समाज

यूनेस्को की विश्व सांस्कृतिक संपदा सूची में शामिल कुमाऊनी रामलीला का इतिहास

कुमाऊं अंचल में रामलीला के मंचन की परंपरा का इतिहास लगभग 160 वर्षों से भी अधिक पुराना है. यहाँ की रामलीला मुख्यतः रामचरित मानस पर आधारित है जिसे गीत एवं नाट्य शैली में प्रस्तुत किया जाता है. कई ग्रामीण अंचलों में रामलीला का मंचन खेतों में फसल कट जाने के बाद भी किया जाता है, जिससे रामलीला आयोजन के लिये आसानी से बड़ा स्थान उपलब्ध हो जाता है और साथ ही ग्रामीण भी खेती के काम से निपट चुके होते हैं तो उनके पास काफी समय बच जाता है जिसका उपयोग वह रामलीला मंचन की तैयारियों में करते हैं.    
(History of Kumaoni Ramlila)       

कुमाउंनी रामलीला देवीदत्त जोशी द्वारा लिखी गयी है जो कि रामचरितमानस पर ही आधारित है. इस रामलीला में संस्कृत रंगमंच और पारसी रंगमंच के साथ नौटंकी, नाच, जात्रा, रासलीला जैसी लोक-विधाओं का भी अंश मिलता है. कुमाउंनी रामलीला को दुनिया का सबसे लंबे ऑपेरा अर्थात नृत्य-नाटिका होने का दर्जा हासिल है जिस कारण इसे यूनेस्को ने विश्व सांस्कृतिक संपदा की सूची में स्थान दिया है.     

यह रामलीला कब से शुरू हुई इसकी ठीक-ठीक कोई जानकारी नहीं है पर माना जाता है कि इस रामलीला को सन् 1830 में लिखा गया और सन् 1830 में ही उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद शहर में पहली बार इस रामलीला का मंचन भी किया गया. इसके पश्चात सन् 1860 में अल्मोड़ा के बद्रेश्वर मंदिर में श्री बद्रीदत्त जोशी द्वारा इसे पहली बार कुमाऊँ में मंचित किया गया.      

अल्मोड़ा में मंचन शुरू होने के लगभग 20 वर्ष बाद सन् 1880 में नैनीताल के बीर भट्टी क्षेत्र में इस रामलीला की शुरूआत की गयी. यहाँ इस रामलीला को शुरू करने का श्रेय स्व. मोती राम साह को जाता है.

कुछ वर्षों तक रामलीला बीरभटटी में ही हुई पर क्योंकि यह नैनीताल शहर का बाहरी इलाका था इसलिये दर्शकों के लिये बीरभट्टी जाना संभव नहीं हो पाता था इसलिये सन् 1912 में पहली बार मल्लीताल में रामलीला का मंचन करने की पहल की गयी. श्री कृष्ण लाल साह ने अल्मोड़ा के कलाकारों को नैनीताल में बुलाया और उनके द्वारा रामलीला का मंचन करवाया गया. सन् 1918 से नैनीताल के कलाकारों ने ही रामलीला का मंचन करना शुरू किया.          
(History of Kumaoni Ramlila)

शुरूआती दौर में रामलीला मल्लीताल के खुले मैदान में की जाती थी. इस जगह को आलू पड़ाव कहा जाता था. परन्तु सन् 1929 में चेतराम साह ठुलघरिया ने गर्वनर मैलकम हैली से कह के रामलीला स्टेज की स्थापना करवाई और उसके बाद से रामलीला का मंचन रामलीला स्टेज में होने लगा.             

नैनीताल के तल्लीताल क्षेत्र में पहली बार रामलीला का मंचन राय बहादुर हरीदत्त जोशी के प्रयासों से सन् 1923 में किया गया. पं. गोविन्द बल्लभ पन्त भी तल्लीताल रामलीला कमेटी के कुछ वर्षों तक अध्यक्ष रहे. तल्लीताल कैंट में भी लगभग 22 वर्षों तक रामलीला का आयोजन हुआ जिसके पश्चात कैंट की यह रामलीला बंद हो गयी.         

नैनीताल की रामलीला में भी पारसी थियेटर का प्रभाव देखा जा सकता है. पारसी थियेटर से ही प्रभावित होकर ही नैनीताल के कलाकारों ने नैनीताल में रामलीला का मंचन शुरू किया. शुरू-शुरू में होली गायकों ने इस रामलीला में गायन का जिम्मा सम्भाला जिस कारण रामलीला में संगीत का प्रभाव आने लगा और फिर इसे संगीतमय बनाया जाने लगा.       

नैनीताल की रामलीला के बारे में एक रोचक बात और कही जाती है कि अपने अल्मोड़ा प्रवास के दौरान जब पं. उदय शंकर ने नैनीताल की रामलीला देखी तो वो इससे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इस पर एक नृत्य नाटिका भी बनायी जिसका उन्होंने नैनीताल में भी मंचन किया.         
(History of Kumaoni Ramlila)

नैनीताल की रामलीला को अब लगभग सौ वर्ष से ज्यादा का समय हो चुका है और आज भी यहाँ की रामलीला पारंपरिक तरीके से ही की जाती है हालाँकि थोड़ा-बहुत समय के साथ-साथ इसमें परिवर्तन भी किये गये हैं.

