वे पुलिस के बड़े अधिकारी थे और हमारे बचपन के मित्र भी. कल जब वे बहुत दिन बाद शहर आये तो हम दोनों बाइक से शहर घूमने निकले.
रास्ते में एक जगह पुलिस चैकिंग हो रही थी. वे ज़ोर से चिल्लाए – ‘अबे रोको!रोको! आगे चैकिंग चल रही है. गली में घुसेड़ दो गाड़ी!’
हमने कहा- ‘अबे अपने पास पूरे कागज़ हैं, और तुम खुद पुलिस अफसर हो!’
वे बोले- ‘होन्दो ! अपने को पुलिस-वुलिस का लफड़ा नहीं चाहिये.’
गलियों में घुस-घुस के हम घर वापस आ गये. वे रास्ते भर समाज सेवा करते हुए सभी अनजान लोगों को बताते रहे – ‘भाई साहब आगे चेकिंग चल रही है.’
लोग भी उनकी बात को आप्त वचन मान कर गाड़ियां वापस लौटते रहे.
वे छोटे बच्चे की तरह उत्साहित थे -‘बच गये भाईसाहब! एक सिपाही ने तो देख भी लिया था. पीछे आ रहा था पकड़ने.’
आप लाख बताते रहें देश में तनाव है, लोग एक-दूसरे से नाराज़ हैं. पर सड़को पर पुलिस चेकिंग के समय जो चालकों में अभूतपूर्व एकता देखने को मिलती है वह अद्भुत है. यूं यकायक किसी के प्रति प्रेम का प्रस्फुटन और कहीं नहीं देखा होगा आपने ,जैसा तब दिखता है.
आपके बगल का बाइक वाला पुलिस चैकिंग के समय बाइक वाला नहीं, कॉमरेड बन जाता है. आप – कास्त्रो, वो – चे गुवारा और पुलिस तो है ही बुर्जुआ शोषण का यंत्र. ये चैकिंग आपको लिटिल क्रांति का रोमांच देती है. क्योंकि बड़ी तो अब होने से रही.
पुलिस की महान कृपा से इन चालकों के पास अपनी संकेत भाषा भी है. और श्रुतियों की तरह ही ये एक चालक से दूसरे चालक को स्थानांतरित होती है.
परसों की ही बात है मैं ऑफिस जा रहा था. अचानक ही रॉन्ग साइड यानी विपरीत दिशा से बहुत सारे मोटरसाइकिल वाले तेज गति से निकले. वे सब मुस्कुराते हुए मुझे हाथ हिला-हिला कर दिखा रहे थे. मुझे बहुत क्रोध आया कि युवाओं को क्या हो गया है. अगर रैली निकालनी ही थी तो सही साइड से निकालते. रॉन्ग साइड से क्यों निकाली? कहना ना होगा रैली का मेरा अनुमान गलत था.
आगे पुलिस चैकिंग चल रही थी और वे हाथ हिलाकर मुझे सावधान कर रहे थे. मैंने इस संकेत भाषा को समझने में भूल कर दी और धरा गया.
वैसे तो ये संकेत भाषा आदि मानव के समय से प्रयोग हो रही है. परन्तु वाहन चालन में इसका प्रयोग कब और कैसे प्रारम्भ हुआ , इतिहास में इसके बारे में अधिक जानकारी नहीं मिलती.
इतिहासकार डी पी बैलबॉटम का कहना है कि सम्भव है सतयुग में किसी रथ चालक का चालान कटा हो और उसने पुलिस-आरटीओ से बदला लेने के लिये हाथ को खाली के अंदाज़ में गोल-गोल घुमा कर बाक़ी सारथियों को बताना शुरू कर दिया हो. द्वापर में रथों की रैश ड्राइविंग के अनेक मामले मिलते हैं. रुक्मिणी हरण के समय बहुत उटपटांग रथ चलाया था दारुक ने. उस मामले में रोडरेज भी हुई थी. जाहिर है तब चालान भी खूब कटे होंगे. अब वाहन चालक उस से भी बहुत आगे पहुँच गये हैं.
भारत की सड़कों पर गाड़ी चलाने वाले चालक, अब सामान्य चालक नहीं है. उनमें से अधिकांश मृत्युंजय है. जरा-मरण से ऊपर. उनकी देह है, पर वे देहातीत हैं.
