चंदवंशी राजा बालो कल्याण चंद ने जिस अल्मोड़ा शहर को 1563 में बसाया, उसी अल्मोड़ा शहर के स्व. देवी दत्त जोशी (काली कुमाऊं के तहसीलदार) की प्रेरणा से 1860 में पहली कुमाऊंनी रामलीला बद्रेश्वर में हुई. तदुपरांत 1880 में नैनीताल, 1890 में बागेश्वर और 1902 में पिथौरागढ़ में कुमाऊंनी रामलीला की शुरुआत हुई.
कुमाऊंनी रामलीला के जानकार शुरू से ही इस बात को अंगीकार करते आये हैं कि बृज की रासलीला के अतिरिक्त नौटंकी शैली का प्रभाव भी यहाँ की रामलीला में पड़ा है तथा पारसी रंगमंच से प्रभावित होकर पात्रों के हाव-भाव, वेशभूषा तथा रंगमंच की साज-सज्जा पर विशेष ध्यान दिया जाता है. देविदत्त जोशी ने पारसी नाटक के आधार पर सबसे पहले बरेली या मुरादाबाद में कुमाऊंनी तर्ज की पहली रामलीला 1830 में आयोजित की थी. इसी आधार पर दन्या के बद्रीदत्त जोशी ने 1860 में पहली रामलीला बद्रेश्वर में प्रदर्शित की थी.
उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य कुमाऊंनी रामलीला (विशेषकर अल्मोड़ा) में कुछ नवीनता आयी. अब रामलीला के कई महत्वपूर्ण प्रसंग भी छायाचित्रों के माध्यम से दर्शकों को दिखलाए जाने लगे. यहाँ की नवरात्रियों में छायाभिनय का प्रथम प्रयास भारत के नृत्य सम्राट उदयशंकर ने अल्मोड़ा में किया. इस नगर के रानीधारा नमक स्थान के खुले प्रांगण में यह आयोजन संपन्न हुआ. इस मौके पर रानीधारा में दर्शकों की रेलमपेल मच गयी थी. 1941 की नवरात्रियों की संध्या को ‘रामलीला छायाभिनय’ का प्रदर्शन किया गया. निश्चित रूप से उदयशंकर जैसे महान कलाकार ने अभिनय की जो नवीन विधा यहाँ के कलाप्रेमियों को दी, उसका सदुपयोग अल्मोड़ा की रामलीला में आज भी देखने को मिलता है.
कुमाऊंनी रामलीला की यह विशेषता रही है कि इसकी शैली में संगीत पक्ष प्रभावशाली रूप से उभरता है. पात्रों के मधुर कंठ से निकलने वाले विहाग, जोगिया, पीलू, भैरवी, खम्माज, सोहनी, देश, मालकौस आदि रागों पर निबद्ध भावपूर्ण गीत मंत्रमुग्ध कर देते हैं. भाव विभोर होकर दर्शक भी गुनगुनाने लगते हैं. रामलीला के पात्र चयन में सुरीली आवाज का विशेष ध्यान रखा जाता है.
रामलीला प्रारंभ होने से लगभग दो-तीन माह पूर्व ही पत्रों का चयन कर उन्हें रिहर्सल देना, हाव-भाव सिखाना, गायन का अभ्यास कराना, कलाकार के सुरों को ध्यान में रखकर संगीत निर्देशन करना. यह सब किसी कुशल संगीतकार पर ही निर्भर करता है. प्रतिदिन उपस्थित होने वाले इस संगीत निर्देशक पर रामलीला के सफल मंचन का कार्यभार रहता है. अन्य राज्यों की तरह यहाँ रामलीला कमेटियां नहीं हैं. मोहल्ले कि रामलीला कमिटी ही रामलीला का आयोजन करती है. इसकी तय्यरियाँ नवरात्र से पूर्व ही शुरू होती हैं.
1900 से पूर्व अल्मोड़ा की एक मात्र रामलीला बद्रेश्वर में होती थी. 1948 में बद्रेश्वर के रामलीला आयोजन स्थल पर उठे विवाद के कारण यहाँ आयोजित होने वाली रामलीला पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. तब बद्रेश्वर की ही रालीला के कलाकारों द्वारा नंदादेवी मंदिर में रामलीला का आयोजन शुरू किया गया.
