मेरा बचपन अल्मोड़ा के समीप सतराली में बीता. सतराली की होली प्रसिद्व थी. बसन्त पंचमी से होली गायन आरम्भ होता था. ढोलक में जौ चढ़ाकर रात में गांव के चौपाल में अलाव के आगे होली गाई जाती थी. बच्चे दिन में लकड़ी के बड़े गिल्ट एकत्रित करते. ये गीत वैष्णव पदी होते थे. शिवरात्रि को लोग ढोलक लेकर होली गाते हुए बागेश्वर के बागनाथ जी के मन्दिर तक जाते. पूर्जा अर्चना के बाद यह होली गायी जाती ‘‘शम्भो तुम क्यों खेलो होरी लला.’’ शिवरात्रि में शैव पदी होली गायी जाती होली की एकादशी से नये सफेद कपड़ों में रंग डाला जाता और चौपाल में मंत्रोचारण के साथ चीर बांधी जाती, प्रत्येक घर से दो टुकड़े नये कपड़े के चीर में बांधने के लिऐ देते. चीर बांधने के लिये एक रिंगाल के डंडे को गोल काट कर उसमें चारों ओर चीर बांधी जाती. फिर इस गोल चक्र को एक अन्य डंडे में बांधकर सबसे पहले गणेश की स्तुति में होली गायी जाती… होली खेलें गिरिजापति नन्दन, सिद्वि को द्वाता विघन विनाशक होली खेलें…
इसके बाद पौर्णमासी तक दिन-रात होली गाई जाती. दिन में खड़ी और रात में बैठ होली गाई जाती. उम्र के इस पड़ाव पर सतराली की वह होलिया आज बहुत याद आती हैं.
जब गांव छोड़कर शहर आ गया तो देखा कि प्रवासी कुमाऊं के लोग परम्परागत ढंग से वहां भी होली गाया करते हैं. लेकिन अपने इलाके की होली की स्मृतियां ज्यों की त्यों आज भी मेरे मनमस्तिक में बनी है. ज्यों ही पौष के इतवार आरम्भ होने लगते हैं तो लोगों में होली का खुमार चढ़ता जाता है. पुराने समय में मनोरंजन के साधन नहीं थे. लोग फागुन की बाट जोहते थे कि कब पौष का महीना आये और बैठकें सजे. शहरों में आफिसों में व्यस्त रहने के बाद भी शौकीन लोग होली गायन के लिए समय निकाल ही लेते हैं. आज की स्थिति में बहुत परिवर्तन हो गया है लेकिन कुमाऊं अंचल अपने होली के दीवानों को संभाले हुए है. अल्मोड़ा में हुक्का क्लब के साथ-साथ अन्य कई संस्थाओं ने होली गायकों की बागडोर संभाली हैं. लखनऊ, दिल्ली, कानपुर, देहरादून, इलाहाबाद आदि शहरों में होली की दस्तक होते ही घर-घर बैठकों का आयोजन होने लगता है. जब मैं कानपुर में कार्यरत था उस समय कानपुर में कूर्माचली लोग कम संख्या में अलग-अलग स्थानों में बसे हुए थे. अतः मैं होली सुनने व गाने के लिए कानपुर से लखनऊ जाया करता था. वहां बचीराम जोशी, नन्दाबल्ल्भ लोहनी, कमल पाण्डे, प्रभुजी जैसे अनेक कलाकार थे उनकी गायी होली उच्च स्तर की होती थी. होली की हर महफिल धमार गायन से आरम्भ होती. कुमाऊं में गाया जाने वाल राग/ धमार, वास्तविक धमार से कुछ अलग होता है. इसके बोल हैं (तबले में) :
धा ऽ धा ऽ/ तिट तिट/ ता ऽ क ऽ /धा ता धा ता.
