हिमालय की मेरी पहली यात्रा – 3
(पिछली कड़ियां :
हिमालय की मेरी पहली यात्रा – 1 बागेश्वर से लीती और लीती से घुघुतीघोल
हिमालय की मेरी पहली यात्रा – 2 गोगिना से आगे रामगंगा नदी को रस्सी से पार करना और थाला बुग्याल)
चफुवा की तीखी चढ़ाई में दो रुकसैकों के भार से मिथुन, ब्रूस ली समेत सभी आत्माएं एक—एक करके चुपचाप खिसक गईं तो मुझे अपने होने का एहसास हुआ. ठंडी हवा में मैं पसीने से तरबतर हो रहा था. धम्म से बैठा तो मेरी नाजुक हालत देख बुजुर्ग भगतदा ने जानकी का रुकसैक मुझसे हंसते हुए ले लिया. मैं खिसियाते हुए चुपचाप ही रहा. ऐसा लगा मिथुन, ब्रूस ली की आत्माएं मेरा साथ छोड़ भगतदा में समा गई हैं. (Himalayan Trekking Keshav Bhatt)
खड़ी चढ़ाई के बाद मखमली घास का बुग्याल अब तिरछी चढ़ाई लिए हुए दिखा तो साँसें वापस लौटीं. रास्ते में आगे एक जगह पानी का स्रोत मिला. पोर्टरों के पानी के दो जरकिन भरने के बाद हम सभी ने भी अपनी बोतलें भर ली. आगे चफुवा में पानी नहीं था. पानी के लिए यहीं एक किलोमीटर का रास्ता नापकर आना था. चफुवा में एक समतल जगह में तंबू गाड़ दिए गए. आज मैं तंबू के किनारे नाली बनाने से दूर ही रहा.
चफुवा करीबन दस—बारह हजार फीट की उंचाई पर था. हजारों की तादाद में यहां भेड़—बकरियों के साथ चारक अन्वालों का भी डेरा यहीं था. उंचाई की वजह से कइयों को बैचेनी होने लगी थी. जानकी और चंपा की तबियत बिगड़ने लगी तो भगतदा ने खुसर—पुसर कर हमारे लीडर को बताया कि, ‘अकसर इन उंचाई वाली जगहों पर परियां रहती हैं … हांलाकि वो नुकसान नहीं करती हैं लेकिन कभी—कभार वो न जाने क्यों बिगड़ जाती हैं … यहां एक अन्वाल पुजारी भी है मैं उसके पास हो आता हूं.’ यह कह भगतदा भागकर एक पुजारी अनवाल से राख मंत्रा लाए और उन दोनों को लगाया. कुछेक देर बाद बीमारों ने बताया कि वो अब ठीक महसूस कर रहे हैं.
दाल—चावल बना. खाना स्वादिष्ट था, न जाने कैसे कम पड़ गया. भूख अभी भी बदस्तूर जारी थी. मेरा मन सांथी पोर्टरों के वहां जाने को मचल रहा था कि कुछ मिल जाता वहां खाने को. वो अपना भोजन अलग बनाते थे. लेकिन पाबंदियों की बेड़ियां थी तो चुपचाप स्लीपिंग बैग में समा गया.