वे बैठे मोटरसाइकिल पर हैं, पर जवाब अपने बॉस को दे रहे हैं. वे कार में अकेले बैठे हैं, पर दाँत अपनी घरवाली पर पीस रहे हैं. वे इस लौकिक जगत में केवल पुलिस को देख कर लौटते हैं.
उन्हीं पुलिस अफसर मित्र के साथ शाम को फिर शहर घूमने निकले. इस बार कार से, जिसे वे स्वयं चला रहे थे. संगीत, साहित्य, दर्शन की बात चल रही थी. अचानक वे ज़ोर से चीखे- ‘बैल्ट! बैल्ट! बैल्ट!
मार्ग में फिर ख़ाकी वर्दी वाले दो यमदूत खड़े मिल गये और इस बार उनके पास इंजन वाला भैंसा भी था. मित्र ने पहले तो इधर-उधर घुसने के लिये कोई गली देखी, पर वहां कोई गली नहीं थी और गाड़ी भी कार थी, बाइक नहीं. फिर उन्होंने तत्काल सीधे हाथ से स्टेयरिंग सम्भाली और उल्टे हाथ से सीट बैल्ट खींची. अब इतनी हड़बड़ाहट में बैल्ट खाँचे में फिट नहीं हो पा रही थी. तो उन्होंने उसे वैसे ही पकड़ लिया, बाएं हाथ से. फिर चेहरे को सामान्य किया और बिना नज़रें मिलाये,पूर्ण आत्मविश्वास से उन पुलिस वालों के सामने से निकल गये .
मैं मित्र के अभिनय का मुरीद हो गया. मैंने कहा ,’तुम कहाँ पुलिस में डले हो, तुम्हें तो अभिनय के क्षेत्र में होना चाहिये.’
वे बोले,’पुलिस की नौकरी में क्या कुछ कम अभिनय करना पड़ता है. इनफैक्ट बॉलीवुड से ज़्यादा! पूरा दिन एक्टिंग में ही जाता है. कभी अधिकारी, कभी चपरासी, कभी हम्माल, कभी तुलावटी, कभी डॉन, कभी दीन, कभी व्यापारी, कभी कर्मचारी. डॉक्टर, इंजीनियर, केमिस्ट, फार्मेसिस्ट और भी जाने क्या-क्या. पुलिस से ज़्यादा अभिनय के अवसर कोई उपलब्ध नहीं करवाता है.’
‘तुम – कभी आशिक़, कभी माशूक़, कभी शराबी, कभी कबाबी – कहना भूल गये,’ मैंने कहा.
‘ज़्यादा बकवास मत करो. ध्यान रहे पुलिस का कोई दोस्त-दुश्मन नहीं होता.’ दोस्त जब वर्दी में घुसने लगा तो मुझे व्यंग्य को मूल विषय पर लाना पड़ा.
तो मृत्यु से लोग निर्भय है. वे मरने के डर से नहीं ,पुलिस के डर से हैलमेट पहनते हैं. ख़ुद पुलिस वाले भी पुलिस के डर से ही मानते हैं. वे मित्र कहते हैं कि अगर पुलिस न हो तो पुलिस को कोई माई का लाल नहीं रोक सकता .
वाहन चलाने के मामले में अभी आपने पुलिस वाले मित्र का हाल सुना.अब आपको अपने अन्य ख़तरनाक मित्र का हाल सुनाता हूँ. जो पुलिस वाले मित्र के विपरीत दूसरे ध्रुव पर स्थित हैं.
बाइस मामले. आठ गम्भीर अपराधों के. वे बेरोज़गारी के दुष्परिणामों की जीती-जागती मिसाल थे. उनके दरवाजे पर लिखा था- एमए,एलएलबी, जिलाबदर.
एक दिन लेखक को उनके साथ उनकी कार में बैठने का सौभाग्य मिला. मैंने कहा ,’दादा आपने कई बार शहर की सड़कों पर पुलिस को चकमा दिया है. पर मैं देख रहा हूँ आप बहुत आराम से, धीमी गति में कार चला रहे हैं. मुझे तो यकीन नहीं होता. भारतीय सड़कों पर वाहन चलाते हुए यूं स्थिरचित्त रहना किस तरह सम्भव है?’
वे मुस्कुराए और बोले,’सड़क पर संयत रहने के लिये सड़क पर चलने वालों को समझो.’
‘मतलब?’
