्रू की भट्टी की तरह भभक उठी. यह वही आग थी जिस आग के साथ मिल कर इंद्रू नें आजीवन लोहे और पत्थरों के मंसूबों को ध्वस्त किया था लेकिन आज इंद्रू खुद उसी आग के हवाले हो चुका था.
(Indru Story Subhash Taraan)
-सुभाष तराण
स्वयं को “छुट्टा विचारक, घूमंतू कथाकार और सड़क छाप कवि” बताने वाले सुभाष तराण उत्तराखंड के जौनसार-भाबर इलाके से ताल्लुक रखते हैं और उनका पैतृक घर अटाल गाँव में है. फिलहाल दिल्ली में नौकरी करते हैं. हमें उम्मीद है अपने चुटीले और धारदार लेखन के लिए जाने जाने वाले सुभाष काफल ट्री पर नियमित लिखेंगे.
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