चफुवा की वो सुबह मैं कभी भूल नहीं सकता हूं. सामने पंचाचूली की ललाट पर लालिमा बिखेरती सूर्य की किरणें देख मैं मंत्रमुग्ध सा हो उठा. काफी देर तक मैं चुपचाप सा इस अद्भुत नजारे के दीदार करते रहा. अचानक राजदा की आवाज से मेरी त्रंदा टूटी … ‘भट्टजी… नाश्ते की जिम्मेदारी आपकी है आज…’
क्या बनाना है पूछने पर मुझे नूडल्स पकड़ा दिए गए. मुझे सिर्फ इतना ही पता था कि इनसे चाउमीन जैसा कुछ बनता है और खाया भी था एकआध बार. मैगी बनाके खूब खाया था लेकिन ये लंबी टाइप की मैगी जिसे नूडल्स कहा जा रहा था मेरी समझ से परे था कि इसे बनाना कैसे है. लीडर का हुक्म था तो स्टोव जला उसमें आधा ढेग पानी गर्म करने को रख दिया. पानी गर्म हो गया था, मुझे समझ नहीं आ रहा था कि अब करना क्या है. कुछ समझ में नहीं आया तो नूडल्स का पूरा पैकेट खौलते पानी में डाल उसमें नमक समेत सारे मसाले झौंक दिए. करछी से हिलाते रहा और ढेग में वो कुछ देर में हलवे जैसा लुगदी बन गया. स्टोव बंद कर मैं किनारे खिसक गया. नूडल्स की हालत देख सभी को समझ में आने लगा कि ये एक ऐसी गड़बड़ हो चुकी है जिसे सुधारा नहीं जा सकता है. माउंटेन में हैं ऊपर से राशन भी बचाना है, इस गणित पर भूख ने नूडल्स की कल्पना को नमकीन हलवे में तब्दील कर दिया तो सभी टूट पड़े नाश्ता उर्फ खाने पर. चाय के साथ नूडल्स का हलवा खाने में मैंने महसूस किया कि मैंने न जाने ये कौन सी रेसिपी ईजाद कर दी है जो कि भविष्य में कभी दोबारा तो ईजाद होगी ही नहीं. असंभव… (Himalayan Trekking Keshav Bhatt)
रात में राख की भभूत से एक तो ठीक हो गई लेकिन जानकी अपने को स्वस्थ महसूस नहीं कर पा रही थी. लीडर राजदा और सब लीडर विजय वर्मा उर्फ विजयदा में आपसी बातचीत के बाद ये निर्णय लिया गया कि आगे अभी और उंचाई में जाना है और जानकी को परेशानी हो सकती है, तो जानकी के साथ विजयदा यहां से वापस जाएंगे. दसेक बजे उन दोनों को हम सभी ने दु:खी मन से विदा किया. हांलाकि बाद में पता चला कि जानकी थाला पहुंचने तक ठीक हो गई थी. दरअसल उसने गोगिना में ठंडे पानी से अपना सिर धोने की गलती कर दी थी और वो ठंड ही उसे लग चुकी थी … परियां नहीं.
इस अभियान में हमारे साथ एक पुरानी अंग्रजों के जमाने वाली दो नाली बंदूक भी साथ चल रही थी. चफुवा में शिकार काफी है, बस उसे ढूंढने की जरूरत होती है… की तर्ज पर भगतदा के साथ हमारे दो जाबांज सांथी हीरा और राजदा उन्हें ढूंढने नीचे भोजपत्र के घने जंगल की ओर निकल पड़े. नीचे की ओर घने कोहरे के बादलों से छुपी हुई घाटी बड़ी ही रहस्यमयी लग रही थी.
पानी कम था तो पानी के बर्तन साथ ले नीचे पानी के स्रोत से पानी लाए. इसमें घंटा भर लग गया. चफुवा के सामने ऊपर की पहाड़ी हमें अपनी ओर खींचती सी महसूस हो रही थी तो उमा शंकर और मैं, दोनों जन ऊपर को चल पड़े. आधे घंटे में हम टॉप में थे. सामने पंचाचूली के विस्तार को बस देखते रहे. नीचे की ओर किलोमीटरों तक फैली भयानक और डरावनी घाटी के बाद धांगे की तरह पतली सी गोरी नदी देख सिहरन सी हो रही थी. कुछेक देर बुग्याली घास में आराम कर वापस लौट आए. नीचे घाटी से शिकारी टीम भी आते दिख रही थी.
ध्यान से देखा तो शिकारियों के चेहरों में हताशा सी थी, जिसे वो प्रकट नहीं कर पा रहे थे. “… एक गोली तो लगी है उसे … दूसरी ने धोखा दे दिया… देखा कैसे ढलान में उसने दौड़ लगा दी थी. घायल तो हुआ ही है वो… अब हम भी कहां तक दौड़ लगाते… उसका तो ये घर हुआ. चलो छोड़ो. नहीं होगा किस्मत में!”