‘मतलब मैं हमेशा मानता हूँ कि सड़क पर लोग अपनी कार, मोटरसाइकिल नहीं चला रहे हैं. मैं मानता हूँ कि ये छोटे-छोटे बच्चे हैं जो अपनी टोबू साइकिल लेकर निकल आये हैं और छोटे बच्चों की तरह हमें इनकी आदतें समझ कर हिफ़ाज़त करनी है.
‘कैसे?’
‘जैसे उस आदमी को देखो! वो अपने स्कूटर पर हल्का सा दाईं ओर टेढ़ा होकर बैठा है और बार-बार दाहिनी तरफ देख रहा है.’
‘तो?’
‘मतलब ये है कि ये दाहिनी ओर गाड़ी मोड़ेगा.’
तभी उस स्कूटर वाले ने अचानक से स्कूटर दाहिनी ओर मोड़ दिया.
‘वाह! वाह दादा, वाह!’ मैं अभिभूत हो गया.
‘अब उस मोटरसाइकिल वाले को देखो! वह बायीं ओर टेढ़ा होकर बैठा और बार-बार बाईं तरफ देख रहा है.’
‘मतलब वह बाईं तरफ मुड़ेगा,’ मैंने उत्तर दिया.
‘नहीं, वह गुटखा थूकेगा. तुम उसका मुँह देखना भूल गये. यही सब मूल मंत्र है. सड़क को सड़क नहीं, अपना घर समझो.’
‘कैसे?’
‘जैसे अपने घरों में अख़बार खाना खाने के लिये, केबल का तार कपड़े सुखाने के लिये और पेंट का डिब्बा पखाने के लिये प्रयोग होता है और इनका वास्तविक प्रयोग जानना जरूरी नहीं है वैसे ही इस देश में सफलतापूर्वक गाड़ी चलाने के लिये मार्ग संकेतक, पीली बत्ती जानना ज़रूरी नहीं है. संकेतक कोचिंग के विज्ञापन चिपकाने के लिये लगाए जाते हैं और पीली बत्ती गाड़ी भगाने के लिये. यहाँ पर – गाय हॉर्न सुनकर किधर जाएगी, कुत्ता किस गति से रोड पार करेगा, बकरी का हैड लाइट में क्या व्यवहार होगा- जानना ज़रूरी है. गति सीमा से ज़्यादा ये मालूम होना चाहिये कि यदि दो सौ मीटर आगे डिवाइडर टूटा है तो वहाँ से कोई बाइक वाला कभी भी प्रगट हो सकता है. यदि तीन सौ मीटर आगे सड़क किनारे के पेड़ों की कतार में कोई अंतराल सा दिख रहा है तो वहाँ से कोई ट्रैक्टर उछल कर कभी भी रोड पर आ सकता है.’
‘और लाइसेंस, सीट बैल्ट का क्या? लोग उसको लेकर भी तो लापरवाह हैं. सारी गलती तो सरकार की नहीं हो सकती. नागरिकों का भी तो कोई दायित्व है.‘
‘वह भी सरकार की गलती है, नागरिकों की नहीं. ये जुर्माने का चक्कर नहीं होना चाहिये. सीधे वाहन जब्त करो और मामला कोर्ट भेज दो.’
‘ऐसे तो लोगों की तकलीफ बढ़ जाएगी, नहीं?’
‘लोगों की तकलीफ़ नहीं, पुलिस की बार्गेनिंग पॉवर बढ़ जाएगी. इस देश में लोग वही कानून मानते हैं जो पुलिस के पक्ष में हो. वरना कोई किसी से नहीं डरता.’
मैं चकित हूँ. यहाँ पर एक शरीफ पुलिस वाला है जो पुलिस से डरा हुआ है और एक अपराधी है जो पुलिस के अधिकारों में बढोत्तरी की वक़ालत कर रहा है.
सामने दो यमदूत फिर दिख गये हैं. मैं चिंतनलोक से बाहर आ गया हूँ. बेल्ट बंधी है. लाइसेंस पर्स में है. गाड़ी के कागज़ ग्लोव बॉक्स में. इंश्योरेंस?… वो तो बीस फ़रवरी को ख़त्म हो गया था!… नहीं-नहीं बीस मार्च है… शायद बीस फ़रवरी ही था.
अभिनय करने का वक़्त आ गया है.
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मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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वाह। बड़े दिनों बाद प्रकट भए दीन दयाला।
गज्जब।