गगास के तट पर : जगदीश चन्द्र पांडे (1968)
(इतने विशाल हिंदी समाज में सिर्फ डेढ़ यार : सोलहवीं क़िस्त)
हिंदी समाज की विडंबना है कि पाठक साहित्यिक जानकारी को लेकर इतना लापरवाह है कि वह न तो अपने परिवेश को लेकर जिज्ञासु है और न समग्र हिंदी लेखन के बारे में. कुछ भी लिखे हुए को साहित्य मानने वाला हमारा हिंदी समाज अख़बार,पत्रिका या वैचारिक शोध-पत्र को एक ही थैले का चट्टा-बट्टा मानते हुए उसे पवित्र कथन की तरह पढ़ ले जाता है और फिर भूल जाता है.
यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि हिंदी और भारतीय साहित्य के मूर्धन्य विद्वानों – सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, जैनेन्द्र कुमार और नामवर सिंह ने हिंदी के जिस उपन्यास ‘गगास के तट पर’ को समाजार्थिक एवं सांस्कृतिक स्तर पर एक क्रन्तिकारी पहल के रूप में चिह्नित किया था, हिंदी के तथाकथित इतिहासों में उसका कोई जिक्र तक नहीं मिलता. इसे हम हिंदी के पाठक वर्ग की दरिद्रता कहें या चर्चाकारों की मूढ़ता, मगर यह वास्तविकता है कि हिंदी का साहित्यिक परिदृश्य बेहद दयनीय हालत में आंखिरी सांसें गिन रहा है.
कब चेतेंगे इस विशाल हिंदी समाज के ये फकत डेढ़ यार!
“होरी गोदान की इच्छा लिए ही प्राण छोड़ देता है, धनुवा हताशा की अंधी रात में अपने आम के पेड़ पर कुल्हाड़ी चला बैठता है.” – अज्ञेय
“इस कृति से स्पष्ट है कि संघर्ष के दौरान बेजान इन्सान में भी जान आ जाती है और धनुवा जैसा मरियल किसान भी एक जिन्दा इन्सान की तरह तनकर खड़ा हो जाता है.” -नामवर सिंह
“गगास के तट पर’ पर्वतीय अंचल के अमुक गाँव की ही कहानी नहीं रह गई है, वरन मानो ग्राम-दशा की वह प्रतिनिधि गाथा बन आई है.कारण, वह प्रकृत मनुष्य को उकेर पाई है.” -जैनेन्द्र कुमार
उपन्यास पर प्रख्यात विचारक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, जैनेन्द्र कुमार और प्रो. नामवर सिंह की समीक्षा.
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्त्यायन ‘अज्ञेय’
‘गगास के तट पर’ आंचलिक जीवन की एक मार्मिक व्यथा-कथा है. आंचलिक साहित्य इधर काफी लिखा गया है और उपन्यास नहीं तो कहानी के क्षेत्र में उसकी एक शहरी प्रतिक्रिया भी हुई है. फिर भी यह सत्य है – दुहराया जाने लायक सत्य है – आंचलिक भारत का बहुत बड़ा प्रदेश अभी साहित्य का अपरिचित है और उससे परिचय साहित्य की गहराई और उसके विस्तार को बढ़ाएगा. स्पष्ट ही यहाँ अभिप्राय लिखित, मुद्रित, ‘नागर’ साहित्य से है; लोक साहित्य तो आंचलिक जीवन का साहित्य होता ही है, पर वह तो मौखिक परंपरा में ही सुरक्षित रहता है.
अंचलों में पर्याप्त वैचित्र्य है; और वह उनके साहित्य में प्रतिबिंबित होता है; दूसरी ओर भारतीय ग्राम जीवन में एक सहज एकरूपता भी है जिसे हम चाहें तो सांस्कृतिक एकता की आधारभित्ति मान सकते हैं: चाहें तो केवल एक कम विकसित मानवीय स्तर के जीवन की एकरूपता – ऐसे जीवन की जो बुनियादी आवश्यकताओं, सम्बन्धों और प्रवृत्तियों के घेरे में ही फलता-फूलता है. दोनों ही बातें अपने-अपने ढंग से सही होंगी: पर शहरों का जीवन दोनों ही पहलुओं से इतना अधिक कटा नहीं है कि परस्पर संवेदन के तंतु भी टूट गए हों, और जहाँ कटा है वहाँ उसे उनसे फिर जोड़ना उसके हित में ही होगा. जैसे प्रकृति से या ऋतुचक्र से सम्बन्ध बिलकुल टूट जाने से शहरी का जीवन विपन्न ही होता है: आंचलिक जीवन में प्रकृति के निकट सान्निध्य का स्पंदन वह अनुभव कर सके तो वह नई स्निग्धता का ही अनुभव करेगा.