नैनीताल की रामलीला में राम जैसे प्रमुख पुरुष पात्र को बालिका द्वारा किया जाना परंपरा से हट कर किया गया एक सराहनीय प्रयास है. नैनीताल से कुछ ही दूरी में स्थित सूखाताल की रामलीला में भी इस प्रयोग को अपनाया गया और मुख्य पुरुष पात्रों का किरदार बालिकाओं ने निभाया जिसकी पूरे शहर में काफी सराहना की गयी.         

नैनीताल की रामलीला में धार्मिक सौहार्द भी खूब देखने को मिलता है. मुस्लिम समाज के कई लोग रामलीला में या तो कोई न कोई किरदार निभा रहे होते हैं या फिर रामलीला मंचन से जुड़ी अन्य महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों को निभाते हुए दिखते हैं.         

कुमाउंनी रामलीला के रचियता देवीदत्त जोशी ब्रिटिश शासन के दौरान डिप्टी कलेक्टर थे. इस दौरान उनकी नियुक्ति कई स्थानों पर हुईं जिस कारण उन्हें उत्तरी भारत की अनेक नाट्य-विधाओं को जानने और समझने का अवसर मिला जिसका उपयोग उन्होंने अपनी रामलीला को रचने के लिये किया. भारतीय शास्त्रीय संगीत का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था इसलिये उनकी रामलीला का शास्त्रीय पक्ष इतना मजबूत है.

उनके द्वारा रचित इस रामलीला नाटक को जल्दी ही कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्र में प्रसिद्धी मिल गयी. यहाँ तक की जो लोग बाहर के क्षेत्रों में भी गये तो उन्होंने वहाँ भी इस रामलीला काा मंचन शुरू कर दिया जिससे इस रामलीला की ख्याती कुमाऊँ से बाहर के इलाकों में भी फैल गयी.

रामचरितमानस का छंदबद्ध वाचन तो तुलसीदास जी के समय से ही हो रहा है परंतु कुमाउंनी रामलीला में गायन और अभिनय एक साथ होने के कारण यह रामलीला लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने लगी. कुमाउंनी रामलीला में का ध्यान देने योग्य बात यह है कि इसमें गायन की तर्ज को रामलीला के पात्रों के अनुसार विभाजित किया गया है. चैपाईयों और दोहों को विशिष्ट तरीके से गाया जाता है.
(History of Kumaoni Ramlila)

कुमाउंनी रामलीला के संगीत में महारथ रखने वाले स्व. मोहन उप्रेती के अनुसार, राक्षसी तर्ज राग कल्याणी पर आधारित हैं जिन्हें एक तेज लय में गाया जाता है जो वातावरण में एक आक्रामकता का भाव पैदा कर देती हैं जबकि गैर-राक्षसी तर्ज राग खमाच पर आधारित हैं जिसमें लय बहुत धीमी होती है जो शांति और करुणा जैसे भाव पैदा करती है.

संगीत का यह विभाजन पूरी तरह से देवीदत्त जोशी द्वारा किया गया है. इस रामलीला की खासियत यह भी है कि इसमें अभिनय से ज्यादा गायन को तरजीह दी जाती है. इसलिये अभिनय करते समय रागों के गायन पर विशेष ध्यान दिया जाता है.      

शुरूआती दौर में रामलीला में स्त्री पात्र भी पुरुष ही करते थे और सभी कलाकारों की आयु बारह से तेरह वर्ष के मध्य हुआ करती थी पर अब ऐसा नहीं है. इस रामलीला की एक मुख्य बात यह भी है कि इस रामलीला में हिस्सा लेने वाले पात्र किसी भी नाटक मंडली से जुड़े नहीं होते हैं.

रामलीला मंचन के लगभग दो महीने पहले से ही उन्हें रामलीला की तालीम देनी शुरू की जाती है. रामलीला के मध्य में जब दृश्य बदलते हुए समय मिलता है तो विदूषक उस समय का इस्तेमाल अपना अभिनय दिखाने और दर्शकों को बांधे रखने के लिये करते हैं. कुमाउंनी रामलीला के मंचन में इन विदूषकों की भी अहम हिस्सेदारी होती है.
(History of Kumaoni Ramlila)

विनीता यशस्वी

विनीता यशस्वी नैनीताल में रहती हैं. यात्रा और फोटोग्राफी की शौकीन विनीता यशस्वी पिछले एक दशक से नैनीताल समाचार से जुड़ी हैं.

इसे भी पढ़ें: कुमाऊं की रामलीला पर ‘गिर्दा’ का एक महत्वपूर्ण लेख

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Girish Lohani

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