यहां धमार को चांचर या दीपचन्दी की तरह गाया जाता है. 14 मात्रा को 16 मात्रा तक बढ़ाया जाता है. चार-चार मात्रा के चार विभाग एक खाली होता है. लखनऊ में होली गायकी का भरपूर आनन्द मिलता. शाम को श्यामकल्याण धमार के बाद गाया जाता. बचीराम जी का गायन ठुमरी अन्दाज में होता. उनकी एक लाइन पूरी होते ही दूसरा व्यक्ति उसी लाइन को दोहराता इस प्रकार जितने भी व्यक्ति वहां उपस्थित रहते सभी बारी-बारी से उस लाइन को गाते इस प्रकार एक होली तकरीबन एक घंटे तक चलती. राग झिझौटी, काफी, जंगला काफी में होली-गाई जाती. इस प्रकार पूरी रात होली गाई जाती होली गायन को रागों के समय को ध्यान रखा जाता. काफी में चौदह और सोलह मात्राओं में गाई जाती, काफी का एक उदाहरण इस प्रकार है
अजहूं उमर की मैं बाली, श्याम मोसे खेलो न होरी…
तुम तो जात के अहीर कहा अरे में वृशभानु कि शोरी यह संयोग अब बनैं न तुम सांवरे मैं गोरी-श्याम मो से…
इसी तरह जंगला काफी में
कैसे तुम ही ब्रज के इजारे दार मोपे रंग छिड़कत हो बार- बार ऽ…
कर मोरा पकड़ा कलाई मोरी मसकी अंगियॉ के कर दीन्हे तार-तार …
रात्रि के नौ बजे बाद राग खम्माच. मैं ना खेलूंगी तुम से होरी झपक छयल मोतियन लड़ तो री… खम्माच के बाद राग देश. नवल चुनरिया फारी मैं तो को सूंगीं कुंज बिहारी…
देश के बाद सहाना-सहाना के बाद जै-जैवन्ती फिर अन्त में राग मौरवी में आशीर्वाद होता. देहरादून के प्रमुख मुहल्लों में बसन्त पंचमी के बाद महिलाओं की होली दिन और पुरूष वर्ग की बैठ होली रात्रि को होती है. देहरादून के प्रमुख कलाकार पीताम्बर जोशी, रमेश चन्द्र त्रिपाठी, कर्नाटक जी, अशोक जोशी, शिवदत्त जोशी आदि हैं जो हर महफिल में पहुंचते हैं. मैं अब सेवानिवृत्त होकर डोईवाला में बस गया हूं. होली गाने देहरादून पहुचता हूं. अब समाज में परिवर्तन शीघ्रता से हो रहे हैं. नई पीढ़ी इन पुरानी परम्पराओं को बरकरार रखेगी यह समझ में नहीं आता. हमारे गांव के एक सेवानिवृत्त थानेदार जो शिवजी के नाम से प्रसिद्व थे. होली के सुप्रसिद्व गायक थे. उनके घर पर भी बैठकें सजती थी. एक बार उन्होंने मुझसे कहा कि बेटा कुछ होली गीत लिख ले. उन्होंने मुझे 4, 5 गाने सिखाए और कहा कि आने वाली पीढी को प्रशिक्षित करो. वे तो नहीं रहे लेकिन उनके दिये गीत मुझे आज भी याद हैं – मत कही धूम मचाना भुला दूंगी आना रे जाना अब… चमकत हो चपला सी आज तुम नीकी बनी हो… प्यारी होरिन में/ब्रज में सखी री आज धूम मची है. होरी खेलत मन मोहन प्यारा… इन गीतों के अलावा अनेक गीत बचीराम जोशी जी से मैंने सीखे.
होली के गीत विभिन्न रागों में गाये जाने के बावजूद इनकी ताल चांचर ही होती है. दीपचन्दी में चौदह मात्राएं होती हैं चांचर सोलह मात्रा में बजाया जाता है. धा धिन ऽ . धा धा धिन ऽ ता तिन ऽ. धा धा धिन ऽ ये बोल तो विलम्बित के हैं. चलत में तीन ताल बजातें है तीन ताल के बोल हैं .