श्री जगदीश चन्द्र पाण्डेय ने ‘गगास के तट पर’ में पर्वतीय क्षेत्र के जीवन का एक खंडचित्र प्रस्तुत किया है. खंडचित्र इसलिए कि भरे-पूरे उपन्यास लायक विस्तृत वस्तु-क्षेत्र उन्होंने नहीं अपनाया : सहज एकाग्रता से देखा हुआ एक ही दृश्य उन्होंने प्रस्तुत करना चाहा है. इसी में उसकी सफलता भी है. यह देश का ही दुर्भाग्य है कि हमारे प्रायः सभी आंचलिक समाज निर्धन और दीन हैं और इसलिए उनके चित्र अनिवार्यतया उत्पीड़न, द्वेष और प्रतिहिंसा के चित्र प्रस्तुत हो जाते हैं; जीर्ण जाति-संगठन का अत्याचार आर्थिक शोषण को और भी उग्र बना देता है. ‘गगास के तट पर’ भी ऐसे ही उत्पीड़ित समाज का और ऐसे ही शोषण का एक चित्र है. पर साथ ही वह नई जागृति और अन्याय के विरोध की भावना का ही चित्रण करता है; दलित वर्ग में एक नए आत्म-गौरव के नए भाव के उदय को महत्व देता है. चित्र में अभी तक यह भाव एक राग-स्थिति ही व्यक्त करता है : किसी सुनियोजित प्रणाली या प्रेरणा का संकेत वह नहीं देता – पर ऐसा इसलिए कि जिस देश-काल की वह कहानी है, उसकी सच्चाई यही है, या थी. महात्मा गाँधी के विचारों के खमीर से उत्पन्न पहली हलचल के युग की इस कहानी में एक ओर हरिजन खेतिहर मजदूरों में आत्म-सम्मान और सहयोग का भाव उभरता है तो दूसरी ओर जमींदार-साहूकार भी नए बंदोबस्त के लिए अमीन को पटाने और ‘डुमडे’ कामगारों को कुचलने की साजिशें करते दिखाए जाते हैं. जिन्होंने हिंदी का आंचलिक उपन्यास साहित्य पढ़ा है, वे इस या इसकी समान्तर स्थितियों से खूब परिचित होंगे, और गाँव के भोले लगाव-दुराव के नक़्शे भी उन्हें अनपहचाने न लगेंगे. ‘गगास के तट पर’ के धनुवा, पनुली, पनुली की इजा या सौकार त्याडज्यू उन्हें जब-तब ‘गोदान’ के होरी, सोना, धनिया या झिंगुरी की भी याद दिला सकते हैं. प्रेमचंद के इन पात्रों का उल्लेख, न उपन्यास की वस्तु की तुलना के विचार से किया जा रहा है, न लेखकों की प्रतिभा की तुलना के; उसका आशय यही बताना है कि ‘गगास के तट पर’ छोटे पैमाने पर अपने क्षेत्र का एक खरा चित्र प्रस्तुत करता है. यों देहाती जीवन की कुंठा और पराजय उन्हें कारुण्य की एक समान भूमि पर लाती है ; होरी गोदान की इच्छा लिए ही प्राण छोड़ देता है, धनुवा हताशा की अंधी रात में अपने आम के पेड़ पर कुल्हाड़ी चला बैठता है.
भूमिका लिखने का काम एक क्लेशप्रद काम है. श्री जगदीश चन्द्र पाण्डेय ने मुझे इस संकट में डालकर एक अच्छी चीज पढ़ने का अवसर दे दिया, यह उनकी कृपा है. वह कृपा ही याद रखूँगा – क्लेश तो कट गया और यों भी याद रखने की चीज वह थोड़े ही है!
जैनेन्द्र कुमार
“गगास के तट पर’ पर्वतीय अंचल के अमुक गाँव की ही कहानी नहीं रह गई है, वरन मानो ग्राम-दशा की वह प्रतिनिधि गाथा बन आई है. कारण, वह प्रकृत मनुष्य को उकेर पाई है. आतंरिक अनुभूति में से उसे लिखा गया है और लेखक जगदीश चन्द्र पांडे से उससे भी मार्मिक रचनाओं की आशा की जा सकती है.
डॉ. नामवर सिंह
‘गगास के तट पर’ कुमाऊँ अंचल के एक गाँव के खेतिहर मजदूरों के संघर्ष की कथा है. इस लघु कथाकृति में लेखक ने दिखलाया है कि ‘कुमाऊँ भूमि सुधार’ तो बना पर फायदा उठाया थोकदारों ने, सरकारी अमलों ने उन्हीं का साथ दिया और मंत्रियों तक गरीब किसानों के दुःख-दर्द की आवाज पहुँचने भी न पाई. लेखक ने अपनी सहानुभूति खेतिहर मजदूरों को दी है, किन्तु इससे भी आगे बढ़कर उन्होंने यह भी दिखलाया है कि वे अपने अधिकारों के लिए संगठित होने लगे हैं. इस कृति से स्पष्ट है कि संघर्ष के दौरान बेजान इन्सान में भी जान आ जाती है और धनुवा जैसा मरियल किसान भी एक जिन्दा इन्सान की तरह तनकर खड़ा हो जाता है.
‘गगास के तट पर’ में छोटे पैमाने पर आंचलिक जीवन की वह सारी सामग्री मौजूद है जिससे एक मार्मिक कथाकृति की रचना संभव होती है. रचना में निहित निष्ठा देखकर निस्संकोच कहा जा सकता है कि श्री जगदीश चन्द्र पाण्डेय एक निष्ठावान होनहार कथाकार हैं.
लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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