चावल बन चुका था. उन्हें खाली हाथ देख कुकर में दाल पकानी शुरू कर दी. भात के साथ तरी वाली दाल को ‘शिकार’ मान सभी ने चाव के साथ खाया. आज चफुवा में रूकना था, आगे का रास्ता लंबा था और बीच रस्ते में कहीं पड़ाव था नहीं. बुग्याली घास में पसरने का मजा क्या होता है पहली बार महसूस हुआ. चफुवा बुग्याल के नीचे ढलान में हजारों भेड़—बकरियां चरते हुए आपस में बतियाती लग रही रही थीं. शाम को खाना बनाने के साथ ही फिल्मी गानों पर अंताक्षरी शुरू हो गई. पुराने गानों की दो—चार लाईनों को गाने में मजा ही कुछ अलग आ रहा था. उस जमाने में पुराने गाने ही अंताक्षरी की जान हुआ करते थे. नए गानों से दूर ही रहा जाता था. अंताक्षरी में सबसे बड़ी मुसीबत ‘ल’ में अटकना हो जाता था. ‘ल’ के कई सारे गानों में हम बमुश्किल बाहर निकले थे कि फिर ‘ल’ से शुरूआत करने की बात आ गई. मैं अपने को पुराने गानों में तीसमारखां समझता था, लेकिन अब मेरी भी जान सांसत में आ चुकी थी. अचानक राजदा ने ‘ल’ से गाना गाया – ‘लाली हो सबेरे वाली गगन रंग दे तू मेरे मन का’ जो हम सबको कविता जैसी लगी. हंगामा बरपना ही था. कोई भी इसे गाना मानने के लिए तैयार नहीं था. टैंट में भूचाल जैसा आ गया. इस निर्जन हिमालयी जगह में पुराने गानों में मुझे ही माहिर मान पूछा गया कि ये गाना है या नहीं. राजदा अपनी जिद में दिख रहे थे. राजदा की टीम से मैं भी था. हारना—जीतना अलग बात थी. वैसे मेरा झुकाव अपनी टीम के साथ ही था. राजदा सच बोलते हैं की बात पर मैंने अपना फैसला सुना दिया कि ये गाना सही है.
कई सालों बाद मुझे पता लगा कि 1977 में बनी मूवी ‘अभी तो जीं लें’ में इस मूवी में इस गाने के बोल, ‘तू लाली हो सबेरे वाली….’ से शुरू होते हैं. राजदा ने उस वक्त ‘तू’ को बड़ी चालाकी से किनारे कर दिया गया था.
रात में बाहर निकला तो आसमान में तारामंडल अपनी—अपनी दुकानें सजाए जैसे महसूस हुए. दूर जहां तक नजर गई बहुत शांत और खुबसूरत लगा.
सुबह तंबू के साथ ही सामान पैक हो गया. आज आगे कहीं राली में पड़ाव डालना था. हल्की चढ़ाई के बाद रास्ता तिरछा—तिरछा सा था. आगे एक जगह चपटी स्लेटों के पत्थरों का समुद्र सामने दिखा. पहाड़ में बनने वाले मकानों की छतों में लगने वाली स्लेटनुमा इन हजारों पत्थरों के खजाने को देख हम सभी कुछ पल के लिए ठिठक से गए.
यह स्लेटों का समुद्र सा लगा जिसे पार करने में घंटा भर लग ही गया. इन पत्थरों को देख गांव में बने मकानों की याद आनी स्वभाविक ही थी. हम बतियाते हुए कल्पना कर रहे थे कि काश पत्थरों का ये खजाना गांव के पास ही होता तो कितने गरीबों को ढंग की छत मिल जाती. माहौल को हल्का करने वास्ते राजदा ने सुझाव दिया कि क्लब की तरफ से एक हैलीकाप्टर ले लेते हैं फिर उससे ये सारे पत्थर नीचे ले आएंगे. हम सब बड़ी जोरों से काफी देर तक हंसते रहे.
(जारी)
बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं. केशव काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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