धीं ऽ न धीता. धी ऽ न धीता. क ऽ न कन्ता. धीं ऽ न धीता
ब्रज में कहरूआ बजाया जाता है. साजों में हारमोनियम, गिटार वायलिन, सितार तबला, मजीरा और लोटा आदि का चलन है. खड़ी होली का जो आनन्द सतराली में मिलता वह दुर्लभ है. आज पहाड़ खाली हो गये हैं. जब भरा पूरा समाज था. होली का उत्साह ही दूसरा होता था सतराली के सातों गावों के लोग सात ढ़ोलक, मजीरा, खड़ताल लेकर सफेद वस्त्रों में सुषोभित हो उन्मन्त हो कर गाते थे. एक समा बंध जाता था. – ‘‘बूंद जो पड़िहै गुलाल की चादर मोरी भीगै रे ऽ द्दै आज की रैन सुहावना’’.
समवते स्वरों में होली गायी जाती. हाथों में रूमाल, मोर पंख लिये लोग नाचते थे. एकादशी से प्रतिपदा तक यही समा रहता, गांव में प्रत्येक घर पर होली वाले जाते, कम से कम दो होली गीत अवश्य गाये जाते.
तू कर ले आपन व्याह, देवर हमरों मरों सो झन करिये,
मैं लै बुलायों एक लै हो एकलो
तू यायै जन चार देवर हमरो मरोसो झन करिये, तू करले…
इस प्रकार अन्तिम समय जो होली वाले दूसरे घर के लिए प्रस्थान करते तो गाते जाते मथुरा में खेलें एक घड़ी चलने से पहले यह आशीष दिया जाता है –
वर्ष दीवाली बरसे फाग… हो ऽ हो ऽ होलर रे
जो भागी जी वें खेलें आज…
राज राम चन्द्र जी जीवें…
लाख सौं हो-हो होलक रे
अमुक ज्यू के पूत परिवार भाई बंध लड़का सब जीवें लाख सौ
इसी प्रकार बैठ होली में भी इसी आशीर्वाद का चलन है. लेकिन भैरवी राग में गाते हैं ‘‘मुबारक मंजील फूलों भरी, ऐसी होली खेलें जनाव अली बारादरी में रंग बन्यो है कुंज्जन बीच मची होरी, सब को मुबारक ये होरी पीताम्बर को मुबारक ये होरी, अमुक जी को मुबारक ये होरी सबकों मुबारक होरी…
इस प्रकार होली के दिनों का अन्त होता. आज पहाड़ के गांवों मे कम लोग रह गये हैं अतः होली का वह समां बिखर गया है. धीरे-धीरे रोजी-रोटी के चक्कर में लोग शहरों में बस गये हैं. वहीं ये लोग पहाड़ की उस संस्कृति का संरक्षण कर रहे हैं. इस कर्म में चन्द लोग ही लगे हैं, शेष तो टी.वी. कम्प्यूटर के आगे बौने लग रहे हैं. हम लोगों की उम्र के लोग इसी आशा में लगे हैं कि कभी तो खिलेंगे इन डारिन वे फूल और इस तरह होली की भनक कानों में सुनाई देती है.
यह लेख देहरादून में रहने वाले शिक्षाविद् और संस्कृतिकर्मी हेमचन्द्र लोहनी द्वारा लिखा गया है. हेमचन्द्र लोहनी होली और रामलीला के जानकार भी हैं.
‘उत्तराखण्ड होली के लोक रंग’ शेखर तिवारी द्वारा संपादित एक महत्वपूर्ण पुस्तक है. चंद्रशेखर तिवारी काफल ट्री के नियमित सहयोगकर्ता हैं. उत्तराखण्ड की होली परम्परा (Traditional Holi) पर आधारित और समय साक्ष्य प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक की रूपरेखा दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र, देहरादून द्वारा तैयार की गयी है. होली के इस मौसम में इस जरूरी किताब में से कुछ महत्वपूर्ण रचनाओं को हम आपके सामने प्रस्तुत करने जा रहे हैं. अनुमति देने के लिए हमारी टीम लेखक, सम्पादक, प्रकाशक व दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र की आभारी है.
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