नंदादेवी में आयोजित रामलीला 1972 तक लोकप्रिय रही. पुराने मंझे हुए कलाकारों के निधन के बाद रामलीला का रंग फीका पड़ने लगा. बद्रेश्वर एवं नंदादेवी की रामलीला कुमाऊँ में हमेशा लोकप्रिय रही. इस रामलीला के कलाकारों की लोकप्रियता शहर तक ही सीमित नहीं रही. 1880 में जब नैनीताल में रामलीला का पहले मंचन हुआ तो उसमें भाग लेने के लिए चुनींदा कलाकार अल्मोड़ा से ही बुलाये गए.
कुमाऊँ के कलाकारों की अभिनय कुशलता को देखते हुए ही देवीदत्त जोशी के प्रयत्नों से रामलीला का प्रसार कुर्मांचल की गाँव-गाँव तक हुआ. पाटिया गाँव में, सतराली के सात गाँवों में, छकाता (भीमताल) अल्मोड़ा नगर के तीन स्थानों में रामलीला बड़े उत्साह के साथ मनायी जाने लगी. पाटिया, सतराली और छकाता के गायकों को दूर-दूर तक बुलाया जाने लगा.
1907 में रामदत्त जोशी ने ‘कुमाऊँनी रामलीला’ का प्रथम संस्करण प्रकाशित कराया. इससे पहले रामलीला का आयोजन हस्तलिखित पुस्तकों के आधार पर होता था. 1927 में गांगी साह द्वारा भी ‘श्री रामलीला नाटक’ लिखा गया. 1972 में नंदन जोशी ने ‘संस्कृतिक कुमाऊँ का श्री रामलीला नाटक’ प्रकाशित कराया. कुमाऊँनी नाटक को आधार बनाकर भवानी दत्त जोशी, बाबा खेमानाथ, योगराज ने 1933 में रामलीला नाटक प्रकाशित करवाया. इन तीनों लेखकों ने पात्रों के संवाद पर विशेष ध्यान दिया.
उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में ही कुमाऊँनी रामलीला ने इलाहाबाद, लखनऊ तक में अपना स्थान बना लिया. प्रयाग के गुजराती मोहल्ले में महामना मालवीय की पहल पर कुमाऊँनी रामलीला का मंचन हुआ. 9 दिनों तक खेली गयी इस रामलीला लकी कई सैलून तक चर्चा रही. गोविन्द बल्लभ पन्त के सहयोग से लखनऊ के मुरली नगर में रामलीला का आयोजन प्रारंभ हुआ.
1986, 1991, 1993, व 1994 में ‘मध्य प्रदेश आदिवासी लोक कला परिषद, भोपाल’ द्वारा श्री लक्ष्मी भण्डार (हुक्का क्लब) अल्मोड़ा को मध्य प्रदेश में कुमाऊँनी रामलीला के मंचन के लिए आमंत्रित किया गया. चालीस कलाकारों के दल ने मध्यप्रदेश में कुमाऊँनी रामलीला का मंचन किया. गायन पद्धति पर आधारित रामलीला का मंचन देखना प्रदेशवासियों के लिए नया अनुभव था. इस बेजोड़ शास्त्रीय संगीत से सजी रामलीला के कई गीतों की रिकार्डिंग करवाकर सुरक्षित रख ली गयी.
श्री लक्ष्मी भण्डार ने 1978 से रामलीला का मंचन शुरू किया, तब से नवरात्र के मौके पर खजांची मोहल्ला में निरंतर रामलीला का मंचन किया जा रहा है. लक्ष्मी भण्डार द्वारा यहाँ की रामलीला कि मौलिकता को बनाए रखने का सफल प्रयास किया है. कुमाऊँ की रामलीला में प्रोम्पटिंग की परंपरा को समाप्त करने को भी ख़त्म किया गया है. अब यहाँ रामलीला में सभी पात्र गीतों और संवादों को कंठस्थ कर अभिनय करते हैं. लक्षी भंडार ने यहाँ की रामलीला में मानस के सुतीक्षण भक्ति, कबंध, उद्धार, मायावी वध आदि कुछ ऐसे प्रसंगों का भी मंचन शुरू किया है जिसका उल्लेख पुरानी रामलीला में नहीं था.
समय बदला, सभ्यता बदली किन्तु अल्मोड़ा की रामलीला नहीं बदली. ग्यारह दिन तक आयोजित होने वाली इस रामलीला का अपने अतीत से बहुत मोह है. कई कलाकारों, संगीतज्ञों ने इस धरोहर को सहेजने में अपना योगदान दिया है.
(श्री लक्ष्मी भंडार अल्मोड़ा द्वारा प्रकाशित ‘पुरवासी’ के अंक-15 से साभार डॉ. ललित मोहन जोशी के आलेख के आधार पर)
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